भागसूचना
द्विनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
विदुरजीका धृतराष्ट्रपुत्रोंकी दुर्भावना बताकर श्रीकृष्णको उनके कौरवसभामें जानेका अनौचित्य बतलाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं भुक्तवन्तमाश्वस्तं निशायां विदुरोऽब्रवीत्।
नेदं सम्यग् व्यवसितं केशवागमनं तव ॥ १ ॥
मूलम्
तं भुक्तवन्तमाश्वस्तं निशायां विदुरोऽब्रवीत्।
नेदं सम्यग् व्यवसितं केशवागमनं तव ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! रातमें जब भगवान् श्रीकृष्ण भोजन करके विश्राम कर रहे थे, उस समय विदुरजीने उनसे कहा—‘केशव! आपने जो यहाँ आनेका विचार किया, यह मेरी समझमें अच्छा नहीं हुआ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थधर्मातिगो मन्दः संरम्भी च जनार्दन।
मानघ्नो मानकामश्च वृद्धानां शासनातिगः ॥ २ ॥
मूलम्
अर्थधर्मातिगो मन्दः संरम्भी च जनार्दन।
मानघ्नो मानकामश्च वृद्धानां शासनातिगः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जनार्दन! मन्दमति दुर्योधन धर्म और अर्थ दोनोंका उल्लंघन कर चुका है। वह क्रोधी, दूसरोंके सम्मानको नष्ट करनेवाला और स्वयं सम्मान चाहनेवाला है। उसने बड़े-बूढ़े गुरुजनोंके आदेशको भी ठुकरा दिया है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मशास्त्रातिगो मूढो दुरात्मा प्रग्रहं गतः।
अनेयः श्रेयसां मन्दो धार्तराष्ट्रो जनार्दन ॥ ३ ॥
मूलम्
धर्मशास्त्रातिगो मूढो दुरात्मा प्रग्रहं गतः।
अनेयः श्रेयसां मन्दो धार्तराष्ट्रो जनार्दन ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! मूढ़ धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन धर्मशास्त्रोंकी भी आज्ञा नहीं मानता; सदा अपना ही हठ रखता है। उस दुरात्माको सन्मार्गपर ले आना असम्भव है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामात्मा प्राज्ञमानी च मित्रध्रुक् सर्वशङ्कितः।
अकर्ता चाकृतज्ञश्च त्यक्तधर्मा प्रियानृतः ॥ ४ ॥
मूलम्
कामात्मा प्राज्ञमानी च मित्रध्रुक् सर्वशङ्कितः।
अकर्ता चाकृतज्ञश्च त्यक्तधर्मा प्रियानृतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसका मन भोगोंमें आसक्त है, वह अपनेको पण्डित मानता, मित्रोंके साथ द्रोह करता और सबको संदेहकी दृष्टिसे देखता है। वह स्वयं तो किसीका उपकार करता ही नहीं, दूसरोंके किये हुए उपकारको भी नहीं मानता। वह धर्मको त्यागकर असत्यसे ही प्रेम करने लगा है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूढश्चाकृतबुद्धिश्च इन्द्रियाणामनीश्वरः ।
कामानुसारी कृत्येषु सर्वेष्वकृतनिश्चयः ॥ ५ ॥
मूलम्
मूढश्चाकृतबुद्धिश्च इन्द्रियाणामनीश्वरः ।
कामानुसारी कृत्येषु सर्वेष्वकृतनिश्चयः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसमें विवेकका सर्वथा अभाव है, उसकी बुद्धि किसी एक निश्चयपर नहीं रहती तथा वह अपनी इन्द्रियोंको काबूमें रखनेमें असमर्थ है। वह अपनी इच्छाओंका अनुसरण करनेवाला तथा सभी कार्योंमें अनिश्चित विचार रखनेवाला है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्दोषैरेव समन्वितः ।
त्वयोच्यमानः श्रेयोऽपि संरम्भान्न ग्रहीष्यति ॥ ६ ॥
मूलम्
एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्दोषैरेव समन्वितः ।
