भागसूचना
षण्णवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
परशुरामजीका दम्भोद्भवकी कथाद्वारा नर-नारायणस्वरूप अर्जुन और श्रीकृष्णका महत्त्व वर्णन करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नभिहिते वाक्ये केशवेन महात्मना।
स्तिमिता हृष्टरोमाण आसन् सर्वे सभासदः ॥ १ ॥
मूलम्
तस्मिन्नभिहिते वाक्ये केशवेन महात्मना।
स्तिमिता हृष्टरोमाण आसन् सर्वे सभासदः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! महात्मा श्रीकृष्णके ऐसी बात कहनेपर सम्पूर्ण सभासद् चकित हो गये। उनके अंगोंमें रोमांच हो आया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्चिदुत्तरमेतेषां वक्तुं नोत्सहते पुमान्।
इति सर्वे मनोभिस्ते चिन्तयन्ति स्म पार्थिवाः ॥ २ ॥
मूलम्
कश्चिदुत्तरमेतेषां वक्तुं नोत्सहते पुमान्।
इति सर्वे मनोभिस्ते चिन्तयन्ति स्म पार्थिवाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब भूपाल मन-ही-मन यह सोचने लगे कि भगवान्के इन वचनोंका उत्तर कोई भी मनुष्य नहीं दे सकता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तेषु च सर्वेषु तूष्णीम्भूतेषु राजसु।
जामदग्न्य इदं वाक्यमब्रवीत् कुरुसंसदि ॥ ३ ॥
मूलम्
तथा तेषु च सर्वेषु तूष्णीम्भूतेषु राजसु।
जामदग्न्य इदं वाक्यमब्रवीत् कुरुसंसदि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उन सब राजाओंके मौन ही रह जानेपर जमदग्निनन्दन परशुरामने कौरवसभामें इस प्रकार कहा—॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमां मे सोपमां वाचं शृणु सत्यामशङ्कितः।
तां श्रुत्वा श्रेय आदत्स्व यदि साध्विति मन्यसे ॥ ४ ॥
मूलम्
इमां मे सोपमां वाचं शृणु सत्यामशङ्कितः।
तां श्रुत्वा श्रेय आदत्स्व यदि साध्विति मन्यसे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! तुम निःशंक होकर मेरी यह उदाहरणयुक्त बात सुनो। सुनकर यदि इसे कल्याणकारी और उत्तम समझो तो स्वीकार करो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा दम्भोद्भवो नाम सार्वभौमः पुराभवत्।
अखिलां बुभुजे सर्वां पृथिवीमिति नः श्रुतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
राजा दम्भोद्भवो नाम सार्वभौमः पुराभवत्।
अखिलां बुभुजे सर्वां पृथिवीमिति नः श्रुतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पूर्वकालकी बात है, दम्भोद्भव नामसे प्रसिद्ध एक सार्वभौम सम्राट् इस सम्पूर्ण अखण्ड भूमण्डलका राज्य भोगते थे; यह हमारे सुननेमें आया है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स स्म नित्यं निशापाये प्रातरुत्थाय वीर्यवान्।
ब्राह्मणान् क्षत्रियांश्चैव पृच्छन्नास्ते महारथः ॥ ६ ॥
मूलम्
स स्म नित्यं निशापाये प्रातरुत्थाय वीर्यवान्।
ब्राह्मणान् क्षत्रियांश्चैव पृच्छन्नास्ते महारथः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे महारथी और पराक्रमी नरेश प्रतिदिन रात बीतनेपर प्रातःकाल उठकर ब्राह्मणों और क्षत्रियोंसे इस प्रकार पूछा करते थे—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति कश्चिद् विशिष्टो वा मद्विधो वा भवेद् युधि।
शूद्रो वैश्यः क्षत्रियो वा ब्राह्मणो वापि शस्त्रभृत् ॥ ७ ॥
मूलम्
अस्ति कश्चिद् विशिष्टो वा मद्विधो वा भवेद् युधि।
