१०० मातलिवरान्वेषणे

भागसूचना

शततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

हिरण्यपुरका दिग्दर्शन और वर्णन

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यपुरमित्येतत् ख्यातं पुरवरं महत्।
दैत्यानां दानवानां च मायाशतविचारिणाम् ॥ १ ॥

मूलम्

हिरण्यपुरमित्येतत् ख्यातं पुरवरं महत्।
दैत्यानां दानवानां च मायाशतविचारिणाम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— मातले! यह हिरण्यपुर नामक श्रेष्ठ एवं विशाल नगर है जहाँ सैकड़ों मायाओंके साथ विचरनेवाले दैत्यों और दानवोंका निवासस्थान है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनल्पेन प्रयत्नेन निर्मितं विश्वकर्मणा।
मयेन मनसा सृष्टं पातालतलमाश्रितम् ॥ २ ॥

मूलम्

अनल्पेन प्रयत्नेन निर्मितं विश्वकर्मणा।
मयेन मनसा सृष्टं पातालतलमाश्रितम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

असुरोंके विश्वकर्मा मयने अपने मानसिक संकल्पके अनुसार महान् प्रयत्न करके पाताललोकके भीतर इस नगरका निर्माण किया है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र मायासहस्राणि विकुर्वाणा महौजसः।
दानवा निवसन्ति स्म शूरा दत्तवराः पुरा ॥ ३ ॥

मूलम्

अत्र मायासहस्राणि विकुर्वाणा महौजसः।
दानवा निवसन्ति स्म शूरा दत्तवराः पुरा ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ सहस्रों मायाओंका प्रयोग करनेवाले और महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न वे शूरवीर दानव निवास करते हैं, जिन्हें पूर्वकालमें अवध्य होनेका वरदान प्राप्त हो चुका है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैते शक्रेण नान्येन यमेन वरुणेन वा।
शक्यन्ते वशमानेतुं तथैव धनदेन च ॥ ४ ॥

मूलम्

नैते शक्रेण नान्येन यमेन वरुणेन वा।
शक्यन्ते वशमानेतुं तथैव धनदेन च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर तथा और कोई देवता भी इन्हें वशमें नहीं कर सकता॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुराः कालखञ्जाश्च तथा विष्णुपदोद्भवाः।
नैर्ऋता यातुधानाश्च ब्रह्मपादोद्भवाश्च ये ॥ ५ ॥
दंष्ट्रिणो भीमवेगाश्च वातवेगपराक्रमाः ।
मायावीर्योपसम्पन्ना निवसन्त्यत्र मातले ॥ ६ ॥

मूलम्

असुराः कालखञ्जाश्च तथा विष्णुपदोद्भवाः।
नैर्ऋता यातुधानाश्च ब्रह्मपादोद्भवाश्च ये ॥ ५ ॥
दंष्ट्रिणो भीमवेगाश्च वातवेगपराक्रमाः ।
मायावीर्योपसम्पन्ना निवसन्त्यत्र मातले ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातले! भगवान् विष्णुके चरणोंसे उत्पन्न हुए कालखंज नामक असुर तथा ब्रह्माजीके पैरोंसे प्रकट हुए बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले, भयंकर वेगसे युक्त, प्रगतिशील पवनके समान पराक्रमी एवं मायाबलसे सम्पन्न नैर्ऋत और यातुधान इस नगरमें निवास करते हैं॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवातकवचा नाम दानवा युद्धदुर्मदाः।
जानासि च यथा शक्रो नैतान् शक्नोति बाधितुम् ॥ ७ ॥

मूलम्

निवातकवचा नाम दानवा युद्धदुर्मदाः।
जानासि च यथा शक्रो नैतान् शक्नोति बाधितुम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहीं निवातकवच नामक दानव निवास करते हैं, जो युद्धमें उन्मत्त होकर लड़ते हैं। तुम तो जानते ही हो कि इन्द्र भी इन्हें पराजित करनेमें समर्थ नहीं हो रहे हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुशो मातले त्वं च तव पुत्रश्च गोमुखः।
निर्भग्नो देवराजश्च सहपुत्रः शचीपतिः ॥ ८ ॥

