भागसूचना
अष्टनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मातलिका अपनी पुत्रीके लिये वर खोजनेके निमित्त नारदजीके साथ वरुणलोकमें भ्रमण करते हुए अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना
मूलम् (वचनम्)
कण्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातलिस्तु व्रजन् मार्गे नारदेन महर्षिणा।
वरुणं गच्छता द्रष्टुं समागच्छद् यदृच्छया ॥ १ ॥
मूलम्
मातलिस्तु व्रजन् मार्गे नारदेन महर्षिणा।
वरुणं गच्छता द्रष्टुं समागच्छद् यदृच्छया ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कण्व मुनि कहते हैं— राजन्! उसी समय महर्षि नारद वरुणदेवतासे मिलनेके लिये उधर जा रहे थे। नागलोकके मार्गमें जाते हुए मातलिकी नारदजीके साथ अकस्मात् भेंट हो गयी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदोऽथाब्रवीदेनं क्व भवान् गन्तुमुद्यतः।
स्वेन वा सूत कार्येण शासनाद् वा शतक्रतोः ॥ २ ॥
मूलम्
नारदोऽथाब्रवीदेनं क्व भवान् गन्तुमुद्यतः।
स्वेन वा सूत कार्येण शासनाद् वा शतक्रतोः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने उनसे पूछा—देवसारथे! तुम कहाँ जानेको उद्यत हुए हो? तुम्हारी यह यात्रा किसी निजी कार्यसे अथवा देवेन्द्रके आदेशसे हुई है?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातलिर्नारदेनैवं सम्पृष्टः पथि गच्छता।
यथावत् सर्वमाचष्ट स्वकार्यं नारदं प्रति ॥ ३ ॥
मूलम्
मातलिर्नारदेनैवं सम्पृष्टः पथि गच्छता।
यथावत् सर्वमाचष्ट स्वकार्यं नारदं प्रति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्गमें जाते हुए नारदजीके इस प्रकार पूछनेपर मातलिने उनसे अपना सारा कार्य यथावत्रूपसे बताया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाचाथ स मुनिर्गच्छावः सहिताविति।
सलिलेशदिदृक्षार्थमहमप्युद्यतो दिवः ॥ ४ ॥
मूलम्
तमुवाचाथ स मुनिर्गच्छावः सहिताविति।
सलिलेशदिदृक्षार्थमहमप्युद्यतो दिवः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन मुनिने मातलिसे कहा—‘हम दोनों साथ-साथ चलें। मैं भी जलके स्वामी वरुणदेवका दर्शन करनेकी इच्छासे देवलोकसे आ रहा हूँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं ते सर्वमाख्यास्ये दर्शयन् वसुधातलम्।
दृष्ट्वा तत्र वरं कंचिद् रोचयिष्याव मातले ॥ ५ ॥
मूलम्
अहं ते सर्वमाख्यास्ये दर्शयन् वसुधातलम्।
दृष्ट्वा तत्र वरं कंचिद् रोचयिष्याव मातले ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तुम्हें पृथ्वीके नीचेके लोकोंको दिखाते हुए वहाँकी सब वस्तुओंका परिचय दूँगा। मातले! वहाँ हम दोनों किसी योग्य वरको देखकर पसंद करेंगे’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवगाह तु तौ भूमिमुभौ मातलिनारदौ।
ददृशाते महात्मानौ लोकपालमपाम्पतिम् ॥ ६ ॥
मूलम्
अवगाह तु तौ भूमिमुभौ मातलिनारदौ।
ददृशाते महात्मानौ लोकपालमपाम्पतिम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मातलि और नारद दोनों महात्मा पृथ्वीके भीतर प्रवेश करके जलके स्वामी लोकपाल वरुणके समीप गये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र देवर्षिसदृशीं पूजां स प्राप नारदः।