शूद्रो वैश्यः क्षत्रियो वा ब्राह्मणो वापि शस्त्रभृत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्या इस जगत्में कोई ऐसा शस्त्रधारी शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण है, जो युद्धमें मुझसे बढ़कर अथवा मेरे समान भी हो सके?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ब्रुवन्नन्वचरत् स राजा पृथिवीमिमाम्।
दर्पेण महता मत्तः कंचिदन्यमचिन्तयन् ॥ ८ ॥
मूलम्
इति ब्रुवन्नन्वचरत् स राजा पृथिवीमिमाम्।
दर्पेण महता मत्तः कंचिदन्यमचिन्तयन् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसी प्रकार पूछते हुए वे राजा दम्भोद्भव महान् गर्वसे उन्मत्त हो दूसरे किसीको कुछ भी न समझते हुए इस पृथ्वीपर विचरने लगे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं च वैद्या अकृपणा ब्राह्मणाः सर्वतोऽभयाः।
प्रत्यषेधन्त राजानं श्लाघमानं पुनः पुनः ॥ ९ ॥
मूलम्
तं च वैद्या अकृपणा ब्राह्मणाः सर्वतोऽभयाः।
प्रत्यषेधन्त राजानं श्लाघमानं पुनः पुनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस समय सर्वथा निर्भय, उदार एवं विद्वान् ब्राह्मणोंने बारंबार आत्मप्रशंसा करनेवाले उन नरेशको मना किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निषिध्यमानोऽप्यसकृत् पृच्छत्येव स वै द्विजान्।
अतिमानं श्रिया मत्तं तमूचुर्ब्राह्मणास्तदा ॥ १० ॥
तपस्विनो महात्मानो वेदप्रत्ययदर्शिनः ।
उदीर्यमाणं राजानं क्रोधदीप्ता द्विजातयः ॥ ११ ॥
मूलम्
निषिध्यमानोऽप्यसकृत् पृच्छत्येव स वै द्विजान्।
अतिमानं श्रिया मत्तं तमूचुर्ब्राह्मणास्तदा ॥ १० ॥
तपस्विनो महात्मानो वेदप्रत्ययदर्शिनः ।
उदीर्यमाणं राजानं क्रोधदीप्ता द्विजातयः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके मना करनेपर भी वे ब्राह्मणोंसे बार-बार प्रश्न करते ही रहे। उनका अहंकार बहुत बढ़ गया था। वे धन-वैभवके मदसे मतवाले हो गये थे। राजाको यही (बारंबार) प्रश्न दुहराते देख वेदके सिद्धान्तका साक्षात्कार करनेवाले महामना तपस्वी ब्राह्मण क्रोधसे तमतमा उठे और उनसे इस प्रकार बोले—॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेकजयिनौ संख्ये यौ वै पुरुषसत्तमौ।
तयोस्त्वं न समो राजन् भवितासि कदाचन ॥ १२ ॥
मूलम्
अनेकजयिनौ संख्ये यौ वै पुरुषसत्तमौ।
तयोस्त्वं न समो राजन् भवितासि कदाचन ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! दो ऐसे पुरुषरत्न हैं, जिन्होंने युद्धमें अनेक योद्धाओंपर विजय पायी है। तुम कभी उनके समान न हो सकोगे’॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः स राजा तु पुनः पप्रच्छ तान् द्विजान्।
क्व तौ वीरौ क्वजन्मानौ किंकर्माणौ च कौ च तौ॥१३॥
मूलम्
एवमुक्तः स राजा तु पुनः पप्रच्छ तान् द्विजान्।
क्व तौ वीरौ क्वजन्मानौ किंकर्माणौ च कौ च तौ॥१३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके ऐसा कहनेपर राजाने पुनः उन ब्राह्मणोंसे पूछा—‘वे दोनों वीर कहाँ हैं? उनका जन्म किस स्थानमें हुआ है? उनके कर्म कौन-कौन-से हैं और उनके नाम क्या हैं?’॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मणा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरो नारायणश्चैव तापसाविति नः श्रुतम्।
आयातौ मानुषे लोके ताभ्यां युध्यस्व पार्थिव ॥ १४ ॥
मूलम्
नरो नारायणश्चैव तापसाविति नः श्रुतम्।
आयातौ मानुषे लोके ताभ्यां युध्यस्व पार्थिव ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण बोले— भूपाल! हमने सुना है कि वे नर-नारायण नामवाले तपस्वी हैं और इस समय मनुष्यलोकमें आये हैं। तुम उन्हीं दोनोंके साथ युद्ध करो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयेते तौ महात्मानौ नरनारायणावुभौ।
