०७७ कृष्णवाक्ये

भागसूचना

सप्तसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका भीमसेनको आश्वासन देना

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भावं जिज्ञासमानोऽहं प्रणयादिदमब्रुवम् ।
न चाक्षेपान्न पाण्डित्यान्न क्रोधान्न विवक्षया ॥ १ ॥

मूलम्

भावं जिज्ञासमानोऽहं प्रणयादिदमब्रुवम् ।
न चाक्षेपान्न पाण्डित्यान्न क्रोधान्न विवक्षया ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— भीमसेन! मैंने तो तुम्हारा मनोभाव जाननेके लिये ही प्रेमसे ये बातें कही हैं, तुमपर आक्षेप करने, पण्डिताई दिखाने, क्रोध प्रकट करने या व्याख्यान देनेकी इच्छासे कुछ नहीं कहा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदाहं तव माहात्म्यमुत ते वेद यद् बलम्।
उत ते वेद कर्माणि न त्वां परिभवाम्यहम् ॥ २ ॥

मूलम्

वेदाहं तव माहात्म्यमुत ते वेद यद् बलम्।
उत ते वेद कर्माणि न त्वां परिभवाम्यहम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तुम्हारे माहात्म्यको जानता हूँ। तुममें जो बल और पराक्रम है, उससे भी परिचित हूँ और तुमने जो बड़े-बड़े पराक्रम किये हैं, वे भी मुझसे छिपे नहीं हैं; अतः मैं तुम्हारा तिरस्कार नहीं करता॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा चात्मनि कल्याणं सम्भावयसि पाण्डव।
सहस्रगुणमप्येतत् त्वयि सम्भावयाम्यहम् ॥ ३ ॥

मूलम्

यथा चात्मनि कल्याणं सम्भावयसि पाण्डव।
सहस्रगुणमप्येतत् त्वयि सम्भावयाम्यहम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! तुम अपनेमें जैसे कल्याणकारी गुणकी सम्भावना करते हो, उससे भी सहस्रगुने सद्‌गुणोंकी सम्भावना तुममें मैं करता हूँ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यादृशे च कुले जन्म सर्वराजाभिपूजिते।
बन्धुभिश्च सुहृद्भिश्च भीम त्वमसि तादृशः ॥ ४ ॥

मूलम्

यादृशे च कुले जन्म सर्वराजाभिपूजिते।
बन्धुभिश्च सुहृद्भिश्च भीम त्वमसि तादृशः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन! समस्त राजाओंद्वारा सम्मानित जैसे प्रतिष्ठित कुलमें तुम्हारा जन्म हुआ है, अपने बन्धुओं और सुहृदोंसहित तुम वैसी ही प्रतिष्ठाके योग्य हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिज्ञासन्तो हि धर्मस्य संदिग्धस्य वृकोदर।
पर्यायं नाध्यवस्यन्ति देवमानुषयोर्जनाः ॥ ५ ॥

मूलम्

जिज्ञासन्तो हि धर्मस्य संदिग्धस्य वृकोदर।
पर्यायं नाध्यवस्यन्ति देवमानुषयोर्जनाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृकोदर! देवधर्म (प्रारब्ध) और मानुषधर्म (पुरुषार्थ)-का स्वरूप संदिग्ध है। लोग दैव और पुरुषार्थ दोनोंके परिणामको जानना चाहते हैं, परंतु किसी निश्चयतक पहुँच नहीं पाते॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एव हेतुर्भूत्वा हि पुरुषस्यार्थसिद्धिषु।
विनाशेऽपि स एवास्य संदिग्धं कर्म पौरुषम् ॥ ६ ॥

मूलम्

स एव हेतुर्भूत्वा हि पुरुषस्यार्थसिद्धिषु।
विनाशेऽपि स एवास्य संदिग्धं कर्म पौरुषम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि उपर्युक्त पुरुषार्थ ही कभी पुरुषकी कार्य-सिद्धिमें कारण बनकर कभी विनाशका भी हेतु बन जाता है। इस प्रकार जैसे दैवका फल संदिग्ध है, वैसे ही पुरुषार्थका भी फल संदिग्ध है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यथा परिदृष्टानि कविभिर्दोषदर्शिभिः ।
अन्यथा परिवर्तन्ते वेगा इव नभस्वतः ॥ ७ ॥

