०९५ श्रीकृष्णवाक्ये

भागसूचना

पञ्चनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कौरवसभामें श्रीकृष्णका प्रभावशाली भाषण

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेष्वासीनेषु सर्वेषु तूष्णीम्भूतेषु राजसु।
वाक्यमभ्याददे कृष्णः सुदंष्ट्रो दुन्दुभिस्वनः ॥ १ ॥
जीमूत इव घर्मान्ते सर्वां संश्रावयन् सभाम्।
धृतराष्ट्रमभिप्रेक्ष्य समभाषत माधवः ॥ २ ॥

मूलम्

तेष्वासीनेषु सर्वेषु तूष्णीम्भूतेषु राजसु।
वाक्यमभ्याददे कृष्णः सुदंष्ट्रो दुन्दुभिस्वनः ॥ १ ॥
जीमूत इव घर्मान्ते सर्वां संश्रावयन् सभाम्।
धृतराष्ट्रमभिप्रेक्ष्य समभाषत माधवः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब सभामें सब राजा मौन होकर बैठ गये, तब सुन्दर दन्तावलिसे सुशोभित तथा दुन्दुभिके समान गम्भीर स्वरवाले यदुकुलतिलक भगवान् श्रीकृष्णने बोलना आरम्भ किया। जैसे ग्रीष्म-ऋतुके अन्तमें बादल गर्जता है, उसी प्रकार उन्होंने गम्भीर गर्जनाके साथ सारी सभाको सुनाते हुए धृतराष्ट्रकी ओर देखकर इस प्रकार कहा॥१-२॥श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरूणां पाण्डवानां च शमः स्यादिति भारत।
अप्रणाशेन वीराणामेतद् याचितुमागतः ॥ ३ ॥

मूलम्

कुरूणां पाण्डवानां च शमः स्यादिति भारत।
अप्रणाशेन वीराणामेतद् याचितुमागतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— भरतनन्दन! मैं आपसे यह प्रार्थना करनेके लिये यहाँ आया हूँ कि क्षत्रियवीरोंका संहार हुए बिना ही कौरवों और पाण्डवोंमें शान्तिस्थापन हो जाय॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् नान्यत् प्रवक्तव्यं तव नैःश्रेयसं वचः।
विदितं ह्येव ते सर्वं वेदितव्यमरिंदम ॥ ४ ॥

मूलम्

राजन् नान्यत् प्रवक्तव्यं तव नैःश्रेयसं वचः।
विदितं ह्येव ते सर्वं वेदितव्यमरिंदम ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन नरेश! मुझे इसके सिवा दूसरी कोई कल्याणकारक बात आपसे नहीं कहनी है; क्योंकि जाननेयोग्य जितनी बातें हैं, वे सब आपको विदित ही हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं ह्यद्य कुलं श्रेष्ठं सर्वराजसु पार्थिव।
श्रुतवृत्तोपसम्पन्नं सर्वैः समुदितं गुणैः ॥ ५ ॥

मूलम्

इदं ह्यद्य कुलं श्रेष्ठं सर्वराजसु पार्थिव।
श्रुतवृत्तोपसम्पन्नं सर्वैः समुदितं गुणैः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! इस समय समस्त राजाओंमें यह कुरुवंश ही सर्वश्रेष्ठ है। इसमें शास्त्र एवं सदाचारका पूर्णतः आदर एवं पालन किया जाता है। यह कौरवकुल समस्त सद्‌गुणोंसे सम्पन्न है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपानुकम्पा कारुण्यमानृशंस्यं च भारत।
तथाऽऽर्जवं क्षमा सत्यं कुरुष्वेतद् विशिष्यते ॥ ६ ॥

मूलम्

कृपानुकम्पा कारुण्यमानृशंस्यं च भारत।
तथाऽऽर्जवं क्षमा सत्यं कुरुष्वेतद् विशिष्यते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! कुरुवंशियोंमें कृपा1, अनुकम्पा2, करुणा3, अनृशंसता4, सरलता, क्षमा और सत्य—ये सद्‌गुण अन्य राजवंशोंकी अपेक्षा अधिक पाये जाते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नेवंविधे राजन् कुले महति तिष्ठति।
त्वन्निमित्तं विशेषेण नेह युक्तमसाम्प्रतम् ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्मिन्नेवंविधे राजन् कुले महति तिष्ठति।
त्वन्निमित्तं विशेषेण नेह युक्तमसाम्प्रतम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ऐसे उत्तम गुणसम्पन्न एवं अत्यन्त प्रतिष्ठित कुलके होते हुए भी यदि इसमें आपके कारण कोई अनुचित कार्य हो, तो यह ठीक नहीं है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि धारयिता श्रेष्ठः कुरूणां कुरुसत्तम।
मिथ्या प्रचरतां तात बाह्येष्वाभ्यन्तरेषु च ॥ ८ ॥