तपो घोरमनिर्देश्यं तप्येते गन्धमादने ॥ १५ ॥
मूलम्
श्रूयेते तौ महात्मानौ नरनारायणावुभौ।
तपो घोरमनिर्देश्यं तप्येते गन्धमादने ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुना है, वे दोनों महात्मा नर और नारायण गन्धमादन पर्वतपर ऐसी घोर तपस्या कर रहे हैं, जिसका वाणीद्वारा वर्णन नहीं हो सकता॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राजा महतीं सेनां योजयित्वा षडङ्गिनीम्।
अमृष्यमाणः सम्प्रायाद् यत्र तावपराजितौ ॥ १६ ॥
मूलम्
स राजा महतीं सेनां योजयित्वा षडङ्गिनीम्।
अमृष्यमाणः सम्प्रायाद् यत्र तावपराजितौ ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको यह सहन नहीं हुआ। उन्होंने (रथ, हाथी, घोड़े, पैदल, शकट और ऊँट—इन) छः अंगोंसे युक्त विशाल सेनाको सुसज्जित करके उस स्थानकी यात्रा की, जहाँ कभी पराजित न होनेवाले वे दोनों महात्मा विद्यमान थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गत्वा विषमं घोरं पर्वतं गन्धमादनम्।
मार्गमाणोऽन्वगच्छत् तौ तापसौ वनमाश्रितौ ॥ १७ ॥
मूलम्
स गत्वा विषमं घोरं पर्वतं गन्धमादनम्।
मार्गमाणोऽन्वगच्छत् तौ तापसौ वनमाश्रितौ ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा उनकी खोज करते हुए दुर्गम एवं भयंकर गन्धमादन पर्वतपर गये और वनमें स्थित उन तपस्वी महात्माओंके पास जा पहुँचे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ दृष्ट्वा क्षुत्पिपासाभ्यां कृशौ धमनिसंततौ।
शीतवातातपैश्चैव कर्शितौ पुरुषोत्तमौ ॥ १८ ॥
मूलम्
तौ दृष्ट्वा क्षुत्पिपासाभ्यां कृशौ धमनिसंततौ।
शीतवातातपैश्चैव कर्शितौ पुरुषोत्तमौ ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों पुरुषरत्न भूख-प्याससे दुर्बल हो गये थे। उनके सारे अंगोंमें फैली हुई नस-नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती थीं। वे सर्दी-गरमी और हवाका कष्ट सहते-सहते अत्यन्त कृशकाय हो रहे थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिगम्योपसंगृह्य पर्यपृच्छदनामयम् ।
तमर्चित्वा मूलफलैरासनेनोदकेन च ॥ १९ ॥
न्यमन्त्रयेतां राजानं किं कार्यं क्रियतामिति।
ततस्तामानुपूर्वीं स पुनरेवान्वकीर्तयत् ॥ २० ॥
मूलम्
अभिगम्योपसंगृह्य पर्यपृच्छदनामयम् ।
तमर्चित्वा मूलफलैरासनेनोदकेन च ॥ १९ ॥
न्यमन्त्रयेतां राजानं किं कार्यं क्रियतामिति।
ततस्तामानुपूर्वीं स पुनरेवान्वकीर्तयत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निकट जाकर उनके चरणोंमें नमस्कार करके दम्भोद्भवने उन दोनोंका कुशल-समाचार पूछा। तब नर और नारायणने राजाका स्वागत-सत्कार करके आसन, जल और फल-मूल देकर उन्हें भोजनके लिये निमन्त्रित किया। तदनन्तर पूछा कि हम आपकी क्या सेवा करें? यह सुनकर उन्होंने अपना सारा वृत्तान्त पुनः अक्षरशः सुना दिया॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहुभ्यां मे जिता भूमिर्निहताः सर्वशत्रवः।
भवद्भ्यां युद्धमाकाङ्क्षन्नुपयातोऽस्मि पर्वतम् ॥ २१ ॥
आतिथ्यं दीयतामेतत् काङ्क्षितं मे चिरं प्रति।
मूलम्
बाहुभ्यां मे जिता भूमिर्निहताः सर्वशत्रवः।
भवद्भ्यां युद्धमाकाङ्क्षन्नुपयातोऽस्मि पर्वतम् ॥ २१ ॥
आतिथ्यं दीयतामेतत् काङ्क्षितं मे चिरं प्रति।
अनुवाद (हिन्दी)
