भागसूचना
एकोनशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नारदजीके द्वारा पाताललोकका प्रदर्शण
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् तु नागलोकस्य नाभिस्थाने स्थितं पुरम्।
पातालमिति विख्यातं दैत्यदानवसेवितम् ॥ १ ॥
इदमद्भिः समं प्राप्ता ये केचिद् भुवि जङ्गमाः।
प्रविशन्तो महानादं नदन्ति भयपीडिताः ॥ २ ॥
मूलम्
एतत् तु नागलोकस्य नाभिस्थाने स्थितं पुरम्।
पातालमिति विख्यातं दैत्यदानवसेवितम् ॥ १ ॥
इदमद्भिः समं प्राप्ता ये केचिद् भुवि जङ्गमाः।
प्रविशन्तो महानादं नदन्ति भयपीडिताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी बोले— मातले! यह जो नागलोकके नाभिस्थान (मध्यभाग)-में स्थित नगर दिखायी देता है, इसे पाताल कहते हैं। इस नगरमें दैत्य और दानव निवास करते हैं। यहाँ जो कोई भूतलके जंगम प्राणी जलके साथ बहकर आ जाते हैं, वे इस पातालमें पहुँचनेपर भयसे पीड़ित हो बड़े जोरसे चीत्कार करने लगते हैं॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रासुरोऽग्निः सततं दीप्यते वारिभोजनः।
व्यापारेण धृतात्मानं निबद्धं समबुध्यत ॥ ३ ॥
मूलम्
अत्रासुरोऽग्निः सततं दीप्यते वारिभोजनः।
व्यापारेण धृतात्मानं निबद्धं समबुध्यत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ जलका ही आहार करनेवाली आसुर अग्नि सदा उद्दीप्त रहती है। उसे यत्नपूर्वक मर्यादामें स्थापित किया गया है। वह अग्नि अपने-आपको देवताओं-द्वारा नियन्त्रित समझती है; इसलिये सब ओर फैल नहीं पाती॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रामृतं सुरैः पीत्वा निहितं निहतारिभिः।
अतः सोमस्य हानिश्च वृद्धिश्चैव प्रदृश्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
अत्रामृतं सुरैः पीत्वा निहितं निहतारिभिः।
अतः सोमस्य हानिश्च वृद्धिश्चैव प्रदृश्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंने अपने शत्रुओंका संहार करके अमृत पीकर उसका अवशिष्ट भाग यहीं रख दिया था। इसीलिये अमृतमय सोमकी हानि और वृद्धि देखी जाती है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रादित्यो हयशिराः काले पर्वणि पर्वणि।
उत्तिष्ठति सुवर्णाख्यो वाग्भिरापूरयञ्जगत् ॥ ५ ॥
मूलम्
अत्रादित्यो हयशिराः काले पर्वणि पर्वणि।
उत्तिष्ठति सुवर्णाख्यो वाग्भिरापूरयञ्जगत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ अदितिनन्दन हयग्रीव विष्णु सुवर्णमय कान्ति धारण करके प्रत्येक पर्वपर वेदध्वनिके द्वारा जगत्को परिपूर्ण करते हुए ऊपरको उठते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मादलं समस्तास्ताः पतन्ति जलमूर्तयः।
तस्मात् पातालमित्येव ख्यायते पुरमुत्तमम् ॥ ६ ॥
मूलम्
यस्मादलं समस्तास्ताः पतन्ति जलमूर्तयः।
तस्मात् पातालमित्येव ख्यायते पुरमुत्तमम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलस्वरूप जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब वहाँ पर्याप्तरूपसे गिरती हैं, इसलिये (‘पतन्ति अलम्’ इस व्युत्पतिके अनुसार पात+अलम्—इन दोनों शब्दोंके योगसे) यह उत्तम नगर ‘पाताल’ कहलाता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐरावणोऽस्मात् सलिलं गृहीत्वा जगतो हितः।
मेघेष्वामुञ्चते शीतं यन्महेन्द्रः प्रवर्षति ॥ ७ ॥
मूलम्
ऐरावणोऽस्मात् सलिलं गृहीत्वा जगतो हितः।