महेन्द्रसदृशीं चैव मातलिः प्रत्यपद्यत ॥ ७ ॥
मूलम्
तत्र देवर्षिसदृशीं पूजां स प्राप नारदः।
महेन्द्रसदृशीं चैव मातलिः प्रत्यपद्यत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीको वहाँ देवर्षियोंके योग्य और मातलिको देवराज इन्द्रके समान आदर-सत्कार प्राप्त हुआ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावुभौ प्रीतमनसौ कार्यवन्तौ निवेद्य ह।
वरुणेनाभ्यनुज्ञातौ नागलोकं विचेरतुः ॥ ८ ॥
मूलम्
तावुभौ प्रीतमनसौ कार्यवन्तौ निवेद्य ह।
वरुणेनाभ्यनुज्ञातौ नागलोकं विचेरतुः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उन दोनोंने प्रसन्नचित्त होकर वरुणदेवतासे अपना कार्य निवेदन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे नागलोकमें विचरने लगे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदः सर्वभूतानामन्तर्भूमिनिवासिनाम् ।
जानंश्चकार व्याख्यानं यन्तुः सर्वमशेषतः ॥ ९ ॥
मूलम्
नारदः सर्वभूतानामन्तर्भूमिनिवासिनाम् ।
जानंश्चकार व्याख्यानं यन्तुः सर्वमशेषतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी पाताललोकमें निवास करनेवाले सभी प्राणियोंको जानते थे। अतः उन्होंने इन्द्रसारथि मातलिको वहाँकी सब वस्तुओंके विषयमें विस्तारपूर्वक बताना आरम्भ किया॥९॥नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्टस्ते वरुणः सूत पुत्रपौत्रसमावृतः।
पश्योदकपतेः स्थानं सर्वतोभद्रमृद्धिमत् ॥ १० ॥
मूलम्
दृष्टस्ते वरुणः सूत पुत्रपौत्रसमावृतः।
पश्योदकपतेः स्थानं सर्वतोभद्रमृद्धिमत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— सूत! तुमने पुत्रों और पौत्रोंसे घिरे हुए वरुणदेवताका दर्शन किया है। देखो, यह जलेश्वर वरुणका समृद्धिशाली निवासस्थान है। इसका नाम है, सर्वतोभद्र॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष पुत्रो महाप्राज्ञो वरुणस्येह गोपतेः।
एष वै शीलवृत्तेन शौचेन च विशिष्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
एष पुत्रो महाप्राज्ञो वरुणस्येह गोपतेः।
एष वै शीलवृत्तेन शौचेन च विशिष्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये गोपति वरुणके परम बुद्धिमान् पुत्र हैं; जो अपने उत्तम स्वभाव, सदाचार और पवित्रताके कारण अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषोऽस्य पुत्रोऽभिमतः पुष्करः पुष्करेक्षणः।
रूपवान् दर्शनीयश्च सोमपुत्र्या वृतः पतिः ॥ १२ ॥
मूलम्
एषोऽस्य पुत्रोऽभिमतः पुष्करः पुष्करेक्षणः।
रूपवान् दर्शनीयश्च सोमपुत्र्या वृतः पतिः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वरुणदेवके इन प्रिय पुत्रका नाम पुष्कर है। इनके नेत्र विकसित कमलके समान सुशोभित हैं। ये रूपवान् तथा दर्शनीय हैं। इसीलिये सोमकी पुत्रीने इनका पतिरूपसे वरण किया है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्योत्स्नाकालीति यामाहुर्द्वितीयां रूपतः श्रियम्।
अदित्याश्चैव यः पुत्रो ज्येष्ठः श्रेष्ठः कृतः स्मृतः ॥ १३ ॥
मूलम्
ज्योत्स्नाकालीति यामाहुर्द्वितीयां रूपतः श्रियम्।
