०७५ भीमोत्तेजकश्रीकृष्णवाक्ये

भागसूचना

पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका भीमसेनको उत्तेजित करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा महाबाहुः केशवः प्रहसन्निव।
अभूतपूर्वं भीमस्य मार्दवोपहितं वचः ॥ १ ॥
गिरेरिव लघुत्वं तच्छीतत्वमिव पावके।
मत्वा रामानुजः शौरिः शार्ङ्गधन्वा वृकोदरम् ॥ २ ॥
संतेजयंस्तदा वाग्भिर्मातरिश्वेव पावकम् ।
उवाच भीममासीनं कृपयाभिपरिप्लुतम् ॥ ३ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा महाबाहुः केशवः प्रहसन्निव।
अभूतपूर्वं भीमस्य मार्दवोपहितं वचः ॥ १ ॥
गिरेरिव लघुत्वं तच्छीतत्वमिव पावके।
मत्वा रामानुजः शौरिः शार्ङ्गधन्वा वृकोदरम् ॥ २ ॥
संतेजयंस्तदा वाग्भिर्मातरिश्वेव पावकम् ।
उवाच भीममासीनं कृपयाभिपरिप्लुतम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— भीमसेनके मुखसे यह अभूतपूर्व मृदुतापूर्ण वचन सुनकर महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण हँसने-से लगे। जैसे पर्वतमें लघुता आ जाय और अग्निमें शीतलता प्रकट हो जाय, उसी प्रकार उनमें यह नम्रताका प्रादुर्भाव हुआ था। यह सोचकर शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले रामानुज श्रीकृष्ण अपने पास बैठे हुए वृकोदर भीमसेनको, जो उस समय दयासे द्रवित हो रहे थे, अपने वचनोंद्वारा उसी प्रकार उत्तेजित करते हुए बोले, मानो वायु अग्निको उद्दीप्त कर रही हो॥१—३॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमन्यदा भीमसेन युद्धमेव प्रशंससि।
वधाभिनन्दिनः क्रूरान् धार्तराष्ट्रान् मिमर्दिषुः ॥ ४ ॥

मूलम्

त्वमन्यदा भीमसेन युद्धमेव प्रशंससि।
वधाभिनन्दिनः क्रूरान् धार्तराष्ट्रान् मिमर्दिषुः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— भैया भीमसेन! आजके सिवा और दिन तो तुम हिंसासे ही प्रसन्न होनेवाले क्रूर धृतराष्ट्रपुत्रोंको मसल डालनेकी इच्छा मनमें लेकर सदा युद्धकी ही प्रशंसा किया करते थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च स्वपिषि जागर्षि न्युब्जः शेषे परंतप।
घोरामशान्तां रुषतीं सदा वाचं प्रभाषसे ॥ ५ ॥

मूलम्

न च स्वपिषि जागर्षि न्युब्जः शेषे परंतप।
घोरामशान्तां रुषतीं सदा वाचं प्रभाषसे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतप! (इन्हीं विचारोंमें डूबे रहनेके कारण) तुम रातमें सोते भी नहीं थे, जागते ही रहते थे। कभी सोना ही पड़ा, तो औंधे-मुँह लेट जाते और सदा घोर, अशान्त तथा रोषभरी बातें ही तुम्हारे मुँहसे निकलती थीं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निःश्वसन्नग्निवत् तेन संतप्तः स्वेन मन्युना।
अप्रशान्तमना भीम सधूम इव पावकः ॥ ६ ॥

मूलम्

निःश्वसन्नग्निवत् तेन संतप्तः स्वेन मन्युना।
अप्रशान्तमना भीम सधूम इव पावकः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीम! तुम बारंबार लंबी साँस खींचते हुए अपने ही क्रोधसे उसी प्रकार संतप्त होते थे, जैसे आग अपने ही तेजसे तपी रहती है। धुएँसे व्याप्त हुई अग्निकी भाँति तुम्हारे नित्य-निरन्तर अशान्ति छायी रहती थी॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकान्ते निःश्वसञ्छेषे भारार्त इव दुर्बलः।
अपि त्वां केचिदुन्मत्तं मन्यन्तेऽतद्विदो जनाः ॥ ७ ॥

