भागसूचना
एकोनाशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णका अर्जुनको उत्तर देना
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि पाण्डव।
पाण्डवानां कुरूणां च प्रतिपत्स्ये निरामयम् ॥ १ ॥
मूलम्
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि पाण्डव।
पाण्डवानां कुरूणां च प्रतिपत्स्ये निरामयम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान् बोले— महाबाहु पाण्डुकुमार! तुम जैसा कहते हो, वैसा ही करना उचित है। मैं वही करनेका प्रयत्न करूँगा, जिससे कौरव तथा पाण्डव—दोनोंका संकट दूर हो—दोनों सुखी हो सकें॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं त्विदं ममायत्तं बीभत्सो कर्मणोर्द्वयोः।
क्षेत्रं हि रसवच्छुद्धं कर्मणैवोपपादितम् ॥ २ ॥
ऋते वर्षान्न कौन्तेय जातु निर्वर्तयेत् फलम्।
मूलम्
सर्वं त्विदं ममायत्तं बीभत्सो कर्मणोर्द्वयोः।
क्षेत्रं हि रसवच्छुद्धं कर्मणैवोपपादितम् ॥ २ ॥
ऋते वर्षान्न कौन्तेय जातु निर्वर्तयेत् फलम्।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन! इसमें संदेह नहीं कि शान्ति और युद्ध—इन दोनों कार्योंमेंसे किसी एकको हितकर समझकर अपनानेका सारा दायित्व मेरे हाथमें आ गया है; तथापि (इसमें प्रारब्धकी अनुकूलता अपेक्षित है) कुन्तीनन्दन! जुताई और सिंचाई करके कितना ही शुद्ध और सरस बनाया हुआ खेत क्यों न हो, कभी-कभी वर्षाके बिना वह अच्छी उपज नहीं दे सकता॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र वै पौरुषं ब्रूयुरासेकं यत्र कारितम् ॥ ३ ॥
तत्र चापि ध्रुवं पश्येच्छोषणं दैवकारितम्।
मूलम्
तत्र वै पौरुषं ब्रूयुरासेकं यत्र कारितम् ॥ ३ ॥
तत्र चापि ध्रुवं पश्येच्छोषणं दैवकारितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जिस खेतमें जुताई और सिंचाई की गयी है, वहाँ यह पुरुषार्थ ही किया गया है; परंतु वहाँ भी दैववश सूखा पड़ गया, यह निश्चितरूपसे देखा जाता है। [अतः पुरुषार्थकी सफलताके लिये प्रारब्धकी अनुकूलता आवश्यक है]॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं निश्चितं बुद्ध्या पूर्वैरपि महात्मभिः ॥ ४ ॥
दैवे च मानुषे चैव संयुक्तं लोककारणम्।
मूलम्
तदिदं निश्चितं बुद्ध्या पूर्वैरपि महात्मभिः ॥ ४ ॥
दैवे च मानुषे चैव संयुक्तं लोककारणम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये पूर्वकालके महात्माओंने अपनी बुद्धि-द्वारा यही निश्चय किया है कि लोकहितका साधन दैव तथा पुरुषार्थ दोनोंपर निर्भर है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि तत् करिष्यामि परं पुरुषकारतः ॥ ५ ॥
दैवं तु न मया शक्यं कर्म कर्तुं कथंचन।
मूलम्
अहं हि तत् करिष्यामि परं पुरुषकारतः ॥ ५ ॥
दैवं तु न मया शक्यं कर्म कर्तुं कथंचन।
अनुवाद (हिन्दी)
मैं पुरुषार्थसे जितना हो सकता है, उतना संधि-स्थापनके लिये अधिक-से-अधिक प्रयत्न करूँगा; परंतु प्रारब्धके विधानको किसी प्रकार भी टाल देना या बदल देना मेरे लिये सम्भव नहीं है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि धर्मं च लोकं च त्यक्त्वा चरति दुर्मतिः॥६॥
न हि संतप्यते तेन तथारूपेण कर्मणा।
मूलम्
स हि धर्मं च लोकं च त्यक्त्वा चरति दुर्मतिः॥६॥
न हि संतप्यते तेन तथारूपेण कर्मणा।
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्बुद्धि दुर्योधन सदा धर्म और लोकाचारको छोड़कर ही चलता है; परंतु इस प्रकार धर्म और लोकके विरुद्ध कार्य करके भी वह उससे संतप्त नहीं होता॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथापि बुद्धिं पापिष्ठां वर्धयन्त्यस्य मन्त्रिणः ॥ ७ ॥
शकुनिः सूतपुत्रश्च भ्राता दुःशासनस्तथा।
मूलम्