त्वयोच्यमानः श्रेयोऽपि संरम्भान्न ग्रहीष्यति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये तथा और भी बहुत-से दोष उसमें भरे हुए हैं। आप उसे हितकी बात बतायेंगे, तो भी वह क्रोधवश उसे स्वीकार नहीं करेगा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मे द्रोणे कृपे कर्णे द्रोणपुत्रे जयद्रथे।
भूयसीं वर्तते वृत्तिं न शमे कुरुते मनः ॥ ७ ॥
मूलम्
भीष्मे द्रोणे कृपे कर्णे द्रोणपुत्रे जयद्रथे।
भूयसीं वर्तते वृत्तिं न शमे कुरुते मनः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा तथा जयद्रथपर अधिक भरोसा रखता है, अतः उसके मनमें संधि करनेका विचार ही नहीं होता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निश्चितं धार्तराष्ट्राणां सकर्णानां जनार्दन।
भीष्मद्रोणमुखान् पार्था न शक्ताः प्रतिवीक्षितुम् ॥ ८ ॥
मूलम्
निश्चितं धार्तराष्ट्राणां सकर्णानां जनार्दन।
भीष्मद्रोणमुखान् पार्था न शक्ताः प्रतिवीक्षितुम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जनार्दन! धृतराष्ट्रके सभी पुत्रों तथा कर्णकी यह निश्चित धारणा है कि कुन्तीके पुत्र भीष्म एवं द्रोणाचार्य आदि वीरोंकी ओर देखनेमें भी समर्थ नहीं हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेनासमुदयं कृत्वा पार्थिवं मधुसूदन।
कृतार्थं मन्यते बाल आत्मानमविचक्षणः ॥ ९ ॥
मूलम्
सेनासमुदयं कृत्वा पार्थिवं मधुसूदन।
कृतार्थं मन्यते बाल आत्मानमविचक्षणः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! मूर्ख एवं बुद्धिहीन दुर्योधन राजाओंकी सेना एकत्र करके अपने-आपको कृतकृत्य मानता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकः कर्णः पराञ्जेतुं समर्थ इति निश्चितम्।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः स शमं नोपयास्यति ॥ १० ॥
मूलम्
एकः कर्णः पराञ्जेतुं समर्थ इति निश्चितम्।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः स शमं नोपयास्यति ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्बुद्धि दुर्योधनको तो इस बातका भी दृढ़ विश्वास है कि अकेला कर्ण ही शत्रुओंको जीतनेमें समर्थ है; इसलिये वह कदापि संधि नहीं करेगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संविच्च धार्तराष्ट्राणां सर्वेषामेव केशव।
शमे प्रयतमानस्य तव सौभ्रात्रकाङ्क्षिणः ॥ ११ ॥
न पाण्डवानामस्माभिः प्रतिदेयं यथोचितम्।
इति व्यवसितास्तेषु वचनं स्यान्निरर्थकम् ॥ १२ ॥
मूलम्
संविच्च धार्तराष्ट्राणां सर्वेषामेव केशव।
शमे प्रयतमानस्य तव सौभ्रात्रकाङ्क्षिणः ॥ ११ ॥
न पाण्डवानामस्माभिः प्रतिदेयं यथोचितम्।
इति व्यवसितास्तेषु वचनं स्यान्निरर्थकम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘केशव! धृतराष्ट्रके सभी पुत्रोंने यह पक्का विचार कर लिया है कि हमें पाण्डवोंको उनका यथोचित राज्यभाग नहीं देना चाहिये। यही उनका दृढ़ निश्चय है। इधर आप संधिके लिये प्रयत्न करते हुए उनमें उत्तम भ्रातृभाव जगाना चाहते हैं; परंतु उन दुष्टोंके प्रति आप जो कुछ भी कहेंगे, वह सब व्यर्थ ही होगा॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र सूक्तं दुरुक्तं च समं स्यान्मधुसूदन।
न तत्र प्रलपेत् प्राज्ञो बधिरेष्विव गायनः ॥ १३ ॥
