०७२ युधिष्ठिरकृतकृष्णप्रेरणे

भागसूचना

(भगवद्‌यानपर्व)
द्विसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका श्रीकृष्णसे अपना अभिप्राय निवेदन करना, श्रीकृष्णका शान्तिदूत बनकर कौरवसभामें जानेके लिये उद्यत होना और इस विषयमें उन दोनोंका वार्तालाप

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजये प्रतियाते तु धर्मराजो युधिष्ठिरः।
(अर्जुनं भीमसेनं च माद्रीपुत्रौ च भारत।
विराटद्रुपदौ चैव केकयानां महारथान्॥
अब्रवीदुपसङ्गम्य शङ्खचक्रगदाधरम् ॥
अभियाचामहे गत्वा प्रयातुं कुरुसंसदम्।

मूलम्

संजये प्रतियाते तु धर्मराजो युधिष्ठिरः।
(अर्जुनं भीमसेनं च माद्रीपुत्रौ च भारत।
विराटद्रुपदौ चैव केकयानां महारथान्॥
अब्रवीदुपसङ्गम्य शङ्खचक्रगदाधरम् ॥
अभियाचामहे गत्वा प्रयातुं कुरुसंसदम्।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! इधर संजयके चले जानेपर धर्मराज युधिष्ठिरने भीमसेन, अर्जुन, माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, विराट, द्रुपद तथा केकयदेशीय महारथियोंके पास जाकर कहा—‘हमलोग शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके पास चलकर उनसे कौरवसभामें जानेके लिये प्रार्थना करें’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा भीष्मेण द्रोणेन बाह्लीकेन च धीमता॥
अन्यैश्च कुरुभिः सार्धं न युध्येमहि संयुगे।

मूलम्

यथा भीष्मेण द्रोणेन बाह्लीकेन च धीमता॥
अन्यैश्च कुरुभिः सार्धं न युध्येमहि संयुगे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे वहाँ जाकर ऐसा प्रयत्न करें, जिससे हमें भीष्म, द्रोण, बुद्धिमान् बाह्लीक तथा अन्य कुरुवंशियोंके साथ रणक्षेत्रमें युद्ध न करना पड़े।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष नः प्रथमः कल्प एतन्नः श्रेय उत्तमम्॥
एवमुक्ताः सुमनसस्तेऽभिजग्मुर्जनार्दनम् ।

मूलम्

एष नः प्रथमः कल्प एतन्नः श्रेय उत्तमम्॥
एवमुक्ताः सुमनसस्तेऽभिजग्मुर्जनार्दनम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यही हमारा पहला ध्येय है और यही हमारे लिये परम कल्याणकी बात है।’ राजा युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर वे सब लोग प्रसन्नचित्त होकर भगवान् श्रीकृष्णके समीप गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवैः सह राजानो मरुत्वन्तमिवामराः॥
तदा च दुःसहाः सर्वे सदस्यास्ते नरर्षभाः।

मूलम्

पाण्डवैः सह राजानो मरुत्वन्तमिवामराः॥
तदा च दुःसहाः सर्वे सदस्यास्ते नरर्षभाः।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय शत्रुओंके लिये दुःसह प्रतीत होनेवाले वे सभी नरश्रेष्ठ सभासद् भूपालगण पाण्डवोंके साथ श्रीकृष्णके निकट उसी प्रकार गये, जैसे देवता इन्द्रके पास जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनार्दनं समासाद्य कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ )
अभ्यभाषत दाशार्हमृषभं सर्वसात्वताम् ॥ १ ॥

मूलम्

जनार्दनं समासाद्य कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ )
अभ्यभाषत दाशार्हमृषभं सर्वसात्वताम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त यदुवंशियोंमें श्रेष्ठ दशार्हकुलनन्दन जनार्दन श्रीकृष्णके पास पहुँचकर कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं स कालः सम्प्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल।
न च त्वदन्यं पश्यामि यो न आपत्सु तारयेत्॥२॥

मूलम्

अयं स कालः सम्प्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल।
न च त्वदन्यं पश्यामि यो न आपत्सु तारयेत्॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मित्रवत्सल श्रीकृष्ण! मित्रोंकी सहायताके लिये यही उपयुक्त अवसर आया है। मैं आपके सिवा दूसरे किसीको ऐसा नहीं देखता, जो इस विपत्तिसे हमलोगोंका उद्धार करे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां हि माधवमाश्रित्य निर्भया मोघदर्पितम्।
धार्तराष्ट्रं सहामात्यं स्वयं समनुयुङ्क्ष्महे ॥ ३ ॥

