भागसूचना
एकनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णका दुर्योधनके घर जाना एवं उसके निमन्त्रणको अस्वीकार करके विदुरजीके घरपर भोजन करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथामामन्त्र्य गोविन्दः कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम्।
दुर्योधनगृहं शौरिरभ्यगच्छदरिंदमः ॥ १ ॥
मूलम्
पृथामामन्त्र्य गोविन्दः कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम्।
दुर्योधनगृहं शौरिरभ्यगच्छदरिंदमः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! शत्रुओंका दमन करनेवाले शूरनन्दन श्रीकृष्ण कुन्तीकी परिक्रमा करके एवं उनकी आज्ञा ले दुर्योधनके घर गये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्म्या परमया युक्तं पुरन्दरगृहोपमम्।
विचित्रैरासनैर्युक्तं प्रविवेश जनार्दनः ॥ २ ॥
मूलम्
लक्ष्म्या परमया युक्तं पुरन्दरगृहोपमम्।
विचित्रैरासनैर्युक्तं प्रविवेश जनार्दनः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह घर इन्द्रभवनके समान उत्तम शोभासे सम्पन्न था। उसमें यथास्थान विचित्र आसन सजाकर रखे गये थे। श्रीकृष्णने उस गृहमें प्रवेश किया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य कक्ष्या व्यतिक्रम्य तिस्रो द्वाःस्थैरवारितः।
ततोऽभ्रघनसंकाशं गिरिकूटमिवोच्छ्रितम् ॥ ३ ॥
श्रिया ज्वलन्तं प्रासादमारुरोह महायशाः।
मूलम्
तस्य कक्ष्या व्यतिक्रम्य तिस्रो द्वाःस्थैरवारितः।
ततोऽभ्रघनसंकाशं गिरिकूटमिवोच्छ्रितम् ॥ ३ ॥
श्रिया ज्वलन्तं प्रासादमारुरोह महायशाः।
अनुवाद (हिन्दी)
द्वारपालोंने रोक-टोक नहीं की। उस राजभवनकी तीन ड्योढ़ियाँ पार करके महायशस्वी श्रीकृष्ण एक ऐसे प्रासादपर आरूढ़ हुए, जो आकाशमें छाये हुए शरद्-ऋतुके बादलोंके समान श्वेत, पर्वतशिखरके समान ऊँचा तथा अपनी अद्भुत प्रभासे प्रकाशमान था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र राजसहस्रैश्च कुरुभिश्चाभिसंवृतम् ॥ ४ ॥
धार्तराष्ट्रं महाबाहुं ददर्शासीनमासने ।
मूलम्
तत्र राजसहस्रैश्च कुरुभिश्चाभिसंवृतम् ॥ ४ ॥
धार्तराष्ट्रं महाबाहुं ददर्शासीनमासने ।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उन्होंने सिंहासनपर बैठे हुए धृतराष्ट्रपुत्र महाबाहु दुर्योधनको देखा, जो सहस्रों राजाओं तथा कौरवोंसे घिरा हुआ था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःशासनं च कर्णं च शकुनिं चापि सौबलम् ॥ ५ ॥
दुर्योधनसमीपे तानासनस्थान् ददर्श सः।
मूलम्
दुःशासनं च कर्णं च शकुनिं चापि सौबलम् ॥ ५ ॥
दुर्योधनसमीपे तानासनस्थान् ददर्श सः।
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनके पास ही दुःशासन, कर्ण तथा सुबलपुत्र शकुनि—ये भी आसनोंपर बैठे थे। श्रीकृष्णने उनको भी देखा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्यागच्छति दाशार्हे धार्तराष्ट्रो महायशाः ॥ ६ ॥
उदतिष्ठत् सहामात्यः पूजयन् मधुसूदनम्।
मूलम्
अभ्यागच्छति दाशार्हे धार्तराष्ट्रो महायशाः ॥ ६ ॥
उदतिष्ठत् सहामात्यः पूजयन् मधुसूदनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
दशार्हनन्दन श्रीकृष्णके आते ही महायशस्वी दुर्योधन मधुसूदनका सम्मान करते हुए मन्त्रियोंसहित उठकर खड़ा हो गया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समेत्य धार्तराष्ट्रेण सहामात्येन केशवः ॥ ७ ॥
राजभिस्तत्र वार्ष्णेयः समागच्छद् यथावयः।
मूलम्
समेत्य धार्तराष्ट्रेण सहामात्येन केशवः ॥ ७ ॥
राजभिस्तत्र वार्ष्णेयः समागच्छद् यथावयः।