मूलम्

एकान्ते निःश्वसञ्छेषे भारार्त इव दुर्बलः।
अपि त्वां केचिदुन्मत्तं मन्यन्तेऽतद्विदो जनाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारी बोझसे पीड़ित दुर्बल मनुष्यकी भाँति तुम एकान्तमें बैठकर जोर-जोरसे साँस खींचते रहते थे। इसीलिये तुम्हें कुछ लोग, जो इस बातको नहीं जानते हैं, पागल मानते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरुज्य वृक्षान् निर्मूलान् गजः परिरुजन्निव।
निघ्नन् पद्भिः क्षितिं भीम निष्टनन् परिधावसि ॥ ८ ॥

मूलम्

आरुज्य वृक्षान् निर्मूलान् गजः परिरुजन्निव।
निघ्नन् पद्भिः क्षितिं भीम निष्टनन् परिधावसि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीम! जैसे हाथी वृक्षोंको जड़-मूलसहित उखाड़कर उन्हें पैरोंकी ठोकरोंसे टूक-टूक कर डालता है, उसी प्रकार तुम भी पैरोंसे पृथ्वीपर आघात करते हुए जोर-जोरसे गर्जते और चारों ओर दौड़ते थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्मिञ्जनेऽभिरमसे रहः क्षिपसि पाण्डव।
नान्यं निशि दिवा चापि कदाचिदभिनन्दसि ॥ ९ ॥

मूलम्

नास्मिञ्जनेऽभिरमसे रहः क्षिपसि पाण्डव।
नान्यं निशि दिवा चापि कदाचिदभिनन्दसि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! तुम कभी इस जनसमुदायमें प्रसन्नताका अनुभव नहीं करते थे; सदा एकान्तमें ही बैठकर कालक्षेप करते थे। दिन हो या रात, तुम कभी किसी दूसरेका अभिनन्दन नहीं करते थे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकस्मात् स्मयमानश्च रहस्यास्से रुदन्निव।
जान्वोर्मूर्धानमाधाय चिरमास्से प्रमीलितः ॥ १० ॥

मूलम्

अकस्मात् स्मयमानश्च रहस्यास्से रुदन्निव।
जान्वोर्मूर्धानमाधाय चिरमास्से प्रमीलितः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी सहसा हँस पड़ते और कभी एकान्त स्थानमें रोते हुए-से प्रतीत होते थे और कभी घुटनोंपर मस्तक रखकर दीर्घकालतक नेत्र बंद किये बैठे रहते थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रुकुटिं च पुनः कुर्वन्नोष्ठौ च विदशन्निव।
अभीक्ष्णं दृश्यसे भीम सर्वं तन्मन्युकारितम् ॥ ११ ॥

मूलम्

भ्रुकुटिं च पुनः कुर्वन्नोष्ठौ च विदशन्निव।
अभीक्ष्णं दृश्यसे भीम सर्वं तन्मन्युकारितम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन! मैंने बार-बार तुम्हें भौंहें टेढ़ी करके दोनों ओठोंको चबाते हुए-से देखा है। यह सब तुम्हारे क्रोधकी करतूत है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा पुरस्तात् सविता दृश्यते शुक्रमुच्चरन्।
यथा च पश्चान्निर्मुक्तो ध्रुवं पर्येति रश्मिवान् ॥ १२ ॥
तथा सत्यं ब्रवीम्येतन्नास्ति तस्य व्यतिक्रमः।
हन्ताहं गदयाभ्येत्य दुर्योधनममर्षणम् ॥ १३ ॥
इति स्म मध्ये भ्रातॄणां सत्येनालभसे गदाम्।
तस्य ते प्रशमे बुद्धिर्ध्रियतेऽद्य परंतप ॥ १४ ॥

