भागसूचना
चतुःसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीमसेनका शान्तिविषयक प्रस्ताव
मूलम् (वचनम्)
भीम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा यथैव शान्तिः स्यात् कुरूणां मधुसूदन।
तथा तथैव भाषेथा मा स्म युद्धेन भीषयेः ॥ १ ॥
मूलम्
यथा यथैव शान्तिः स्यात् कुरूणां मधुसूदन।
तथा तथैव भाषेथा मा स्म युद्धेन भीषयेः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— मधुसूदन! आप कौरवोंके बीचमें वैसी ही बातें कहें, जिससे हमलोगोंमें शान्ति स्थापित हो सके। युद्धकी बात सुनाकर उन्हें भयभीत न कीजियेगा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमर्षी जातसंरम्भः श्रेयोद्वेषी महामनाः।
नोग्रं दुर्योधनो वाच्यः साम्नैवैनं समाचरेः ॥ २ ॥
मूलम्
अमर्षी जातसंरम्भः श्रेयोद्वेषी महामनाः।
नोग्रं दुर्योधनो वाच्यः साम्नैवैनं समाचरेः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन असहनशील, क्रोधमें भरा रहनेवाला, श्रेयका विरोधी और मनमें बड़े-बड़े हौसले रखनेवाला है। अतः उसके प्रति कठोर बात न कहियेगा, उसे सामनीतिके द्वारा ही समझानेका प्रयत्न कीजियेगा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृत्या पापसत्त्वश्च तुल्यचेतास्तु दस्युभिः।
ऐश्वर्यमदमत्तश्च कृतवैरश्च पाण्डवैः ॥ ३ ॥
मूलम्
प्रकृत्या पापसत्त्वश्च तुल्यचेतास्तु दस्युभिः।
ऐश्वर्यमदमत्तश्च कृतवैरश्च पाण्डवैः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन स्वभावसे ही पापात्मा है। उसके हृदयमें डाकुओंके समान क्रूरता भरी रहती है। वह ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हो गया है और पाण्डवोंके साथ सदा वैर बाँधे रखता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदीर्घदर्शी निष्ठूरी क्षेप्ता क्रूरपराक्रमः।
दीर्घमन्युरनेयश्च पापात्मा निकृतिप्रियः ॥ ४ ॥
मूलम्
अदीर्घदर्शी निष्ठूरी क्षेप्ता क्रूरपराक्रमः।
दीर्घमन्युरनेयश्च पापात्मा निकृतिप्रियः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अदूरदर्शी, निष्ठुर वचन बोलनेवाला, परनिन्दक, क्रूर पराक्रमी, दीर्घकालतक क्रोधको मनमें संचित रखनेवाला, शिक्षा देने या सन्मार्गपर ले जाया जानेकी योग्यतासे रहित, पापात्मा तथा शठतासे प्रेम रखनेवाला है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
म्रियेतापि न भज्येत नैव जह्यात् स्वकं मतम्।
तादृशेन शमः कृष्ण मन्ये परमदुष्करः ॥ ५ ॥
मूलम्
म्रियेतापि न भज्येत नैव जह्यात् स्वकं मतम्।
तादृशेन शमः कृष्ण मन्ये परमदुष्करः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! वह मर जायगा, किंतु झुक न सकेगा। अपनी टेक नहीं छोड़ेगा। मैं समझता हूँ, ऐसे दुराग्रही मनुष्यके साथ संधि स्थापित करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहृदामप्यवाचीनस्त्यक्तधर्मा प्रियानृतः ।
प्रतिहन्त्येव सुहृदां वाचश्चैव मनांसि च ॥ ६ ॥
मूलम्
सुहृदामप्यवाचीनस्त्यक्तधर्मा प्रियानृतः ।
प्रतिहन्त्येव सुहृदां वाचश्चैव मनांसि च ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन हितैषी सुहृदोंके भी विपरीत आचरण करनेवाला है। उसने धर्मको तो त्याग ही दिया है, झूठको भी प्रिय मानकर अपना लिया है। वह मित्रोंकी भी बातोंका खण्डन करता है और उनके हृदयको चोट पहुँचाता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मन्युवशमापन्नः स्वभावं दुष्टमास्थितः।
स्वभावात् पापमभ्येति तृणैश्छन्न इवोरगः ॥ ७ ॥
मूलम्
स मन्युवशमापन्नः स्वभावं दुष्टमास्थितः।
स्वभावात् पापमभ्येति तृणैश्छन्न इवोरगः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने क्रोधके वशीभूत होकर दुष्ट स्वभावका आश्रय ले रखा है। वह तिनकोंमें छिपे सर्पकी भाँति स्वभावतः दूसरोंकी हिंसा करता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनो हि यत्सेनः सर्वथा विदितस्तव।