मूलम्

त्वां हि माधवमाश्रित्य निर्भया मोघदर्पितम्।
धार्तराष्ट्रं सहामात्यं स्वयं समनुयुङ्क्ष्महे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप माधवकी शरणमें आकर हम सब लोग निर्भय हो गये हैं और व्यर्थ ही घमंड दिखानेवाले धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन तथा उसके मन्त्रियोंको हम स्वयं युद्धके लिये ललकार रहे हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हि सर्वास्वापत्सु पासि वृष्णीनरिंदम।
तथा ते पाण्डवा रक्ष्याः पाह्यस्मान् महतो भयात् ॥ ४ ॥

मूलम्

यथा हि सर्वास्वापत्सु पासि वृष्णीनरिंदम।
तथा ते पाण्डवा रक्ष्याः पाह्यस्मान् महतो भयात् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन! जैसे आप वृष्णिवंशियोंकी सब प्रकारकी आपत्तियोंसे रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आपको पाण्डवोंकी भी रक्षा करनी चाहिये। प्रभो! इस महान् भयसे आप हमारी रक्षा कीजिये’॥४॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयमस्मि महाबाहो ब्रूहि यत् ते विवक्षितम्।
करिष्यामि हि तत् सर्वं यत् त्वं वक्ष्यसि भारत॥५॥

मूलम्

अयमस्मि महाबाहो ब्रूहि यत् ते विवक्षितम्।
करिष्यामि हि तत् सर्वं यत् त्वं वक्ष्यसि भारत॥५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— महाबाहो! यह मैं आपकी सेवाके लिये सर्वदा प्रस्तुत हूँ। आप जो कुछ कहना चाहते हों, कहें। भारत! आप जो-जो कहेंगे, वह सब कार्य मैं निश्चय ही पूर्ण करूँगा॥५॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतं ते धृतराष्ट्रस्य सपुत्रस्य चिकीर्षितम्।
एतद्धि सकलं कृष्ण संजयो मां यदब्रवीत् ॥ ६ ॥
तन्मतं धृतराष्ट्रस्य सोऽस्यात्मा विवृतान्तरः।
यथोक्तं दूत आचष्टे वध्यः स्यादन्यथा ब्रुवन् ॥ ७ ॥

मूलम्

श्रुतं ते धृतराष्ट्रस्य सपुत्रस्य चिकीर्षितम्।
एतद्धि सकलं कृष्ण संजयो मां यदब्रवीत् ॥ ६ ॥
तन्मतं धृतराष्ट्रस्य सोऽस्यात्मा विवृतान्तरः।
यथोक्तं दूत आचष्टे वध्यः स्यादन्यथा ब्रुवन् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— श्रीकृष्ण! पुत्रोंसहित राजा धृतराष्ट्र क्या करना चाहते हैं, यह सब तो आपने सुन ही लिया। संजयने मुझसे जो कुछ कहा है, वह धृतराष्ट्रका ही मत है। संजय धृतराष्ट्रका अभिन्नस्वरूप होकर आया था। उसने उन्हींके मनोभावको प्रकाशित किया है। दूत संजय स्वामीकी कही हुई बातको ही दुहराया है; क्योंकि यदि वह उसके विपरीत कुछ कहता तो वधके योग्य माना जाता॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रदानेन राज्यस्य शान्तिमस्मासु मार्गति।
लुब्धः पापेन मनसा चरन्नसममात्मनः ॥ ८ ॥

मूलम्

अप्रदानेन राज्यस्य शान्तिमस्मासु मार्गति।
लुब्धः पापेन मनसा चरन्नसममात्मनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा धृतराष्ट्रको राज्यका बड़ा लोभ है। उनके मनमें पाप बस गया है। अतः वे अपने अनुरूप व्यवहार न करके राज्य दिये बिना ही हमारे साथ संधिका मार्ग ढूँढ़ रहे हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तद् द्वादश वर्षाणि वनेषु ह्युषिता वयम्।
छद्मना शरदं चैकां धृतराष्ट्रस्य शासनात् ॥ ९ ॥
स्थाता नः समये तस्मिन् धृतराष्ट्र इति प्रभो।
नाहास्म समयं कृष्ण तद्धि नो ब्राह्मणा विदुः ॥ १० ॥

मूलम्

यत् तद् द्वादश वर्षाणि वनेषु ह्युषिता वयम्।
छद्मना शरदं चैकां धृतराष्ट्रस्य शासनात् ॥ ९ ॥
स्थाता नः समये तस्मिन् धृतराष्ट्र इति प्रभो।
नाहास्म समयं कृष्ण तद्धि नो ब्राह्मणा विदुः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! हम तो यही समझकर कि धृतराष्ट्र अपनी प्रतिज्ञापर स्थिर रहेंगे, उन्हींकी आज्ञासे बारह वर्ष वनमें रहे और एक वर्ष अज्ञातवास किया। श्रीकृष्ण! हमने अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं की है; इस बातको हमारे साथ रहनेवाले सभी ब्राह्मण जानते हैं॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृद्धो राजा धृतराष्ट्रः स्वधर्मं नानुपश्यति।
वश्यत्वात्‌ पुत्रगृद्धित्वान्मन्दस्यान्वेति शासनम् ॥ ११ ॥