मूलम्

त्वं हि धारयिता श्रेष्ठः कुरूणां कुरुसत्तम।
मिथ्या प्रचरतां तात बाह्येष्वाभ्यन्तरेषु च ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात कुरुश्रेष्ठ! यदि कौरवगण बाहर और भीतर (प्रकट और गुप्तरूपसे) मिथ्या आचरण (असद्व्यवहार) करने लगें, तो आप ही उन्हें रोककर सन्मार्गमें स्थापित करनेवाले हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते पुत्रास्तव कौरव्य दुर्योधनपुरोगमाः।
धर्मार्थौ पृष्ठतः कृत्वा प्रचरन्ति नृशंसवत् ॥ ९ ॥

मूलम्

ते पुत्रास्तव कौरव्य दुर्योधनपुरोगमाः।
धर्मार्थौ पृष्ठतः कृत्वा प्रचरन्ति नृशंसवत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! दुर्योधनादि आपके पुत्र धर्म और अर्थको पीछे करके क्रूर मनुष्योंके समान आचरण करते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशिष्टा गतमर्यादा लोभेन हृतचेतसः।
स्वेषु बन्धुषु मुख्येषु तद् वेत्थ पुरुषर्षभ ॥ १० ॥

मूलम्

अशिष्टा गतमर्यादा लोभेन हृतचेतसः।
स्वेषु बन्धुषु मुख्येषु तद् वेत्थ पुरुषर्षभ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषरत्न! ये अपने ही श्रेष्ठ बन्धुओंके साथ अशिष्टतापूर्ण बर्ताव करते हैं। लोभने इनके हृदय-को ऐसा वशीभूत कर लिया है कि इन्होंने धर्मकी मर्यादा तोड़ दी है। इस बातको आप अच्छी तरह जानते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेयमापन्महाघोरा कुरुष्वेव समुत्थिता ।
उपेक्ष्यमाणा कौरव्य पृथिवीं घातयिष्यति ॥ ११ ॥

मूलम्

सेयमापन्महाघोरा कुरुष्वेव समुत्थिता ।
उपेक्ष्यमाणा कौरव्य पृथिवीं घातयिष्यति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! इस समय यह अत्यन्त भयंकर आपत्ति कौरवोंमें ही प्रकट हुई है। यदि इसकी उपेक्षा की गयी तो यह समस्त भूमण्डलका विध्वंस कर डालेगी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्या चेयं शमयितुं त्वं चेदिच्छसि भारत।
न दुष्करो ह्यत्र शमो मतो मे भरतर्षभ ॥ १२ ॥

मूलम्

शक्या चेयं शमयितुं त्वं चेदिच्छसि भारत।
न दुष्करो ह्यत्र शमो मतो मे भरतर्षभ ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! यदि आप चाहते हों तो इस भयानक विपत्तिका अब भी निवारण किया जा सकता है। भरतश्रेष्ठ! इन दोनों पक्षोंमें शान्ति स्थापित होना मैं कठिन कार्य नहीं मानता हूँ॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वय्यधीनः शमो राजन् मयि चैव विशाम्पते।
पुत्रान् स्थापय कौरव्य स्थापयिष्याम्यहं परान् ॥ १३ ॥

मूलम्

त्वय्यधीनः शमो राजन् मयि चैव विशाम्पते।
पुत्रान् स्थापय कौरव्य स्थापयिष्याम्यहं परान् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजापालक कौरवनरेश! इस समय इन दोनों पक्षोंमें संधि कराना आपके और मेरे अधीन है। आप अपने पुत्रोंको मर्यादामें रखिये और मैं पाण्डवोंको नियन्त्रणमें रखूँगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आज्ञा तव हि राजेन्द्र कार्या पुत्रैः सहान्वयैः।
हितं बलवदप्येषां तिष्ठतां तव शासने ॥ १४ ॥

मूलम्

आज्ञा तव हि राजेन्द्र कार्या पुत्रैः सहान्वयैः।
हितं बलवदप्येषां तिष्ठतां तव शासने ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! आपके पुत्रोंको चाहिये कि वे अपने अनुयायियोंके साथ आपकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करें। आपके शासनमें रहनेसे ही इनका महान् हित हो सकता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव चैव हितं राजन् पाण्डवानामथो हितम्।
शमे प्रयतमानस्य तव शासनकाङ्क्षिणः ॥ १५ ॥

मूलम्

तव चैव हितं राजन् पाण्डवानामथो हितम्।
शमे प्रयतमानस्य तव शासनकाङ्क्षिणः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यदि आप अपने पुत्रोंपर शासन करना चाहें और संधिके लिये प्रयत्न करें तो इसीमें आपका भी हित है और इसीसे पाण्डवोंका भी भला हो सकता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं निष्फलमालक्ष्य संविधत्स्व विशाम्पते।
सहायभूता भरतास्तवैव स्युर्जनेश्वर ॥ १६ ॥

मूलम्

स्वयं निष्फलमालक्ष्य संविधत्स्व विशाम्पते।
सहायभूता भरतास्तवैव स्युर्जनेश्वर ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! पाण्डवोंके साथ वैर और विवादका कोई अच्छा परिणाम नहीं हो सकता; यह विचारकर आप स्वयं ही संधिके लिये प्रयत्न करें। जनेश्वर! ऐसा करनेसे भरतवंशी पाण्डव आपके ही सहायक होंगे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थयोस्तिष्ठ राजन् पाण्डवैरभिरक्षितः ।
न हि शक्यास्तथाभूता यत्नादपि नराधिप ॥ १७ ॥