मेघेष्वामुञ्चते शीतं यन्महेन्द्रः प्रवर्षति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगत्का हित करनेवाला और समुद्रसे उत्पन्न होनेवाला वर्षाकालीन वायु यहींसे शीतल जल लेकर मेघोंमें स्थापित करता है, जिसे देवराज इन्द्र भूतलपर बरसाते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र नानाविधाकारास्तिमयो नैकरूपिणः ।
अप्सु सोमप्रभां पीत्वा वसन्ति जलचारिणः ॥ ८ ॥
मूलम्
अत्र नानाविधाकारास्तिमयो नैकरूपिणः ।
अप्सु सोमप्रभां पीत्वा वसन्ति जलचारिणः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाना प्रकारकी आकृति तथा भाँति-भाँतिके रूपवाले जलचारी तिमि (ह्वेल) मत्स्य चन्द्रमाकी किरणोंका पान करते हुए यहाँ जलमें निवास करते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र सूर्यांशुभिर्भिन्नाः पातालतलमाश्रिताः ।
मृता हि दिवसे सूत पुनर्जीवन्ति वै निशि ॥ ९ ॥
मूलम्
अत्र सूर्यांशुभिर्भिन्नाः पातालतलमाश्रिताः ।
मृता हि दिवसे सूत पुनर्जीवन्ति वै निशि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातले! ये पातालनिवासी जीव-जन्तु यहाँ दिनमें सूर्यकी किरणोंसे संतप्त हो मृतप्राय अवस्थामें पहुँच जाते हैं; परंतु रात होनेपर अमृतमयी चन्द्ररश्मियोंके सम्पर्कसे पुनः जी उठते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदयन् नित्यशश्चात्र चन्द्रमा रश्मिबाहुभिः।
अमृतं स्पृश्य संस्पर्शात् संजीवयति देहिनः ॥ १० ॥
मूलम्
उदयन् नित्यशश्चात्र चन्द्रमा रश्मिबाहुभिः।
अमृतं स्पृश्य संस्पर्शात् संजीवयति देहिनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ प्रतिदिन उदय लेनेवाले चन्द्रमा अपनी किरणमयी भुजाओंसे अमृतका स्पर्श कराकर उसके द्वारा यहाँके मरणासन्न जीवोंको जीवन प्रदान करते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र तेऽधर्मनिरता बद्धाः कालेन पीडिताः।
दैतेया निवसन्ति स्म वासवेन हृतश्रियः ॥ ११ ॥
मूलम्
अत्र तेऽधर्मनिरता बद्धाः कालेन पीडिताः।
दैतेया निवसन्ति स्म वासवेन हृतश्रियः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने जिनकी सम्पत्ति हर ली है, वे अधर्मपरायण दैत्य कालसे बद्ध एवं पीड़ित होकर इसी स्थानमें निवास करते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र भूतपतिर्नाम सर्वभूतमहेश्वरः ।
भूतये सर्वभूतानामचरत् तप उत्तमम् ॥ १२ ॥
मूलम्
अत्र भूतपतिर्नाम सर्वभूतमहेश्वरः ।
भूतये सर्वभूतानामचरत् तप उत्तमम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वभूतमहेश्वर भगवान् भूतनाथने सम्पूर्ण प्राणियोंके कल्याणके लिये यहाँ उत्तम तपस्या की थी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र गोव्रतिनो विप्राः स्वाध्यायाम्नायकर्शिताः।
त्यक्तप्राणा जितस्वर्गा निवसन्ति महर्षयः ॥ १३ ॥
मूलम्
अत्र गोव्रतिनो विप्राः स्वाध्यायाम्नायकर्शिताः।
त्यक्तप्राणा जितस्वर्गा निवसन्ति महर्षयः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदपाठसे दुर्बल हुए तथा प्राणोंकी परवा न करके तपस्याद्वारा स्वर्गलोकपर विजय पानेवाले गोव्रतधारी ब्राह्मण महर्षिगण यहाँ निवास करते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्रतत्रशयो नित्यं येन केनचिदाशितः।
येन केनचिदाच्छन्नः स गोव्रत इहोच्यते ॥ १४ ॥
मूलम्
यत्रतत्रशयो नित्यं येन केनचिदाशितः।
