भागसूचना
अष्टसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनका कथन
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तं युधिष्ठिरेणैव यावद् वाच्यं जनार्दन।
तव वाक्यं तु मे श्रुत्वा प्रतिभाति परंतप ॥ १ ॥
नैव प्रशममत्र त्वं मन्यसे सुकरं प्रभो।
लोभाद् वा धृतराष्ट्रस्य दैन्याद् वा समुपस्थितात् ॥ २ ॥
मूलम्
उक्तं युधिष्ठिरेणैव यावद् वाच्यं जनार्दन।
तव वाक्यं तु मे श्रुत्वा प्रतिभाति परंतप ॥ १ ॥
नैव प्रशममत्र त्वं मन्यसे सुकरं प्रभो।
लोभाद् वा धृतराष्ट्रस्य दैन्याद् वा समुपस्थितात् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अर्जुनने कहा— जनार्दन! मुझे जो कुछ कहना था, वह सब तो महाराज युधिष्ठिरने ही कह दिया। शत्रुओंको संतप्त करनेवाले प्रभो! आपकी बात सुनकर मुझे ऐसा जान पड़ता है कि आप धृतराष्ट्रके लोभ तथा हमारी प्रस्तुत दीनताके कारण संधि करानेका कार्य सरल नहीं समझ रहे हैं॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अफलं मन्यसे वापि पुरुषस्य पराक्रमम्।
न चान्तरेण कर्माणि पौरुषेण फलोदयः ॥ ३ ॥
मूलम्
अफलं मन्यसे वापि पुरुषस्य पराक्रमम्।
न चान्तरेण कर्माणि पौरुषेण फलोदयः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा आप मनुष्यके पराक्रमको निष्फल मानते हैं; क्योंकि पूर्वजन्मके कर्म (प्रारब्ध)-के बिना केवल पुरुषार्थसे किसी फलकी प्राप्ति नहीं होती॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं भाषितं वाक्यं तथा च न तथैव तत्।
न चैतदेवं द्रष्टव्यमसाध्यमपि किंचन ॥ ४ ॥
मूलम्
तदिदं भाषितं वाक्यं तथा च न तथैव तत्।
न चैतदेवं द्रष्टव्यमसाध्यमपि किंचन ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने जो बात कही है, वह ठीक है; परंतु सदा वैसा ही हो, यह नहीं कहा जा सकता। किसी भी कार्यको असाध्य नहीं समझना चाहिये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं चैतन्मन्यसे कृच्छ्रमस्माकमवसादकम् ।
कुर्वन्ति तेषां कर्माणि येषां नास्ति फलोदयः ॥ ५ ॥
मूलम्
किं चैतन्मन्यसे कृच्छ्रमस्माकमवसादकम् ।
कुर्वन्ति तेषां कर्माणि येषां नास्ति फलोदयः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ऐसा मानते हैं कि हमारा यह वर्तमान कष्ट ही हमें पीड़ित करनेवाला है; परंतु वास्तवमें हमारे शत्रुओंके किये हुए वे कार्य ही हमें कष्ट दे रहे हैं, जिनका उनके लिये भी कोई विशेष फल नहीं है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्पाद्यमानं सम्यक् च स्यात् कर्म सफलं प्रभो।
स तथा कृष्ण वर्तस्व यथा शर्म भवेत् परैः॥६॥
मूलम्
सम्पाद्यमानं सम्यक् च स्यात् कर्म सफलं प्रभो।
स तथा कृष्ण वर्तस्व यथा शर्म भवेत् परैः॥६॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जिस कार्यको अच्छी तरह किया जाय, वह सफल हो सकता है। श्रीकृष्ण! आप ऐसा ही प्रयत्न करें, जिससे शत्रुओंके साथ हमारी संधि हो जाय॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवानां कुरूणां च भवान् नः प्रथमः सुहृत्।
सुराणामसुराणां च यथा वीर प्रजापतिः ॥ ७ ॥
मूलम्
पाण्डवानां कुरूणां च भवान् नः प्रथमः सुहृत्।
सुराणामसुराणां च यथा वीर प्रजापतिः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरवर! जैसे प्रजापति ब्रह्माजी देवताओं तथा असुरोंके भी प्रधान हितैषी हैं, उसी प्रकार आप हम पाण्डवों तथा कौरवोंके भी प्रधान सुहृद् हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरूणां पाण्डवानां च प्रतिपत्स्व निरामयम्।
