०८८ दुर्योधनवाक्ये

भागसूचना

अष्टाशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनका श्रीकृष्णके विषयमें अपने विचार कहना एवं उसकी कुमन्त्रणासे कुपित हो भीष्मजीका सभासे उठ जाना

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाह विदुरः कृष्णे सर्वं तत् सत्यमच्युते।
अनुरक्तो ह्यसंहार्यः पार्थान् प्रति जनार्दनः ॥ १ ॥

मूलम्

यदाह विदुरः कृष्णे सर्वं तत् सत्यमच्युते।
अनुरक्तो ह्यसंहार्यः पार्थान् प्रति जनार्दनः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— पिताजी! अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीकृष्णके सम्बन्धमें विदुरजी जो कुछ कहते हैं, वह सब कुछ ठीक है। जनार्दन श्रीकृष्णका कुन्तीके पुत्रोंके प्रति अटूट अनुराग है; अतः उन्हें उनकी ओरसे फोड़ा नहीं जा सकता॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तत् सत्कारसंयुक्तं देयं वसु जनार्दने।
अनेकरूपं राजेन्द्र न तद् देयं कदाचन ॥ २ ॥

मूलम्

यत् तत् सत्कारसंयुक्तं देयं वसु जनार्दने।
अनेकरूपं राजेन्द्र न तद् देयं कदाचन ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! आप जो जनार्दनको सत्कारपूर्वक बहुत-सा धन-रत्न भेंट करना चाहते हैं, वह कदापि उन्हें न दें॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देशः कालस्तथायुक्तो न हि नार्हति केशवः।
मंस्यत्यधोक्षजो राजन् भयादर्चति मामिति ॥ ३ ॥

मूलम्

देशः कालस्तथायुक्तो न हि नार्हति केशवः।
मंस्यत्यधोक्षजो राजन् भयादर्चति मामिति ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं इसलिये नहीं कहता कि श्रीकृष्ण उन वस्तुओंके अधिकारी नहीं हैं; अपितु इस दृष्टिसे मना कर रहा हूँ कि वर्तमान देश-काल इस योग्य नहीं है कि उनका विशेष सत्कार किया जाय। राजन्! इस समय तो श्रीकृष्ण यही समझेंगे कि यह डरके मारे मेरी पूजा कर रहा है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवमानश्च यत्र स्यात् क्षत्रियस्य विशाम्पते।
न तत् कुर्याद् बुधः कार्यमिति मे निश्चिता मतिः॥४॥

मूलम्

अवमानश्च यत्र स्यात् क्षत्रियस्य विशाम्पते।
न तत् कुर्याद् बुधः कार्यमिति मे निश्चिता मतिः॥४॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! जहाँ क्षत्रियका अपमान होता हो, वहाँ समझदार क्षत्रियको वैसा कार्य नहीं करना चाहिये। यह मेरा निश्चित विचार है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हि पूज्यतमो लोके कृष्णः पृथुललोचनः।
त्रयाणामपि लोकानां विदितं मम सर्वथा ॥ ५ ॥

मूलम्

स हि पूज्यतमो लोके कृष्णः पृथुललोचनः।
त्रयाणामपि लोकानां विदितं मम सर्वथा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विशाल नेत्रोंवाले श्रीकृष्ण इस लोकमें ही नहीं, तीनों लोकोंमें सबसे श्रेष्ठ होनेके कारण परम पूजनीय पुरुष हैं, यह बात मुझे सब प्रकारसे विदित है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु तस्मै प्रदेयं स्यात् तथा कार्यगतिः प्रभो।
विग्रहः समुपारब्धो न हि शाम्यत्यविग्रहात् ॥ ६ ॥

मूलम्

न तु तस्मै प्रदेयं स्यात् तथा कार्यगतिः प्रभो।
विग्रहः समुपारब्धो न हि शाम्यत्यविग्रहात् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! तथापि मेरा मत है कि इस समय उन्हें कुछ नहीं देना चाहिये; क्योंकि ऐसी ही कार्यप्रणाली प्राप्त है। जब कलह आरम्भ हो गया है, तब अतिथिसत्कारद्वारा प्रेम दिखानेमात्रसे उसकी शान्ति नहीं हो सकती॥६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा भीष्मः कुरुपितामहः।
वैचित्रवीर्यं राजानमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा भीष्मः कुरुपितामहः।
वैचित्रवीर्यं राजानमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! दुर्योधनकी यह बात सुनकर कुरुकुलके वृद्ध पितामह भीष्म विचित्र-वीर्यकुमार राजा धृतराष्ट्रसे इस प्रकार बोले—॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्कृतोऽसत्कृतो वापि न क्रुद्ध्येत जनार्दनः।
नालमेनमवज्ञातुं नावज्ञेयो हि केशवः ॥ ८ ॥