मूलम्

अन्यथा परिदृष्टानि कविभिर्दोषदर्शिभिः ।
अन्यथा परिवर्तन्ते वेगा इव नभस्वतः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोषदर्शी विद्वानोंद्वारा अन्य रूपमें देखे या विचारे हुए कर्म वायुके वेगोंकी भाँति बदलकर किसी दूसरे ही रूपमें परिवर्तित हो जाते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमन्त्रितं सुनीतं च न्यायतश्चोपपादितम्।
कृतं मानुष्यकं कर्म दैवेनापि विरुध्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

सुमन्त्रितं सुनीतं च न्यायतश्चोपपादितम्।
कृतं मानुष्यकं कर्म दैवेनापि विरुध्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्छी तरह विचारपूर्वक निश्चित किये हुए, उत्तम नीतिसे युक्त तथा न्यायपूर्वक सम्पादित किये हुए मानव-सम्बन्धी पुरुषार्थसाध्य कर्म भी कभी दैववश बाधित हो जाते हैं—उनकी सिद्धिमें विघ्न पड़ जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवमप्यकृतं कर्म पौरुषेण विहन्यते।
शीतमुष्णं तथा वर्षं क्षुत्पिपासे च भारत ॥ ९ ॥

मूलम्

दैवमप्यकृतं कर्म पौरुषेण विहन्यते।
शीतमुष्णं तथा वर्षं क्षुत्पिपासे च भारत ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! दैवकृत कार्य भी समाप्त होनेसे पहले पुरुषार्थद्वारा नष्ट कर दिया जाता है। जैसे शीतका निवारण वस्त्रसे, गरमीका व्यजनसे, वर्षाका छत्रसे और भूख-प्यासका निवारण अन्न और जलसे हो जाता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदन्यद् दिष्टभावस्य पुरुषस्य स्वयंकृतम्।
तस्मादनुपरोधश्च विद्यते तत्र लक्षणम् ॥ १० ॥

मूलम्

यदन्यद् दिष्टभावस्य पुरुषस्य स्वयंकृतम्।
तस्मादनुपरोधश्च विद्यते तत्र लक्षणम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रारब्धके अतिरिक्त जो पुरुषका स्वयं अपना किया हुआ कर्म है, उससे भी फलकी सिद्धि होती है। इस विषयमें यथेष्ट उदाहरण मिलते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकस्य नान्यतो वृत्तिः पाण्डवान्यत्र कर्मणः।
एवंबुद्धिः प्रवर्तेत फलं स्यादुभयान्वये ॥ ११ ॥

मूलम्

लोकस्य नान्यतो वृत्तिः पाण्डवान्यत्र कर्मणः।
एवंबुद्धिः प्रवर्तेत फलं स्यादुभयान्वये ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! पुरुषार्थको छोड़कर दूसरे किसी साधनसे—केवल दैवसे मनुष्यका जीवन-निर्वाह नहीं हो सकता। ऐसा विचारकर उसे कर्ममें प्रवृत्त होना चाहिये। फिर प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनोंके सम्बन्धसे फलकी प्राप्ति होगी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एवं कृतबुद्धिः स कर्मस्वेव प्रवर्तते।
नासिद्धौ व्यथते तस्य न सिद्धौ हर्षमश्नुते ॥ १२ ॥

मूलम्

य एवं कृतबुद्धिः स कर्मस्वेव प्रवर्तते।
नासिद्धौ व्यथते तस्य न सिद्धौ हर्षमश्नुते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपनी बुद्धिमें ऐसा निश्चय करके कर्मोंमें ही प्रवृत्त होता है, वह फलकी सिद्धि न होनेपर दुःखी नहीं होता और फलकी प्राप्ति होनेपर भी हर्षका अनुभव नहीं करता॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रेयमनुमात्रा मे भीमसेन विवक्षिता।
नैकान्तसिद्धिर्वक्तव्या शत्रुभिः सह संयुगे ॥ १३ ॥

मूलम्

तत्रेयमनुमात्रा मे भीमसेन विवक्षिता।
नैकान्तसिद्धिर्वक्तव्या शत्रुभिः सह संयुगे ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन! मुझे इस विषयमें अपना यह निश्चय बताना अभीष्ट है कि युद्धमें शत्रुओंके साथ भिड़नेपर अवश्य ही विजय प्राप्त होगी, यह नहीं कहा जा सकता॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नातिप्रहीणरश्मिः स्यात् तथा भावविपर्यये।
विषादमर्च्छेद् ग्लानिं वाप्येतमर्थं ब्रवीमि ते ॥ १४ ॥

