भागसूचना
द्व्यशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीका श्रीकृष्णसे अपना दुःख सुनाना और श्रीकृष्णका उसे आश्वासन देना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा धर्मार्थसहितं हितम्।
कृष्णा दाशार्हमासीनमब्रवीच्छोककर्शिता ॥ १ ॥
सुता द्रुपदराजस्य स्वसितायतमूर्धजा ।
सम्पूज्य सहदेवं च सात्यकिं च महारथम् ॥ २ ॥
मूलम्
राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा धर्मार्थसहितं हितम्।
कृष्णा दाशार्हमासीनमब्रवीच्छोककर्शिता ॥ १ ॥
सुता द्रुपदराजस्य स्वसितायतमूर्धजा ।
सम्पूज्य सहदेवं च सात्यकिं च महारथम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! सिरपर अत्यन्त काले और लम्बे केश धारण करनेवाली द्रुपदराजकुमारी कृष्णा राजा युधिष्ठिरके धर्म और अर्थसे युक्त हितकर वचन सुनकर शोकसे कातर हो उठी और महारथी सात्यकि तथा सहदेवकी प्रशंसा करके वहाँ बैठे हुए दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्णसे कुछ कहनेको उद्यत हुई॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनं च संशान्तं दृष्ट्वा परमदुर्मनाः।
अश्रुपूर्णेक्षणा वाक्यमुवाचेदं मनस्विनी ॥ ३ ॥
मूलम्
भीमसेनं च संशान्तं दृष्ट्वा परमदुर्मनाः।
अश्रुपूर्णेक्षणा वाक्यमुवाचेदं मनस्विनी ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनको अत्यन्त शान्त देख मनस्विनी द्रौपदीके मनमें बड़ा दुःख हुआ। उसकी आँखोंमें आँसू भर आये और वह श्रीकृष्णसे इस प्रकार बोली—॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदितं ते महाबाहो धर्मज्ञ मधुसूदन।
यथा निकृतिमास्थाय भ्रंशिताः पाण्डवाः सुखात् ॥ ४ ॥
धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण सामात्येन जनार्दन।
यथा च संजयो राज्ञा मन्त्रं रहसि श्रावितः ॥ ५ ॥
युधिष्ठिरस्य दाशार्ह तच्चापि विदितं तव।
यथोक्तः संजयश्चैव तच्च सर्वं श्रुतं त्वया ॥ ६ ॥
मूलम्
विदितं ते महाबाहो धर्मज्ञ मधुसूदन।
यथा निकृतिमास्थाय भ्रंशिताः पाण्डवाः सुखात् ॥ ४ ॥
धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण सामात्येन जनार्दन।
यथा च संजयो राज्ञा मन्त्रं रहसि श्रावितः ॥ ५ ॥
युधिष्ठिरस्य दाशार्ह तच्चापि विदितं तव।
यथोक्तः संजयश्चैव तच्च सर्वं श्रुतं त्वया ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मके ज्ञाता महाबाहु मधुसूदन! आपको तो मालूम ही है कि मन्त्रियोंसहित धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनने किस प्रकार शठताका आश्रय लेकर पाण्डवोंको सुखसे वंचित कर दिया। दशार्हनन्दन! राजा धृतराष्ट्रने युधिष्ठिरसे कहनेके लिये संजयको एकान्तमें जो मन्त्र (अपना विचार) सुनाकर यहाँ भेजा था, वह भी आपको ज्ञात ही है तथा धर्मराजने संजयसे जैसी बातें कही थीं, उन सबको भी आपने सुन ही लिया है॥४—६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्च नस्तात दीयन्तां ग्रामा इति महाद्युते।
अविस्थलं वृकस्थलं माकन्दीं वारणावतम् ॥ ७ ॥
अवसानं महाबाहो कञ्चिदेकं च पञ्चमम्।
इति दुर्योधनो वाच्यः सुहृदश्चास्य केशव ॥ ८ ॥
मूलम्
पञ्च नस्तात दीयन्तां ग्रामा इति महाद्युते।
अविस्थलं वृकस्थलं माकन्दीं वारणावतम् ॥ ७ ॥
अवसानं महाबाहो कञ्चिदेकं च पञ्चमम्।