मूलम्

सत्कृतोऽसत्कृतो वापि न क्रुद्ध्येत जनार्दनः।
नालमेनमवज्ञातुं नावज्ञेयो हि केशवः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! श्रीकृष्णका कोई सत्कार करे या न करे, इससे वे कुपित नहीं होंगे, परंतु वे अवहेलनाके योग्य कदापि नहीं हैं; अतः कोई भी उनका अपमान या अवहेलना नहीं कर सकता॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तु कार्यं महाबाहो मनसा कार्यतां गतम्।
सर्वोपायैर्न तच्छक्यं केनचित् कर्तुमन्यथा ॥ ९ ॥

मूलम्

यत् तु कार्यं महाबाहो मनसा कार्यतां गतम्।
सर्वोपायैर्न तच्छक्यं केनचित् कर्तुमन्यथा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! श्रीकृष्ण जिस कार्यको करनेकी बात अपने मनमें ठान लेते हैं, उसे कोई सारे उपाय करके भी उलट नहीं सकता॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स यद् ब्रूयान्महाबाहुस्तत् कार्यमविशङ्कया।
वासुदेवेन तीर्थेन क्षिप्रं संशाम्य पाण्डवैः ॥ १० ॥

मूलम्

स यद् ब्रूयान्महाबाहुस्तत् कार्यमविशङ्कया।
वासुदेवेन तीर्थेन क्षिप्रं संशाम्य पाण्डवैः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः महाबाहु श्रीकृष्ण जो कुछ कहें, उसे निःशंक होकर करना चाहिये। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णको मध्यस्थ बनाकर तुम शीघ्र ही पाण्डवोंके साथ संधि कर लो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्म्यमर्थ्यं च धर्मात्मा ध्रुवं वक्ता जनार्दनः।
तस्मिन् वाच्याः प्रिया वाचो भवता बान्धवैः सह ॥ ११ ॥

मूलम्

धर्म्यमर्थ्यं च धर्मात्मा ध्रुवं वक्ता जनार्दनः।
तस्मिन् वाच्याः प्रिया वाचो भवता बान्धवैः सह ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मात्मा भगवान् श्रीकृष्ण जो कुछ कहेंगे, वह निश्चय ही धर्म और अर्थके अनुकूल होगा। अतः तुम्हें अपने बन्धु-बान्धवोंके साथ उनसे प्रिय वचन ही बोलना चाहिये’॥११॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पर्यायोऽस्ति यद् राजन् श्रियं निष्केवलामहम्।
तैः सहेमामुपाश्नीयां यावज्जीवं पितामह ॥ १२ ॥

मूलम्

न पर्यायोऽस्ति यद् राजन् श्रियं निष्केवलामहम्।
तैः सहेमामुपाश्नीयां यावज्जीवं पितामह ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— पितामह! नरेश्वर! अब इस बातकी कोई सम्भावना नहीं है कि मैं जीवनभर पाण्डवोंके साथ मिलकर इस सारी सम्पत्तिका उपभोग करूँ॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु सुमहत् कार्यं शृणु मे यत् समर्थितम्।
परायणं पाण्डवानां नियच्छामि जनार्दनम् ॥ १३ ॥

मूलम्

इदं तु सुमहत् कार्यं शृणु मे यत् समर्थितम्।
परायणं पाण्डवानां नियच्छामि जनार्दनम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय मैंने जो यह महान् कार्य करनेका निश्चय किया है, उसे सुनिये। पाण्डवोंके सबसे बड़े सहारे श्रीकृष्णको यहाँ आनेपर मैं कैद कर लूँगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् बद्धे भविष्यन्ति वृष्णयः पृथिवी तथा।
पाण्डवाश्च विधेया मे स च प्रातरिहैष्यति ॥ १४ ॥

मूलम्

तस्मिन् बद्धे भविष्यन्ति वृष्णयः पृथिवी तथा।
पाण्डवाश्च विधेया मे स च प्रातरिहैष्यति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके कैद हो जानेपर समस्त यदुवंशी, इस भूमण्डलका राज्य तथा पाण्डव भी मेरी आज्ञाके अधीन हो जायँगे। श्रीकृष्ण कल सबेरे यहाँ आ ही जायँगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रोपायान् यथा सम्यङ् न बुद्ध्येत जनार्दनः।
न चापायो भवेत्‌ कश्चित्‌ तद् भवान् प्रब्रवीतु मे॥१५॥