मूलम्

धर्मार्थयोस्तिष्ठ राजन् पाण्डवैरभिरक्षितः ।
न हि शक्यास्तथाभूता यत्नादपि नराधिप ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आप पाण्डवोंसे सुरक्षित होकर धर्म और अर्थका अनुष्ठान कीजिये। नरेन्द्र! आपको पाण्डवोंके समान संरक्षक प्रयत्न करनेपर भी नहीं मिल सकते॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि त्वां पाण्डवैर्जेतुं रक्ष्यमाणं महात्मभिः।
इन्द्रोऽपि देवैः सहितः प्रसहेत कुतो नृपः ॥ १८ ॥

मूलम्

न हि त्वां पाण्डवैर्जेतुं रक्ष्यमाणं महात्मभिः।
इन्द्रोऽपि देवैः सहितः प्रसहेत कुतो नृपः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा पाण्डवोंसे सुरक्षित होनेपर आपको देवताओंसहित इन्द्र भी नहीं जीत सकते, फिर दूसरे किसी राजाकी तो बात ही क्या है?॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र भीष्मश्च द्रोणश्च कृपः कर्णो विविंशतिः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सोमदत्तोऽथ बाह्लिकः ॥ १९ ॥
सैन्धवश्च कलिङ्गश्च काम्बोजश्च सुदक्षिणः।
युधिष्ठिरो भीमसेनः सव्यसाची यमौ तथा ॥ २० ॥
सात्यकिश्च महातेजा युयुत्सुश्च महारथः।
को नु तान् विपरीतात्मा युद्ध्येत भरतर्षभ ॥ २१ ॥

मूलम्

यत्र भीष्मश्च द्रोणश्च कृपः कर्णो विविंशतिः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सोमदत्तोऽथ बाह्लिकः ॥ १९ ॥
सैन्धवश्च कलिङ्गश्च काम्बोजश्च सुदक्षिणः।
युधिष्ठिरो भीमसेनः सव्यसाची यमौ तथा ॥ २० ॥
सात्यकिश्च महातेजा युयुत्सुश्च महारथः।
को नु तान् विपरीतात्मा युद्ध्येत भरतर्षभ ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जिस पक्षमें भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, विविंशति, अश्वत्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाह्लिक, सिन्धुराज जयद्रथ, कलिंगराज, काम्बोजनरेश सुदक्षिण तथा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल-सहदेव, महातेजस्वी सात्यकि तथा महारथी युयुत्सु हों; उस पक्षके योद्धाओंसे कौन विपरीत बुद्धिवाला राजा युद्ध कर सकता है?॥१९—२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकस्येश्वरतां भूयः शत्रुभिश्चाप्यधृष्यताम् ।
प्राप्स्यसि त्वममित्रघ्न सहितः कुरुपाण्डवैः ॥ २२ ॥

मूलम्

लोकस्येश्वरतां भूयः शत्रुभिश्चाप्यधृष्यताम् ।
प्राप्स्यसि त्वममित्रघ्न सहितः कुरुपाण्डवैः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसूदन नरेश! कौरव और पाण्डवोंके साथ रहनेपर आप पुनः सम्पूर्ण जगत्‌के सम्राट् होकर शत्रुओंके लिये अजेय हो जायँगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य ते पृथिवीपालास्त्वत्समाः पृथिवीपते।
श्रेयांसश्चैव राजानः संधास्यन्ते परंतप ॥ २३ ॥

मूलम्

तस्य ते पृथिवीपालास्त्वत्समाः पृथिवीपते।
श्रेयांसश्चैव राजानः संधास्यन्ते परंतप ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले भूपाल! उस दशामें जो राजा आपके समान या आपसे बड़े हैं, वे भी आपके साथ संधि कर लेंगे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं पुत्रैश्च पौत्रैश्च पितृभिर्भ्रातृभिस्तथा।
सुहृद्भिः सर्वतो गुप्तः सुखं शक्ष्यसि जीवितुम् ॥ २४ ॥

मूलम्

स त्वं पुत्रैश्च पौत्रैश्च पितृभिर्भ्रातृभिस्तथा।
सुहृद्भिः सर्वतो गुप्तः सुखं शक्ष्यसि जीवितुम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार आप अपने पुत्र, पौत्र, पिता, भाई और सुहृदोंद्वारा सर्वथा सुरक्षित रहकर सुखसे जीवन बिता सकेंगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतानेव पुरोधाय सत्कृत्य च यथा पुरा।
अखिलां भोक्ष्यसे सर्वां पृथिवीं पृथिवीपते ॥ २५ ॥

मूलम्

एतानेव पुरोधाय सत्कृत्य च यथा पुरा।
अखिलां भोक्ष्यसे सर्वां पृथिवीं पृथिवीपते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीपते! यदि आप पहलेकी भाँति इन पाण्डवोंका ही सत्कार करके इन्हें आगे रखें तो इस सारी पृथ्वीका उपभोग करेंगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतैर्हि सहितः सर्वैः पाण्डवैः स्वैश्च भारत।
अन्यान् विजेष्यसे शत्रूनेष स्वार्थस्तवाखिलः ॥ २६ ॥

