भागसूचना
षट्सप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीमसेनका उत्तर
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथोक्तो वासुदेवेन नित्यमन्युरमर्षणः ।
सदश्ववत् समाधावद् बभाषे तदनन्तरम् ॥ १ ॥
मूलम्
तथोक्तो वासुदेवेन नित्यमन्युरमर्षणः ।
सदश्ववत् समाधावद् बभाषे तदनन्तरम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर सदा क्रोध और अमर्षमें भरे रहनेवाले भीमसेन पहले सुशिक्षित घोड़ेकी भाँति सरपट भागने लगे (जल्दी-जल्दी बोलने लगे); फिर धीरे-धीरे बोले॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यथा मां चिकीर्षन्तमन्यथा मन्यसेऽच्युत।
प्रणीतभावमत्यर्थं युधि सत्यपराक्रमम् ॥ २ ॥
वेत्सि दाशार्ह सत्यं मे दीर्घकालं सहोषितः।
मूलम्
अन्यथा मां चिकीर्षन्तमन्यथा मन्यसेऽच्युत।
प्रणीतभावमत्यर्थं युधि सत्यपराक्रमम् ॥ २ ॥
वेत्सि दाशार्ह सत्यं मे दीर्घकालं सहोषितः।
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने कहा— अच्युत! मैं करना तो कुछ और चाहता हूँ, परंतु आप समझ कुछ और ही रहे हैं। दशार्हनन्दन! आप दीर्घकालतक मेरे साथ रहे हैं। अतः मेरे विषयमें यह सच्ची जानकारी रखते ही होंगे कि मेरा युद्धमें अत्यन्त अनुराग है और मेरा पराक्रम भी मिथ्या नहीं है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत वा मां न जानासि प्लवन् ह्रद इवाप्लवे॥३॥
तस्मादनभिरूपाभिर्वाग्भिर्मां त्वं समर्च्छसि ।
मूलम्
उत वा मां न जानासि प्लवन् ह्रद इवाप्लवे॥३॥
तस्मादनभिरूपाभिर्वाग्भिर्मां त्वं समर्च्छसि ।
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यह भी सम्भव है कि बिना नौकाके अगाध सरोवरमें तैरनेवाले पुरुषको जैसे उसकी गहराईका पता नहीं चलता, उसी तरह आप मुझे अच्छी तरह न जानते हों। इसीलिये आप अनुचित वचनोंद्वारा मुझपर आक्षेप कर रहे हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं हि भीमसेनं मां जानन् कश्चन माधव ॥ ४ ॥
ब्रूयादप्रतिरूपाणि यथा मां वक्तुमर्हसि।
मूलम्
कथं हि भीमसेनं मां जानन् कश्चन माधव ॥ ४ ॥
ब्रूयादप्रतिरूपाणि यथा मां वक्तुमर्हसि।
अनुवाद (हिन्दी)
माधव! मुझ भीमसेनको अच्छी तरह जाननेवाला कोई भी मनुष्य मेरे प्रति ऐसे अयोग्य वचन, जैसे आप कह रहे हैं, कैसे कह सकता है?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादिदं प्रवक्ष्यामि वचनं वृष्णिनन्दन ॥ ५ ॥
आत्मनः पौरुषं चैव बलं च न समं परैः।
मूलम्
तस्मादिदं प्रवक्ष्यामि वचनं वृष्णिनन्दन ॥ ५ ॥
आत्मनः पौरुषं चैव बलं च न समं परैः।
अनुवाद (हिन्दी)
वृष्णिकुलनन्दन! इसीलिये मैं आपसे अपने उस पौरुष तथा बलका वर्णन करना चाहता हूँ, जिसकी समानता दूसरे लोग नहीं कर सकते॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथानार्यकर्मैतत् प्रशंसा स्वयमात्मनः ॥ ६ ॥
अतिवादापविद्धस्तु वक्ष्यामि बलमात्मनः ।
मूलम्
सर्वथानार्यकर्मैतत् प्रशंसा स्वयमात्मनः ॥ ६ ॥
अतिवादापविद्धस्तु वक्ष्यामि बलमात्मनः ।
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि स्वयं अपनी प्रशंसा करना सर्वथा नीच पुरुषोंका ही कार्य है, तथापि आपने जो मेरे सम्मानके विपरीत बातें कहकर मेरा तिरस्कार किया है, उससे पीड़ित होकर मैं अपने बलका बखान करता हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्येमे रोदसी कृष्ण ययोरासन्निमाः प्रजाः ॥ ७ ॥