मूलम्

यथा पुरस्तात् सविता दृश्यते शुक्रमुच्चरन्।
यथा च पश्चान्निर्मुक्तो ध्रुवं पर्येति रश्मिवान् ॥ १२ ॥
तथा सत्यं ब्रवीम्येतन्नास्ति तस्य व्यतिक्रमः।
हन्ताहं गदयाभ्येत्य दुर्योधनममर्षणम् ॥ १३ ॥
इति स्म मध्ये भ्रातॄणां सत्येनालभसे गदाम्।
तस्य ते प्रशमे बुद्धिर्ध्रियतेऽद्य परंतप ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम अपने भाइयोंके बीचमें सत्यकी शपथ खाकर बार-बार गदा छूते हुए यह कहते थे—‘जैसे सूर्यदेव पूर्वदिशामें उदित होते हुए अपने तेजोमण्डलको प्रकट करते दिखायी देते हैं और पश्चिमदिशामें वे ही अंशुमाली अस्ताचलको जाकर निश्चितरूपसे मेरुपर्वतकी परिक्रमा करते हैं, उनके इस नियममें कभी कोई अन्तर नहीं पड़ता; उसी प्रकार मैं यह सच कहता हूँ कि अमर्षशील दुर्योधनके पास जाकर अपनी गदासे उसके प्राण ले लूँगा। मेरे इस कथनमें कभी कोई अन्तर नहीं पड़ सकता।’ परंतप! ऐसी प्रतिज्ञा करनेवाले तुम-जैसे वीरशिरोमणिकी बुद्धि आज शान्ति-स्थापनमें लग रही है; (यह आश्चर्यकी बात है!)॥१२—१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो युद्धाभिकाङ्क्षाणां युद्धकाल उपस्थिते।
चेतांसि विप्रतीपानि यत् त्वां भीर्भीम विन्दति ॥ १५ ॥

मूलम्

अहो युद्धाभिकाङ्क्षाणां युद्धकाल उपस्थिते।
चेतांसि विप्रतीपानि यत् त्वां भीर्भीम विन्दति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! युद्धका अवसर उपस्थित होनेपर पहलेसे युद्धकी अभिलाषा रखनेवाले लोगोंके विचार भी इतने बदल जाते हैं कि वे विपरीत सोचने लगते हैं। भीमसेन! जान पड़ता है, इसीलिये तुम्हें भी युद्धसे भय होने लगा है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो पार्थ निमित्तानि विपरीतानि पश्यसि।
स्वप्नान्ते जागरान्ते च तस्मात् प्रशममिच्छसि ॥ १६ ॥

मूलम्

अहो पार्थ निमित्तानि विपरीतानि पश्यसि।
स्वप्नान्ते जागरान्ते च तस्मात् प्रशममिच्छसि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! बड़े विस्मयकी बात है कि तुम्हें सोते और जागतेमें उलटे परिणामकी सूचना देनेवाले अपशकुन दिखायी देते हैं। इसीसे तुम शान्तिकी इच्छा प्रकट कर रहे हो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो नाशंससे किञ्चित् पुंस्त्वं क्लीब इवात्मनि।
कश्मलेनाभिपन्नोऽसि तेन ते विकृतं मनः ॥ १७ ॥

मूलम्

अहो नाशंससे किञ्चित् पुंस्त्वं क्लीब इवात्मनि।
कश्मलेनाभिपन्नोऽसि तेन ते विकृतं मनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! कायर और नपुंसककी भाँति इस समय तुम अपनेमें कुछ भी पुरुषार्थ नहीं मानते। तुम्हारे ऊपर मोह छा गया है, जिससे तुम्हारी मानसिक दशा बिगड़ गयी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्वेपते ते हृदयं मनस्ते प्रतिसीदति।
ऊरुस्तम्भगृहीतोऽसि तस्मात् प्रशममिच्छसि ॥ १८ ॥