और कहा—‘मैंने अपने बाहुबलसे सारी पृथ्वीको जीत लिया है तथा सम्पूर्ण शत्रुओंका संहार कर डाला है। अब आप दोनोंसे युद्ध करनेकी इच्छा लेकर इस पर्वतपर आया हूँ। यही मेरा चिरकालसे अभिलषित मनोरथ है। आप अतिथि-सत्कारके रूपमें इसे ही पूर्ण कर दीजिये॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
नरनारायणावूचतुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपेतक्रोधलोभोऽयमाश्रमो राजसत्तम ॥ २२ ॥
न ह्यस्मिन्नाश्रमे युद्धं कुतः शस्त्रं कुतोऽनृजुः।
अन्यत्र युद्धमाकाङ्क्ष बहवः क्षत्रियाः क्षितौ ॥ २३ ॥
मूलम्
अपेतक्रोधलोभोऽयमाश्रमो राजसत्तम ॥ २२ ॥
न ह्यस्मिन्नाश्रमे युद्धं कुतः शस्त्रं कुतोऽनृजुः।
अन्यत्र युद्धमाकाङ्क्ष बहवः क्षत्रियाः क्षितौ ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नर-नारायण बोले— नृपश्रेष्ठ! हमारा यह आश्रम क्रोध और लोभसे रहित है। इस आश्रममें कभी युद्ध नहीं होता, फिर अस्त्र-शस्त्र और कुटिल मनोवृत्तिका मनुष्य यहाँ कैसे रह सकता है? इस पृथ्वीपर बहुत-से क्षत्रिय हैं, अतः आप कहीं और जाकर युद्धकी अभिलाषा पूर्ण कीजिये॥२२-२३॥
मूलम् (वचनम्)
राम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्यमानस्तथापि स्म भूय एवाभ्यभाषत।
पुनः पुनः क्षम्यमाणः सान्त्व्यमानश्च भारत ॥ २४ ॥
दम्भोद्भवो युद्धमिच्छन्नाह्वयत्येव तापसौ ।
मूलम्
उच्यमानस्तथापि स्म भूय एवाभ्यभाषत।
पुनः पुनः क्षम्यमाणः सान्त्व्यमानश्च भारत ॥ २४ ॥
दम्भोद्भवो युद्धमिच्छन्नाह्वयत्येव तापसौ ।
अनुवाद (हिन्दी)
परशुरामजी कहते हैं— भारत! उन दोनों महात्माओंने बारंबार ऐसा कहकर राजासे क्षमा माँगी और उन्हें विविध प्रकारसे सान्त्वना दी। तथापि दम्भोद्भव युद्धकी इच्छासे उन दोनों तापसोंको कहते और ललकारते ही रहे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो नरस्त्विषीकाणां मुष्टिमादाय भारत ॥ २५ ॥
अब्रवीदेहि युद्ध्यस्व युद्धकामुक क्षत्रिय।
सर्वशस्त्राणि चादत्स्व योजयस्व च वाहिनीम् ॥ २६ ॥
(संनह्यस्व च वर्माणि यानि चान्यानि सन्ति ते।)
अहं हि ते विनेष्यामि युद्धश्रद्धामितः परम्।
(यदाह्वयसि दर्पेण ब्राह्मणप्रमुखाञ्जनान् ॥ )
मूलम्
ततो नरस्त्विषीकाणां मुष्टिमादाय भारत ॥ २५ ॥
अब्रवीदेहि युद्ध्यस्व युद्धकामुक क्षत्रिय।
सर्वशस्त्राणि चादत्स्व योजयस्व च वाहिनीम् ॥ २६ ॥
(संनह्यस्व च वर्माणि यानि चान्यानि सन्ति ते।)
अहं हि ते विनेष्यामि युद्धश्रद्धामितः परम्।
(यदाह्वयसि दर्पेण ब्राह्मणप्रमुखाञ्जनान् ॥ )
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! तब महात्मा नरने हाथमें एक मुट्ठी सींक लेकर कहा—‘युद्ध चाहनेवाले क्षत्रिय! आ, युद्ध कर। अपने सारे अस्त्र-शस्त्र ले ले। सारी सेनाको तैयार कर ले, कवच बाँध ले, तेरे पास और भी जितने साधन हों, उन सबसे सम्पन्न हो जा। तू बड़े घमंडमें आकर ब्राह्मण आदि सभी वर्णके लोगोंको ललकारता फिरता है; इसलिये मैं आजसे तेरे युद्धविषयक निश्चयको दूर किये देता हूँ’॥२५-२६॥
मूलम् (वचनम्)
दम्भोद्भव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येतदस्त्रमस्मासु युक्तं तापस मन्यसे ॥ २७ ॥
एतेनापि त्वया योत्स्ये युद्धार्थी ह्यहमागतः।
मूलम्
यद्येतदस्त्रमस्मासु युक्तं तापस मन्यसे ॥ २७ ॥
एतेनापि त्वया योत्स्ये युद्धार्थी ह्यहमागतः।
अनुवाद (हिन्दी)
दम्भोद्भवने कहा— तापस! यदि आप यही अस्त्र हमारे लिये उपयुक्त मानते हैं तो मैं इसके होनेपर भी आपके साथ युद्ध अवश्य करूँगा; क्योंकि मैं युद्धके लिये ही यहाँ आया हूँ॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