अनुवाद (हिन्दी)
मन्त्रियोंसहित दुर्योधनसे मिलकर वृष्णिकुलभूषण केशव अवस्थाके अनुसार वहाँ सभी राजाओंसे यथायोग्य मिले॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र जाम्बूनदमयं पर्यङ्कं सुपरिष्कृतम् ॥ ८ ॥
विविधास्तरणास्तीर्णमभ्युपाविशदच्युतः ।
मूलम्
तत्र जाम्बूनदमयं पर्यङ्कं सुपरिष्कृतम् ॥ ८ ॥
विविधास्तरणास्तीर्णमभ्युपाविशदच्युतः ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस राजसभामें सुन्दर रत्नोंसे विभूषित एक सुवर्णमय पर्यंक रखा हुआ था, जिसपर भाँति-भाँतिके बिछौने बिछे हुए थे। भगवान् श्रीकृष्ण उसीपर विराजमान हुए॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् गां मधुपर्कं चाप्युदकं च जनार्दने ॥ ९ ॥
निवेदयामास तदा गृहान् राज्यं च कौरवः।
मूलम्
तस्मिन् गां मधुपर्कं चाप्युदकं च जनार्दने ॥ ९ ॥
निवेदयामास तदा गृहान् राज्यं च कौरवः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कुरुराजने जनार्दनकी सेवामें गौ, मधुपर्क, जल, गृह तथा राज्य सब कुछ निवेदन कर दिया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र गोविन्दमासीनं प्रसन्नादित्यवर्चसम् ॥ १० ॥
उपासांचक्रिरे सर्वे कुरवो राजभिः सह।
मूलम्
तत्र गोविन्दमासीनं प्रसन्नादित्यवर्चसम् ॥ १० ॥
उपासांचक्रिरे सर्वे कुरवो राजभिः सह।
अनुवाद (हिन्दी)
उस पर्यंकपर बैठे हुए भगवान् गोविन्द निर्मल सूर्यके समान तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे। उस समय राजाओंसहित समस्त कौरव उनके पास आकर बैठ गये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा वार्ष्णेयं जयतां वरम् ॥ ११ ॥
न्यमन्त्रयद् भोजनेन नाभ्यनन्दच्च केशवः।
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा वार्ष्णेयं जयतां वरम् ॥ ११ ॥
न्यमन्त्रयद् भोजनेन नाभ्यनन्दच्च केशवः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजा दुर्योधनने विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्णको भोजनके लिये निमन्त्रित किया; परंतु केशवने उस निमन्त्रणको स्वीकार नहीं किया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनः कृष्णमब्रवीत् कुरुसंसदि ॥ १२ ॥
मृदुपूर्वं शठोदर्कं कर्णमाभाष्य कौरवः।
मूलम्
ततो दुर्योधनः कृष्णमब्रवीत् कुरुसंसदि ॥ १२ ॥
मृदुपूर्वं शठोदर्कं कर्णमाभाष्य कौरवः।
अनुवाद (हिन्दी)
तब कुरुराज दुर्योधनने कर्णसे सलाह लेकर कौरवसभामें श्रीकृष्णसे पूछा। पूछते समय उसकी वाणीमें पहले तो मृदुता थी, परंतु अन्तमें शठता प्रकट होने लगी थी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्मादन्नानि पानानि वासांसि शयनानि च ॥ १३ ॥
त्वदर्थमुपनीतानि नाग्रहीस्त्वं जनार्दन ।
मूलम्
कस्मादन्नानि पानानि वासांसि शयनानि च ॥ १३ ॥
त्वदर्थमुपनीतानि नाग्रहीस्त्वं जनार्दन ।
अनुवाद (हिन्दी)
(दुर्योधन बोला—) जनार्दन! आपके लिये अन्न, जल, वस्त्र और शय्या आदि जो वस्तुएँ प्रस्तुत की गयीं, उन्हें आपने ग्रहण क्यों नहीं किया?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभयोश्चाददाः साह्यमुभयोश्च हिते रतः ॥ १४ ॥
सम्बन्धी दयितश्चासि धृतराष्ट्रस्य माधव।
त्वं हि गोविन्द धर्मार्थौ वेत्थ तत्त्वेन सर्वशः।
तत्र कारणमिच्छामि श्रोतुं चक्रगदाधर ॥ १५ ॥
मूलम्
उभयोश्चाददाः साह्यमुभयोश्च हिते रतः ॥ १४ ॥
सम्बन्धी दयितश्चासि धृतराष्ट्रस्य माधव।
त्वं हि गोविन्द धर्मार्थौ वेत्थ तत्त्वेन सर्वशः।