इति दुर्योधनो वाच्यः सुहृदश्चास्य केशव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी केशव! (इन्होंने संजयसे इस प्रकार कहा था—) संजय! तुम दुर्योधन और उसके सुहृदोंके सामने मेरी यह माँग रख देना—‘तात! तुम हमें अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत तथा अन्तिम पाँचवाँ कोई एक गाँव—इन पाँच गाँवोंको ही दे दो’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चापि ह्यकरोद् वाक्यं श्रुत्वा कृष्ण सुयोधनः।
युधिष्ठिरस्य दाशार्ह श्रीमतः संधिमिच्छतः ॥ ९ ॥
मूलम्
न चापि ह्यकरोद् वाक्यं श्रुत्वा कृष्ण सुयोधनः।
युधिष्ठिरस्य दाशार्ह श्रीमतः संधिमिच्छतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण! संधिकी इच्छा रखनेवाले श्रीमान् युधिष्ठिरका यह (नम्रतापूर्ण) वचन सुनकर भी उसे दुर्योधनने स्वीकार नहीं किया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रदानेन राज्यस्य यदि कृष्ण सुयोधनः।
संधिमिच्छेन्न कर्तव्यं तत्र गत्वा कथञ्चन ॥ १० ॥
मूलम्
अप्रदानेन राज्यस्य यदि कृष्ण सुयोधनः।
संधिमिच्छेन्न कर्तव्यं तत्र गत्वा कथञ्चन ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपके वहाँ जानेपर यदि दुर्योधन राज्य दिये बिना ही संधि करना चाहे तो आप इसे किसी तरह स्वीकार न कीजियेगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्ष्यन्ति हि महाबाहो पाण्डवाः सृंजयैः सह।
धार्तराष्ट्रबलं घोरं क्रुद्धं प्रतिसमासितुम् ॥ ११ ॥
मूलम्
शक्ष्यन्ति हि महाबाहो पाण्डवाः सृंजयैः सह।
धार्तराष्ट्रबलं घोरं क्रुद्धं प्रतिसमासितुम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! पाण्डवलोग सृंजय वीरोंके साथ क्रोधमें भरी हुई दुर्योधनकी भयंकर सेनाका अच्छी तरह सामना कर सकते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि साम्ना न दानेन शक्योऽर्थस्तेषु कश्चन।
तस्मात् तेषु न कर्तव्या कृपा ते मधुसूदन ॥ १२ ॥
मूलम्
न हि साम्ना न दानेन शक्योऽर्थस्तेषु कश्चन।
तस्मात् तेषु न कर्तव्या कृपा ते मधुसूदन ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधुसूदन! कौरवोंके प्रति साम और दाननीतिका प्रयोग करनेसे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। अतः उनपर आपको कभी कृपा नहीं करनी चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साम्ना दानेन वा कृष्ण ये न शाम्यन्ति शत्रवः।
योक्तव्यस्तेषु दण्डः स्वाज्जीवितं परिरक्षता ॥ १३ ॥
मूलम्
साम्ना दानेन वा कृष्ण ये न शाम्यन्ति शत्रवः।
योक्तव्यस्तेषु दण्डः स्वाज्जीवितं परिरक्षता ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! अपने जीवनकी रक्षा करनेवाले पुरुषको चाहिये कि जो शत्रु साम और दानसे शान्त न हों, उनपर दण्डका प्रयोग करे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् तेषु महादण्डः क्षेप्तव्यः क्षिप्रमच्युत।
त्वया चैव महाबाहो पाण्डवैः सह सृंजयैः ॥ १४ ॥
मूलम्
तस्मात् तेषु महादण्डः क्षेप्तव्यः क्षिप्रमच्युत।
त्वया चैव महाबाहो पाण्डवैः सह सृंजयैः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः महाबाहु अच्युत! आपको तथा सृंजयोंसहित पाण्डवोंको उचित है कि वे उन शत्रुओंको शीघ्र ही महान् दण्ड दें॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् समर्थं पार्थानां तव चैव यशस्करम्।
क्रियमाणं भवेत् कृष्ण क्षत्रस्य च सुखावहम् ॥ १५ ॥
मूलम्
एतत् समर्थं पार्थानां तव चैव यशस्करम्।
क्रियमाणं भवेत् कृष्ण क्षत्रस्य च सुखावहम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यही कुन्तीकुमारोंके योग्य कार्य है। श्रीकृष्ण! यदि यह किया जाय तो आपके भी यशका विस्तार होगा और समस्त क्षत्रियसमुदायको भी सुख मिलेगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियेण हि हन्तव्यः क्षत्रियो लोभमास्थितः।