मूलम्

गृद्धो राजा धृतराष्ट्रः स्वधर्मं नानुपश्यति।
वश्यत्वात्‌ पुत्रगृद्धित्वान्मन्दस्यान्वेति शासनम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु राजा धृतराष्ट्र तो लोभमें डूबे हुए हैं। वे अपने धर्मकी ओर नहीं देखते हैं। पुत्रोंमें आसक्त होकर सदा उन्हींके अधीन रहनेके कारण वे अपने मूर्ख पुत्र दुर्योधनकी ही आज्ञाका अनुसरण करते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुयोधनमते तिष्ठन् राजास्मासु जनार्दन।
मिथ्या चरति लुब्धः सन् चरन् हि प्रियमात्मनः ॥ १२ ॥

मूलम्

सुयोधनमते तिष्ठन् राजास्मासु जनार्दन।
मिथ्या चरति लुब्धः सन् चरन् हि प्रियमात्मनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! उनका लोभ इतना बढ़ गया है कि वे दुर्योधनकी ही हाँ-में-हाँ मिलाते हैं और अपना ही प्रिय कार्य करते हुए हमारे साथ मिथ्या व्यवहार कर रहे हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतो दुःखतरं किं नु यदहं मातरं ततः।
संविधातुं न शक्नोमि मित्राणां वा जनार्दन ॥ १३ ॥

मूलम्

इतो दुःखतरं किं नु यदहं मातरं ततः।
संविधातुं न शक्नोमि मित्राणां वा जनार्दन ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! इससे बढ़कर महान् दुःखकी बात और क्या हो सकती है कि मैं अपनी माता तथा मित्रोंका भी अच्छी तरह भरण-पोषणतक नहीं कर सकता॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काशिभिश्चेदिपञ्चालैर्मत्स्यैश्च मधुसूदन ।
भवता चैव नाथेन पञ्च ग्रामा वृता मया ॥ १४ ॥

मूलम्

काशिभिश्चेदिपञ्चालैर्मत्स्यैश्च मधुसूदन ।
भवता चैव नाथेन पञ्च ग्रामा वृता मया ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मधुसूदन! यद्यपि काशी, चेदि, पांचाल और मत्स्यदेशके वीर हमारे सहायक हैं और आप हमलोगोंके रक्षक और स्वामी हैं; (आपलोगोंकी सहायतासे हम सारा राज्य ले सकते हैं) तथापि मैंने केवल पाँच ही गाँव माँगे थे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविस्थलं वृकस्थलं माकन्दी वारणावतम्।
अवसानं च गोविन्द कञ्चिदेवात्र पञ्चमम् ॥ १५ ॥
पञ्च नस्तात दीयन्तां ग्रामा वा नगराणि वा।
वसेम सहिता येषु मा च नो भरता नशन्॥१६॥

मूलम्

अविस्थलं वृकस्थलं माकन्दी वारणावतम्।
अवसानं च गोविन्द कञ्चिदेवात्र पञ्चमम् ॥ १५ ॥
पञ्च नस्तात दीयन्तां ग्रामा वा नगराणि वा।
वसेम सहिता येषु मा च नो भरता नशन्॥१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोविन्द! मैंने धृतराष्ट्रसे यही कहा था कि तात! आप हमें अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और अन्तिम पाँचवाँ कोई-सा भी गाँव जिसे आप देना चाहें, दे दें। इस प्रकार हमारे लिये पाँच गाँव या नगर दे दें; जिनमें हम पाँचों भाई एक साथ मिलकर रह सकें और हमारे कारण भरतवंशियोंका नाश न हो॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च तानपि दुष्टात्मा धार्तराष्ट्रोऽनुमन्यते।
स्वाम्यमात्मनि मत्वासावतो दुःखतरं नु किम् ॥ १७ ॥

मूलम्

न च तानपि दुष्टात्मा धार्तराष्ट्रोऽनुमन्यते।
स्वाम्यमात्मनि मत्वासावतो दुःखतरं नु किम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु दुष्टात्मा दुर्योधन सबपर अपना ही अधिकार मानकर उन पाँच गाँवोंको भी देनेकी बात नहीं स्वीकार कर रहा है। इससे बढ़कर कष्टकी बात और क्या हो सकती है?॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुले जातस्य वृद्धस्य परवित्तेषु गृद्ध्यतः।
लोभः प्रज्ञानमाहन्ति प्रज्ञा हन्ति हता ह्रियम् ॥ १८ ॥