मूलम्
यत्र सूक्तं दुरुक्तं च समं स्यान्मधुसूदन।
न तत्र प्रलपेत् प्राज्ञो बधिरेष्विव गायनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! जहाँ अच्छी और बुरी बातोंका एक-सा ही परिणाम हो, वहाँ विद्वान् पुरुषको कुछ नहीं कहना चाहिये। वहाँ कोई बात कहना बहरोंके आगे राग अलापनेके समान व्यर्थ ही है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविजानत्सु मूढेषु निर्मर्यादेषु माधव।
न त्वं वाक्यं ब्रुवन् युक्तश्चाण्डालेषु द्विजो यथा ॥ १४ ॥
मूलम्
अविजानत्सु मूढेषु निर्मर्यादेषु माधव।
न त्वं वाक्यं ब्रुवन् युक्तश्चाण्डालेषु द्विजो यथा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माधव! जैसे चाण्डालोंके बीचमें किसी विद्वान् ब्राह्मणका उपदेश देना उचित नहीं है, उसी प्रकार उन मर्यादारहित मूर्ख और अज्ञानियोंके समीप आपका कुछ भी कहना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽयं बलस्थो मूढश्च न करिष्यति ते वचः।
तस्मिन् निरर्थकं वाक्यमुक्तं सम्पत्स्यते तव ॥ १५ ॥
मूलम्
सोऽयं बलस्थो मूढश्च न करिष्यति ते वचः।
तस्मिन् निरर्थकं वाक्यमुक्तं सम्पत्स्यते तव ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मूढ़ दुर्योधन सैन्यसंग्रह करके अपनेको शक्तिशाली समझता है। वह आपकी बात नहीं मानेगा। उसके प्रति कहा हुआ आपका प्रत्येक वाक्य निरर्थक होगा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां समुपविष्टानां सर्वेषां पापचेतसाम्।
तव मध्यावतरणं मम कृष्ण न रोचते ॥ १६ ॥
दुर्बुद्धीनामशिष्टानां बहूनां दुष्टचेतसाम् ।
प्रतीपं वचनं मध्ये तव कृष्ण न रोचते ॥ १७ ॥
मूलम्
तेषां समुपविष्टानां सर्वेषां पापचेतसाम्।
तव मध्यावतरणं मम कृष्ण न रोचते ॥ १६ ॥
दुर्बुद्धीनामशिष्टानां बहूनां दुष्टचेतसाम् ।
प्रतीपं वचनं मध्ये तव कृष्ण न रोचते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीकृष्ण! वे सभी पापपूर्ण विचार लेकर बैठे हुए हैं; अतः उनके बीचमें आपका जाना मुझे अच्छा नहीं लगता है। वे सब-के-सब दुर्बुद्धि, अशिष्ट और दुष्टचित्त हैं। उनकी संख्या भी बहुत है। श्रीकृष्ण! आप उनके बीचमें जाकर कोई प्रतिकूल बात कहें, यह मुझे ठीक नहीं जान पड़ता॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुपासितवृद्धत्वाच्छ्रियो दर्पाच्च मोहितः ।
वयोदर्पादमर्षाच्च न ते श्रेयो ग्रहीष्यति ॥ १८ ॥
मूलम्
अनुपासितवृद्धत्वाच्छ्रियो दर्पाच्च मोहितः ।
वयोदर्पादमर्षाच्च न ते श्रेयो ग्रहीष्यति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्योधनने कभी वृद्ध पुरुषोंका सेवन नहीं किया है। वह राजलक्ष्मीके घमण्डसे मोहित है। इसके सिवा उसे अपनी युवावस्थापर भी गर्व है और वह पाण्डवोंके प्रति सदा अमर्षमें भरा रहता है। अतः आपकी हितकर बात भी वह नहीं मानेगा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलं बलवदप्यस्य यदि वक्ष्यसि माधव।
त्वय्यस्य महती शङ्का न करिष्यति ते वचः ॥ १९ ॥
मूलम्
बलं बलवदप्यस्य यदि वक्ष्यसि माधव।
त्वय्यस्य महती शङ्का न करिष्यति ते वचः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माधव! दुर्योधनके पास प्रबल सैन्यबल है। इसके सिवा आपपर उसे महान् संदेह है। अतः आप यदि उससे अच्छी बात कहेंगे, तो भी वह आपकी बात नहीं मानेगा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेदमद्य युधा शक्यमिन्द्रेणापि सहामरैः।