राम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा शरवर्षेण सर्वतः समवाकिरत् ॥ २८ ॥
दम्भोद्भवस्तापसं तं जिघांसुः सहसैनिकः।
मूलम्
इत्युक्त्वा शरवर्षेण सर्वतः समवाकिरत् ॥ २८ ॥
दम्भोद्भवस्तापसं तं जिघांसुः सहसैनिकः।
अनुवाद (हिन्दी)
परशुरामजी कहते हैं— ऐसा कहकर सैनिकोंसहित दम्भोद्भवने तपस्वी नरको मार डालनेकी इच्छासे सब ओरसे उनपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तानस्यतो घोरानिषून् परतनुच्छिदः ॥ २९ ॥
कदर्थीकृत्य स मुनिरिषीकाभिः समार्पयत्।
मूलम्
तस्य तानस्यतो घोरानिषून् परतनुच्छिदः ॥ २९ ॥
कदर्थीकृत्य स मुनिरिषीकाभिः समार्पयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
उनके भयंकर बाण शत्रुके शरीरको छिन्न-भिन्न कर देनेवाले थे; परंतु मुनिने उन बाणोंका प्रहार करनेवाले दम्भोद्भवकी कोई परवा न करके सींकोंसे ही उनको बींध डाला॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्मै प्रासृजद् घोरमैषीकमपराजितः ॥ ३० ॥
अस्त्रमप्रतिसंधेयं तदद्भुतमिवाभवत् ।
मूलम्
ततोऽस्मै प्रासृजद् घोरमैषीकमपराजितः ॥ ३० ॥
अस्त्रमप्रतिसंधेयं तदद्भुतमिवाभवत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
तब किसीसे पराजित न होनेवाले महर्षि नरने उनके ऊपर भयंकर ऐषीकास्त्रका प्रयोग किया; जिसका निवारण करना असम्भव था। यह एक अद्भुत-सी घटना हुई॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामक्षीणि कर्णांश्च नासिकाश्चैव मायया ॥ ३१ ॥
निमित्तवेधी स मुनिरिषीकाभिः समार्पयत्।
मूलम्
तेषामक्षीणि कर्णांश्च नासिकाश्चैव मायया ॥ ३१ ॥
निमित्तवेधी स मुनिरिषीकाभिः समार्पयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार लक्ष्यवेध करनेवाले नर मुनिने मायाद्वारा सींकके बाणोंसे ही दम्भोद्भवके सैनिकोंकी आँखों, कानों और नासिकाओंको बींध डाला॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दृष्ट्वा श्वेतमाकाशमिषीकाभिः समाचितम् ॥ ३२ ॥
पादयोर्न्यपतद् राजा स्वस्ति मेऽस्त्विति चाब्रवीत्।
मूलम्
स दृष्ट्वा श्वेतमाकाशमिषीकाभिः समाचितम् ॥ ३२ ॥
पादयोर्न्यपतद् राजा स्वस्ति मेऽस्त्विति चाब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दम्भोद्भव सींकोंसे भरे हुए समूचे आकाशको श्वेतवर्ण हुआ देखकर मुनिके चरणोंमें गिर पड़े और बोले—‘भगवन्! मेरा कल्याण हो’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीन्नरो राजन् शरण्यः शरणैषिणाम् ॥ ३३ ॥
ब्रह्मण्यो भव धर्मात्मा मा च स्मैवं पुनः कृथाः।
मूलम्
तमब्रवीन्नरो राजन् शरण्यः शरणैषिणाम् ॥ ३३ ॥
ब्रह्मण्यो भव धर्मात्मा मा च स्मैवं पुनः कृथाः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! शरण चाहनेवालोंको शरण देनेवाले भगवान् नरने उनसे कहा—‘आजसे तुम ब्राह्मणहितैषी और धर्मात्मा बनो। फिर कभी ऐसा साहस न करना॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतादृक् पुरुषो राजन् क्षत्रधर्ममनुस्मरन् ॥ ३४ ॥
मनसा नृपशार्दूल भवेत् परपुरंजयः।
मूलम्
नैतादृक् पुरुषो राजन् क्षत्रधर्ममनुस्मरन् ॥ ३४ ॥
मनसा नृपशार्दूल भवेत् परपुरंजयः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! नृपश्रेष्ठ! शत्रुनगरविजयी वीर पुरुष क्षत्रियधर्मको स्मरण रखते हुए कभी मनसे भी ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता, जैसा कि तुमने किया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा च दर्पसमाविष्टः क्षेप्सीः कांश्चित् कथंचन ॥ ३५ ॥