तत्र कारणमिच्छामि श्रोतुं चक्रगदाधर ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने तो दोनों पक्षोंको ही सहायता दी है, आप उभयपक्षके हित-साधनमें तत्पर हैं। माधव! महाराज धृतराष्ट्रके आप प्रिय सम्बन्धी भी हैं। चक्र और गदा धारण करनेवाले गोविन्द! आपको धर्म और अर्थका सम्पूर्णरूपसे यथार्थ ज्ञान भी है; फिर मेरा आतिथ्य ग्रहण न करनेका क्या कारण है; यह मैं सुनना चाहता हूँ॥१४-१५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तो गोविन्दः प्रत्युवाच महामनाः।
उद्यन्मेघस्वनः काले प्रगृह्य विपुलं भुजम् ॥ १६ ॥
अलघूकृतमग्रस्तमनिरस्तमसंकुलम् ।
राजीवनेत्रो राजानं हेतुमद् वाक्यमुत्तमम् ॥ १७ ॥
मूलम्
स एवमुक्तो गोविन्दः प्रत्युवाच महामनाः।
उद्यन्मेघस्वनः काले प्रगृह्य विपुलं भुजम् ॥ १६ ॥
अलघूकृतमग्रस्तमनिरस्तमसंकुलम् ।
राजीवनेत्रो राजानं हेतुमद् वाक्यमुत्तमम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार पूछे जानेपर उस समय महामनस्वी कमलनयन श्रीकृष्णने अपनी विशाल भुजा ऊपर उठाकर राजा दुर्योधनको सजल जलधरके समान गम्भीर वाणीमें उत्तर देना आरम्भ किया। उनका वह वचन परम उत्तम, युक्तिसंगत, दैन्य-रहित प्रत्येक अक्षरकी स्पष्टतासे सुशोभित तथा स्थान-भ्रष्टता एवं संकीर्णता आदि दोषोंसे रहित था॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतार्था भुञ्जते दूताः पूजां गृह्णन्ति चैव ह।
कृतार्थं मां सहामात्यं समर्चिष्यसि भारत ॥ १८ ॥
मूलम्
कृतार्था भुञ्जते दूताः पूजां गृह्णन्ति चैव ह।
कृतार्थं मां सहामात्यं समर्चिष्यसि भारत ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भारत! ऐसा नियम है कि दूत अपना प्रयोजन सिद्ध होनेपर ही भोजन और सम्मान स्वीकार करते हैं। तुम भी मेरा उद्देश्य सिद्ध हो जानेपर ही मेरा और मेरे मन्त्रियोंका सत्कार करना’॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः प्रत्युवाच धार्तराष्ट्रो जनार्दनम्।
न युक्तं भवतास्मासु प्रतिपत्तुमसाम्प्रतम् ॥ १९ ॥
मूलम्
एवमुक्तः प्रत्युवाच धार्तराष्ट्रो जनार्दनम्।
न युक्तं भवतास्मासु प्रतिपत्तुमसाम्प्रतम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर दुर्योधनने जनार्दनसे कहा—‘आपको हमलोगोंके साथ ऐसा अनुचित बर्ताव नहीं करना चाहिये’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतार्थं वाकृतार्थं च त्वां वयं मधुसूदन।
यतामहे पूजयितुं दाशार्ह न च शक्नुमः ॥ २० ॥
मूलम्
कृतार्थं वाकृतार्थं च त्वां वयं मधुसूदन।
यतामहे पूजयितुं दाशार्ह न च शक्नुमः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दशार्हनन्दन मधुसूदन! आपका उद्देश्य सफल हो या न हो, हमलोग तो आपके सम्मानका प्रयत्न करते ही हैं; किंतु हमें सफलता नहीं मिल रही है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च तत् कारणं विद्मो यस्मिन् नो मधुसूदन।
पूजां कृतां प्रीयमाणैर्नामंस्थाः पुरुषोत्तम ॥ २१ ॥
मूलम्
न च तत् कारणं विद्मो यस्मिन् नो मधुसूदन।
पूजां कृतां प्रीयमाणैर्नामंस्थाः पुरुषोत्तम ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुदैत्यका विनाश करनेवाले पुरुषोत्तम! हमें ऐसा कोई कारण नहीं जान पड़ता, जिसके होनेसे आप हमारी प्रेमपूर्वक अर्पित की हुई पूजा ग्रहण न कर सकें॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैरं नो नास्ति भवता गोविन्द न च विग्रहः।
स भवान् प्रसमीक्ष्यैतन्नेदृशं वक्तुमर्हति ॥ २२ ॥
मूलम्
वैरं नो नास्ति भवता गोविन्द न च विग्रहः।