अस्मद्धितमनुष्ठानं मन्ये तव न दुष्करम् ॥ ८ ॥
मूलम्
कुरूणां पाण्डवानां च प्रतिपत्स्व निरामयम्।
अस्मद्धितमनुष्ठानं मन्ये तव न दुष्करम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे कौरवों तथा पाण्डवोंके भी दुःखका निवारण हो जाय। मेरा विश्वास है कि हमारे लिये हितकर कार्य करना आपके लिये दुष्कर नहीं है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं च कार्यतामेति कार्यं तव जनार्दन।
गमनादेवमेव त्वं करिष्यसि जनार्दन ॥ ९ ॥
मूलम्
एवं च कार्यतामेति कार्यं तव जनार्दन।
गमनादेवमेव त्वं करिष्यसि जनार्दन ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! ऐसा करना आपके लिये अत्यन्त आवश्यक कर्तव्य है। प्रभो! आप वहाँ जानेमात्रसे यह कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेंगे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिकीर्षितमथान्यत् ते तस्मिन् वीर दुरात्मनि।
भविष्यति च तत् सर्वं यथा तव चिकीर्षितम् ॥ १० ॥
मूलम्
चिकीर्षितमथान्यत् ते तस्मिन् वीर दुरात्मनि।
भविष्यति च तत् सर्वं यथा तव चिकीर्षितम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! उस दुरात्मा दुर्योधनके प्रति आपको कुछ और करना अभीष्ट हो, तो जैसी आपकी इच्छा होगी, वह सब कार्य उसी रूपमें सम्पन्न होगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शर्म तैः सह वा नोऽस्तु तव वा यच्चिकीर्षितम्।
विचार्यमाणो यः कामस्तव कृष्ण स नो गुरुः।
न स नार्हति दुष्टात्मा वधं ससुतबान्धवः ॥ ११ ॥
येन धर्मसुते दृष्टा न सा श्रीरुपमर्षिता।
यच्चाप्यपश्यतोपायं धर्मिष्ठं मधुसूदन ॥ १२ ॥
उपायेन नृशंसेन हृता दुर्द्यूतदेविना।
मूलम्
शर्म तैः सह वा नोऽस्तु तव वा यच्चिकीर्षितम्।
विचार्यमाणो यः कामस्तव कृष्ण स नो गुरुः।
न स नार्हति दुष्टात्मा वधं ससुतबान्धवः ॥ ११ ॥
येन धर्मसुते दृष्टा न सा श्रीरुपमर्षिता।
यच्चाप्यपश्यतोपायं धर्मिष्ठं मधुसूदन ॥ १२ ॥
उपायेन नृशंसेन हृता दुर्द्यूतदेविना।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! कौरवोंके साथ हमारी संधि हो अथवा आप जो कुछ करना चाहते हों, वही हो। विचार करनेपर हम इसी निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि आपकी जो इच्छा हो, वही हमारे लिये गौरव तथा समादरकी वस्तु है। वह दुष्टात्मा दुर्योधन अपने पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंसहित वधके ही योग्य है, जो धर्मपुत्र युधिष्ठिरके पास आयी हुई सम्पत्ति देखकर उसे सहन न कर सका। इतना ही नहीं, जब कपटद्यूतका आश्रय लेनेवाले उस क्रूरात्माने किसी धर्मसम्मत उपाय युद्ध आदिको अपने लिये सफलता देनेवाला नहीं देखा, तब कपटपूर्ण उपायसे उस सम्पत्तिका अपहरण कर लिया॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं हि पुरुषो जातः क्षत्रियेषु धनुर्धरः ॥ १३ ॥
समाहूतो निवर्तेत प्राणत्यागेऽप्युपस्थिते ।
मूलम्
कथं हि पुरुषो जातः क्षत्रियेषु धनुर्धरः ॥ १३ ॥
समाहूतो निवर्तेत प्राणत्यागेऽप्युपस्थिते ।