मूलम्

नातिप्रहीणरश्मिः स्यात् तथा भावविपर्यये।
विषादमर्च्छेद् ग्लानिं वाप्येतमर्थं ब्रवीमि ते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनोभाव बदल जाय अथवा प्रारब्धके अनुसार कोई विपरीत घटना घटित हो जाय, तो भी सहसा अपने तेज और उत्साहको सर्वथा नहीं छोड़ना चाहिये। विषाद एवं ग्लानिका अनुभव नहीं करना चाहिये—यह बात भी मैंने तुम्हें आवश्यक समझकर बतायी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वोभूते धृतराष्ट्रस्य समीपं प्राप्य पाण्डव।
यतिष्ये प्रशमं कर्तुं युष्मदर्थमहापयन् ॥ १५ ॥

मूलम्

श्वोभूते धृतराष्ट्रस्य समीपं प्राप्य पाण्डव।
यतिष्ये प्रशमं कर्तुं युष्मदर्थमहापयन् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! कल सबेरे मैं राजा धृतराष्ट्रके समीप जाकर तुमलोगोंके स्वार्थकी सिद्धिमें तनिक भी बाधा न पहुँचाते हुए दोनों पक्षोंमें संधि करानेका प्रयत्न करूँगा॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शमं चेत् ते करिष्यन्ति ततोऽनन्तं यशो मम।
भवतां च कृतः कामस्तेषां च श्रेय उत्तमम् ॥ १६ ॥

मूलम्

शमं चेत् ते करिष्यन्ति ततोऽनन्तं यशो मम।
भवतां च कृतः कामस्तेषां च श्रेय उत्तमम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वे संधि स्वीकार कर लेंगे तो मुझे अक्षय यशकी प्राप्ति होगी। तुमलोगोंका मनोरथ भी पूर्ण होगा और कौरवोंका भी परम कल्याण होगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते चेदभिनिवेक्ष्यन्ते नाभ्युपैष्यन्ति मे वचः।
कुरवो युद्धमेवात्र घोरं कर्म भविष्यति ॥ १७ ॥

मूलम्

ते चेदभिनिवेक्ष्यन्ते नाभ्युपैष्यन्ति मे वचः।
कुरवो युद्धमेवात्र घोरं कर्म भविष्यति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वे कौरव युद्धका ही आग्रह दिखायेंगे और मेरे संधिविषयक प्रस्तावको ठुकरा देंगे, तब यहाँ युद्ध ही होगा, जो भयंकर कर्म है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् युद्धे भीमसेन त्वयि भारः समाहितः।
धूरर्जुनेन धार्या स्याद् वोढव्य इतरो जनः ॥ १८ ॥

मूलम्

अस्मिन् युद्धे भीमसेन त्वयि भारः समाहितः।
धूरर्जुनेन धार्या स्याद् वोढव्य इतरो जनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन! इस युद्धमें सारा भार तुम्हारे ऊपर ही रखा जायगा एवं अर्जुन इस भारको धारण करेगा। अन्य लोगोंका भार भी तुम्हीं दोनोंको ढोना है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं हि यन्ता बीभत्सोर्भविता संयुगे सति।
धनंजयस्यैष कामो न हि युद्धं न कामये ॥ १९ ॥

मूलम्

अहं हि यन्ता बीभत्सोर्भविता संयुगे सति।
धनंजयस्यैष कामो न हि युद्धं न कामये ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्ध आरम्भ होनेपर मैं अर्जुनका सारथि बनूँगा। यही अर्जुनकी इच्छा है। तुम यह न समझो कि मैं युद्ध होने देना नहीं चाहता॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादाशङ्कमानोऽहं वृकोदर मतिं तव।
गदतः क्लीबया वाचा तेजस्ते समदीदिपम् ॥ २० ॥

मूलम्

तस्मादाशङ्कमानोऽहं वृकोदर मतिं तव।
गदतः क्लीबया वाचा तेजस्ते समदीदिपम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृकोदर! इसीलिये जब तुम कायरतापूर्ण वचनोंद्वारा शान्तिका प्रस्ताव करने लगे, तब मुझे तुम्हारे युद्धविषयक विचारके बदल जानेका संदेह हुआ, जिसके कारण पूर्वोक्त बातें कहकर मैंने तुम्हारे तेजको उद्दीप्त किया॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि कृष्णवाक्ये सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें श्रीकृष्णवाक्यविषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७७॥