मूलम्

अत्रोपायान् यथा सम्यङ् न बुद्ध्येत जनार्दनः।
न चापायो भवेत्‌ कश्चित्‌ तद् भवान् प्रब्रवीतु मे॥१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः इस विषयमें जो अच्छे उपाय हों, जिनसे श्रीकृष्णको इन बातोंका पता न लगे और मेरे इस मन्तव्यमें कोई विघ्न न पड़ सके, उन्हें आप मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा घोरं कृष्णाभिसंहितम्।
धृतराष्ट्रः सहामात्यो व्यथितो विमनाभवत् ॥ १६ ॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा घोरं कृष्णाभिसंहितम्।
धृतराष्ट्रः सहामात्यो व्यथितो विमनाभवत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! श्रीकृष्णसे छल करनेके विषयमें दुर्योधनकी वह भयंकर बात सुनकर धृतराष्ट्र अपने मन्त्रियोंके साथ बहुत दुःखी और उदास हो गये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनमिदं धृतराष्ट्रोऽब्रवीद् वचः।
मैवं वोचः प्रजापाल नैष धर्मः सनातनः ॥ १७ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनमिदं धृतराष्ट्रोऽब्रवीद् वचः।
मैवं वोचः प्रजापाल नैष धर्मः सनातनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर धृतराष्ट्रने दुर्योधनसे कहा—‘प्रजापालक दुर्योधन! तुम ऐसी बात मुँहसे न निकालो। यह सनातन धर्म नहीं है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूतश्च हि हृषीकेशः सम्बन्धी च प्रियश्च नः।
अपापः कौरवेयेषु स कथं बन्धमर्हति ॥ १८ ॥

मूलम्

दूतश्च हि हृषीकेशः सम्बन्धी च प्रियश्च नः।
अपापः कौरवेयेषु स कथं बन्धमर्हति ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण इस समय दूत बनकर आ रहे हैं। वे हमारे प्रिय और सम्बन्धी भी हैं तथा उन्होंने कौरवोंका कोई अपराध भी नहीं किया है। ऐसी दशामें वे कैद करनेके योग्य कैसे हो सकते हैं?’॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परीतस्तव पुत्रोऽयं धृतराष्ट्र सुमन्दधीः।
वृणोत्यनर्थं नैवार्थं याच्यमानः सुहृज्जनैः ॥ १९ ॥

मूलम्

परीतस्तव पुत्रोऽयं धृतराष्ट्र सुमन्दधीः।
वृणोत्यनर्थं नैवार्थं याच्यमानः सुहृज्जनैः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर भीष्मजीने कहा— धृतराष्ट्र! तुम्हारा यह मन्दबुद्धि पुत्र कालके वशमें हो गया है। यह अपने हितैषी सुहृदोंके कहने-समझानेपर भी अनर्थको ही अपना रहा है; अर्थको नहीं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इममुत्पथि वर्तन्तं पापं पापानुबन्धिनम्।
वाक्यानि सुहृदां हित्वा त्वमप्यस्यानुवर्तसे ॥ २० ॥

मूलम्

इममुत्पथि वर्तन्तं पापं पापानुबन्धिनम्।
वाक्यानि सुहृदां हित्वा त्वमप्यस्यानुवर्तसे ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम भी सगे-सम्बन्धियोंकी बातें न मानकर कुमार्गपर चलनेवाले इस पापासक्त पापात्माका ही अनुसरण करते हो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णमक्लिष्टकर्माणमासाद्यायं सुदुर्मतिः ।
तव पुत्रः सहामात्यः क्षणेन न भविष्यति ॥ २१ ॥

मूलम्

कृष्णमक्लिष्टकर्माणमासाद्यायं सुदुर्मतिः ।
तव पुत्रः सहामात्यः क्षणेन न भविष्यति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीकृष्णसे भिड़कर तुम्हारा यह दुर्बुद्धि पुत्र अपने मन्त्रियोंसहित क्षणभरमें नष्ट हो जायगा॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापस्यास्य नृशंसस्य त्यक्तधर्मस्य दुर्मतेः।
नोत्सहेऽनर्थसंयुक्ताः श्रोतुं वाचः कथंचन ॥ २२ ॥

मूलम्

पापस्यास्य नृशंसस्य त्यक्तधर्मस्य दुर्मतेः।
नोत्सहेऽनर्थसंयुक्ताः श्रोतुं वाचः कथंचन ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसने धर्मका सर्वथा त्याग कर दिया है। अब मैं इस दुर्बुद्धि, पापी एवं क्रूर दुर्योधनकी अनर्थभरी बातें किसी प्रकार भी नहीं सुनना चाहता॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा भरतश्रेष्ठो वृद्धः परममन्युमान्।
उत्थाय तस्मात् प्रातिष्ठद् भीष्मः सत्यपराक्रमः ॥ २३ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा भरतश्रेष्ठो वृद्धः परममन्युमान्।
उत्थाय तस्मात् प्रातिष्ठद् भीष्मः सत्यपराक्रमः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर भरतश्रेष्ठ सत्यपराक्रमी वृद्ध पितामह भीष्म अत्यन्त कुपित हो उस सभाभवनसे उठकर चले गये॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि दुर्योधनवाक्ये अष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें दुर्योधनवाक्यविषयक अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८८॥