अदित्याश्चैव यः पुत्रो ज्येष्ठः श्रेष्ठः कृतः स्मृतः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सोमकी जो दूसरी पुत्री हैं, वे ज्योत्स्नाकालीके नामसे प्रसिद्ध हैं तथा रूपमें साक्षात् लक्ष्मीके समान जान पड़ती हैं। उन्होंने अदितिदेवीके ज्येष्ठ पुत्र सूर्यदेवको अपना श्रेष्ठ पति बनाया एवं माना है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवनं वारुणं पश्य यदेतत् सर्वकाञ्चनम्।
यत् प्राप्य सुरतां प्राप्ताः सुराः सुरपतेः सखे ॥ १४ ॥
मूलम्
भवनं वारुणं पश्य यदेतत् सर्वकाञ्चनम्।
यत् प्राप्य सुरतां प्राप्ताः सुराः सुरपतेः सखे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महेन्द्रमित्र! देखो, यह वरुणदेवताका भवन है, जो सब ओरसे सुवर्णका ही बना हुआ है। यहाँ पहुँचकर ही देवगण वास्तवमें देवत्वलाभ करते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतानि हृतराज्यानां दैतेयानां स्म मातले।
दीप्यमानानि दृश्यन्ते सर्वप्रहरणान्युत ॥ १५ ॥
मूलम्
एतानि हृतराज्यानां दैतेयानां स्म मातले।
दीप्यमानानि दृश्यन्ते सर्वप्रहरणान्युत ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातले! जिनके राज्य छीन लिये गये हैं, उन दैत्योंके ये देदीप्यमान सम्पूर्ण आयुध दिखायी देते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षयाणि किलैतानि विवर्तन्ते स्म मातले।
अनुभावप्रयुक्तानि सुरैरवजितानि ह ॥ १६ ॥
मूलम्
अक्षयाणि किलैतानि विवर्तन्ते स्म मातले।
अनुभावप्रयुक्तानि सुरैरवजितानि ह ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवसारथे! ये सारे अस्त्र-शस्त्र अक्षय हैं और प्रहार करनेपर शत्रुको आहत करके पुनः अपने स्वामीके हाथमें लौट आते हैं। पहले दैत्यलोग अपनी शक्तिके अनुसार इनका प्रयोग करते थे, परंतु अब देवताओंने इन्हें जीतकर अपने अधिकारमें कर लिया है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र राक्षसजात्यश्च दैत्यजात्यश्च मातले।
दिव्यप्रहरणाश्चासन् पूर्वदैवतनिर्मिताः ॥ १७ ॥
मूलम्
अत्र राक्षसजात्यश्च दैत्यजात्यश्च मातले।
दिव्यप्रहरणाश्चासन् पूर्वदैवतनिर्मिताः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातले! इन स्थानोंमें राक्षस और दैत्यजातिके लोग रहते हैं। यहाँ दैत्योंके बनाये हुए बहुत-से दिव्यास्त्र भी रहे हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निरेष महार्चिष्माञ्जागर्ति वारुणे ह्रदे।
वैष्णवं चक्रमाविद्धं विधूमेन हविष्मता ॥ १८ ॥
मूलम्
अग्निरेष महार्चिष्माञ्जागर्ति वारुणे ह्रदे।
वैष्णवं चक्रमाविद्धं विधूमेन हविष्मता ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये महातेजस्वी अग्निदेव वरुणदेवताके सरोवरमें प्रकाशित होते हैं। इन धूमरहित अग्निदेवने भगवान् विष्णुके सुदर्शनचक्रको भी अवरुद्ध कर दिया था॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष गाण्डीमयश्चापो लोकसंहारसम्भृतः ।
रक्ष्यते दैवतैर्नित्यं यतस्तद् गाण्डिवं धनुः ॥ १९ ॥
मूलम्
एष गाण्डीमयश्चापो लोकसंहारसम्भृतः ।
रक्ष्यते दैवतैर्नित्यं यतस्तद् गाण्डिवं धनुः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वज्रकी गाँठको ‘गाण्डी’ कहा गया है। यह धनुष उसीका बना हुआ है, इसलिये गाण्डीव कहलाता है। जगत्का संहार करनेके लिये इसका निर्माण हुआ है। देवतालोग सदा इसकी रक्षा करते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष कृत्ये समुत्पन्ने तत् तद् धारयते बलम्।