अल्पीयांसं विशिष्टं वा तत् ते राजन् समाहितम्।
मूलम्
मा च दर्पसमाविष्टः क्षेप्सीः कांश्चित् कथंचन ॥ ३५ ॥
अल्पीयांसं विशिष्टं वा तत् ते राजन् समाहितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! आजसे फिर कभी घमंडमें आकर अपनेसे बड़े या छोटे किन्हीं राजाओंपर किसी प्रकार भी आक्षेप न करना। इस बातके लिये मैंने तुम्हें सावधान कर दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतप्रज्ञो वीतलोभो निरहंकार आत्मवान् ॥ ३६ ॥
दान्तः क्षान्तो मृदुः सौम्यः प्रजाः पालय पार्थिव।
मा स्म भूयः क्षिपेः कंचिदविदित्वा बलाबलम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
कृतप्रज्ञो वीतलोभो निरहंकार आत्मवान् ॥ ३६ ॥
दान्तः क्षान्तो मृदुः सौम्यः प्रजाः पालय पार्थिव।
मा स्म भूयः क्षिपेः कंचिदविदित्वा बलाबलम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भूपाल! तुम विनीतबुद्धि, लोभशून्य, अहंकाररहित, मनस्वी, जितेन्द्रिय, क्षमाशील, कोमलस्वभाव और सौम्य होकर प्रजाका पालन करो। फिर कभी दूसरोंके बलाबलको जाने बिना किसीपर आक्षेप न करना॥३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञातः स्वस्ति गच्छ मैवं भूयः समाचरेः।
कुशलं ब्राह्मणान् पृच्छेरावयोर्वचनाद् भृशम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
अनुज्ञातः स्वस्ति गच्छ मैवं भूयः समाचरेः।
कुशलं ब्राह्मणान् पृच्छेरावयोर्वचनाद् भृशम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने तुम्हें आज्ञा दे दी, तुम्हारा कल्याण हो, जाओ। फिर ऐसा बर्ताव न करना। विशेषतः हम दोनोंके कहनेसे तुम ब्राह्मणोंसे उनका कुशल-समाचार पूछते रहना’॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राजा तयोः पादावभिवाद्य महात्मनोः।
प्रत्याजगाम स्वपुरं धर्मं चैवाचरद् भृशम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततो राजा तयोः पादावभिवाद्य महात्मनोः।
प्रत्याजगाम स्वपुरं धर्मं चैवाचरद् भृशम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजा दम्भोद्भव उन दोनों महात्माओंके चरणोंमें प्रणाम करके अपनी राजधानीमें लौट आये और विशेषरूपसे धर्मका आचरण करने लगे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमहच्चापि तत् कर्म तन्नरेण कृतं पुरा।
ततो गुणैः सुबहुभिः श्रेष्ठो नारायणोऽभवत् ॥ ४० ॥
मूलम्
सुमहच्चापि तत् कर्म तन्नरेण कृतं पुरा।
ततो गुणैः सुबहुभिः श्रेष्ठो नारायणोऽभवत् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार पूर्वकालमें महात्मा नरने वह महान् कर्म किया था। उनसे भी बहुत गुणोंके कारण भगवान् नारायण श्रेष्ठ हैं॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् यावद् धनुःश्रेष्ठे गाण्डीवेऽस्त्रं न युज्यते।
तावत् त्वं मानमुत्सृज्य गच्छ राजन् धनंजयम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
तस्माद् यावद् धनुःश्रेष्ठे गाण्डीवेऽस्त्रं न युज्यते।
तावत् त्वं मानमुत्सृज्य गच्छ राजन् धनंजयम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः राजन्! जबतक श्रेष्ठ धनुष गाण्डीवपर (दिव्य) अस्त्रोंका संधान नहीं किया जाता, तबतक ही तुम अभिमान छोड़कर अर्जुनसे मिल जाओ॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काकुदीकं शुकं नाकमक्षिसंतर्जनं तथा।