अक्षत्रियो वा दाशार्ह स्वधर्ममनुतिष्ठता ॥ १६ ॥
मूलम्
क्षत्रियेण हि हन्तव्यः क्षत्रियो लोभमास्थितः।
अक्षत्रियो वा दाशार्ह स्वधर्ममनुतिष्ठता ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दशार्हनन्दन! अपने धर्मका पालन करनेवाले क्षत्रियको चाहिये कि वह लोभका आश्रय लेनेवाले मनुष्यको भले ही वह क्षत्रिय हो या अक्षत्रिय, अवश्य मार डाले॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यत्र ब्राह्मणात् तात सर्वपापेष्ववस्थितात्।
गुरुर्हि सर्ववर्णानां ब्राह्मणः प्रसृताग्रभुक् ॥ १७ ॥
मूलम्
अन्यत्र ब्राह्मणात् तात सर्वपापेष्ववस्थितात्।
गुरुर्हि सर्ववर्णानां ब्राह्मणः प्रसृताग्रभुक् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! ब्राह्मणोंके सिवा दूसरे वर्णोंपर ही यह नियम लागू होता है। ब्राह्मण सब पापोंमें डूबा हो, तब भी उसे प्राणदण्ड नहीं देना चाहिये; क्योंकि ब्राह्मण सब वर्णोंका गुरु तथा दानमें दी हुई वस्तुओंका सर्वप्रथम भोक्ता है अर्थात् पहला पात्र है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथावध्ये वध्यमाने भवेद् दोषो जनार्दन।
स वध्यस्यावधे दृष्ट इति धर्मविदो विदुः ॥ १८ ॥
मूलम्
यथावध्ये वध्यमाने भवेद् दोषो जनार्दन।
स वध्यस्यावधे दृष्ट इति धर्मविदो विदुः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! जैसे अवध्यका वध करनेपर महान् दोष लगता है, उसी प्रकार वध्यका वध न करनेसे भी दोषकी प्राप्ति होती है। यह बात धर्मज्ञ पुरुष जानते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा त्वां न स्पृशेदेष दोषः कृष्ण तथा कुरु।
पाण्डवैः सह दाशार्हैः सृंजयैश्च ससैनिकैः ॥ १९ ॥
मूलम्
यथा त्वां न स्पृशेदेष दोषः कृष्ण तथा कुरु।
पाण्डवैः सह दाशार्हैः सृंजयैश्च ससैनिकैः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! आप सैनिकोंसहित सृंजयों, पाण्डवों तथा यादवोंके साथ ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे आपको यह दोष न छू सके॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरुक्तं च वक्ष्यामि विश्रम्भेण जनार्दन।
का तु सीमन्तिनी मादृक् पृथिव्यामस्ति केशव ॥ २० ॥
मूलम्
पुनरुक्तं च वक्ष्यामि विश्रम्भेण जनार्दन।
का तु सीमन्तिनी मादृक् पृथिव्यामस्ति केशव ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! आपपर अत्यन्त विश्वास होनेके कारण मैं अपनी कही हुई बातको पुनः दुहराती हूँ। केशव! इस पृथ्वीपर मेरे समान स्त्री कौन होगी?॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुता द्रुपदराजस्य वेदिमध्यात् समुत्थिता।
धृष्टद्युम्नस्य भगिनी तव कृष्ण प्रिया सखी ॥ २१ ॥
मूलम्
सुता द्रुपदराजस्य वेदिमध्यात् समुत्थिता।
धृष्टद्युम्नस्य भगिनी तव कृष्ण प्रिया सखी ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं महाराज द्रुपदकी पुत्री हूँ। यज्ञवेदीके मध्य-भागसे मेरा जन्म हुआ है। श्रीकृष्ण! मैं वीर धृष्टद्युम्नकी बहिन और आपकी प्रिय सखी हूँ॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आजमीढकुलं प्राप्ता स्नुषा पाण्डोर्महात्मनः।
महिषी पाण्डुपुत्राणां पञ्चेन्द्रसमवर्चसाम् ॥ २२ ॥
मूलम्
आजमीढकुलं प्राप्ता स्नुषा पाण्डोर्महात्मनः।