मूलम्

एतैर्हि सहितः सर्वैः पाण्डवैः स्वैश्च भारत।
अन्यान् विजेष्यसे शत्रूनेष स्वार्थस्तवाखिलः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! इन समस्त पाण्डवों तथा अपने पुत्रोंके साथ रहकर आप दूसरे शत्रुओंपर भी विजय प्राप्त कर सकेंगे। इस प्रकार आपके सम्पूर्ण स्वार्थकी सिद्धि होगी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैरेवोपार्जितां भूमिं भोक्ष्यसे च परंतप।
यदि सम्पत्स्यसे पुत्रैः सहामात्यैर्नराधिप ॥ २७ ॥

मूलम्

तैरेवोपार्जितां भूमिं भोक्ष्यसे च परंतप।
यदि सम्पत्स्यसे पुत्रैः सहामात्यैर्नराधिप ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसंतापी नरेश! यदि आप मन्त्रियोंसहित अपने समस्त पुत्रों (पाण्डवों और कौरवों)-से मिलकर रहेंगे तो उन्हींके द्वारा जीती हुई इस पृथ्वीका राज्य भोगेंगे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संयुगे वै महाराज दृश्यते सुमहान् क्षयः।
क्षये चोभयतो राजन् कं धर्ममनुपश्यसि ॥ २८ ॥

मूलम्

संयुगे वै महाराज दृश्यते सुमहान् क्षयः।
क्षये चोभयतो राजन् कं धर्ममनुपश्यसि ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! युद्ध छिड़नेपर तो महान् संहार ही दिखायी देता है। राजन्! इस प्रकार दोनों पक्षका विनाश करानेमें आप कौन-सा धर्म देखते हैं?॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवैर्निहतैः संख्ये पुत्रैर्वापि महाबलैः
यद् विन्देथाः सुखं राजंस्तद् ब्रूहि भरतर्षभ ॥ २९ ॥

मूलम्

पाण्डवैर्निहतैः संख्ये पुत्रैर्वापि महाबलैः
यद् विन्देथाः सुखं राजंस्तद् ब्रूहि भरतर्षभ ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! यदि पाण्डव युद्धमें मारे गये अथवा आपके महाबली पुत्र ही नष्ट हो गये तो उस दशामें आपको कौन-सा सुख मिलेगा? यह बताइये॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूराश्च हि कृतास्त्राश्च सर्वे युद्धाभिकाङ्क्षिणः।
पाण्डवास्तावकाश्चैव तान् रक्ष महतो भयात् ॥ ३० ॥

मूलम्

शूराश्च हि कृतास्त्राश्च सर्वे युद्धाभिकाङ्क्षिणः।
पाण्डवास्तावकाश्चैव तान् रक्ष महतो भयात् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डव तथा आपके पुत्र सभी शूरवीर, अस्त्रविद्याके पारंगत तथा युद्धकी अभिलाषा रखनेवाले हैं। आप इन सबकी महान् भयसे रक्षा कीजिये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पश्येम कुरून् सर्वान् पाण्डवांश्चैव संयुगे।
क्षीणानुभयतः शूरान् रथिनो रथिभिर्हतान् ॥ ३१ ॥

मूलम्

न पश्येम कुरून् सर्वान् पाण्डवांश्चैव संयुगे।
क्षीणानुभयतः शूरान् रथिनो रथिभिर्हतान् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धके परिणामपर विचार करनेसे हमें समस्त कौरव और पाण्डव नष्टप्राय दिखायी देते हैं। दोनों ही पक्षोंके शूरवीर रथी रथियोंसे ही मारे जाकर नष्ट हो जायँगे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समवेताः पृथिव्यां हि राजानो राजसत्तम।
अमर्षवशमापन्ना नाशयेयुरिमाः प्रजाः ॥ ३२ ॥

मूलम्

समवेताः पृथिव्यां हि राजानो राजसत्तम।
अमर्षवशमापन्ना नाशयेयुरिमाः प्रजाः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! भूमण्डलके समस्त राजा यहाँ एकत्र हो अमर्षमें भरकर इन प्रजाओंका नाश करेंगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्राहि राजन्निमं लोकं न नश्येयुरिमाः प्रजाः।
त्वयि प्रकृतिमापन्ने शेषः स्यात् कुरुनन्दन ॥ ३३ ॥

मूलम्

त्राहि राजन्निमं लोकं न नश्येयुरिमाः प्रजाः।
त्वयि प्रकृतिमापन्ने शेषः स्यात् कुरुनन्दन ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले नरेश! आप इस जगत्‌की रक्षा कीजिये; जिससे इन समस्त प्रजाओंका नाश न हो। आपके प्रकृतिस्थ होनेपर ये सब लोग बच जायँगे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्ला वदान्या ह्रीमन्त आर्याः पुण्याभिजातयः।
अन्योन्यसचिवा राजंस्तान् पाहि महतो भयात् ॥ ३४ ॥