इति व्यवसिताः सर्वे धार्तराष्ट्रा जनार्दन ॥ २० ॥
मूलम्
नेदमद्य युधा शक्यमिन्द्रेणापि सहामरैः।
इति व्यवसिताः सर्वे धार्तराष्ट्रा जनार्दन ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जनार्दन! धृतराष्ट्रके सभी पुत्रोंको यह दृढ़ विश्वास है कि देवताओंसहित इन्द्र भी इस समय युद्धके द्वारा हमारी इस सेनाको परास्त नहीं कर सकते॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेष्वेवमुपपन्नेषु कामक्रोधानुवर्तिषु ।
समर्थमपि ते वाक्यमसमर्थं भविष्यति ॥ २१ ॥
मूलम्
तेष्वेवमुपपन्नेषु कामक्रोधानुवर्तिषु ।
समर्थमपि ते वाक्यमसमर्थं भविष्यति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो इस प्रकार निश्चय किये बैठे हैं और काम-क्रोधके ही पीछे चलनेवाले हैं, उनके प्रति आपका युक्तियुक्त एवं सार्थक वचन भी निरर्थक एवं असफल हो जायगा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्ये तिष्ठन् हस्त्यनीकस्य मन्दो
रथाश्वयुक्तस्य बलस्य मूढः ।
दुर्योधनो मन्यते वीतभीतिः
कृत्स्ना मयेयं पृथिवी जितेति ॥ २२ ॥
मूलम्
मध्ये तिष्ठन् हस्त्यनीकस्य मन्दो
रथाश्वयुक्तस्य बलस्य मूढः ।
दुर्योधनो मन्यते वीतभीतिः
कृत्स्ना मयेयं पृथिवी जितेति ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रथियों और घुड़सवारोंसे युक्त हाथियोंकी सेनाके बीचमें खड़ा होकर भयसे रहित हुआ मन्दबुद्धि मूढ़ दुर्योधन यह समझता है कि यह सारी पृथ्वी मैंने जीत ली॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशंसते वै धृतराष्ट्रस्य पुत्रो
महाराज्यमसपत्नं पृथिव्याम् ।
तस्मिञ्छमः केवलो नोपलभ्यो
बद्धं सन्तं मन्यते लब्धमर्थम् ॥ २३ ॥
मूलम्
आशंसते वै धृतराष्ट्रस्य पुत्रो
महाराज्यमसपत्नं पृथिव्याम् ।
तस्मिञ्छमः केवलो नोपलभ्यो
बद्धं सन्तं मन्यते लब्धमर्थम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धृतराष्ट्रका वह ज्येष्ठ पुत्र भूमण्डलका शत्रुरहित साम्राज्य पानेकी आशा रखता है। वह मन-ही-मन यह संकल्प भी करता है कि जूएमें प्राप्त हुआ यह धन एवं राज्य अब मेरे ही अधिकारमें आबद्ध रहे; अतः उसके प्रति केवल संधिका प्रयत्न सफल न होगा॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्यस्तेयं पृथिवी कालपक्वा
दुर्योधनार्थे पाण्डवान् योद्धुकामाः ।
समागताः सर्वयोधाः पृथिव्यां
राजानश्च क्षितिपालैः समेताः ॥ २४ ॥
मूलम्
पर्यस्तेयं पृथिवी कालपक्वा
दुर्योधनार्थे पाण्डवान् योद्धुकामाः ।
समागताः सर्वयोधाः पृथिव्यां
राजानश्च क्षितिपालैः समेताः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जान पड़ता है, अब यह पृथ्वी कालसे परिपक्व होकर नष्ट होनेवाली है; क्योंकि राजाओंके साथ भूमण्डलके समस्त क्षत्रिय योद्धा दुर्योधनके लिये पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेकी इच्छासे यहाँ एकत्र हुए हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे चैते कृतवैराः पुरस्तात्
त्वया राजानो हृतसाराश्च कृष्ण।
तवोद्वेगात् संश्रिता धार्तराष्ट्रान्
सुसंहताः सह कर्णेन वीराः ॥ २५ ॥
मूलम्