मूलम्

बहुशो मातले त्वं च तव पुत्रश्च गोमुखः।
निर्भग्नो देवराजश्च सहपुत्रः शचीपतिः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातले! तुम, तुम्हारा पुत्र गोमुख तथा पुत्रसहित शचीपति देवराज इन्द्र अनेक बार इनके सामनेसे मैदान छोड़कर भाग चुके हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य वेश्मानि रौक्माणि मातले राजतानि च।
कर्मणा विधियुक्तेन युक्तान्युपगतानि च ॥ ९ ॥

मूलम्

पश्य वेश्मानि रौक्माणि मातले राजतानि च।
कर्मणा विधियुक्तेन युक्तान्युपगतानि च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातले! देखो, इनके ये सोने और चाँदीके भवन कितनी शोभा पा रहे हैं। इनका निर्माण शिल्पशास्त्रीय विधानके अनुसार हुआ है तथा ये सभी महल एक-दूसरेसे सटे हुए हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैदूर्यमणिचित्राणि प्रवालरुचिराणि च ।
अर्कस्फटिकशुभ्राणि वज्रसारोज्ज्वलानि च ॥ १० ॥

मूलम्

वैदूर्यमणिचित्राणि प्रवालरुचिराणि च ।
अर्कस्फटिकशुभ्राणि वज्रसारोज्ज्वलानि च ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन सबमें वैदूर्यमणि जड़ी हुई है, जिससे इनकी विचित्र शोभा हो रही है। स्थान-स्थानपर मूँगोंसे सुसज्जित होनेके कारण इनका सौन्दर्य अधिक बढ़ गया है। आकके फूल और स्फटिकमणिके समान ये उज्ज्वल दिखायी देते हैं तथा उत्तम हीरोंसे जटित होनेके कारण इनकी दीप्ति अधिक बढ़ गयी है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थिवानीव चाभान्ति पद्मरागमयानि च।
शैलानीव च दृश्यन्ते दारवाणीव चाप्युत ॥ ११ ॥

मूलम्

पार्थिवानीव चाभान्ति पद्मरागमयानि च।
शैलानीव च दृश्यन्ते दारवाणीव चाप्युत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमेंसे कुछ तो मिट्टीके बने हुए-से जान पड़ते हैं, कुछ पद्मरागमणिद्वारा निर्मित प्रतीत होते हैं, कुछ मकान पत्थरोंके और कुछ लकड़ियोंके बने हुए-से दिखायी देते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्यरूपाणि चाभान्ति दीप्ताग्निसदृशानि च।
मणिजालविचित्राणि प्रांशूनि निबिडानि च ॥ १२ ॥

मूलम्

सूर्यरूपाणि चाभान्ति दीप्ताग्निसदृशानि च।
मणिजालविचित्राणि प्रांशूनि निबिडानि च ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सूर्य तथा प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहे हैं। मणियोंकी झालरोंसे इनकी विचित्र छटा दृष्टिगोचर हो रही है। ये सभी भवन ऊँचे और घने हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतानि शक्यं निर्देष्टुं रूपतो द्रव्यतस्तथा।
गुणतश्चैव सिद्धानि प्रमाणगुणवन्ति च ॥ १३ ॥

मूलम्

नैतानि शक्यं निर्देष्टुं रूपतो द्रव्यतस्तथा।
गुणतश्चैव सिद्धानि प्रमाणगुणवन्ति च ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिरण्यपुरके ये भवन कितने सुन्दर हैं और किन-किन द्रव्योंसे बने हुए हैं, इसका निरूपण नहीं किया जा सकता। अपने उत्तम गुणोंके कारण इनकी बड़ी प्रसिद्धि है। लंबाई-चौड़ाई तथा सर्वगुणसम्पन्नताकी दृष्टिसे ये सभी प्रशंसाके योग्य हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आक्रीडान् पश्य दैत्यानां तथैव शयनान्युत।
रत्नवन्ति महार्हाणि भाजनान्यासनानि च ॥ १४ ॥