तथापि बुद्धिं पापिष्ठां वर्धयन्त्यस्य मन्त्रिणः ॥ ७ ॥
शकुनिः सूतपुत्रश्च भ्राता दुःशासनस्तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेपर भी उसके मन्त्री शकुनि, सूतपुत्र कर्ण तथा भाई दुःशासन—ये उसकी अत्यन्त पापपूर्ण बुद्धिको बढ़ावा देते रहते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि त्यागेन राज्यस्य न शमं समुपैष्यति ॥ ८ ॥
अन्तरेण वधं पार्थ सानुबन्धः सुयोधनः।
मूलम्
स हि त्यागेन राज्यस्य न शमं समुपैष्यति ॥ ८ ॥
अन्तरेण वधं पार्थ सानुबन्धः सुयोधनः।
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! अपने सगे-सम्बन्धियोंसहित दुर्योधन जबतक मारा नहीं जायगा, तबतक वह राज्यभाग देकर कदापि संधि नहीं करेगा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चापि प्रणिपातेन त्यक्तुमिच्छति धर्मराट्।
याच्यमानश्च राज्यं स न प्रदास्यति दुर्मतिः ॥ ९ ॥
मूलम्
न चापि प्रणिपातेन त्यक्तुमिच्छति धर्मराट्।
याच्यमानश्च राज्यं स न प्रदास्यति दुर्मतिः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिर भी नम्रतापूर्वक संधिके लिये अपना राज्य छोड़ना नहीं चाहते हैं। उधर दुर्बुद्धि दुर्योधन माँगनेपर भी राज्य नहीं देगा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु मन्ये स तद् वाच्यो यद् युधिष्ठिरशासनम्।
उक्तं प्रयोजनं यत् तु धर्मराजेन भारत ॥ १० ॥
तथा पापस्तु तत् सर्वं न करिष्यति कौरवः।
तस्मिंश्चाक्रियमाणेऽसौ लोके वध्यो भविष्यति ॥ ११ ॥
मूलम्
न तु मन्ये स तद् वाच्यो यद् युधिष्ठिरशासनम्।
उक्तं प्रयोजनं यत् तु धर्मराजेन भारत ॥ १० ॥
तथा पापस्तु तत् सर्वं न करिष्यति कौरवः।
तस्मिंश्चाक्रियमाणेऽसौ लोके वध्यो भविष्यति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! धर्मराज युधिष्ठिरने केवल पाँच गाँवोंको माँगनेके लिये जो आज्ञा दी है तथा नम्रतापूर्ण वचनोंमें जो संधिका प्रयोजन बताया है, वह सब दुर्योधनसे कहना उचित नहीं है—ऐसा मैं मानता हूँ; क्योंकि वह कुरुकुलकलंक पापात्मा उन सब बातों—को कभी स्वीकार नहीं करेगा। हमलोगोंका प्रस्ताव स्वीकार न करनेपर वह इस जगत्में अवश्य ही वधके योग्य हो जायगा॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम चापि स वध्यो हि जगतश्चापि भारत।
येन कौमारके यूयं सर्वे विप्रकृताः सदा ॥ १२ ॥
विप्रलुप्तं च वो राज्यं नृशंसेन दुरात्मना।
न चोपशाम्यते पापः श्रियं दृष्ट्वा युधिष्ठिरे ॥ १३ ॥
मूलम्
मम चापि स वध्यो हि जगतश्चापि भारत।
येन कौमारके यूयं सर्वे विप्रकृताः सदा ॥ १२ ॥
विप्रलुप्तं च वो राज्यं नृशंसेन दुरात्मना।
न चोपशाम्यते पापः श्रियं दृष्ट्वा युधिष्ठिरे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! जिसने तुम सब लोगोंको कुमारावस्थामें भी सदा नाना प्रकारके कष्ट दिये हैं, जिस दुरात्मा एवं निर्दयीने तुम्हारे राज्यका भी अपहरण कर लिया है तथा जो पापी दुर्योधन युधिष्ठिरके पास सम्पत्ति देखकर शान्त नहीं रह सकता है, वह मेरे और समस्त संसारके लिये भी वध्य है॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असकृच्चाप्यहं तेन त्वत्कृते पार्थ भेदितः।
न मया तद् गृहीतं च पापं तस्य चिकीर्षितम्॥१४॥
मूलम्
असकृच्चाप्यहं तेन त्वत्कृते पार्थ भेदितः।
न मया तद् गृहीतं च पापं तस्य चिकीर्षितम्॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! उसने मुझे भी तुम्हारी ओरसे फोड़नेके लिये अनेक बार चेष्टा की है; परंतु मैंने उसके पापपूर्ण प्रस्तावको कभी स्वीकार नहीं किया है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानासि हि महाबाहो त्वमप्यस्य परं मतम्।
प्रियं चिकीर्षमाणं च धर्मराजस्य मामपि ॥ १५ ॥
मूलम्