येन केनचिदाच्छन्नः स गोव्रत इहोच्यते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जहाँ कहीं भी सो लेता है, जिस किसी फल-मूल आदिसे भोजनका कार्य चला लेता है तथा वल्कल आदि जिस किसी वस्तुसे भी शरीरको ढक लेता है, वही यहाँ ‘गोव्रतधारी’ कहलाता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐरावणो नागराजो वामनः कुमुदोऽञ्जनः।
प्रसूताः सुप्रतीकस्य वंशे वारणसत्तमाः ॥ १५ ॥
मूलम्
ऐरावणो नागराजो वामनः कुमुदोऽञ्जनः।
प्रसूताः सुप्रतीकस्य वंशे वारणसत्तमाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ नागराज ऐरावत, वामन, कुमुद और अंजन नामक श्रेष्ठ गज सुप्रतीकके वंशमें उत्पन्न हुए हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य यद्यत्र ते कश्चिद् रोचते गुणतो वरः।
वरयिष्यामि तं गत्वा यत्नमास्थाय मातले ॥ १६ ॥
मूलम्
पश्य यद्यत्र ते कश्चिद् रोचते गुणतो वरः।
वरयिष्यामि तं गत्वा यत्नमास्थाय मातले ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातले! देखो, यदि यहाँ तुम्हें कोई गुणवान् वर पसंद हो तो मैं चलकर यत्नपूर्वक उसका वरण करूँगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अण्डमेतज्जले न्यस्तं दीप्यमानमिव श्रिया।
आ प्रजानां निसर्गाद् वै नोद्भिद्यति न सर्पति ॥ १७ ॥
मूलम्
अण्डमेतज्जले न्यस्तं दीप्यमानमिव श्रिया।
आ प्रजानां निसर्गाद् वै नोद्भिद्यति न सर्पति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलके भीतर यह एक अण्डा रखा हुआ है, जो यहाँ अपनी प्रभासे उद्भासित-सा हो रहा है। जबसे प्रजाजनोंकी सृष्टि आरम्भ हुई है, तबसे लेकर अबतक यह अण्डा न तो फूटता है और न अपने स्थानसे इधर-उधर जाता ही है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्य जातिं निसर्गं वा कथ्यमानं शृणोमि वै।
पितरं मातरं चापि नास्य जानाति कश्चन ॥ १८ ॥
मूलम्
नास्य जातिं निसर्गं वा कथ्यमानं शृणोमि वै।
पितरं मातरं चापि नास्य जानाति कश्चन ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसकी जाति अथवा स्वभावके विषयमें कभी किसीको कुछ कहते नहीं सुना है। इसके पिता और माताको भी कोई नहीं जानता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः किल महानग्निरन्तकाले समुत्थितः।
धक्ष्यते मातले सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अतः किल महानग्निरन्तकाले समुत्थितः।
धक्ष्यते मातले सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातले! कहते हैं, प्रलयकालमें इस अण्डेके भीतरसे बड़ी भारी आग प्रकट होगी, जो चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीको भस्म कर डालेगी॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातलिस्त्वब्रवीच्छ्रुत्वा नारदस्याथ भाषितम् ।
न मेऽत्र रोचते कश्चिदन्यतो व्रज माचिरम् ॥ २० ॥
मूलम्
मातलिस्त्वब्रवीच्छ्रुत्वा नारदस्याथ भाषितम् ।
न मेऽत्र रोचते कश्चिदन्यतो व्रज माचिरम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीका यह भाषण सुनकर मातलिने कहा—‘यहाँ मुझे कोई भी वर पसंद नहीं आया; अतः शीघ्र ही अन्यत्र कहीं चलिये’॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि मातलिवरान्वेषणे एकोनशततमोऽध्यायः ॥ ९९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें मातलिके द्वारा वरका खोजविषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९९॥