स भवान् प्रसमीक्ष्यैतन्नेदृशं वक्तुमर्हति ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गोविन्द! आपके साथ हमलोगोंका न तो कोई वैर है और न झगड़ा ही है। इन सब बातोंका विचार करके आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये’॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः प्रत्युवाच धार्तराष्ट्रं जनार्दनः।
अभिवीक्ष्य सहामात्यं दाशार्हः प्रहसन्निव ॥ २३ ॥
मूलम्
एवमुक्तः प्रत्युवाच धार्तराष्ट्रं जनार्दनः।
अभिवीक्ष्य सहामात्यं दाशार्हः प्रहसन्निव ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! यह सुनकर दशार्हकुलभूषण जनार्दनने मन्त्रियोंसहित दुर्योधनकी ओर देखकर हँसते हुए-से उत्तर दिया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं कामान्न संरम्भान्न द्वेषान्नार्थकारणात्।
न हेतुवादाल्लोभाद् वा धर्मं जह्यां कथंचन ॥ २४ ॥
मूलम्
नाहं कामान्न संरम्भान्न द्वेषान्नार्थकारणात्।
न हेतुवादाल्लोभाद् वा धर्मं जह्यां कथंचन ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मैं कामसे, क्रोधसे, द्वेषसे, स्वार्थवश, बहानेबाजी अथवा लोभसे भी किसी प्रकार धर्मका त्याग नहीं कर सकता॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्रीतिभोज्यान्यन्नानि आपद्भोज्यानि वा पुनः।
न च सम्प्रीयसे राजन् न चैवापद्गता वयम् ॥ २५ ॥
मूलम्
सम्प्रीतिभोज्यान्यन्नानि आपद्भोज्यानि वा पुनः।
न च सम्प्रीयसे राजन् न चैवापद्गता वयम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘किसीके घरका अन्न या तो प्रेमके कारण भोजन किया जाता है या आपत्तिमें पड़नेपर। नरेश्वर! प्रेम तो तुम नहीं रखते और किसी आपत्तिमें हम नहीं पड़े हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकस्माद् द्वेष्टि वै राजन् जन्मप्रभृति पाण्डवान्।
प्रियानुवर्तिनो भ्रातॄन् सर्वैः समुदितान् गुणैः ॥ २६ ॥
मूलम्
अकस्माद् द्वेष्टि वै राजन् जन्मप्रभृति पाण्डवान्।
प्रियानुवर्तिनो भ्रातॄन् सर्वैः समुदितान् गुणैः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! पाण्डव तुम्हारे भाई ही हैं, वे अपने प्रेमियोंका साथ देनेवाले और समस्त सद्गुणोंसे सम्पन्न हैं, तथापि तुम जन्मसे ही उनके साथ अकारण ही द्वेष करते हो॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकस्माच्चैव पार्थानां द्वेषणं नोपपद्यते।
धर्मे स्थिताः पाण्डवेयाः कस्तान् किं वक्तुमर्हति ॥ २७ ॥
मूलम्
अकस्माच्चैव पार्थानां द्वेषणं नोपपद्यते।
धर्मे स्थिताः पाण्डवेयाः कस्तान् किं वक्तुमर्हति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बिना कारण ही कुन्तीपुत्रोंके साथ द्वेष रखना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है। पाण्डव सदा अपने धर्ममें स्थित रहते हैं, अतः उनके विरुद्ध कौन क्या कह सकता है?॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तान् द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्ताननु स मामनु।
ऐकात्म्यं मां गतं विद्धि पाण्डवैर्धर्मचारिभिः ॥ २८ ॥
मूलम्
यस्तान् द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्ताननु स मामनु।
ऐकात्म्यं मां गतं विद्धि पाण्डवैर्धर्मचारिभिः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पाण्डवोंसे द्वेष करता है, वह मुझसे भी द्वेष करता है और जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। तुम मुझे धर्मात्मा पाण्डवोंके साथ एकरूप हुआ ही समझो॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामक्रोधानुवर्ती हि यो मोहाद् विरुरुत्सति।
गुणवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुः पुरुषाधमम् ॥ २९ ॥
मूलम्
कामक्रोधानुवर्ती हि यो मोहाद् विरुरुत्सति।
गुणवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुः पुरुषाधमम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो काम और क्रोधके वशीभूत होकर मोहवश किसी गुणवान् पुरुषके साथ विरोध करना चाहता है, उसे पुरुषोंमें अधम कहा गया है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः कल्याणगुणान् ज्ञातीन् मोहाल्लोभाद् दिदृक्षते।
सोऽजितात्माजितक्रोधो न चिरं तिष्ठति श्रियम् ॥ ३० ॥
मूलम्
यः कल्याणगुणान् ज्ञातीन् मोहाल्लोभाद् दिदृक्षते।
सोऽजितात्माजितक्रोधो न चिरं तिष्ठति श्रियम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो कल्याणमय गुणोंसे युक्त अपने कुटुम्बीजनोंको मोह1 और लोभ2की दृष्टिसे देखना चाहता है, वह अपने मन और क्रोधको न जीतनेवाला पुरुष दीर्घकालतक राजलक्ष्मीका उपभोग नहीं कर सकता॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ यो गुणसम्पन्नान् हृदयस्याप्रियानपि।
प्रियेण कुरुते वश्यांश्चिरं यशसि तिष्ठति ॥ ३१ ॥
मूलम्
अथ यो गुणसम्पन्नान् हृदयस्याप्रियानपि।
प्रियेण कुरुते वश्यांश्चिरं यशसि तिष्ठति ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो अपने मनको प्रिय न लगनेवाले गुणवान् व्यक्तियोंको भी अपने प्रिय व्यवहारद्वारा वशमें कर लेता है, वह दीर्घकालतक यशस्वी बना रहता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(द्विषदन्नं न भोक्तव्यं द्विषन्तं नैव भोजयेत्।
पाण्डवान् द्विषसे राजन् मम प्राणा हि पाण्डवाः॥)
मूलम्
(द्विषदन्नं न भोक्तव्यं द्विषन्तं नैव भोजयेत्।
पाण्डवान् द्विषसे राजन् मम प्राणा हि पाण्डवाः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो द्वेष रखता हो, उसका अन्न नहीं खाना चाहिये। द्वेष रखनेवालेको खिलाना भी नहीं चाहिये। राजन्! तुम पाण्डवोंसे द्वेष रखते हो और पाण्डव मेरे प्राण हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमेतन्न भोक्तव्यमन्नं दुष्टाभिसंहितम् ।
क्षत्तुरेकस्य भोक्तव्यमिति मे धीयते मतिः ॥ ३२ ॥
मूलम्
सर्वमेतन्न भोक्तव्यमन्नं दुष्टाभिसंहितम् ।
क्षत्तुरेकस्य भोक्तव्यमिति मे धीयते मतिः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारा यह सारा अन्न दुर्भावनासे दूषित है। अतः मेरे भोजन करनेयोग्य नहीं है। मेरे लिये तो यहाँ केवल विदुरका ही अन्न खानेयोग्य है। यह मेरी निश्चित धारणा है’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा महाबाहुर्दुर्योधनममर्षणम् ।
निश्चक्राम ततः शुभ्राद् धार्तराष्ट्रनिवेशनात् ॥ ३३ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा महाबाहुर्दुर्योधनममर्षणम् ।
निश्चक्राम ततः शुभ्राद् धार्तराष्ट्रनिवेशनात् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमर्षशील दुर्योधनसे ऐसा कहकर महाबाहु श्रीकृष्ण उसके भव्य भवनसे बाहर निकले॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्याय च महाबाहुर्वासुदेवो महामनाः।
निवेशाय ययौ वेश्म विदुरस्य महात्मनः ॥ ३४ ॥
मूलम्
निर्याय च महाबाहुर्वासुदेवो महामनाः।
निवेशाय ययौ वेश्म विदुरस्य महात्मनः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँसे निकलकर महामना महाबाहु भगवान् वासुदेव ठहरनेके लिये महात्मा विदुरके भवनमें गये॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमभ्यगच्छद् द्रोणश्च कृपो भीष्मोऽथ बाह्लिकः।