महिषी पाण्डुपुत्राणां पञ्चेन्द्रसमवर्चसाम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं परम प्रतिष्ठित अजमीढ़कुलमें ब्याहकर आयी हूँ। महात्मा राजा पाण्डुकी पुत्रवधू तथा पाँच इन्दोंके समान तेजस्वी पाण्डुपुत्रोंकी पटरानी हूँ॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुता मे पञ्चभिर्वीरैः पञ्च जाता महारथाः।
अभिमन्युर्यथा कृष्ण तथा ते तव धर्मतः ॥ २३ ॥
मूलम्
सुता मे पञ्चभिर्वीरैः पञ्च जाता महारथाः।
अभिमन्युर्यथा कृष्ण तथा ते तव धर्मतः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँच वीर पतियोंसे मैंने पाँच महारथी पुत्रोंको जन्म दिया है। श्रीकृष्ण! जैसे अभिमन्यु आपका भानजा है, उसी प्रकार मेरे पुत्र भी धर्मतः आपके भानजे ही हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहं केशग्रहं प्राप्ता परिक्लिष्टा सभां गता।
पश्यतां पाण्डुपुत्राणां त्वयि जीवति केशव ॥ २४ ॥
मूलम्
साहं केशग्रहं प्राप्ता परिक्लिष्टा सभां गता।
पश्यतां पाण्डुपुत्राणां त्वयि जीवति केशव ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
केशव! इतनी सम्मानित और सौभाग्यशालिनी होनेपर भी मैं पाण्डवोंके देखते-देखते और आपके जीते-जी केश पकड़कर सभामें लायी गयी और मेरा बारंबार अपमान किया गया एवं मुझे क्लेश दिया गया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवत्सु पाण्डुपुत्रेषु पञ्चालेष्वथ वृष्णिषु।
दासीभूतास्मि पापानां सभामध्ये व्यवस्थिता ॥ २५ ॥
मूलम्
जीवत्सु पाण्डुपुत्रेषु पञ्चालेष्वथ वृष्णिषु।
दासीभूतास्मि पापानां सभामध्ये व्यवस्थिता ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवों, पांचालों और यदुवंशियोंके जीते-जी मैं पापी कौरवोंकी दासी बनी और उसी रूपमें सभाके बीच मुझे उपस्थित होना पड़ा॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरमर्षेष्वचेष्टेषु प्रेक्षमाणेषु पाण्डुषु ।
पाहि मामिति गोविन्द मनसा चिन्तितोऽसि मे ॥ २६ ॥
मूलम्
निरमर्षेष्वचेष्टेषु प्रेक्षमाणेषु पाण्डुषु ।
पाहि मामिति गोविन्द मनसा चिन्तितोऽसि मे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव यह सब कुछ देख रहे थे, तो भी न तो इनका क्रोध ही जागा और न इन्होंने मुझे उनके हाथसे छुड़ानेकी चेष्टा ही की। उस समय मैंने (अत्यन्त असहाय होकर) मन-ही-मन आपका चिन्तन किया और कहा—‘गोविन्द! मेरी रक्षा कीजिये’ (प्रभो! तब आपने ही कृपा करके मेरी लाज बचायी)॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र मां भगवान् राजा श्वशुरो वाक्यमब्रवीत्।
वरं वृणीष्व पाञ्चालि वरार्हासि मता मम ॥ २७ ॥
मूलम्
यत्र मां भगवान् राजा श्वशुरो वाक्यमब्रवीत्।
वरं वृणीष्व पाञ्चालि वरार्हासि मता मम ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सभामें मेरे ऐश्वर्यशाली श्वशुर राजा धृतराष्ट्रने मुझे (आदर देते हुए) कहा—‘पांचालराजकुमारी! मैं तुम्हें अपनी ओरसे मनोवांछित वर पानेके योग्य मानता हूँ। तुम कोई वर माँगो’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदासाः पाण्डवाः सन्तु सरथाः सायुधा इति।
मयोक्ते यत्र निर्मुक्ता वनवासाय केशव ॥ २८ ॥
मूलम्
अदासाः पाण्डवाः सन्तु सरथाः सायुधा इति।
मयोक्ते यत्र निर्मुक्ता वनवासाय केशव ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने उनसे कहा—‘पाण्डव रथ और आयुधों-सहित दासभावसे मुक्त हो जायँ।’ केशव! मेरे इतना कहनेपर ये लोग वनवासका कष्ट भोगनेके लिये दासभावसे मुक्त हुए थे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधानां दुःखानामभिज्ञोऽसि जनार्दन ।
