०९७ मातलिवरान्वेषणे

भागसूचना

सप्तनवतितमोऽध्यायः

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कण्व मुनिका दुर्योधनको संधिके लिये समझाते हुए मातलिका उपाख्यान आरम्भ करना वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जामदग्न्यवचः श्रुत्वा कण्वोऽपि भगवानृषिः।
दुर्योधनमिदं वाक्यमब्रवीत् कुरुसंसदि ॥ १ ॥

मूलम्

जामदग्न्यवचः श्रुत्वा कण्वोऽपि भगवानृषिः।
दुर्योधनमिदं वाक्यमब्रवीत् कुरुसंसदि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जमदग्निनन्दन परशुरामका यह वचन सुनकर भगवान् कण्व मुनिने भी कौरवसभामें दुर्योधनसे यह बात कही॥१॥

मूलम् (वचनम्)

कण्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षयश्चाव्ययश्चैव ब्रह्मा लोकपितामहः ।
तथैव भगवन्तौ तौ नरनारायणावृषी ॥ २ ॥

मूलम्

अक्षयश्चाव्ययश्चैव ब्रह्मा लोकपितामहः ।
तथैव भगवन्तौ तौ नरनारायणावृषी ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कण्व बोले— राजन्! जैसे लोकपितामह ब्रह्मा अक्षय और अविनाशी हैं, उसी प्रकार वे दोनों भगवान् नर-नारायण ऋषि भी हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित्यानां हि सर्वेषां विष्णुरेकः सनातनः।
अजय्यश्चाव्ययश्चैव शाश्वतः प्रभुरीश्वरः ॥ ३ ॥

मूलम्

आदित्यानां हि सर्वेषां विष्णुरेकः सनातनः।
अजय्यश्चाव्ययश्चैव शाश्वतः प्रभुरीश्वरः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अदितिके सभी पुत्रोंमें अथवा सम्पूर्ण आदित्योंमें एकमात्र भगवान् विष्णु ही अजेय, अविनाशी, नित्य विद्यमान एवं सर्वसमर्थ सनातन परमेश्वर हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमित्तमरणाश्चान्ये चन्द्रसूर्यौ मही जलम्।
वायुरग्निस्तथाऽऽकाशं ग्रहास्तारागणास्तथा ॥ ४ ॥

मूलम्

निमित्तमरणाश्चान्ये चन्द्रसूर्यौ मही जलम्।
वायुरग्निस्तथाऽऽकाशं ग्रहास्तारागणास्तथा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्य सब लोग तो किसी-न-किसी निमित्तसे मृत्युको प्राप्त होते ही हैं। चन्द्रमा, सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, ग्रह तथा नक्षत्र—ये सभी नाशवान् हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते च क्षयान्ते जगतो हित्वा लोकत्रयं सदा।
क्षयं गच्छन्ति वै सर्वे सृज्यन्ते च पुनः पुनः॥५॥

मूलम्

ते च क्षयान्ते जगतो हित्वा लोकत्रयं सदा।
क्षयं गच्छन्ति वै सर्वे सृज्यन्ते च पुनः पुनः॥५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत्‌का विनाश होनेके पश्चात् ये चन्द्र, सूर्य आदि तीनों लोकोंका सदाके लिये परित्याग करके नष्ट हो जाते हैं। फिर सृष्टिकालमें इन सबकी बारंबार सृष्टि होती है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुहूर्तमरणास्त्वन्ये मानुषा मृगपक्षिणः ।
तैर्यग्योन्याश्च ये चान्ये जीवलोकचरास्तथा ॥ ६ ॥

मूलम्

मुहूर्तमरणास्त्वन्ये मानुषा मृगपक्षिणः ।
तैर्यग्योन्याश्च ये चान्ये जीवलोकचरास्तथा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके सिवा ये दूसरे जो मनुष्य, पशु, पक्षी तथा जीवलोकमें विचरनेवाले अन्यान्य तिर्यग्‌योनिके प्राणी हैं, वे अल्पकालमें ही कालके गालमें चले जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयिष्ठेन तु राजानः श्रियं भुक्त्वाऽऽयुषः क्षये।
तरुणाः प्रतिपद्यन्ते भोक्तुं सुकृतदुष्कृते ॥ ७ ॥