मूलम्

शुक्ला वदान्या ह्रीमन्त आर्याः पुण्याभिजातयः।
अन्योन्यसचिवा राजंस्तान् पाहि महतो भयात् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ये सब नरेश शुद्ध, उदार, लज्जाशील, श्रेष्ठ, पवित्र कुलोंमें उत्पन्न और एक-दूसरेके सहायक हैं। आप इन सबकी महान् भयसे रक्षा कीजिये॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिवेनेमे भूमिपालाः समागम्य परस्परम्।
सह भुक्त्वा च पीत्वा च प्रतियान्तु यथागृहम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

शिवेनेमे भूमिपालाः समागम्य परस्परम्।
सह भुक्त्वा च पीत्वा च प्रतियान्तु यथागृहम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे ये भूपाल परस्पर मिलकर तथा एक साथ खा-पीकर कुशलपूर्वक अपने-अपने घरको वापस लौटें॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवाससः स्रग्विणश्च सत्कृता भरतर्षभ।
अमर्षं च निराकृत्य वैराणि च परंतप ॥ ३६ ॥

मूलम्

सुवाससः स्रग्विणश्च सत्कृता भरतर्षभ।
अमर्षं च निराकृत्य वैराणि च परंतप ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले भरतकुलभूषण! ये राजालोग उत्तम वस्त्र और सुन्दर हार पहनकर अमर्ष और वैरको मनसे निकालकर यहाँसे सत्कारपूर्वक विदा हों॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हार्दं यत् पाण्डवेष्वासीत् प्राप्तेऽस्मिन्नायुषः क्षये।
तदेव ते भवत्वद्य संधत्स्व भरतर्षभ ॥ ३७ ॥

मूलम्

हार्दं यत् पाण्डवेष्वासीत् प्राप्तेऽस्मिन्नायुषः क्षये।
तदेव ते भवत्वद्य संधत्स्व भरतर्षभ ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! अब आपकी आयु भी क्षीण हो चली है; इस बुढ़ापेमें आपका पाण्डवोंके ऊपर वैसा ही स्नेह बना रहे, जैसा पहले था; अतः संधि कर लीजिये॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाला विहीनाः पित्रा ते त्वयैव परिवर्धिताः।
तान् पालय यथान्यायं पुत्रांश्च भरतर्षभ ॥ ३८ ॥

मूलम्

बाला विहीनाः पित्रा ते त्वयैव परिवर्धिताः।
तान् पालय यथान्यायं पुत्रांश्च भरतर्षभ ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतर्षभ! पाण्डव बाल्यावस्थामें ही पितासे बिछुड़ गये थे। आपने ही उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया; अतः उनका और अपने पुत्रोंका न्यायपूर्वक पालन कीजिये॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवतैव हि रक्ष्यास्ते व्यसनेषु विशेषतः।
मा ते धर्मस्तथैवार्थो नश्येत भरतर्षभ ॥ ३९ ॥

मूलम्

भवतैव हि रक्ष्यास्ते व्यसनेषु विशेषतः।
मा ते धर्मस्तथैवार्थो नश्येत भरतर्षभ ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण! आपको ही पाण्डवोंकी सदा रक्षा करनी चाहिये। विशेषतः संकटके अवसरपर तो आपके लिये उनकी रक्षा अत्यन्त आवश्यक है ही। कहीं ऐसा न हो कि पाण्डवोंसे वैर बाँधनेके कारण आपके धर्म और अर्थ दोनों नष्ट हो जायँ॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहुस्त्वां पाण्डवा राजन्नभिवाद्य प्रसाद्य च।
भवतः शासनाद् दुःखमनुभूतं सहानुगैः ॥ ४० ॥

मूलम्

आहुस्त्वां पाण्डवा राजन्नभिवाद्य प्रसाद्य च।
भवतः शासनाद् दुःखमनुभूतं सहानुगैः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पाण्डवोंने आपको प्रणाम करके प्रसन्न करते हुए यह संदेश कहलाया है—‘तात! आपकी आज्ञासे अनुचरोंसहित हमने भारी दुःख सहन किया है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वादशेमानि वर्षाणि वने निर्व्युषितानि नः।
त्रयोदशं तथाज्ञातैः सजने परिवत्सरम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

द्वादशेमानि वर्षाणि वने निर्व्युषितानि नः।
त्रयोदशं तथाज्ञातैः सजने परिवत्सरम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बारह वर्षोंतक हमने निर्जन वनमें निवास किया है और तेरहवाँ वर्ष जनसमुदायसे भरे हुए नगरमें अज्ञात रहकर बिताया है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थाता नः समये तस्मिन् पितेति कृतनिश्चयाः।
नाहास्म समयं तात तच्च नो ब्राह्मणा विदुः ॥ ४२ ॥