जानासि हि महाबाहो त्वमप्यस्य परं मतम्।
प्रियं चिकीर्षमाणं च धर्मराजस्य मामपि ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! तुम जानते ही हो कि दुर्योधनकी भी मेरे विषयमें यही निश्चित धारणा है कि मैं धर्मराज युधिष्ठिरका प्रिय करना चाहता हूँ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संजानंस्तस्य चात्मानं मम चैव परं मतम्।
अजानन्निव मां कस्मादर्जुनाद्याभिशङ्कसे ॥ १६ ॥
मूलम्
संजानंस्तस्य चात्मानं मम चैव परं मतम्।
अजानन्निव मां कस्मादर्जुनाद्याभिशङ्कसे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन! इस प्रकार तुम दुर्योधनके मनकी भावना तथा मेरे दृढ़ निश्चयको जानते हुए भी आज अनजानकी भाँति क्यों मुझपर संदेह कर रहे हो?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चापि परमं दिव्यं तच्चाप्यनुगतं त्वया।
विधानं विहितं पार्थ कथं शर्म भवेत् परैः ॥ १७ ॥
मूलम्
यच्चापि परमं दिव्यं तच्चाप्यनुगतं त्वया।
विधानं विहितं पार्थ कथं शर्म भवेत् परैः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार! जो देवताओंका परम दिव्य (भूभार उतारनेके लिये) निश्चित विधान है, उससे भी तुम सर्वथा परिचित हो। फिर शत्रुओंके साथ संधि कैसे हो सकती है?॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तु वाचा मया शक्यं कर्मणा वापि पाण्डव।
करिष्ये तदहं पार्थ न त्वाशंसे शमं परैः ॥ १८ ॥
मूलम्
यत् तु वाचा मया शक्यं कर्मणा वापि पाण्डव।
करिष्ये तदहं पार्थ न त्वाशंसे शमं परैः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन! मेरे द्वारा वाणी और प्रयत्नसे जो कुछ हो सकता है, वह मैं अवश्य करूँगा; परंतु पार्थ! मुझे यह तनिक भी आशा नहीं है कि शत्रुओंके साथ संधि हो जायगी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं गोहरणे ह्युक्तो नैतच्छर्म तथा हितम्।
याच्यमानो हि भीष्मेण संवत्सरगतेऽध्वनि ॥ १९ ॥
मूलम्
कथं गोहरणे ह्युक्तो नैतच्छर्म तथा हितम्।
याच्यमानो हि भीष्मेण संवत्सरगतेऽध्वनि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराटनगरमें गोहरणके समय तुम्हारे अज्ञातवासका वर्ष पूरा हो चुका था। उस समय भीष्मजीने मार्गमें दुर्योधनसे याचना की कि तुम पाण्डवोंको उनका राज्य देकर उनसे मेल कर लो, परंतु यह कल्याण और हितकी बात भी उसने किसी प्रकार स्वीकार नहीं की॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदैव ते पराभूता यदा संकल्पितास्त्वया।
लवशः क्षणशश्चापि न च तुष्टः सुयोधनः ॥ २० ॥
मूलम्
तदैव ते पराभूता यदा संकल्पितास्त्वया।
लवशः क्षणशश्चापि न च तुष्टः सुयोधनः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब तुमने कौरवोंको पराजित करनेका संकल्प किया, उसी समय वे पराजित हो गये। परंतु दुर्योधन तुमलोगोंपर क्षणभरके लिये किंचिन्मात्र भी संतुष्ट नहीं है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा तु मया कार्यं धर्मराजस्य शासनम्।
विभाव्यं तस्य भूयश्च कर्म पापं दुरात्मनः ॥ २१ ॥
मूलम्
सर्वथा तु मया कार्यं धर्मराजस्य शासनम्।
विभाव्यं तस्य भूयश्च कर्म पापं दुरात्मनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे वहाँ जाकर सबसे पहले धर्मराजकी आज्ञाके अनुसार संधिके लिये सब प्रकारसे प्रयत्न करना है। यदि यह सफल न हुआ तो फिर मुझे यह विचार करना होगा कि दुरात्मा दुर्योधनको उसके पापकर्मका दण्ड कैसे दिया जाय?॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि श्रीकृष्णवाक्ये एकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें श्रीकृष्णवाक्यविषयक उन्नासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७९॥