०८५ सभानिर्माणे

भागसूचना

पञ्चाशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनका धृतराष्ट्र आदिकी अनुमतिसे श्रीकृष्णके स्वागत-सत्कारके लिये मार्गमें विश्रामस्थान बनवाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा दूतैः समाज्ञाय प्रयान्तं मधुसूदनम्।
धृतराष्ट्रोऽब्रवीद् भीष्ममर्चयित्वा महाभुजम् ॥ १ ॥
द्रोणं च संजयं चैव विदुरं च महामतिम्।
दुर्योधनं सहामात्यं हृष्टरोमाब्रवीदिदम् ॥ २ ॥

मूलम्

तथा दूतैः समाज्ञाय प्रयान्तं मधुसूदनम्।
धृतराष्ट्रोऽब्रवीद् भीष्ममर्चयित्वा महाभुजम् ॥ १ ॥
द्रोणं च संजयं चैव विदुरं च महामतिम्।
दुर्योधनं सहामात्यं हृष्टरोमाब्रवीदिदम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! दूतोंके द्वारा भगवान् मधुसूदनके आगमनका समाचार जानकर धृतराष्ट्रके शरीरमें रोमांच हो आया। उन्होंने महाबाहु भीष्म, द्रोण, संजय तथा परम बुद्धिमान् विदुरका यथावत् सत्कार करके मन्त्रियोंसहित दुर्योधनसे इस प्रकार कहा—॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्भुतं महदाश्चर्यं श्रूयते कुरुनन्दन।
स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च कथयन्ति गृहे गृहे ॥ ३ ॥
सत्कृत्याचक्षते चान्ये तथैवान्ये समागताः।
पृथग्वादाश्च वर्तन्ते चत्वरेषु सभासु च ॥ ४ ॥

मूलम्

अद्भुतं महदाश्चर्यं श्रूयते कुरुनन्दन।
स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च कथयन्ति गृहे गृहे ॥ ३ ॥
सत्कृत्याचक्षते चान्ये तथैवान्ये समागताः।
पृथग्वादाश्च वर्तन्ते चत्वरेषु सभासु च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! एक अद्भुत और अत्यन्त आश्चर्यकी बात सुनायी देती है। घर-घरमें स्त्री-बालक और बूढ़े इसीकी चर्चा करते हैं। जो यहाँके निवासी हैं, वे तथा जो बाहरसे आये हुए हैं, वे भी आदरपूर्वक उसी बातको कहते हैं। चौराहोंपर और सभाओंमें भी पृथक्-पृथक् वही चर्चा चलती है॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपायास्यति दाशार्हः पाण्डवार्थे पराक्रमी।
स नो मान्यश्च पूज्यश्च सर्वथा मधुसूदनः ॥ ५ ॥

मूलम्

उपायास्यति दाशार्हः पाण्डवार्थे पराक्रमी।
स नो मान्यश्च पूज्यश्च सर्वथा मधुसूदनः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह बात यह है कि पाण्डवोंकी ओरसे परम पराक्रमी भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधारेंगे। वे मधुसूदन हमलोगोंके माननीय तथा सब प्रकारसे पूजनीय हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् हि यात्रा लोकस्य भूतानामीश्वरो हि सः।
तस्मिन् धृतिश्च वीर्यं च प्रज्ञा चौजश्च माधवे ॥ ६ ॥

मूलम्

तस्मिन् हि यात्रा लोकस्य भूतानामीश्वरो हि सः।
तस्मिन् धृतिश्च वीर्यं च प्रज्ञा चौजश्च माधवे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सम्पूर्ण लोकोंका जीवन उन्हींपर निर्भर है, क्योंकि वे सम्पूर्ण भूतोंके अधीश्वर हैं। उन माधवमें धैर्य, पराक्रम, बुद्धि और तेज सब कुछ है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मान्यतां नरश्रेष्ठः स हि धर्मः सनातनः।
पूजितो हि सुखाय स्यादसुखः स्यादपूजितः ॥ ७ ॥

मूलम्

स मान्यतां नरश्रेष्ठः स हि धर्मः सनातनः।
पूजितो हि सुखाय स्यादसुखः स्यादपूजितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन नरश्रेष्ठ श्रीकृष्णका यहाँ सम्मान होना चाहिये; क्योंकि वे सनातन धर्मस्वरूप हैं। सम्मानित होनेपर वे हमारे लिये सुखदायक होंगे और सम्मानित न होनेपर हमारे दुःखके कारण बन जायँगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चेत् तुष्यति दाशार्ह उपचारैररिंदमः।
कृष्णात् सर्वानभिप्रायान् प्राप्स्यामः सर्वराजसु ॥ ८ ॥

मूलम्

स चेत् तुष्यति दाशार्ह उपचारैररिंदमः।
कृष्णात् सर्वानभिप्रायान् प्राप्स्यामः सर्वराजसु ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंका दमन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण यदि हमारे सत्कार-साधनोंसे संतुष्ट हो जायँगे, तब हम समस्त राजाओंमें उनसे अपने सारे मनोरथ प्राप्त कर लेंगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पूजार्थमद्यैव संविधत्स्व परंतप।
सभाः पथि विधीयन्तां सर्वकामसमन्विताः ॥ ९ ॥