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हुआ कोई भी धनुर्धर पुरुष किसीके द्वारा युद्धके लिये आमन्त्रित होनेपर कैसे पीछे हट सकता है? भले ही वैसा करनेपर उसके लिये प्राण-त्यागका संकट भी उपस्थित हो जाय॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मेण जितान् दृष्ट्वा वने प्रव्रजितांस्तथा ॥ १४ ॥
वध्यतां मम वार्ष्णेय निर्गतोऽसौ सुयोधनः।
मूलम्
अधर्मेण जितान् दृष्ट्वा वने प्रव्रजितांस्तथा ॥ १४ ॥
वध्यतां मम वार्ष्णेय निर्गतोऽसौ सुयोधनः।
अनुवाद (हिन्दी)
वृष्णिकुलनन्दन! हमलोग अधर्मपूर्वक जूएमें पराजित किये गये और वनमें भेज दिये गये। यह सब देखकर मैंने मन-ही-मन पूर्णरूपसे निश्चय कर लिया था कि दुर्योधन मेरे द्वारा वधके योग्य है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैतदद्भुतं कृष्ण मित्रार्थे यच्चिकीर्षसि।
क्रिया कथं च मुख्या स्यान्मृदुना चेतरेण वा ॥ १५ ॥
मूलम्
न चैतदद्भुतं कृष्ण मित्रार्थे यच्चिकीर्षसि।
क्रिया कथं च मुख्या स्यान्मृदुना चेतरेण वा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! आप मित्रोंके हितके लिये जो कुछ करना चाहते हैं, वह आपके लिये अद्भुत नहीं है। मृदु अथवा कठोर, जिस उपायसे भी सम्भव हो किसी तरह अपना मुख्य कार्य सफल होना चाहिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा मन्यसे ज्यायान् वधस्तेषामनन्तरम्।
तदेव क्रियतामाशु न विचार्यमतस्त्वया ॥ १६ ॥
मूलम्
अथवा मन्यसे ज्यायान् वधस्तेषामनन्तरम्।
तदेव क्रियतामाशु न विचार्यमतस्त्वया ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यदि आप अब कौरवोंका वध ही श्रेष्ठ मानते हों तो वही शीघ्र-से-शीघ्र किया जाय। फिर इसके सिवा और किसी बातपर आपको विचार नहीं करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानासि हि यथैतेन द्रौपदी पापबुद्धिना।
परिक्लिष्टा सभामध्ये तच्च तस्योपमर्षितम् ॥ १७ ॥
मूलम्
जानासि हि यथैतेन द्रौपदी पापबुद्धिना।
परिक्लिष्टा सभामध्ये तच्च तस्योपमर्षितम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप जानते हैं, इस पापात्मा दुर्योधनने भरी सभामें द्रुपदकुमारी कृष्णाको कितना कष्ट पहुँचाया था, परंतु हमने उसके इस महान् अपराधको भी चुपचाप सह लिया था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स नाम सम्यग् वर्तेत पाण्डवेष्विति माधव।
न मे संजायते बुद्धिर्बीजमुप्तमिवोषरे ॥ १८ ॥
मूलम्
स नाम सम्यग् वर्तेत पाण्डवेष्विति माधव।
न मे संजायते बुद्धिर्बीजमुप्तमिवोषरे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माधव! वही दुर्योधन अब पाण्डवोंके साथ अच्छा बर्ताव करेगा, ऐसी बात मेरी बुद्धिमें जँच नहीं रही है। उसके साथ संधिका सारा प्रयत्न ऊसरमें बोये हुए बीजकी भाँति व्यर्थ ही है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् यन्मन्यसे युक्तं पाण्डवानां हितं च यत्।
तथाऽऽशु कुरु वार्ष्णेय यन्नः कार्यमनन्तरम् ॥ १९ ॥
मूलम्
तस्माद् यन्मन्यसे युक्तं पाण्डवानां हितं च यत्।
तथाऽऽशु कुरु वार्ष्णेय यन्नः कार्यमनन्तरम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः वृष्णिकुलभूषण श्रीकृष्ण! आप पाण्डवोंके लिये अबसे करनेयोग्य जो उचित एवं हितकर कार्य मानते हों, वही यथासम्भव शीघ्र आरम्भ कीजिये॥१९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि अर्जुनवाक्येऽष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें अर्जुनवाक्यविषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७८॥