मूलम्

स्थाता नः समये तस्मिन् पितेति कृतनिश्चयाः।
नाहास्म समयं तात तच्च नो ब्राह्मणा विदुः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! आप हमारे ज्येष्ठ पिता हैं, अतः हमारे विषयमें की हुई अपनी प्रतिज्ञापर डटे रहेंगे (अर्थात् वनवाससे लौटनेपर हमारा राज्य हमें प्रसन्नतापूर्वक लौटा देंगे)—ऐसा निश्चय करके ही हमने वनवास और अज्ञातवासकी शर्तको कभी नहीं तोड़ा है, इस बातको हमारे साथ रहे हुए ब्राह्मणलोग जानते हैं॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् नः समये तिष्ठ स्थितानां भरतर्षभ।
नित्यं संक्लेशिता राजन् स्वराज्यांशं लभेमहि ॥ ४३ ॥

मूलम्

तस्मिन् नः समये तिष्ठ स्थितानां भरतर्षभ।
नित्यं संक्लेशिता राजन् स्वराज्यांशं लभेमहि ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतवंशशिरोमणे! हम उस प्रतिज्ञापर दृढ़तापूर्वक स्थित रहे हैं; अतः आप भी हमारे साथ की हुई अपनी प्रतिज्ञापर डटे रहें। राजन्! हमने सदा क्लेश उठाया है; अब हमें हमारा राज्यभाग प्राप्त होना चाहिये॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं धर्ममर्थं संजानन् सम्यङ्नस्त्रातुमर्हसि।
गुरुत्वं भवति प्रेक्ष्य बहून् क्लेशांस्तितिक्ष्महे ॥ ४४ ॥
स भवान् मातृपितृवदस्मासु प्रतिपद्यताम्।

मूलम्

त्वं धर्ममर्थं संजानन् सम्यङ्नस्त्रातुमर्हसि।
गुरुत्वं भवति प्रेक्ष्य बहून् क्लेशांस्तितिक्ष्महे ॥ ४४ ॥
स भवान् मातृपितृवदस्मासु प्रतिपद्यताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप धर्म और अर्थके ज्ञाता हैं; अतः हमलोगोंकी रक्षा कीजिये। आपमें गुरुत्व देखकर— आप गुरुजन हैं, यह विचार करके (आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये) हम बहुत-से क्लेश चुपचाप सहते जा रहे हैं; अब आप भी हमारे ऊपर माता-पिताकी भाँति स्नेहपूर्ण बर्ताव कीजिये॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरोर्गरीयसी वृत्तिर्या च शिष्यस्य भारत ॥ ४५ ॥
वर्तामहे त्वयि च तां त्वं च वर्तस्व नस्तथा।

मूलम्

गुरोर्गरीयसी वृत्तिर्या च शिष्यस्य भारत ॥ ४५ ॥
वर्तामहे त्वयि च तां त्वं च वर्तस्व नस्तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! गुरुजनोंके प्रति शिष्य एवं पुत्रोंका जो बर्ताव होना चाहिये, हम आपके प्रति उसीका पालन करते हैं। आप भी हमलोगोंपर गुरुजनोचित स्नेह रखते हुए तदनुरूप बर्ताव कीजिये॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्रा स्थापयितव्या हि वयमुत्पथमास्थिताः ॥ ४६ ॥
संस्थापय पथिष्वस्मांस्तिष्ठ धर्मे सुवर्त्मनि।

मूलम्

पित्रा स्थापयितव्या हि वयमुत्पथमास्थिताः ॥ ४६ ॥
संस्थापय पथिष्वस्मांस्तिष्ठ धर्मे सुवर्त्मनि।

अनुवाद (हिन्दी)

‘हम पुत्रगण यदि कुमार्गपर जा रहे हों तो पिताके नाते आपका कर्तव्य है कि हमें सन्मार्गमें स्थापित करें। इसलिये आप स्वयं धर्मके सुन्दर मार्गपर स्थित होइये और हमें भी धर्मके मार्गपर ही लाइये’॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहुश्चेमां परिषदं पुत्रास्ते भरतर्षभ ॥ ४७ ॥
धर्मज्ञेषु सभासत्सु नेह युक्तमसाम्प्रतम्।

मूलम्

आहुश्चेमां परिषदं पुत्रास्ते भरतर्षभ ॥ ४७ ॥
धर्मज्ञेषु सभासत्सु नेह युक्तमसाम्प्रतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! आपके पुत्र पाण्डवोंने इस सभाके लिये भी यह संदेश दिया है—‘आप समस्त सभासद्‌गण धर्मके ज्ञाता हैं। आपके रहते हुए यहाँ कोई अयोग्य कार्य हो, यह उचित नहीं है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च ॥ ४८ ॥
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः।

मूलम्

यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च ॥ ४८ ॥
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जहाँ सभासदोंके देखते-देखते अधर्मके द्वारा धर्मका और मिथ्याके द्वारा सत्यका गला घोंटा जाता हो, वहाँ वे सभासद् नष्ट हुए माने जाते हैं॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्धो धर्मो ह्यधर्मेण सभां यत्र प्रपद्यते ॥ ४९ ॥
न चास्य शल्यं कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः।
धर्म एतानारुजति यथा नद्यनुकूलजान् ॥ ५० ॥