सहस्रशतसंख्येन प्राणेन सततं ध्रुवः ॥ २० ॥
मूलम्
एष कृत्ये समुत्पन्ने तत् तद् धारयते बलम्।
सहस्रशतसंख्येन प्राणेन सततं ध्रुवः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह धनुष आवश्यकता पड़नेपर लाखगुनी शक्तिसे सम्पन्न हो वैसे-वैसे ही बलको भी धारण करता है और सदा अविचल बना रहता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशास्यानपि शास्त्येष रक्षोबन्धुषु राजसु।
सृष्टः प्रथमतश्चण्डो ब्रह्मणा ब्रह्मवादिना ॥ २१ ॥
मूलम्
अशास्यानपि शास्त्येष रक्षोबन्धुषु राजसु।
सृष्टः प्रथमतश्चण्डो ब्रह्मणा ब्रह्मवादिना ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मवादी ब्रह्माजीने पहले इस प्रचण्ड धनुषका निर्माण किया था। यह राक्षससदृश राजाओंमेंसे अदम्य नरेशोंका भी दमन कर डालता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छस्त्रं नरेन्द्राणां महच्चक्रेण भासितम्।
पुत्राः सलिलराजस्य धारयन्ति महोदयम् ॥ २२ ॥
मूलम्
एतच्छस्त्रं नरेन्द्राणां महच्चक्रेण भासितम्।
पुत्राः सलिलराजस्य धारयन्ति महोदयम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह धनुष राजाओंके लिये एक महान् अस्त्र है और चक्रके समान उद्भासित होता रहता है। इस महान् अभ्युदयकारी धनुषको जलेश वरुणके पुत्र धारण करते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् सलिलराजस्यच्छत्रं छत्रगृहे स्थितम्।
सर्वतः सलिलं शीतं जीमूत इव वर्षति ॥ २३ ॥
मूलम्
एतत् सलिलराजस्यच्छत्रं छत्रगृहे स्थितम्।
सर्वतः सलिलं शीतं जीमूत इव वर्षति ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और यह सलिलराज वरुणका छत्र है, जो छत्रगृहमें रखा हुआ है। यह छत्र मेघकी भाँति सब ओरसे शीतल जल बरसाता रहता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छत्रात् परिभ्रष्टं सलिलं सोमनिर्मलम्।
तमसा मूर्छितं भाति येन नार्च्छति दर्शनम् ॥ २४ ॥
मूलम्
एतच्छत्रात् परिभ्रष्टं सलिलं सोमनिर्मलम्।
तमसा मूर्छितं भाति येन नार्च्छति दर्शनम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस छत्रसे गिरा हुआ चन्द्रमाके समान निर्मल जल अन्धकारसे आच्छन्न रहता है, जिससे दृष्टिपथमें नहीं आता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहून्यद्भुतरूपाणि द्रष्टव्यानीह मातले ।
तव कार्यावरोधस्तु तस्माद् गच्छाव मा चिरम् ॥ २५ ॥
मूलम्
बहून्यद्भुतरूपाणि द्रष्टव्यानीह मातले ।
तव कार्यावरोधस्तु तस्माद् गच्छाव मा चिरम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातले! इस वरुणलोकमें देखनेयोग्य बहुत-सी अद्भुत वस्तुएँ हैं; परंतु सबको देखनेसे तुम्हारे कार्यमें रुकावट पड़ेगी, इसलिये हमलोग शीघ्र ही यहाँसे नागलोकमें चलें॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि मातलिवरान्वेषणे अष्टनवतितमोऽध्यायः ॥ ९८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें मातलिके द्वारा वरका खोजविषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९८॥