०८७ विदुरवाक्ये

भागसूचना

सप्ताशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विदुरका धृतराष्ट्रको श्रीकृष्णकी आज्ञाका पालन करनेके लिये समझाना

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् बहुमतश्चासि त्रैलोक्यस्यापि सत्तमः।
सम्भावितश्च लोकस्य सम्मतश्चासि भारत ॥ १ ॥

मूलम्

राजन् बहुमतश्चासि त्रैलोक्यस्यापि सत्तमः।
सम्भावितश्च लोकस्य सम्मतश्चासि भारत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजी बोले— राजन्! आप तीनों लोकोंके श्रेष्ठतम पुरुष हैं और सर्वत्र आपका बहुत सम्मान होता है। भारत! इस लोकमें भी आपकी बड़ी प्रतिष्ठा और सम्मान है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् त्वमेवंगते ब्रूयाः पश्चिमे वयसि स्थितः।
शास्त्राद् वा सुप्रतर्काद् वा सुस्थिरः स्थविरो ह्यसि ॥ २ ॥

मूलम्

यत् त्वमेवंगते ब्रूयाः पश्चिमे वयसि स्थितः।
शास्त्राद् वा सुप्रतर्काद् वा सुस्थिरः स्थविरो ह्यसि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय आप अन्तिम अवस्था (बुढ़ापे)-में स्थित हैं। ऐसी स्थितिमें आप जो कुछ कह रहे हैं, वह शास्त्रसे अथवा लौकिक युक्तिसे भी ठीक ही है। इस सुस्थिर विचारके कारण ही आप वास्तवमें स्थविर (वृद्ध) हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लेखा शशिनि भाः सूर्ये महोर्मिरिव सागरे।
धर्मस्त्वयि तथा राजन्निति व्यवसिताः प्रजाः ॥ ३ ॥

मूलम्

लेखा शशिनि भाः सूर्ये महोर्मिरिव सागरे।
धर्मस्त्वयि तथा राजन्निति व्यवसिताः प्रजाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे चन्द्रमामें कला है, सूर्यमें प्रभा है और समुद्रमें उत्ताल तरंगें हैं, उसी प्रकार आपमें धर्मकी स्थिति है। यह समस्त प्रजा निश्चितरूपसे जानती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदैव भावितो लोको गुणौघैस्तव पार्थिव।
गुणानां रक्षणे नित्यं प्रयतस्व सबान्धवः ॥ ४ ॥

मूलम्

सदैव भावितो लोको गुणौघैस्तव पार्थिव।
गुणानां रक्षणे नित्यं प्रयतस्व सबान्धवः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! आपके सद्‌गुणसमूहसे सदा ही इस जगत्‌की उन्नति एवं प्रतिष्ठा हो रही है। अतः आप अपने बन्धु-बान्धवोंसहित सदा ही इन सद्‌गुणोंकी रक्षाके लिये प्रयत्न कीजिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्जवं प्रतिपद्यस्व मा बाल्याद् बहु नीनशः।
राजन् पुत्रांश्च पौत्रांश्च सुहृदश्चैव सुप्रियान् ॥ ५ ॥

मूलम्

आर्जवं प्रतिपद्यस्व मा बाल्याद् बहु नीनशः।
राजन् पुत्रांश्च पौत्रांश्च सुहृदश्चैव सुप्रियान् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आप सरलताको अपनाइये। मूर्खतावश कुटिलताका आश्रय ले अपने अत्यन्त प्रिय पुत्रों, पौत्रों तथा सुहृदोंका महान् सर्वनाश न कीजिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् त्वमिच्छसि कृष्णाय राजन्नतिथये बहु।
एतदन्यच्च दाशार्हः पृथिवीमपि चार्हति ॥ ६ ॥