संतानं नर्तकं घोरमास्यमोदकमष्टमम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
काकुदीकं शुकं नाकमक्षिसंतर्जनं तथा।
संतानं नर्तकं घोरमास्यमोदकमष्टमम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काकुदीक (प्रस्वापन), शुक (मोहन), नाक (उन्मादन), अक्षिसंतर्जन (त्रासन), संतान (दैवत), नर्तक (पैशाच), घोर (राक्षस) और आस्यमोदक (याम्य)1 —ये आठ प्रकारके अस्त्र हैं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतैर्विद्धाः सर्व एव मरणं यान्ति मानवाः।
कामक्रोधौ लोभमोहौ मदमानौ तथैव च ॥ ४३ ॥
मात्सर्याहंकृती चैव क्रमादेव उदाहृताः।
मूलम्
एतैर्विद्धाः सर्व एव मरणं यान्ति मानवाः।
कामक्रोधौ लोभमोहौ मदमानौ तथैव च ॥ ४३ ॥
मात्सर्याहंकृती चैव क्रमादेव उदाहृताः।
अनुवाद (हिन्दी)
इन अस्त्रोंसे विद्ध होनेपर सभी मनुष्य मृत्युको प्राप्त होते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मान, मात्सर्य और अहंकार—ये क्रमशः आठ दोष बताये गये हैं, जिनके प्रतीकस्वरूप उपयुक्त आठ अस्त्र हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्मत्ताश्च विचेष्टन्ते नष्टसंज्ञा विचेतसः ॥ ४४ ॥
स्वपन्ति च प्लवन्ते च छर्दयन्ति च मानवाः।
मूत्रयन्ते च सततं रुदन्ति च हसन्ति च ॥ ४५ ॥
मूलम्
उन्मत्ताश्च विचेष्टन्ते नष्टसंज्ञा विचेतसः ॥ ४४ ॥
स्वपन्ति च प्लवन्ते च छर्दयन्ति च मानवाः।
मूत्रयन्ते च सततं रुदन्ति च हसन्ति च ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन अस्त्रोंके प्रयोगसे कुछ लोग उन्मत्त हो जाते हैं और वैसी ही चेष्टाएँ करने लगते हैं। कितनोंको सुध-बुध नहीं रह जाती, वे अचेत हो जाते हैं। कई मनुष्य सोने लगते हैं। कुछ उछलते-कूदते और छींकते हैं। कितने ही मल-मूत्र करने लग जाते हैं और कुछ लोग निरंतर रोते-हँसते रहते हैं॥४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्माता सर्वलोकानामीश्वरः सर्वकर्मवित् ।
यस्य नारायणो बन्धुरर्जुनो दुःसहो युधि ॥ ४६ ॥
मूलम्
निर्माता सर्वलोकानामीश्वरः सर्वकर्मवित् ।
यस्य नारायणो बन्धुरर्जुनो दुःसहो युधि ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सम्पूर्ण लोकोंका निर्माण करनेवाले ईश्वर एवं सब कर्मोंके ज्ञाता नारायण जिनके बन्धु (सहायक) हैं, वे नरस्वरूप अर्जुन युद्धमें दुःसह हैं (क्योंकि उन्हें उपर्युक्त सभी अस्त्रोंका अच्छा ज्ञान है)॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्तमुत्सहते जेतुं त्रिषु लोकेषु भारत।
वीरं कपिध्वजं जिष्णुं यस्य नास्ति समो युधि ॥ ४७ ॥
मूलम्
कस्तमुत्सहते जेतुं त्रिषु लोकेषु भारत।
वीरं कपिध्वजं जिष्णुं यस्य नास्ति समो युधि ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! युद्धभूमिमें जिनकी समानता कोई भी नहीं कर सकता, उन विजयशील वीर कपिध्वज अर्जुनको जीतनेका साहस तीनों लोकोंमें कौन कर सकता है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंख्येया गुणाः पार्थे तद्विशिष्टो जनार्दनः।
त्वमेव भूयो जानासि कुन्तीपुत्रं धनंजयम् ॥ ४८ ॥
नरनारायणौ यौ तौ तावेवार्जुनकेशवौ।
विजानीहि महाराज प्रवीरौ पुरुषोत्तमौ ॥ ४९ ॥
मूलम्
असंख्येया गुणाः पार्थे तद्विशिष्टो जनार्दनः।
त्वमेव भूयो जानासि कुन्तीपुत्रं धनंजयम् ॥ ४८ ॥
नरनारायणौ यौ तौ तावेवार्जुनकेशवौ।