त्रायस्व पुण्डरीकाक्ष सभर्तृज्ञातिबान्धवान् ॥ २९ ॥
मूलम्
एवंविधानां दुःखानामभिज्ञोऽसि जनार्दन ।
त्रायस्व पुण्डरीकाक्ष सभर्तृज्ञातिबान्धवान् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! हमलोगोंपर ऐसे-ऐसे महान् दुःख आते रहे हैं, जिन्हें आप अच्छी तरह जानते हैं। कमलनयन! पति, कुटुम्बी तथा बान्धवजनोंसहित हमलोगोंकी आप रक्षा करें॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्वहं कृष्ण भीष्मस्य धृतराष्ट्रस्य चोभयोः।
स्नुषा भवामि धर्मेण साहं दासीकृता बलात् ॥ ३० ॥
मूलम्
नन्वहं कृष्ण भीष्मस्य धृतराष्ट्रस्य चोभयोः।
स्नुषा भवामि धर्मेण साहं दासीकृता बलात् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! मैं धर्मतः भीष्म और धृतराष्ट्र दोनोंकी पुत्रवधू हूँ, तो भी उनके सामने ही मुझे बलपूर्वक दासी बनाया गया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिक् पार्थस्य धनुष्मत्तां भीमसेनस्य धिग् बलम्।
यत्र दुर्योधनः कृष्ण मुहूर्तमपि जीवति ॥ ३१ ॥
मूलम्
धिक् पार्थस्य धनुष्मत्तां भीमसेनस्य धिग् बलम्।
यत्र दुर्योधनः कृष्ण मुहूर्तमपि जीवति ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! ऐसी दशामें यदि दुर्योधन एक मुहूर्त भी जीवित रहता है तो अर्जुनके धनुषधारण और भीमसेनके बलको धिक्कार है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि तेऽहमनुग्राह्या यदि तेऽस्ति कृपा मयि।
धार्तराष्ट्रेषु वै कोपः सर्वः कृष्ण विधीयताम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
यदि तेऽहमनुग्राह्या यदि तेऽस्ति कृपा मयि।
धार्तराष्ट्रेषु वै कोपः सर्वः कृष्ण विधीयताम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! यदि मैं आपकी अनुग्रहभाजन हूँ, यदि मुझपर आपकी कृपा है तो आप धृतराष्ट्रके पुत्रोंपर पूर्णरूपसे क्रोध कीजिये॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा मृदुसंहारं वृजिनाग्रं सुदर्शनम्।
सुनीलमसितापाङ्गी सर्वगन्धाधिवासितम् ॥ ३३ ॥
सर्वलक्षणसम्पन्नं महाभुजगवर्चसम् ।
केशपक्षं वरारोहा गृह्य वामेन पाणिना ॥ ३४ ॥
पद्माक्षी पुण्डरीकाक्षमुपेत्य गजगामिनी ।
अश्रुपूर्णेक्षणा कृष्णा कृष्णं वचनमब्रवीत् ॥ ३५ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा मृदुसंहारं वृजिनाग्रं सुदर्शनम्।
सुनीलमसितापाङ्गी सर्वगन्धाधिवासितम् ॥ ३३ ॥
सर्वलक्षणसम्पन्नं महाभुजगवर्चसम् ।
केशपक्षं वरारोहा गृह्य वामेन पाणिना ॥ ३४ ॥
पद्माक्षी पुण्डरीकाक्षमुपेत्य गजगामिनी ।
अश्रुपूर्णेक्षणा कृष्णा कृष्णं वचनमब्रवीत् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर सुन्दर अंगोंवाली, श्यामलोचना, कमलनयनी एवं गजगामिनी द्रुपदकुमारी कृष्णा अपने उन केशोंको, जो देखनेमें अत्यन्त सुन्दर, घुँघराले, अत्यन्त काले, एकत्र आबद्ध होनेपर भी कोमल, सब प्रकारकी सुगन्धोंसे सुवासित, सभी शुभ लक्षणोंसे सुशोभित तथा विशाल सर्पके समान कान्तिमान् थे, बाँयें हाथमें लेकर कमलनयन श्रीकृष्णके पास गयी और नेत्रोंमें आँसू भरकर इस प्रकार बोली—॥३३—३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं ते पुण्डरीकाक्ष दुःशासनकरोद्धृतः।
स्मर्तव्यः सर्वकार्येषु परेषां संधिमिच्छता ॥ ३६ ॥
मूलम्
अयं ते पुण्डरीकाक्ष दुःशासनकरोद्धृतः।