मूलम्

यत् त्वमिच्छसि कृष्णाय राजन्नतिथये बहु।
एतदन्यच्च दाशार्हः पृथिवीमपि चार्हति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! श्रीकृष्णको अतिथिरूपमें पाकर आप जो उन्हें बहुत-सी वस्तुएँ देना चाहते हैं, उन सबके साथ-साथ वे आपसे इस समूची पृथ्वीके भी पानेके अधिकारी हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु त्वं धर्ममुद्दिश्य तस्य वा प्रियकारणात्।
एतद् दित्ससि कृष्णाय सत्येनात्मानमालभे ॥ ७ ॥

मूलम्

न तु त्वं धर्ममुद्दिश्य तस्य वा प्रियकारणात्।
एतद् दित्ससि कृष्णाय सत्येनात्मानमालभे ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं सत्यकी शपथ खाकर अपने शरीरको छूकर कहता हूँ कि आप धर्मपालनके उद्देश्यसे अथवा श्रीकृष्णका प्रिय करनेके लिये उन्हें वे सब वस्तुएँ नहीं देना चाहते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मायैषा सत्यमेवैतच्छद्मैतद् भूरिदक्षिण ।
जानामि त्वन्मतं राजन् गूढं बाह्येन कर्मणा ॥ ८ ॥

मूलम्

मायैषा सत्यमेवैतच्छद्मैतद् भूरिदक्षिण ।
जानामि त्वन्मतं राजन् गूढं बाह्येन कर्मणा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञोंमें बहुत-सी दक्षिणा देनेवाले महाराज! मैं सच कहता हूँ। यह सब आपकी माया और प्रवंचनामात्र है। आपके इन बाह्यव्यवहारोंमें छिपा हुआ जो आपका वास्तविक अभिप्राय है, उसे मैं समझता हूँ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्च पञ्चैव लिप्सन्ति ग्रामकान् पाण्डवा नृप।
न च दित्ससि तेभ्यस्तांस्तच्छमं न करिष्यसि ॥ ९ ॥

मूलम्

पञ्च पञ्चैव लिप्सन्ति ग्रामकान् पाण्डवा नृप।
न च दित्ससि तेभ्यस्तांस्तच्छमं न करिष्यसि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेन्द्र! बेचारे पाँचों भाई पाण्डव आपसे केवल पाँच गाँव ही पाना चाहते हैं; परंतु आप उन्हें वे गाँव भी नहीं देना चाहते हैं। इससे स्पष्ट सूचित होता है कि आप (सन्धिद्वारा) शान्तिस्थापन नहीं करेंगे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थेन तु महाबाहुं वार्ष्णेयं त्वं जिहीर्षसि।
अनेन चाप्युपायेन पाण्डवेभ्यो बिभेत्स्यसि ॥ १० ॥

मूलम्

अर्थेन तु महाबाहुं वार्ष्णेयं त्वं जिहीर्षसि।
अनेन चाप्युपायेन पाण्डवेभ्यो बिभेत्स्यसि ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप तो धन देकर महाबाहु श्रीकृष्णको अपने पक्षमें लाना चाहते हैं और इस उपायसे आप यह आशा रखते हैं कि आप उन्हें पाण्डवोंकी ओरसे फोड़ लेंगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च वित्तेन शक्योऽसौ नोद्यमेन न गर्हया।
अन्यो धनंजयात् कर्तुमेतत् तत्त्वं ब्रवीमि ते ॥ ११ ॥

मूलम्

न च वित्तेन शक्योऽसौ नोद्यमेन न गर्हया।
अन्यो धनंजयात् कर्तुमेतत् तत्त्वं ब्रवीमि ते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु मैं आपको असली बात बताये देता हूँ; आप धन देकर अथवा दूसरा कोई उद्योग या निन्दा करके श्रीकृष्णको अर्जुनसे पृथक् नहीं कर सकते॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेद कृष्णस्य माहात्म्यं वेदास्य दृढभक्तिताम्।
अत्याज्यमस्य जानामि प्राणैस्तुल्यं धनंजयम् ॥ १२ ॥