मूलम्

भूयिष्ठेन तु राजानः श्रियं भुक्त्वाऽऽयुषः क्षये।
तरुणाः प्रतिपद्यन्ते भोक्तुं सुकृतदुष्कृते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजालोग भी प्रायः राजलक्ष्मीका उपभोग करके आयुकी समाप्ति होनेपर मृत्यु होनेके पश्चात् अपने पाप-पुण्यका फल भोगनेके लिये पुनः नूतन जन्म ग्रहण करते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवान् धर्मपुत्रेण शमं कर्तुमिहार्हति।
पाण्डवाः कुरवश्चैव पालयन्तु वसुंधराम् ॥ ८ ॥

मूलम्

स भवान् धर्मपुत्रेण शमं कर्तुमिहार्हति।
पाण्डवाः कुरवश्चैव पालयन्तु वसुंधराम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आपको धर्मपुत्र युधिष्ठिरके साथ संधि कर लेनी चाहिये। मैं चाहता हूँ कि पाण्डव तथा कौरव दोनों मिलकर इस पृथ्वीका पालन करें॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलवानहमित्येव न मन्तव्यं सुयोधन।
बलवन्तो बलिभ्यो हि दृश्यन्ते पुरुषर्षभ ॥ ९ ॥

मूलम्

बलवानहमित्येव न मन्तव्यं सुयोधन।
बलवन्तो बलिभ्यो हि दृश्यन्ते पुरुषर्षभ ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषरत्न सुयोधन! तुम्हें यह नहीं मानना चाहिये कि मैं ही सबसे अधिक बलवान् हूँ; क्योंकि संसारमें बलवानोंसे भी बलवान् पुरुष देखे जाते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न बलं बलिनां मध्ये बलं भवति कौरव।
बलवन्तो हि ते सर्वे पाण्डवा देवविक्रमाः ॥ १० ॥

मूलम्

न बलं बलिनां मध्ये बलं भवति कौरव।
बलवन्तो हि ते सर्वे पाण्डवा देवविक्रमाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! बलवानोंके बीचमें सैनिकबलको बल नहीं समझा जाता है। समस्त पाण्डव देवताओंके समान पराक्रमी हैं; अतः वे ही तुम्हारी अपेक्षा बलवान् हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मातलेर्दातुकामस्य कन्यां मृगयतो वरम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मातलेर्दातुकामस्य कन्यां मृगयतो वरम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रसंगमें कन्यादान करनेके लिये वर ढूँढ़नेवाले मातलिके इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मतस्त्रैलोक्यराजस्य मातलिर्नाम सारथिः ।
तस्यैकैव कुले कन्या रूपतो लोकविश्रुता ॥ १२ ॥

मूलम्

मतस्त्रैलोक्यराजस्य मातलिर्नाम सारथिः ।
तस्यैकैव कुले कन्या रूपतो लोकविश्रुता ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिलोकीनाथ इन्द्रके प्रिय सारथिका नाम मातलि है। उनके कुलमें उन्हींकी एक कन्या थी; जो अपने रूपके कारण सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात थी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणकेशीति विख्याता नाम्ना सा देवरूपिणी।
श्रिया च वपुषा चैव स्त्रियोऽन्याः सातिरिच्यते ॥ १३ ॥

मूलम्

गुणकेशीति विख्याता नाम्ना सा देवरूपिणी।
श्रिया च वपुषा चैव स्त्रियोऽन्याः सातिरिच्यते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह देवरूपिणी कन्या गुणकेशीके नामसे प्रसिद्ध थी। गुणकेशी अपनी शोभा तथा सुन्दर शरीरकी दृष्टिसे उस समयकी सम्पूर्ण स्त्रियोंसे श्रेष्ठ थी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याः प्रदानसमयं मातलिः सह भार्यया।
ज्ञात्वा विममृशे राजंस्तत्परः परिचिन्तयन् ॥ १४ ॥

मूलम्

तस्याः प्रदानसमयं मातलिः सह भार्यया।
ज्ञात्वा विममृशे राजंस्तत्परः परिचिन्तयन् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उसके विवाहका समय आया जान मातलिने एकाग्रचित्त हो उसीके विषयमें चिन्तन करते हुए अपनी पत्नीके साथ विचार-विमर्श किया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिक् खल्वलघुशीलानामुच्छ्रितानां यशस्विनाम् ।
नराणां मृदुसत्त्वानां कुले कन्याप्ररोहणम् ॥ १५ ॥