कुरवश्च महाबाहुं विदुरस्य गृहे स्थितम् ॥ ३५ ॥
त ऊचुर्माधवं वीरं कुरवो मधुसूदनम्।
निवेदयामो वार्ष्णेय सरत्नांस्ते गृहान् वयम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
तमभ्यगच्छद् द्रोणश्च कृपो भीष्मोऽथ बाह्लिकः।
कुरवश्च महाबाहुं विदुरस्य गृहे स्थितम् ॥ ३५ ॥
त ऊचुर्माधवं वीरं कुरवो मधुसूदनम्।
निवेदयामो वार्ष्णेय सरत्नांस्ते गृहान् वयम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म, बाह्लीक तथा अन्य कौरवोंने भी महाबाहु श्रीकृष्णका अनुसरण किया। विदुरके घरमें ठहरे हुए यदुवंशी वीर मधुसूदनसे वे सब कौरव बोले—‘वृष्णिनन्दन! हमलोग रत्न-धनसे सम्पन्न अपने घरोंको आपकी सेवामें समर्पित करते हैं’॥३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानुवाच महातेजाः कौरवान् मधुसूदनः।
सर्वे भवन्तो गच्छन्तु सर्वा मेऽपचितिः कृता ॥ ३७ ॥
मूलम्
तानुवाच महातेजाः कौरवान् मधुसूदनः।
सर्वे भवन्तो गच्छन्तु सर्वा मेऽपचितिः कृता ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महातेजस्वी मधुसूदनने कौरवोंसे कहा—‘आप सब लोग अपने घरोंको जायँ; आपके द्वारा मेरा सारा सम्मान सम्पन्न हो गया’॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यातेषु कुरुषु क्षत्ता दाशार्हमपराजितम्।
अभ्यर्चयामास तदा सर्वकामैः प्रयत्नवान् ॥ ३८ ॥
मूलम्
यातेषु कुरुषु क्षत्ता दाशार्हमपराजितम्।
अभ्यर्चयामास तदा सर्वकामैः प्रयत्नवान् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवोंके चले जानेपर विदुरजीने कभी पराजित न होनेवाले दशार्हनन्दन श्रीकृष्णको समस्त मनोवांछित वस्तुएँ समर्पित करके प्रयत्नपूर्वक उनका पूजन किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्षत्तान्नपानानि शुचीनि गुणवन्ति च।
उपाहरदनेकानि केशवाय महात्मने ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततः क्षत्तान्नपानानि शुचीनि गुणवन्ति च।
उपाहरदनेकानि केशवाय महात्मने ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन्होंने अनेक प्रकारके पवित्र एवं गुणकारक अन्न-पान महात्मा केशवको अर्पित किये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैस्तर्पयित्वा प्रथमं ब्राह्मणान् मघुसूदनः।
वेदविद्भ्यो ददौ कृष्णः परमद्रविणान्यपि ॥ ४० ॥
मूलम्
तैस्तर्पयित्वा प्रथमं ब्राह्मणान् मघुसूदनः।
वेदविद्भ्यो ददौ कृष्णः परमद्रविणान्यपि ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधुसूदनने उस अन्न-पानसे पहले ब्राह्मणोंको तृप्त किया, फिर उन्होंने उन वेदवेत्ताओंको श्रेष्ठ धन भी दिया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽनुयायिभिः सार्धं मरुद्भिरिव वासवः।
विदुरान्नानि बुभुजे शुचीनि गुणवन्ति च ॥ ४१ ॥
मूलम्
ततोऽनुयायिभिः सार्धं मरुद्भिरिव वासवः।
विदुरान्नानि बुभुजे शुचीनि गुणवन्ति च ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर देवताओंसहित इन्द्रकी भाँति अनुचरोंसहित भगवान् श्रीकृष्णने विदुरजीके पवित्र एवं गुणकारक अन्न-पान ग्रहण किये॥४१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि श्रीकृष्णदुर्योधनसंवादे एकनवतितमोऽध्यायः ॥ ९१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें श्रीकृष्ण-दुर्योधन-संवादविषयक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९१॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ४२ श्लोक हैं।]