यच्छीलो यत्स्वभावश्च यद्बलो यत्पराक्रमः ॥ ८ ॥
मूलम्
दुर्योधनो हि यत्सेनः सर्वथा विदितस्तव।
यच्छीलो यत्स्वभावश्च यद्बलो यत्पराक्रमः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! दुर्योधनकी सेना जैसी है, उसका शील और स्वभाव जैसा है, उसका बल और पराक्रम जिस प्रकारका है, वह सब कुछ आपको सब प्रकारसे ज्ञात है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा प्रसन्नाः कुरवः सहपुत्रास्तथा वयम्।
इन्द्रज्येष्ठा इवाभूम मोदमानाः सबान्धवाः ॥ ९ ॥
मूलम्
पुरा प्रसन्नाः कुरवः सहपुत्रास्तथा वयम्।
इन्द्रज्येष्ठा इवाभूम मोदमानाः सबान्धवाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें पुत्र तथा बन्धु-बान्धवोंसहित कौरव और हमलोग इन्द्र आदि देवताओंकी भाँति परस्पर मिलकर बड़ी प्रसन्नता और आनन्दके साथ रहते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनस्य क्रोधेन भरता मधुसूदन।
धक्ष्यन्ते शिशिरापाये वनानीव हुताशनैः ॥ १० ॥
मूलम्
दुर्योधनस्य क्रोधेन भरता मधुसूदन।
धक्ष्यन्ते शिशिरापाये वनानीव हुताशनैः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु मधुसूदन! जैसे शिशिरके अन्तमें (ग्रीष्मकाल आनेपर) वन दावानलसे जलने लगते हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण भरतवंशी इस समय दुर्योधनकी क्रोधाग्निसे जलनेवाले हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टादशेमे राजानः प्रख्याता मधुसूदन।
ये समुच्चिच्छिदुर्ज्ञातीन् सुहृदश्च सबान्धवान् ॥ ११ ॥
मूलम्
अष्टादशेमे राजानः प्रख्याता मधुसूदन।
ये समुच्चिच्छिदुर्ज्ञातीन् सुहृदश्च सबान्धवान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! आगे बताये जानेवाले ये अठारह विख्यात नरेश हैं, जिन्होंने बन्धु-बान्धवोंसहित कुटुम्बीजनों तथा हितैषी सुहृदोंका संहार कर डाला था॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असुराणां समृद्धानां ज्वलतामिव तेजसा।
पर्यायकाले धर्मस्य प्राप्ते कलिरजायत ॥ १२ ॥
हैहयानां मुदावर्तो नीपानां जनमेजयः।
बहुलस्तालजंघानां कृमीणामुद्धतो वसुः ॥ १३ ॥
अजबिन्दुः सुवीराणां सुराष्ट्राणां रुषर्द्धिकः।
अर्कजश्च बलीहानां चीनानां धौतमूलकः ॥ १४ ॥
हयग्रीवो विदेहानां वरयुश्च महौजसाम्।
बाहुः सुन्दरवंशानां दीप्ताक्षाणां पुरूरवाः ॥ १५ ॥
सहजश्चेदिमत्स्यानां प्रवीराणां वृषध्वजः ।
धारणश्चन्द्रवत्सानां मुकुटानां विगाहनः ॥ १६ ॥
शमश्च नन्दिवेगानामित्येते कुलपांसनाः ।
युगान्ते कृष्ण सम्भूताः कुले कुपुरुषाधमाः ॥ १७ ॥
मूलम्
असुराणां समृद्धानां ज्वलतामिव तेजसा।
पर्यायकाले धर्मस्य प्राप्ते कलिरजायत ॥ १२ ॥
हैहयानां मुदावर्तो नीपानां जनमेजयः।
बहुलस्तालजंघानां कृमीणामुद्धतो वसुः ॥ १३ ॥
अजबिन्दुः सुवीराणां सुराष्ट्राणां रुषर्द्धिकः।
अर्कजश्च बलीहानां चीनानां धौतमूलकः ॥ १४ ॥
हयग्रीवो विदेहानां वरयुश्च महौजसाम्।
बाहुः सुन्दरवंशानां दीप्ताक्षाणां पुरूरवाः ॥ १५ ॥
सहजश्चेदिमत्स्यानां प्रवीराणां वृषध्वजः ।
धारणश्चन्द्रवत्सानां मुकुटानां विगाहनः ॥ १६ ॥
शमश्च नन्दिवेगानामित्येते कुलपांसनाः ।
युगान्ते कृष्ण सम्भूताः कुले कुपुरुषाधमाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे धर्मके विप्लवका समय उपस्थित होनेपर तेजसे प्रज्वलित होनेवाले समृद्धिशाली असुरोंमें भयंकर कलह उत्पन्न हुआ था, उसी प्रकार हैहयवंशमें मुदावर्त, नीपकुलमें जनमेजय, तालजंघोंके वंशमें बहुल, कृमिकुलमें उद्दण्ड वसु, सुवीरोंके वंशमें अजबिंदु, सुराष्ट्रकुलमें रुषर्द्धिक, बलीहवंशमें अर्कज, चीनोंके कुलमें धौतमूलक, विदेहवंशमें हयग्रीव, महौजा नामक क्षत्रियोंके कुलमें वरयु, सुन्दरवंशी क्षत्रियोंमें बाहु, दीप्ताक्षकुलमें पुरूरवा, चेदि और मत्स्यदेशमें सहज, प्रवीरवंशमें वृषध्वज, चन्द्रवत्सकुलमें धारण, मुकुटवंशमें विगाहन तथा नन्दिवेगकुलमें शम—ये सभी कुलांगार एवं नराधम क्षत्रिय युगान्तकाल आनेपर ऊपर बताये अनुसार भिन्न-भिन्न कुलोंमें प्रकट हुए थे॥१२—१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्ययं नः कुरूणां स्याद् युगान्ते कालसम्भृतः।