अचले चाप्रतिष्ठे चाप्यनन्ते सर्वमातरौ।
मूलम्
पश्येमे रोदसी कृष्ण ययोरासन्निमाः प्रजाः ॥ ७ ॥
अचले चाप्रतिष्ठे चाप्यनन्ते सर्वमातरौ।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! आप इस भूतल और स्वर्गलोकपर दृष्टिपात करें। इन्हीं दोनोंके भीतर ये समस्त प्रजाजन निवास करते हैं। ये दोनों सबके माता-पिता हैं। इन्हें अचल एवं अनन्त माना गया है। ये दूसरोंके आधार होते हुए भी स्वयं आधारशून्य हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदीमे सहसा क्रुद्धे समेयातां शिले इव ॥ ८ ॥
अहमेते निगृह्णीयां बाहुभ्यां सचराचरे।
मूलम्
यदीमे सहसा क्रुद्धे समेयातां शिले इव ॥ ८ ॥
अहमेते निगृह्णीयां बाहुभ्यां सचराचरे।
अनुवाद (हिन्दी)
यदि ये दोनों लोक सहसा कुपित होकर दो शिलाओंकी भाँति परस्पर टकराने लगें, तो मैं चराचर प्राणियोंसहित इन्हें अपनी दोनों भुजाओंसे रोक सकता हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यैतदन्तरं बाह्वोर्महापरिघयोरिव ॥ ९ ॥
य एतत् प्राप्य मुच्येत न तं पश्यामि पूरुषम्।
मूलम्
पश्यैतदन्तरं बाह्वोर्महापरिघयोरिव ॥ ९ ॥
य एतत् प्राप्य मुच्येत न तं पश्यामि पूरुषम्।
अनुवाद (हिन्दी)
लोहेके विशाल परिघोंकी भाँति मेरी इन मोटी भुजाओंका मध्यभाग कैसा है, यह देख लीजिये। मैं ऐसे किसी वीर पुरुषको नहीं देखता, जो इनके भीतर आकर फिर जीवित निकल जाय॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिमवांश्च समुद्रश्च वज्री वा बलभित् स्वयम् ॥ १० ॥
मयाभिपन्नं त्रायेरन् बलमास्थाय न त्रयः।
मूलम्
हिमवांश्च समुद्रश्च वज्री वा बलभित् स्वयम् ॥ १० ॥
मयाभिपन्नं त्रायेरन् बलमास्थाय न त्रयः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो मेरी पकड़में आ जायगा, उसे हिमालय पर्वत, विशाल महासागर तथा बल नामक दैत्यका विनाश करनेवाले साक्षात् वज्रधारी इन्द्र—ये तीनों अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी बचा नहीं सकते॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्धार्हान् क्षत्रियान् सर्वान् पाण्डवेष्वाततायिनः ॥ ११ ॥
अधः पादतलेनैतानधिष्ठास्यामि भूतले ।
मूलम्
युद्धार्हान् क्षत्रियान् सर्वान् पाण्डवेष्वाततायिनः ॥ ११ ॥
अधः पादतलेनैतानधिष्ठास्यामि भूतले ।
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंके प्रति आततायी बने हुए इन समस्त क्षत्रियोंको, जो युद्धके लिये उद्यत हुए हैं, मैं नीचे पृथ्वीपर गिराकर पैरोंतले रौंद डालूँगा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि त्वं नाभिजानासि मम विक्रममच्युत ॥ १२ ॥
यथा मया विनिर्जित्य राजानो वशगाः कृताः।
मूलम्
न हि त्वं नाभिजानासि मम विक्रममच्युत ॥ १२ ॥
यथा मया विनिर्जित्य राजानो वशगाः कृताः।
अनुवाद (हिन्दी)
अच्युत! मैंने राजाओंको जिस प्रकार युद्धमें जीतकर अपने अधीन किया था, मेरे उस पराक्रमसे आप अपरिचित नहीं हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ चेन्मां न जानासि सूर्यस्येवोद्यतः प्रभाम् ॥ १३ ॥
विगाढे युधि सम्बाधे वेत्स्यसे मां जनार्दन।