मूलम्

तस्य पूजार्थमद्यैव संविधत्स्व परंतप।
सभाः पथि विधीयन्तां सर्वकामसमन्विताः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतप! तुम श्रीकृष्णके स्वागत-सत्कारके लिये आजसे ही तैयारी करो। मार्गमें अनेक विश्रामस्थान बनवाओ और उनमें सब प्रकारकी मनोनुकूल उपभोग-सामग्री प्रस्तुत करो॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा प्रीतिर्महाबाहो त्वयि जायेत तस्य वै।
तथा कुरुष्व गान्धारे कथं वा भीष्म मन्यसे ॥ १० ॥

मूलम्

यथा प्रीतिर्महाबाहो त्वयि जायेत तस्य वै।
तथा कुरुष्व गान्धारे कथं वा भीष्म मन्यसे ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहु गान्धारीनन्दन! तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे श्रीकृष्णके हृदयमें तुम्हारे प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाय। अथवा भीष्मजी! इस विषयमें आपकी क्या सम्मति है?’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीष्मादयः सर्वे धृतराष्ट्रं जनाधिपम्।
ऊचुः परममित्येवं पूजयन्तोऽस्य तद् वचः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततो भीष्मादयः सर्वे धृतराष्ट्रं जनाधिपम्।
ऊचुः परममित्येवं पूजयन्तोऽस्य तद् वचः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भीष्म आदि सब लोगोंने उस प्रस्तावकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए राजा धृतराष्ट्रसे कहा—‘बहुत उत्तम बात है’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामनुमतं ज्ञात्वा राजा दुर्योधनस्तदा।
सभावास्तूनि रम्याणि प्रदेष्टुमुपचक्रमे ॥ १२ ॥

मूलम्

तेषामनुमतं ज्ञात्वा राजा दुर्योधनस्तदा।
सभावास्तूनि रम्याणि प्रदेष्टुमुपचक्रमे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबकी अनुमति जानकर राजा दुर्योधनने उस समय जगह-जगह सुन्दर सभामण्डप तथा विश्रामस्थान बनवानेके लिये आदेश जारी किया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो देशेषु देशेषु रमणीयेषु भागशः।
सर्वरत्नसमाकीर्णाः सभाश्चक्रुरनेकशः ॥ १३ ॥

मूलम्

ततो देशेषु देशेषु रमणीयेषु भागशः।
सर्वरत्नसमाकीर्णाः सभाश्चक्रुरनेकशः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कारीगरोंने विभिन्न रमणीय प्रदेशोंमें अलग-अलग सब प्रकारके रत्नोंसे सम्पन्न अनेक विश्राम-स्थान बनाये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसनानि विचित्राणि युतानि विविधैर्गुणैः।
स्त्रियो गन्धानलंकारान् सूक्ष्माणि वसनानि च ॥ १४ ॥
गुणवन्त्यन्नपानानि भोज्यानि विविधानि च।
माल्यानि च सुगन्धीनि तानि राजा ददौ ततः ॥ १५ ॥

मूलम्

आसनानि विचित्राणि युतानि विविधैर्गुणैः।
स्त्रियो गन्धानलंकारान् सूक्ष्माणि वसनानि च ॥ १४ ॥
गुणवन्त्यन्नपानानि भोज्यानि विविधानि च।
माल्यानि च सुगन्धीनि तानि राजा ददौ ततः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके गुणोंसे युक्त विचित्र आसन, स्त्रियाँ, सुगन्धित पदार्थ, आभूषण, महीन वस्त्र, गुणकारक अन्न और पेय पदार्थ, भाँति-भाँतिके भोजन तथा सुगन्धित पुष्पमालाएँ आदि वस्तुओंको राजा दुर्योधनने उन स्थानोंमें रखवाया॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशेषतश्च वासार्थं सभां ग्रामे वृकस्थले।
विदधे कौरवो राजा बहुरत्नां मनोरमाम् ॥ १६ ॥

मूलम्

विशेषतश्च वासार्थं सभां ग्रामे वृकस्थले।
विदधे कौरवो राजा बहुरत्नां मनोरमाम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विशेषतः वृकस्थल नामक ग्राममें निवास करनेके लिये कुरुराज दुर्योधनने जो विश्रामस्थान बनवाया था, वह बड़ा मनोरम तथा प्रचुर रत्नराशिसे सम्पन्न था॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् विधाय वै सर्वं देवार्हमतिमानुषम्।
आचख्यौ धृतराष्ट्राय राजा दुर्योधनस्तदा ॥ १७ ॥

मूलम्

एतद् विधाय वै सर्वं देवार्हमतिमानुषम्।
आचख्यौ धृतराष्ट्राय राजा दुर्योधनस्तदा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्योंके लिये अत्यन्त दुर्लभ यह सब देवोचित व्यवस्था करके राजा दुर्योधनने धृतराष्ट्रको इसकी सूचना दे दी॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताः सभाः केशवः सर्वा रत्नानि विविधानि च।
असमीक्ष्यैव दाशार्ह उपायात् कुरुसद्म तत् ॥ १८ ॥

मूलम्

ताः सभाः केशवः सर्वा रत्नानि विविधानि च।
असमीक्ष्यैव दाशार्ह उपायात् कुरुसद्म तत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण उन विश्रामस्थानों तथा नाना प्रकारके रत्नोंकी ओर दृष्टिपाततक न करके कौरवोंके निवासस्थान हस्तिनापुरकी ओर बढ़ते चले गये॥१८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि मार्गे सभानिर्माणे पञ्चाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें मार्गमें विश्रामस्थलनिर्माणविषयक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८५॥