स्मर्तव्यः सर्वकार्येषु परेषां संधिमिच्छता ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कमललोचन श्रीकृष्ण! शत्रुओंके साथ संधिकी इच्छासे आप जो-जो कार्य या प्रयत्न करें, उन सबमें दुःशासनके हाथोंसे खींचे हुए इन केशोंको याद रखें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि भीमार्जुनौ कृष्ण कृपणौ संधिकामुकौ।
पिता मे योत्स्यते वृद्धः सह पुत्रैर्महारथैः ॥ ३७ ॥
मूलम्
यदि भीमार्जुनौ कृष्ण कृपणौ संधिकामुकौ।
पिता मे योत्स्यते वृद्धः सह पुत्रैर्महारथैः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीकृष्ण! यदि भीमसेन और अर्जुन कायर होकर कौरवोंके साथ संधिकी कामना करने लगे हैं, तो मेरे वृद्ध पिताजी अपने महारथी पुत्रोंके साथ शत्रुओंसे युद्ध करेंगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्च चैव महावीर्याः पुत्रा मे मधुसूदन।
अभिमन्युं पुरस्कृत्य योत्स्यन्ते कुरुभिः सह ॥ ३८ ॥
मूलम्
पञ्च चैव महावीर्याः पुत्रा मे मधुसूदन।
अभिमन्युं पुरस्कृत्य योत्स्यन्ते कुरुभिः सह ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! मेरे पाँच महापराक्रमी पुत्र भी वीर अभिमन्युको प्रधान बनाकर कौरवोंके साथ संग्राम करेंगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःशासनभुजं श्यामं संछिन्नं पांसुगुण्ठितम्।
यद्यहं तु न पश्यामि का शान्तिर्हृदयस्य मे ॥ ३९ ॥
मूलम्
दुःशासनभुजं श्यामं संछिन्नं पांसुगुण्ठितम्।
यद्यहं तु न पश्यामि का शान्तिर्हृदयस्य मे ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मैं दुःशासनकी साँवली भुजाको कटकर धूलमें लोटती न देखूँ तो मेरे हृदयको क्या शान्ति मिलेगी?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयोदश हि वर्षाणि प्रतीक्षन्त्या गतानि मे।
विधाय हृदये मन्युं प्रदीप्तमिव पावकम् ॥ ४० ॥
मूलम्
त्रयोदश हि वर्षाणि प्रतीक्षन्त्या गतानि मे।
विधाय हृदये मन्युं प्रदीप्तमिव पावकम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रज्वलित अग्निके समान इस प्रचण्ड क्रोधको हृदयमें रखकर प्रतीक्षा करते मुझे तेरह वर्ष बीत गये हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदीर्यते मे हृदयं भीमवाक्छल्यपीडितम्।
योऽयमद्य महाबाहुर्धर्ममेवानुपश्यति ॥ ४१ ॥
मूलम्
विदीर्यते मे हृदयं भीमवाक्छल्यपीडितम्।
योऽयमद्य महाबाहुर्धर्ममेवानुपश्यति ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज भीमसेनके संधिके लिये कहे गये वचन मेरे हृदयमें बाणके समान लगे हैं, जिनसे पीड़ित होकर मेरा कलेजा फटा जा रहा है। हाय! ये महाबाहु आज (मेरे अपमानको भुलाकर) केवल धर्मका ही ध्यान धर रहे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा बाष्परुद्धेन कण्ठेनायतलोचना ।
रुरोद कृष्णा सोत्कम्पं सस्वरं बाष्पगद्गदम् ॥ ४२ ॥
स्तनौ पीनायतश्रोणी सहितावभिवर्षती ।
द्रवीभूतमिवात्युष्णं मुञ्चन्ती वारि नेत्रजम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा बाष्परुद्धेन कण्ठेनायतलोचना ।
रुरोद कृष्णा सोत्कम्पं सस्वरं बाष्पगद्गदम् ॥ ४२ ॥
स्तनौ पीनायतश्रोणी सहितावभिवर्षती ।
द्रवीभूतमिवात्युष्णं मुञ्चन्ती वारि नेत्रजम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना कहनेके बाद पीन एवं विशाल नितम्बोंवाली विशाललोचना द्रुपदकुमारी कृष्णाका कण्ठ आँसुओंसे रुँध गया। वह काँपती हुई अश्रुगद्गद वाणीमें फूट-फूटकर रोने लगी। उसके परस्पर सटे हुए स्तनोंपर नेत्रोंसे गरम-गरम आँसुओंकी वर्षा होने लगी; मानो वह अपने भीतरकी द्रवीभूत क्रोधाग्निको ही उन वाष्पबिन्दुओंके रूपमें बिखेर रही हो॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामुवाच महाबाहुः केशवः परिसान्त्वयन्।
