भागसूचना
एकाशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युद्धके लिये सहदेव तथा सात्यकिकी सम्मति और समस्त योद्धाओंका समर्थन
मूलम् (वचनम्)
सहदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेतत् कथितं राज्ञा धर्म एष सनातनः।
यथा च युद्धमेव स्यात् तथा कार्यमरिंदम ॥ १ ॥
मूलम्
यदेतत् कथितं राज्ञा धर्म एष सनातनः।
यथा च युद्धमेव स्यात् तथा कार्यमरिंदम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहदेव बोले— शत्रुदमन श्रीकृष्ण! महाराज युधिष्ठिरने यहाँ जो कुछ कहा है, यह सनातनधर्म है; परंतु मेरा कथन यह है कि आपको ऐसा प्रयत्न करना चाहिये, जिससे युद्ध होकर ही रहे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि प्रशममिच्छेयुः कुरवः पाण्डवैः सह।
तथापि युद्धं दाशार्ह योजयेथाः सहैव तैः ॥ २ ॥
मूलम्
यदि प्रशममिच्छेयुः कुरवः पाण्डवैः सह।
तथापि युद्धं दाशार्ह योजयेथाः सहैव तैः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दशार्हनन्दन! यदि कौरव पाण्डवोंके साथ संधि करना चाहें, तो भी आप उनके साथ युद्धकी ही योजना बनाइयेगा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं नु दृष्ट्वा पाञ्चालीं तथा कृष्ण सभागताम्।
अवधेन प्रशाम्येत मम मन्युः सुयोधने ॥ ३ ॥
मूलम्
कथं नु दृष्ट्वा पाञ्चालीं तथा कृष्ण सभागताम्।
अवधेन प्रशाम्येत मम मन्युः सुयोधने ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! पांचालराजकुमारी द्रौपदीको वैसी दशामें सभाके भीतर लायी गयी देखकर दुर्योधनके प्रति बढ़ा हुआ मेरा क्रोध उसका वध किये बिना कैसे शान्त हो सकता है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि भीमार्जुनौ कृष्ण धर्मराजश्च धार्मिकः।
धर्ममुत्सृज्य तेनाहं योद्धुमिच्छामि संयुगे ॥ ४ ॥
मूलम्
यदि भीमार्जुनौ कृष्ण धर्मराजश्च धार्मिकः।
धर्ममुत्सृज्य तेनाहं योद्धुमिच्छामि संयुगे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! यदि भीमसेन, अर्जुन तथा धर्मराज युधिष्ठिर धर्मका ही अनुसरण करते हैं तो मैं उस धर्मको छोड़कर रणभूमिमें दुर्योधनके साथ युद्ध ही करना चाहता हूँ॥४॥
मूलम् (वचनम्)
सात्यकिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यमाह महाबाहो सहदेवो महामतिः।
दुर्योधनवधे शान्तिस्तस्य कोपस्य मे भवेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
सत्यमाह महाबाहो सहदेवो महामतिः।
दुर्योधनवधे शान्तिस्तस्य कोपस्य मे भवेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सात्यकिने कहा— महाबाहो! परम बुद्धिमान् सहदेव ठीक कहते हैं। दुर्योधनके प्रति बढ़ा हुआ मेरा क्रोध उसके वधसे ही शान्त होगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जानासि यथा दृष्ट्वा चीराजिनधरान् वने।
तवापि मन्युरुद्भूतो दुःखितान् प्रेक्ष्य पाण्डवान् ॥ ६ ॥
मूलम्
न जानासि यथा दृष्ट्वा चीराजिनधरान् वने।
तवापि मन्युरुद्भूतो दुःखितान् प्रेक्ष्य पाण्डवान् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या आप भूल गये हैं; जब कि वनमें वल्कल और मृगचर्म धारण करके दुःखी हुए पाण्डवोंको देखकर आपका भी क्रोध उमड़ आया था?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्माद्रीसुतः शूरो यदाह रणकर्कशः।
वचनं सर्वयोधानां तन्मतं पुरुषोत्तम ॥ ७ ॥
मूलम्
तस्मान्माद्रीसुतः शूरो यदाह रणकर्कशः।
वचनं सर्वयोधानां तन्मतं पुरुषोत्तम ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः पुरुषोत्तम! युद्धमें कठोरता दिखानेवाले माद्रीनन्दन शूरवीर सहदेवने जो बात कही है, वही हम सम्पूर्ण योद्धाओंका मत है॥७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं वदति वाक्यं तु युयुधाने महामतौ।
सुभीमः सिंहनादोऽभूद् योधानां तत्र सर्वशः ॥ ८ ॥
मूलम्
एवं वदति वाक्यं तु युयुधाने महामतौ।
सुभीमः सिंहनादोऽभूद् योधानां तत्र सर्वशः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! परम बुद्धिमान् सात्यकिके ऐसा कहते ही वहाँ सब ओरसे समस्त योद्धाओंका अत्यन्त भयंकर सिंहनाद शुरू हो गया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे हि सर्वशो वीरास्तद्वचः प्रत्यपूजयन्।
साधु साध्विति शैनेयं हर्षयन्तो युयुत्सवः ॥ ९ ॥
मूलम्
सर्वे हि सर्वशो वीरास्तद्वचः प्रत्यपूजयन्।
साधु साध्विति शैनेयं हर्षयन्तो युयुत्सवः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धकी इच्छा रखनेवाले उन सभी वीरोंने साधु-साधु कहकर सात्यकिका हर्ष बढ़ाते हुए उनके वचनकी सर्वथा भूरि-भूरि प्रशंसा की॥९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि सहदेवसात्यकिवाक्ये एकाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें सहदेव-सात्यकिवाक्यविषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८१॥