मूलम्

उद्वेपते ते हृदयं मनस्ते प्रतिसीदति।
ऊरुस्तम्भगृहीतोऽसि तस्मात् प्रशममिच्छसि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जान पड़ता है कि तुम्हारा हृदय काँपता है, मन शिथिल होता जाता है, तुम्हारी जाँघें मानो अकड़ गयी हैं; इसीलिये तुम शान्ति चाहते हो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनित्यं किल मर्त्यस्य पार्थ चित्तं चलाचलम्।
वातवेगप्रचलिता अष्ठीला शाल्मलेरिव ॥ १९ ॥

मूलम्

अनित्यं किल मर्त्यस्य पार्थ चित्तं चलाचलम्।
वातवेगप्रचलिता अष्ठीला शाल्मलेरिव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! कहते हैं कि मनुष्यका चित्त सदा एक निश्चयपर अटल नहीं रहता। वह हवाके वेगसे हिलती हुई सेंमलके फलकी गाँठके समान डाँवाडोल रहता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तवैषा विकृता बुद्धिर्गवां वागिव मानुषी।
मनांसि पाण्डुपुत्राणां मज्जयत्यप्लवानिव ॥ २० ॥

मूलम्

तवैषा विकृता बुद्धिर्गवां वागिव मानुषी।
मनांसि पाण्डुपुत्राणां मज्जयत्यप्लवानिव ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि गौएँ मनुष्योंकी बोली बोलें, तो वह जैसे बिगड़ी हुई होगी, उसी प्रकार तुम्हारी यह बुद्धि विकृत होकर अगाध समुद्रमें नावके बिना डूबनेवाले मनुष्योंकी भाँति पाण्डवोंके मनको चिन्तामग्न किये देती है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं मे महदाश्चर्यं पर्वतस्येव सर्पणम्।
यदीदृशं प्रभाषेथा भीमसेनासमं वचः ॥ २१ ॥

मूलम्

इदं मे महदाश्चर्यं पर्वतस्येव सर्पणम्।
यदीदृशं प्रभाषेथा भीमसेनासमं वचः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन! तुम जो बात कह रहे हो, वह तुम्हारे योग्य कदापि नहीं है। जैसे पर्वतका चलना आश्चर्यकी बात है, उसी प्रकार तुम्हारे द्वारा किया हुआ यह शान्ति-प्रस्ताव मुझे महान् आश्चर्यमें डाल रहा है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दृष्ट्वा स्वानि कर्माणि कुले जन्म च भारत।
उत्तिष्ठस्व विषादं मा कृथा वीर स्थिरो भव ॥ २२ ॥

मूलम्

स दृष्ट्वा स्वानि कर्माणि कुले जन्म च भारत।
उत्तिष्ठस्व विषादं मा कृथा वीर स्थिरो भव ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तुम अपने कर्मोंकी ओर देखकर और जिस कुलमें तुम्हारा जन्म हुआ है, उसपर भी दृष्टिपात करके खड़े हो जाओ। वीरवर! विषाद न करो और अपने क्षत्रियोचित कर्मपर डट जाओ॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैतदनुरूपं ते यत् ते ग्लानिररिंदम।
यदोजसा न लभते क्षत्रियो न तदश्नुते ॥ २३ ॥

मूलम्

न चैतदनुरूपं ते यत् ते ग्लानिररिंदम।
यदोजसा न लभते क्षत्रियो न तदश्नुते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन! तुम्हारे चित्तमें जो ग्लानि उत्पन्न हुई है, यह तुम्हारे-जैसे शूरवीरके योग्य कदापि नहीं है; क्योंकि क्षत्रिय जिसे ओज एवं पराक्रमसे प्राप्त नहीं करता, उसे अपने उपयोगमें नहीं लाता है॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि भीमोत्तेजकश्रीकृष्णवाक्ये पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें भीमोत्तेजकश्रीकृष्णवाक्यविषयक पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७५॥