मूलम्

विद्धो धर्मो ह्यधर्मेण सभां यत्र प्रपद्यते ॥ ४९ ॥
न चास्य शल्यं कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः।
धर्म एतानारुजति यथा नद्यनुकूलजान् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिस सभामें अधर्मसे विद्ध हुआ धर्म प्रवेश करता है और सभासद्‌गण उस अधर्मरूपी काँटेको काटकर निकाल नहीं देते हैं, वहाँ उस काँटेसे सभासद् ही विद्ध होते हैं (अर्थात् उन्हें ही अधर्मसे लिप्त होना पड़ता है)। जैसे नदी अपने तटपर उगे हुए वृक्षोंको गिराकर नष्ट कर देती है, उसी प्रकार वह अधर्मविद्ध धर्म ही उन सभासदोंका नाश कर डालता है’॥४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये धर्ममनुपश्यन्तस्तूष्णीं ध्यायन्त आसते।
ते सत्यमाहुर्धर्म्यं च न्याय्यं च भरतर्षभ ॥ ५१ ॥

मूलम्

ये धर्ममनुपश्यन्तस्तूष्णीं ध्यायन्त आसते।
ते सत्यमाहुर्धर्म्यं च न्याय्यं च भरतर्षभ ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जो पाण्डव सदा धर्मकी ओर ही दृष्टि रखते हैं और उसीका विचार करके चुपचाप बैठे हैं, वे जो आपसे राज्य लौटा देनेका अनुरोध करते हैं, वह सत्य, धर्मसम्मत और न्यायसंगत है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्यं किमन्यद् वक्तुं ते दानादन्यज्जनेश्वर।
ब्रुवन्तु ते महीपालाः सभायां ये समासते ॥ ५२ ॥
धर्मार्थौ सम्प्रधार्यैव यदि सत्यं ब्रवीम्यहम्।
प्रमुञ्चेमान् मृत्युपाशात् क्षत्रियान् पुरुषर्षभ ॥ ५३ ॥

मूलम्

शक्यं किमन्यद् वक्तुं ते दानादन्यज्जनेश्वर।
ब्रुवन्तु ते महीपालाः सभायां ये समासते ॥ ५२ ॥
धर्मार्थौ सम्प्रधार्यैव यदि सत्यं ब्रवीम्यहम्।
प्रमुञ्चेमान् मृत्युपाशात् क्षत्रियान् पुरुषर्षभ ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! आपसे पाण्डवोंका राज्य लौटा देनेके सिवा दूसरी कौन-सी बात यहाँ कही जा सकती है। इस सभामें जो भूमिपाल बैठे हैं, वे धर्म और अर्थका विचार करके स्वयं बतावें, मैं ठीक कहता हूँ या नहीं। पुरुषरत्न! आप इन क्षत्रियोंको मौतके फंदेसे छुड़ाइये॥५२-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रशाम्य भरतश्रेष्ठ मा मन्युवशमन्वगाः।
पित्र्यं तेभ्यः प्रदायांशं पाण्डवेभ्यो यथोचितम् ॥ ५४ ॥
ततः सपुत्रः सिद्धार्थो भुङ्क्ष्व भोगान् परंतप।

मूलम्

प्रशाम्य भरतश्रेष्ठ मा मन्युवशमन्वगाः।
पित्र्यं तेभ्यः प्रदायांशं पाण्डवेभ्यो यथोचितम् ॥ ५४ ॥
ततः सपुत्रः सिद्धार्थो भुङ्क्ष्व भोगान् परंतप।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! शान्त हो जाइये, क्रोधके वशीभूत न होइये। परंतप! पाण्डवोंको यथोचित पैतृक राज्यभाग देकर अपने पुत्रोंके साथ सफलमनोरथ हो मनोवांछित भोग भोगिये॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजातशत्रुं जानीषे स्थितं धर्मे सतां सदा ॥ ५५ ॥
सपुत्रे त्वयि वृत्तिं च वर्तते यां नराधिप।
दाहितश्च निरस्तश्च त्वामेवोपाश्रितः पुनः ॥ ५६ ॥

मूलम्

अजातशत्रुं जानीषे स्थितं धर्मे सतां सदा ॥ ५५ ॥
सपुत्रे त्वयि वृत्तिं च वर्तते यां नराधिप।
दाहितश्च निरस्तश्च त्वामेवोपाश्रितः पुनः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! आप जानते हैं कि अजातशत्रु युधिष्ठिर सदा सत्पुरुषोंके धर्मपर स्थित हैं। उनका पुत्रोंसहित आपके प्रति जो बर्ताव है, उससे भी आप अपरिचित नहीं हैं। आपलोगोंने उन्हें लाक्षागृहकी आगमें जलवाया तथा राज्य और देशसे निकाल दिया; तो भी वे पुनः आपकी ही शरणमें आये हैं॥५५-५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रप्रस्थं त्वयैवासौ सपुत्रेण विवासितः।
स तत्र विवसन् सर्वान् वशमानीय पार्थिवान् ॥ ५७ ॥
त्वन्मुखानकरोद् राजन् न च त्वामत्यवर्तत।

मूलम्

इन्द्रप्रस्थं त्वयैवासौ सपुत्रेण विवासितः।
स तत्र विवसन् सर्वान् वशमानीय पार्थिवान् ॥ ५७ ॥
त्वन्मुखानकरोद् राजन् न च त्वामत्यवर्तत।