विजानीहि महाराज प्रवीरौ पुरुषोत्तमौ ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! अर्जुनमें असंख्य गुण हैं एवं भगवान् जनार्दन तो उनसे भी बढ़कर हैं। तुम भी कुन्तीपुत्र अर्जुनको अच्छी तरह जानते हो। जो दोनों महात्मा नर और नारायणके नामसे प्रसिद्ध हैं, वे ही अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं। तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि वे दोनों पुरुषरत्न सर्वश्रेष्ठ वीर हैं॥४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येतदेवं जानासि न च मामभिशङ्कसे।
आर्यां मतिं समास्थाय शाम्य भारत पाण्डवैः ॥ ५० ॥
मूलम्
यद्येतदेवं जानासि न च मामभिशङ्कसे।
आर्यां मतिं समास्थाय शाम्य भारत पाण्डवैः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! यदि तुम इस बातको इस रूपमें जानते हो और मुझपर तुम्हें तनिक भी संदेह नहीं है तो मेरे कहनेसे श्रेष्ठ बुद्धिका आश्रय लेकर पाण्डवोंके साथ संधि कर लो॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ चेन्मन्यसे श्रेयो न मे भेदो भवेदिति।
प्रशाम्य भरतश्रेष्ठ मा च युद्धे मनः कृथाः ॥ ५१ ॥
मूलम्
अथ चेन्मन्यसे श्रेयो न मे भेदो भवेदिति।
प्रशाम्य भरतश्रेष्ठ मा च युद्धे मनः कृथाः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! यदि तुम्हारी यह इच्छा हो कि हमलोगोंमे फूट न हो और इसीमें तुम अपना कल्याण समझो, तब तो संधि करके शान्त हो जाओ और युद्धमें मन न लगाओ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवतां च कुरुश्रेष्ठ कुलं बहुमतं भुवि।
तत् तथैवास्तु भद्रं ते स्वार्थमेवोपचिन्तय ॥ ५२ ॥
मूलम्
भवतां च कुरुश्रेष्ठ कुलं बहुमतं भुवि।
तत् तथैवास्तु भद्रं ते स्वार्थमेवोपचिन्तय ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! तुम्हारा कुल इस पृथ्वीपर बहुत प्रतिष्ठित है। वह उसी प्रकार सम्मानित बना रहे और तुम्हारा कल्याण हो, इसके लिये अपने वास्तविक स्वार्थका ही चिन्तन करो॥५२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि दम्भोद्भवोपाख्याने षण्णवतितमोऽध्यायः ॥ ९६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें दम्भोद्भवका कथाविषयक छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९६॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ५३ श्लोक हैं।]
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जिस अस्त्रसे अभिभूत होकर योद्धा रथ और हाथी आदिके ककुद् (पृष्ठभाग)-पर ही सोते रह जाते हैं, उसका नाम काकुदीक एवं प्रस्वापन है। जैसे शुक पानीके ऊपर रखी हुई बाँसकी नलिकाको पकड़कर भयसे चिल्लाता रहता है, उसी प्रकार जिससे मोहित हुए योद्धा बिना भयके ही भय देखकर घोड़े और रथ आदिके पाँवोंसे चिपट जाते हैं; उस अस्त्रका नाम शुक अथवा मोहन है। जिस अस्त्रसे भ्रान्तचित्त होकर मनुष्यको नाक (स्वर्ग)-लोक दिखायी देने लगे, वह नाक या उन्मादन कहलाता है। जिसके प्रहारसे विद्ध होकर लोग त्रासके कारण मल-मूत्र करने लगते हैं, वह अक्षिसंतर्जन अथवा त्रासन नामक अस्त्र है। संतान अथवा दैवत अस्त्र वह है, जिसके प्रयोगसे अविच्छिन्नरूपसे अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा होने लगती है। जिसके प्रयोगसे मनुष्य वेदनाके मारे नाच उठता है, वह नर्तक या पैशाच अस्त्र है। भयानक संहारकारी अस्त्रको घोर अथवा राक्षस कहा गया है। जिससे आहत होकर लोग मुँहमें पत्थर रखकर मरनेके लिये निकल पड़ते हैं, वह आस्यमोदक अथवा याम्य नामक अस्त्र है। (भारतभावदीपटीका) ↩︎