दुर्योधनः कुलाङ्गारो जघन्यः पापपूरुषः ॥ १८ ॥
मूलम्
अप्ययं नः कुरूणां स्याद् युगान्ते कालसम्भृतः।
दुर्योधनः कुलाङ्गारो जघन्यः पापपूरुषः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वोक्त (अठारह) राजाओंकी भाँति यह कुलांगार, नीच एवं पापपुरुष दुर्योधन भी इस द्वापरयुगके अन्तमें कालसे प्रेरित हो हमारे कुरुकुलके विनाशका कारण होकर उत्पन्न हुआ है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्मृदु शनैर्ब्रूया धर्मार्थसहितं हितम्।
कामानुबन्धबहुलं नोग्रमुग्रपराक्रम ॥ १९ ॥
मूलम्
तस्मान्मृदु शनैर्ब्रूया धर्मार्थसहितं हितम्।
कामानुबन्धबहुलं नोग्रमुग्रपराक्रम ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः भयंकर पराक्रमी श्रीकृष्ण! आप उससे जो कुछ भी कहें, कोमल एवं मधुर वाणीमें धीरे-धीरे कहें। आपका कथन धर्म एवं अर्थसे युक्त तथा हितकर हो। उसमें तनिक भी उग्रता न आने पावे। साथ ही इसका भी ध्यान रखें कि आपकी अधिकांश बातें उसकी रुचिके अनुकूल हों॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि दुर्योधनं कृष्ण सर्वे वयमधश्चराः।
नीचैर्भूत्वानुयास्यामो मा स्म नो भरतानशन् ॥ २० ॥
मूलम्
अपि दुर्योधनं कृष्ण सर्वे वयमधश्चराः।
नीचैर्भूत्वानुयास्यामो मा स्म नो भरतानशन् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! हम सब लोग नीचे पैदल चलकर अत्यन्त नम्र होकर दुर्योधनका अनुसरण करते रहेंगे; परंतु हमारे कारणसे भरतवंशियोंका नाश न हो॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्युदासीनवृत्तिः स्याद् यथा नः कुरुभिः सह।
वासुदेव तथा कार्यं न कुरूननयः स्पृशेत् ॥ २१ ॥
मूलम्
अप्युदासीनवृत्तिः स्याद् यथा नः कुरुभिः सह।
वासुदेव तथा कार्यं न कुरूननयः स्पृशेत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वासुदेव! हमारा कौरवोंके साथ उदासीनभाव एवं तटस्थताका बर्ताव भी जैसे बना रहे, वैसा ही प्रयत्न आपको करना चाहिये। किसी प्रकार भी कौरवोंको अन्यायका स्पर्श नहीं होना चाहिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाच्यः पितामहो वृद्धो ये च कृष्ण सभासदः।
भ्रातॄणामस्तु सौभ्रात्रं धार्तराष्ट्रः प्रशाम्यताम् ॥ २२ ॥
मूलम्
वाच्यः पितामहो वृद्धो ये च कृष्ण सभासदः।
भ्रातॄणामस्तु सौभ्रात्रं धार्तराष्ट्रः प्रशाम्यताम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! आप वहाँ बूढ़े पितामह भीष्मजी तथा अन्य सभासदोंसे ऐसा करनेके लिये ही कहें, जिससे सब भाइयोंमें सौहार्द बना रहे और दुर्योधन भी शान्त हो जाय॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमेतद् ब्रवीम्येवं राजा चैव प्रशंसति।
अर्जुनो नैव युद्धार्थी भूयसी हि दयार्जुने ॥ २३ ॥
मूलम्
अहमेतद् ब्रवीम्येवं राजा चैव प्रशंसति।
अर्जुनो नैव युद्धार्थी भूयसी हि दयार्जुने ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं इस प्रकार शान्ति-स्थापनके लिये कह रहा हूँ। राजा युधिष्ठिर भी शान्तिकी ही प्रशंसा करते हैं और अर्जुन भी युद्धके इच्छुक नहीं हैं; क्योंकि अर्जुनमें बहुत अधिक दया भरी हुई है॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि भीमवाक्ये चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें भीमवाक्यविषयक चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७४॥