सर्वे चैते कृतवैराः पुरस्तात्
त्वया राजानो हृतसाराश्च कृष्ण।
तवोद्वेगात् संश्रिता धार्तराष्ट्रान्
सुसंहताः सह कर्णेन वीराः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीकृष्ण! ये सब-के-सब वे ही भूपाल हैं, जिन्होंने पहले आपके साथ वैर ठाना था और जिनका सार-सर्वस्व आपने हर लिया था। ये लोग आपके भयसे धृतराष्ट्रपुत्रोंकी शरणमें आये हैं तथा कर्णके साथ संगठित हो वीरता दिखानेको उद्यत हुए हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्तात्मानः सह दुर्योधनेन
हृष्टा योद्धुं पाण्डवान् सर्वयोधाः।
तेषां मध्ये प्रविशेथा यदि त्वं
न तन्मतं मम दाशार्ह वीर ॥ २६ ॥
मूलम्
त्यक्तात्मानः सह दुर्योधनेन
हृष्टा योद्धुं पाण्डवान् सर्वयोधाः।
तेषां मध्ये प्रविशेथा यदि त्वं
न तन्मतं मम दाशार्ह वीर ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये सब योद्धा दुर्योधनके साथ मिल गये हैं और अपने प्राणोंका मोह छोड़कर हर्ष एवं उत्साहके साथ पाण्डवोंसे युद्ध करनेको तैयार हैं। दशार्हवंशी वीर! ऐसे विरोधियोंके बीचमें यदि आप जानेको उद्यत हैं तो यह मुझे ठीक नहीं जान पड़ता॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां समुपविष्टानां बहूनां दुष्टचेतसाम्।
कथं मध्यं प्रपद्येथाः शत्रूणां शत्रुकर्शन ॥ २७ ॥
सर्वथा त्वं महाबाहो देवैरपि दुरुत्सहः।
प्रभावं पौरुषं बुद्धिं जानामि तव शत्रुहन् ॥ २८ ॥
या मे प्रीतिः पाण्डवेषु भूयः सा त्वयि माधव।
प्रेम्णा च बहुमानाच्च सौहृदाच्च ब्रवीम्यहम् ॥ २९ ॥
मूलम्
तेषां समुपविष्टानां बहूनां दुष्टचेतसाम्।
कथं मध्यं प्रपद्येथाः शत्रूणां शत्रुकर्शन ॥ २७ ॥
सर्वथा त्वं महाबाहो देवैरपि दुरुत्सहः।
प्रभावं पौरुषं बुद्धिं जानामि तव शत्रुहन् ॥ २८ ॥
या मे प्रीतिः पाण्डवेषु भूयः सा त्वयि माधव।
प्रेम्णा च बहुमानाच्च सौहृदाच्च ब्रवीम्यहम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुसूदन! जहाँ दुष्टतापूर्ण विचार लिये बहुसंख्यक शत्रु बैठे हों, वहाँ उनके बीच आप कैसे जाना चाहते हैं? शत्रुहन्ता महाबाहु श्रीकृष्ण! यद्यपि सम्पूर्ण देवता भी सर्वथा आपके सामने टिक नहीं सकते हैं तथा आपका जो प्रभाव, पुरुषार्थ और बुद्धिबल है, उसे भी मैं जानता हूँ; तथापि माधव! पाण्डवोंपर जो मेरा प्रेम है, वही और उससे भी बढ़कर आपके प्रति है। अतः प्रेम, अधिक आदर और सौहार्दसे प्रेरित होकर मैं यह बात कह रहा हूँ॥२७—२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या मे प्रीतिः पुष्कराक्ष त्वद्दर्शनसमुद्भवा।
सा किमाख्यायते तुभ्यमन्तरात्मासि देहिनाम् ॥ ३० ॥
मूलम्
या मे प्रीतिः पुष्कराक्ष त्वद्दर्शनसमुद्भवा।
सा किमाख्यायते तुभ्यमन्तरात्मासि देहिनाम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कमलनयन! आपके दर्शनसे आपके प्रति मेरा जो प्रेम उमड़ आया है, उसका आपसे क्या वर्णन किया जाय? आप समस्त देहधारियोंके अन्तर्यामी आत्मा हैं (अतः स्वयं ही सब कुछ देखते और जानते हैं)’॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि श्रीकृष्णविदुरसंवादे द्विनवतितमोऽध्यायः ॥ ९२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें श्रीकृष्ण-विदुरसंवादविषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९२॥