मूलम्
अथ चेन्मां न जानासि सूर्यस्येवोद्यतः प्रभाम् ॥ १३ ॥
विगाढे युधि सम्बाधे वेत्स्यसे मां जनार्दन।
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! यदि कदाचित् आप मुझे या मेरे पराक्रमको न जानते हों तो जब भयंकर संहारकारी घमासान युद्ध प्रारम्भ होगा, उस समय उगते हुए सूर्यकी प्रभाके समान आप मुझे अवश्य जान लेंगे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परुषैराक्षिपसि किं व्रणं पूतिमिवोन्नयन् ॥ १४ ॥
मूलम्
परुषैराक्षिपसि किं व्रणं पूतिमिवोन्नयन् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पके हुए घावको चाकूसे चीरने या उकसानेवाले पुरुषके समान आप मुझे अपने कठोर वचनोंद्वारा तिरस्कृत क्यों कर रहे हैं?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथामति ब्रवीम्येतद् विद्धि मामधिकं ततः।
द्रष्टासि युधि सम्बाधे प्रवृत्ते वैशसेऽहनि ॥ १५ ॥
मूलम्
यथामति ब्रवीम्येतद् विद्धि मामधिकं ततः।
द्रष्टासि युधि सम्बाधे प्रवृत्ते वैशसेऽहनि ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अपनी बुद्धिके अनुसार यहाँ जो कुछ कह रहा हूँ, उससे भी बढ़-चढ़कर मुझे समझें। जिस समय योद्धाओंसे खचाखच भरे हुए युद्धमें भयानक मारकाट मचेगी, उस दिन मुझे देखियेगा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया प्रणुन्नान् मातङ्गान् रथिनः सादिनस्तथा।
तथा नरानभिक्रुद्धं निघ्नन्तं क्षत्रियर्षभान् ॥ १६ ॥
द्रष्टा मां त्वं च लोकश्च विकर्षन्तं वरान् वरान्।
मूलम्
मया प्रणुन्नान् मातङ्गान् रथिनः सादिनस्तथा।
तथा नरानभिक्रुद्धं निघ्नन्तं क्षत्रियर्षभान् ॥ १६ ॥
द्रष्टा मां त्वं च लोकश्च विकर्षन्तं वरान् वरान्।
अनुवाद (हिन्दी)
जब (घमासान युद्धमें) मैं कुपित होकर मतवाले हाथियों, रथियों तथा घुड़सवारोंको धराशायी करना और फेंकना आरम्भ करूँगा एवं दूसरे श्रेष्ठ क्षत्रियवीरोंका वध करने लगूँगा, उस समय आप और दूसरे लोग भी मुझे देखेंगे कि मैं किस प्रकार चुन-चुनकर प्रधान-प्रधान वीरोंका संहार कर रहा हूँ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे सीदन्ति मज्जानो न ममोद्वेपते मनः ॥ १७ ॥
सर्वलोकादभिक्रुद्धान्न भयं विद्यते मम।
किं तु सौहृदमेवैतत् कृपया मधुसूदन।
सर्वांस्तितिक्षे संक्लेशान् मा स्म नो भरता नशन् ॥ १८ ॥
मूलम्
न मे सीदन्ति मज्जानो न ममोद्वेपते मनः ॥ १७ ॥
सर्वलोकादभिक्रुद्धान्न भयं विद्यते मम।
किं तु सौहृदमेवैतत् कृपया मधुसूदन।
सर्वांस्तितिक्षे संक्लेशान् मा स्म नो भरता नशन् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी मज्जा शिथिल नहीं हो रही है और न मेरा हृदय ही काँप रहा है। मधुसूदन! यदि समस्त संसार अत्यन्त कुपित होकर मुझपर आक्रमण करे, तो भी उससे मुझे भय नहीं है; किंतु मैंने जो शान्तिका प्रस्ताव किया है, यह तो केवल मेरा सौहार्द ही है। मैं दयावश सारे क्लेश सह लेनेको तैयार हूँ और चाहता हूँ कि हमारे कारण भरतवंशियोंका नाश न हो॥१७-१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि भीमसेनवाक्ये षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें भीमसेनवाक्यसम्बन्धी छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७६॥