अचिराद् द्रक्ष्यसे कृष्णे रुदतीर्भरतस्त्रियः ॥ ४४ ॥
मूलम्
तामुवाच महाबाहुः केशवः परिसान्त्वयन्।
अचिराद् द्रक्ष्यसे कृष्णे रुदतीर्भरतस्त्रियः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महाबाहु केशवने उसे सान्त्वना देते हुए कहा—‘कृष्णे! तुम शीघ्र ही भरतवंशकी दूसरी स्त्रियोंको भी इसी प्रकार रुदन करते देखोगी॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ता भीरु रोत्स्यन्ति निहतज्ञातिबान्धवाः।
हतमित्रा हतबला येषां क्रुद्धासि भामिनि ॥ ४५ ॥
मूलम्
एवं ता भीरु रोत्स्यन्ति निहतज्ञातिबान्धवाः।
हतमित्रा हतबला येषां क्रुद्धासि भामिनि ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भामिनि! जिनपर तुम कुपित हुई हो, उन विपक्षियोंकी स्त्रियाँ भी अपने कुटुम्बी, बन्धु-बान्धव, मित्रवृन्द तथा सेनाओंके मारे जानेपर इसी तरह रोयेंगी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं च तत् करिष्यामि भीमार्जुनयमैः सह।
युधिष्ठिरनियोगेन दैवाच्च विधिनिर्मितात् ॥ ४६ ॥
मूलम्
अहं च तत् करिष्यामि भीमार्जुनयमैः सह।
युधिष्ठिरनियोगेन दैवाच्च विधिनिर्मितात् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज युधिष्ठिरकी आज्ञा तथा विधाताके रचे हुए अदृष्टसे प्रेरित हो भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेवको साथ लेकर मैं भी वही करूँगा, जो तुम्हें अभीष्ट है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धार्तराष्ट्राः कालपक्वा न चेच्छृण्वन्ति मे वचः।
शेष्यन्ते निहता भूमौ श्वशृगालादनीकृताः ॥ ४७ ॥
मूलम्
धार्तराष्ट्राः कालपक्वा न चेच्छृण्वन्ति मे वचः।
शेष्यन्ते निहता भूमौ श्वशृगालादनीकृताः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि कालके गालमें जानेवाले धृतराष्ट्रपुत्र मेरी बात नहीं सुनेंगे तो मारे जाकर धरतीपर लोटेंगे और कुत्तों तथा सियारोंके भोजन बन जायँगे॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलेद्धि हिमवाञ्छैलो मेदिनी शतधा फलेत्।
द्यौः पतेच्च सनक्षत्रा न मे मोघं वचो भवेत्॥४८॥
मूलम्
चलेद्धि हिमवाञ्छैलो मेदिनी शतधा फलेत्।
द्यौः पतेच्च सनक्षत्रा न मे मोघं वचो भवेत्॥४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हिमालय पर्वत अपनी जगहसे टल जाय, पृथ्वीके सैकड़ों टुकड़े हो जायँ तथा नक्षत्रोंसहित आकाश टूट पड़े, परंतु मेरी यह बात झूठी नहीं हो सकती॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं ते प्रतिजानामि कृष्णे बाष्पो निगृह्यताम्।
हतामित्रञ्श्रिया युक्तानचिराद् द्रक्ष्यसे पतीन् ॥ ४९ ॥
मूलम्
सत्यं ते प्रतिजानामि कृष्णे बाष्पो निगृह्यताम्।
हतामित्रञ्श्रिया युक्तानचिराद् द्रक्ष्यसे पतीन् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कृष्णे! अपने आँसुओंको रोको। मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, तुम शीघ्र ही देखोगी कि सारे शत्रु मार डाले गये और तुम्हारे पति राज्यलक्ष्मीसे सम्पन्न हैं’॥४९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि द्रौपदीकृष्णसंवादे द्व्यशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें द्रौपदी-कृष्णसंवादविषयक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८२॥