मूलम्

आक्रीडान् पश्य दैत्यानां तथैव शयनान्युत।
रत्नवन्ति महार्हाणि भाजनान्यासनानि च ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, दैत्योंके उद्यान एवं क्रीड़ास्थान कितने सुन्दर हैं! इनकी शय्याएँ भी इनके अनुरूप ही हैं। इनके उपयोगमें आनेवाले पात्र और आसन भी रत्नजटित एवं बहुमूल्य हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलदाभांस्तथा शैलांस्तोयप्रस्रवणानि च ।
कामपुष्पफलांश्चापि पादपान् कामचारिणः ॥ १५ ॥

मूलम्

जलदाभांस्तथा शैलांस्तोयप्रस्रवणानि च ।
कामपुष्पफलांश्चापि पादपान् कामचारिणः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँके पर्वत मेघोंकी घटाके समान जान पड़ते हैं। वहाँसे जलके झरने गिर रहे हैं। इन वृक्षोंकी ओर दृष्टिपात करो, ये सभी इच्छानुसार फल और फूल देनेवाले तथा कामचारी हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातले कश्चिदत्रापि रुचिरस्ते वरो भवेत्।
अथवान्यां दिशं भूमेर्गच्छाव यदि मन्यसे ॥ १६ ॥

मूलम्

मातले कश्चिदत्रापि रुचिरस्ते वरो भवेत्।
अथवान्यां दिशं भूमेर्गच्छाव यदि मन्यसे ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातले! यहाँ भी तुम्हें कोई सुन्दर वर प्राप्त हो सकता है अथवा तुम्हारी राय हो, तो इस भूमिकी किसी दूसरी दिशाकी ओर चलें॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातलिस्त्वब्रवीदेनं भाषमाणं तथाविधम् ।
देवर्षे नैव मे कार्यं विप्रियं त्रिदिवौकसाम् ॥ १७ ॥

मूलम्

मातलिस्त्वब्रवीदेनं भाषमाणं तथाविधम् ।
देवर्षे नैव मे कार्यं विप्रियं त्रिदिवौकसाम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब ऐसी बातें करनेवाले नारदजीसे मातलिने कहा—‘देवर्षे! मुझे कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जो देवताओंको अप्रिय लगे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यानुषक्तवैरा हि भ्रातरो देवदानवाः।
परपक्षेण सम्बन्धं रोचयिष्याम्यहं कथम् ॥ १८ ॥

मूलम्

नित्यानुषक्तवैरा हि भ्रातरो देवदानवाः।
परपक्षेण सम्बन्धं रोचयिष्याम्यहं कथम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यद्यपि देवता और दानव परस्पर भाई ही हैं, तथापि इनमें सदा वैरभाव बना रहता है। ऐसी दशामें मैं शत्रुपक्षके साथ अपनी पुत्रीका सम्बन्ध कैसे पसंद करूँगा?॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यत्र साधु गच्छाव द्रष्टुं नार्हामि दानवान्।
जानामि तव चात्मानं हिंसात्मकमनं तथा ॥ १९ ॥

मूलम्

अन्यत्र साधु गच्छाव द्रष्टुं नार्हामि दानवान्।
जानामि तव चात्मानं हिंसात्मकमनं तथा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये अच्छा यही होगा कि हमलोग किसी दूसरी जगह चलें। मैं दानवोंसे साक्षात्कार भी नहीं कर सकता। मैं यह भी जानता हूँ कि आपके मनमें हिंसात्मक कार्य (युद्ध)-का अवसर उपस्थित करनेकी प्रबल इच्छा रहती है’॥१९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि मातलिवरान्वेषणे शततमोऽध्यायः ॥ १०० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें मातलिके द्वारा वरका खोजविषयक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१००॥