मूलम्

वेद कृष्णस्य माहात्म्यं वेदास्य दृढभक्तिताम्।
अत्याज्यमस्य जानामि प्राणैस्तुल्यं धनंजयम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं श्रीकृष्णके माहात्म्यको जानता हूँ। श्रीकृष्णके प्रति अर्जुनकी जो सुदृढ़ भक्ति है, उससे भी परिचित हूँ। अतः मैं यह निश्चितरूपसे जानता हूँ कि श्रीकृष्ण अपने प्राणोंके समान प्रिय सखा अर्जुनको कभी त्याग नहीं सकते॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यत् कुम्भादपां पूर्णादन्यत् पादावसेचनात्।
अन्यत् कुशलसम्प्रश्नान्नैषिष्यति जनार्दनः ॥ १३ ॥

मूलम्

अन्यत् कुम्भादपां पूर्णादन्यत् पादावसेचनात्।
अन्यत् कुशलसम्प्रश्नान्नैषिष्यति जनार्दनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये आपकी दी हुई वस्तुओंमेंसे जलसे भरे हुए कलश, पैर धोनेके लिये जल और कुशल-प्रश्नको छोड़कर दूसरी किसी वस्तुको श्रीकृष्ण नहीं स्वीकार करेंगे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् त्वस्य प्रियमातिथ्यं मानार्हस्य महात्मनः।
तदस्मै क्रियतां राजन् मानार्होऽसौ जनार्दनः ॥ १४ ॥

मूलम्

यत् त्वस्य प्रियमातिथ्यं मानार्हस्य महात्मनः।
तदस्मै क्रियतां राजन् मानार्होऽसौ जनार्दनः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सम्माननीय महात्मा श्रीकृष्णका जो परम प्रिय आतिथ्य है, वह तो कीजिये ही; क्योंकि वे भगवान् जनार्दन सबके द्वारा सम्मान पानेके योग्य हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशंसमानः कल्याणं कुरूनभ्येति केशवः।
येनैव राजन्नर्थेन तदेवास्मा उपाकुरु ॥ १५ ॥

मूलम्

आशंसमानः कल्याणं कुरूनभ्येति केशवः।
येनैव राजन्नर्थेन तदेवास्मा उपाकुरु ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! भगवान् केशव उभयपक्षके कल्याणकी इच्छा लेकर जिस प्रयोजनसे इस कुरुदेशमें आ रहे हैं, वही उन्हें उपहारमें दीजिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शममिच्छति दाशार्हस्तव दुर्योधनस्य च।
पाण्डवानां च राजेन्द्र तदस्य वचनं कुरु ॥ १६ ॥

मूलम्

शममिच्छति दाशार्हस्तव दुर्योधनस्य च।
पाण्डवानां च राजेन्द्र तदस्य वचनं कुरु ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण आप, दुर्योधन तथा पाण्डवोंमें संधि कराकर शान्ति स्थापित करना चाहते हैं। अतः उनके इस कथनका पालन कीजिये (इसीसे वे संतुष्ट होंगे)॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितासि राजन् पुत्रास्ते वृद्धस्त्वं शिशवः परे।
वर्तस्व पितृवत् तेषु वर्तन्ते ते हि पुत्रवत् ॥ १७ ॥

मूलम्

पितासि राजन् पुत्रास्ते वृद्धस्त्वं शिशवः परे।
वर्तस्व पितृवत् तेषु वर्तन्ते ते हि पुत्रवत् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! आप पिता हैं और पाण्डव आपके पुत्र हैं। आप वृद्ध हैं और वे शिशु हैं। आप उनके प्रति पिताके समान स्नेहपूर्ण बर्ताव कीजिये। वे आपके प्रति सदा ही पुत्रोंकी भाँति श्रद्धा- भक्ति रखते हैं॥१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि विदुरवाक्ये सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥ ८७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें विदुरवाक्यविषयक सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८७॥