मूलम्

धिक् खल्वलघुशीलानामुच्छ्रितानां यशस्विनाम् ।
नराणां मृदुसत्त्वानां कुले कन्याप्ररोहणम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनका शीलस्वभाव श्रेष्ठ है, जो ऊँचे कुलमें उत्पन्न हुए यशस्वी तथा कोमल अन्तःकरणवाले हैं; ऐसे लोगोंके कुलमें कन्याका उत्पन्न होना दुःखकी ही बात है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातुः कुलं पितृकुलं यत्र चैव प्रदीयते।
कुलत्रयं संशयितं कुरुते कन्यका सताम् ॥ १६ ॥

मूलम्

मातुः कुलं पितृकुलं यत्र चैव प्रदीयते।
कुलत्रयं संशयितं कुरुते कन्यका सताम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कन्या मातृकुलको, पितृकुलको तथा जहाँ वह ब्याही जाती है, उस कुलको—सत्पुरुषोंके इन तीनों कुलोंको संशयमें डाल देती है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवमानुषलोकौ द्वौ मानुषेणैव चक्षुषा।
अवगाह्यैव विचितौ न च मे रोचते वरः ॥ १७ ॥

मूलम्

देवमानुषलोकौ द्वौ मानुषेणैव चक्षुषा।
अवगाह्यैव विचितौ न च मे रोचते वरः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने मानवदृष्टिके अनुसार देवलोक तथा मनुष्यलोक दोनोंमें अच्छी तरह घूम-फिरकर कन्याके लिये वरका अन्वेषण किया है, पर वहाँ कोई भी वर मुझे पसंद नहीं आ रहा है’॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

कण्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न देवान् नैव दितिजान् न गन्धर्वान् न मानुषान्।
अरोचयद् वरकृते तथैव बहुलानृषीन् ॥ १८ ॥

मूलम्

न देवान् नैव दितिजान् न गन्धर्वान् न मानुषान्।
अरोचयद् वरकृते तथैव बहुलानृषीन् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कण्व मुनि कहते हैं— मातलिने वरके लिये बहुत-से देवताओं, दैत्यों, गन्धर्वों और मनुष्यों तथा ऋषियोंको भी देखा; परंतु कोई उन्हें पसंद नहीं आया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार्ययानु स सम्मन्त्र्य सह रात्रौ सुधर्मया।
मातलिर्नागलोकाय चकार गमने मतिम् ॥ १९ ॥

मूलम्

भार्ययानु स सम्मन्त्र्य सह रात्रौ सुधर्मया।
मातलिर्नागलोकाय चकार गमने मतिम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्होंने रातमें अपनी पत्नी सुधर्माके साथ सलाह करके नागलोकमें जानेका विचार किया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मे देवमनुष्येषु गुणकेश्याः समो वरः।
रूपतो दृश्यते कश्चिन्नागेषु भविता ध्रुवम् ॥ २० ॥

मूलम्

न मे देवमनुष्येषु गुणकेश्याः समो वरः।
रूपतो दृश्यते कश्चिन्नागेषु भविता ध्रुवम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपनी पत्नीसे बोले—‘देवि! देवताओं और मनुष्योंमें तो गुणकेशीके योग्य कोई रूपवान् वर नहीं दिखायी देता। नागलोकमें कोई-न-कोई उसके योग्य वर अवश्य होगा’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यामन्त्र्य सुधर्मां स कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम्।
कन्यां शिरस्युपाघ्राय प्रविवेश महीतलम् ॥ २१ ॥

मूलम्

इत्यामन्त्र्य सुधर्मां स कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम्।
कन्यां शिरस्युपाघ्राय प्रविवेश महीतलम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुधर्मासे ऐसी सलाह करके मातलिने इष्टदेवकी परिक्रमा की और कन्याका मस्तक सूँघकर रसातलमें प्रवेश किया॥२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि मातलिवरान्वेषणे सप्तनवतितमोऽध्यायः ॥ ९७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें मातलिके वर खोजनेसे सम्बन्ध रखनेवाला सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९७॥