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रोंसहित आपने ही युधिष्ठिरको यहाँसे निकालकर इन्द्रप्रस्थका निवासी बनाया। वहाँ रहकर उन्होंने समस्त राजाओंको अपने वशमें किया और उन्हें आपका मुखापेक्षी बना दिया। राजन्! तो भी युधिष्ठिरने कभी आपकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं किया॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैवं वर्तमानस्य सौबलेन जिहीर्षता ॥ ५८ ॥
राष्ट्राणि धनधान्यं च प्रयुक्तः परमोपधिः।

मूलम्

तस्यैवं वर्तमानस्य सौबलेन जिहीर्षता ॥ ५८ ॥
राष्ट्राणि धनधान्यं च प्रयुक्तः परमोपधिः।

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे साधु बर्ताववाले युधिष्ठिरके राज्य तथा धन-धान्यका अपहरण कर लेनेकी इच्छासे सुबलपुत्र शकुनिने जूएके बहाने अपना महान् कपटजाल फैलाया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तामवस्थां सम्प्राप्य कृष्णां प्रेक्ष्य सभागताम् ॥ ५९ ॥
क्षत्रधर्मादमेयात्मा नाकम्पत युधिष्ठिरः ।

मूलम्

स तामवस्थां सम्प्राप्य कृष्णां प्रेक्ष्य सभागताम् ॥ ५९ ॥
क्षत्रधर्मादमेयात्मा नाकम्पत युधिष्ठिरः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस दयनीय अवस्थामें पहुँचकर अपनी महारानी कृष्णाको सभामें (तिरस्कारपूर्वक) लायी गयी देखकर भी महामना युधिष्ठिर अपने क्षत्रियधर्मसे विचलित नहीं हुए॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं तु तव तेषां च श्रेय इच्छामि भारत॥६०॥
धर्मादर्थात् सुखाच्चैव मा राजन् नीनशः प्रजाः।
अनर्थमर्थं मन्वानोऽप्यर्थं चानर्थमात्मनः ॥ ६१ ॥

मूलम्

अहं तु तव तेषां च श्रेय इच्छामि भारत॥६०॥
धर्मादर्थात् सुखाच्चैव मा राजन् नीनशः प्रजाः।
अनर्थमर्थं मन्वानोऽप्यर्थं चानर्थमात्मनः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! मैं तो आपका और पाण्डवोंका भी कल्याण ही चाहता हूँ। राजन्! आप समस्त प्रजाको धर्म, अर्थ और सुखसे वंचित न कीजिये। इस समय आप अनर्थको ही अर्थ और अर्थको ही अपने लिये अनर्थ मान रहे हैं॥६०-६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभेऽतिप्रसृतान् पुत्रान् निगृह्णीष्व विशाम्पते।
स्थिताः शुश्रूषितुं पार्थाः स्थिता योद्धुमरिंदमाः।
यत् ते पथ्यतमं राजंस्तस्मिंस्तिष्ठ परंतप ॥ ६२ ॥

मूलम्

लोभेऽतिप्रसृतान् पुत्रान् निगृह्णीष्व विशाम्पते।
स्थिताः शुश्रूषितुं पार्थाः स्थिता योद्धुमरिंदमाः।
यत् ते पथ्यतमं राजंस्तस्मिंस्तिष्ठ परंतप ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! आपके पुत्र लोभमें अत्यन्त आसक्त हो गये हैं, उन्हें काबूमें लाइये। राजन्! शत्रुओंका दमन करनेवाले कुन्तीके पुत्र आपकी सेवाके लिये भी तैयार हैं और युद्धके लिये भी प्रस्तुत हैं। परंतप! जो आपके लिये विशेष हितकर जान पड़े, उसी मार्गका अवलम्बन कीजिये॥६२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् वाक्यं पार्थिवाः सर्वे हृदयैः समपूजयन्।
न तत्र कश्चिद् वक्तुं हि वाचं प्राक्रामदग्रतः ॥ ६३ ॥

मूलम्

तद् वाक्यं पार्थिवाः सर्वे हृदयैः समपूजयन्।
न तत्र कश्चिद् वक्तुं हि वाचं प्राक्रामदग्रतः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भगवान् श्रीकृष्णके उस कथनका समस्त राजाओंने हृदयसे आदर किया। वहाँ उसके उत्तरमें कोई भी कुछ कहनेके लिये अग्रसर न हो सका॥६३॥इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि श्रीकृष्णवाक्ये पञ्चनवतितमोऽध्यायः॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें कौरवसभामें श्रीकृष्णवाक्यविषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९५॥


  1. दुसरोंको सुख पहुँचानेकी सहज भावनाका नाम ‘कृपा’ है। ↩︎

  2. दूसरोंका दुःख देखकर द्रवित होना एवं काँप उठना ‘अनुकम्पा’ कहलाता है। ↩︎

  3. दूसरोंके दुःखको दूर करनेका भाव ‘करुणा’ है। ↩︎

  4. क्रूरताका सर्वथा अभाव ‘अनृशंसता’ कहलाता है। ↩︎