मूलम्

कुले जातस्य वृद्धस्य परवित्तेषु गृद्ध्यतः।
लोभः प्रज्ञानमाहन्ति प्रज्ञा हन्ति हता ह्रियम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य उत्तम कुलमें जन्म लेकर और वृद्ध होनेपर भी यदि दूसरोंके धनको लेना चाहता है तो वह लोभ उसकी विचारशक्तिको नष्ट कर देता है। विचारशक्ति नष्ट होनेपर उसकी लज्जाको भी नष्ट कर देती है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ह्रीर्हता बाधते धर्मं धर्मो हन्ति हतः श्रियम्।
श्रीर्हता पुरुषं हन्ति पुरुषस्याधनं वधः ॥ १९ ॥

मूलम्

ह्रीर्हता बाधते धर्मं धर्मो हन्ति हतः श्रियम्।
श्रीर्हता पुरुषं हन्ति पुरुषस्याधनं वधः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नष्ट हुई लज्जा धर्मको नष्ट कर देती है। नष्ट हुआ धर्म मनुष्यकी सम्पत्तिका नाश कर देता है और नष्ट हुई सम्पत्ति उस मनुष्यका विनाश कर देती है, क्योंकि धनका अभाव ही मनुष्यका वध है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधनाद्धि निवर्तन्ते ज्ञातयः सुहृदो द्विजाः।
अपुष्पादफलाद् वृक्षाद् यथा कृष्ण पतत्त्रिणः ॥ २० ॥

मूलम्

अधनाद्धि निवर्तन्ते ज्ञातयः सुहृदो द्विजाः।
अपुष्पादफलाद् वृक्षाद् यथा कृष्ण पतत्त्रिणः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! धनहीन पुरुषसे उसके भाई-बन्धु, सुहृद् और ब्राह्मणलोग भी उसी प्रकार मुँह मोड़ लेते हैं, जैसे पक्षी पुष्प और फलसे हीन वृक्षको छोड़कर उड़ जाते हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्च मरणं तात यन्मत्तः पतितादिव।
ज्ञातयो विनिवर्तन्ते प्रेतसत्त्वादिवासवः ॥ २१ ॥

मूलम्

एतच्च मरणं तात यन्मत्तः पतितादिव।
ज्ञातयो विनिवर्तन्ते प्रेतसत्त्वादिवासवः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! जैसे पतित मनुष्यके निकटसे लोग दूर भागते हैं और जैसे मृत शरीरसे प्राण निकल जाते हैं, उसी प्रकार मेरे कुटुम्बीजन भी जो मुझसे मुँह मोड़ रहे हैं, यही मेरे लिये मरण है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नातः पापीयसीं काञ्चिदवस्थां शम्बरोऽब्रवीत्।
यत्र नैवाद्य न प्रातर्भोजनं प्रतिदृश्यते ॥ २२ ॥

मूलम्

नातः पापीयसीं काञ्चिदवस्थां शम्बरोऽब्रवीत्।
यत्र नैवाद्य न प्रातर्भोजनं प्रतिदृश्यते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ आज और कल सबेरेके लिये भोजन नहीं दिखायी देता, उस दरिद्रतासे बढ़कर दूसरी कोई दुःखदायिनी अवस्था नहीं है; यह शम्बरका कथन है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनमाहुः परं धर्मं धने सर्वं प्रतिष्ठितम्।
जीवन्ति धनिनो लोके मृता ये त्वधना नराः ॥ २३ ॥

मूलम्

धनमाहुः परं धर्मं धने सर्वं प्रतिष्ठितम्।
जीवन्ति धनिनो लोके मृता ये त्वधना नराः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनको उत्तम धर्मका साधक बताया गया है। धनमें सब कुछ प्रतिष्ठित है। संसारमें धनी मनुष्य ही जीवन धारण करते हैं। जो निर्धन हैं, वे तो मरे हुएके ही समान हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये धनादपकर्षन्ति नरं स्वबलमास्थिताः।
ते धर्ममर्थं कामं च प्रमथ्नन्ति नरं च तम्॥२४॥

मूलम्

ये धनादपकर्षन्ति नरं स्वबलमास्थिताः।
ते धर्ममर्थं कामं च प्रमथ्नन्ति नरं च तम्॥२४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग अपने बलमें स्थित होकर किसी मनुष्यको धनसे वंचित कर देते हैं, वे उसके धर्म, अर्थ और कामको तो नष्ट करते ही हैं, उस मनुष्यको भी नष्ट कर देते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतामवस्थां प्राप्यैके मरणं वव्रिरे जनाः।
ग्रामायैके वनायैके नाशायैके प्रवव्रजुः ॥ २५ ॥

मूलम्

एतामवस्थां प्राप्यैके मरणं वव्रिरे जनाः।
ग्रामायैके वनायैके नाशायैके प्रवव्रजुः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस निर्धन अवस्थाको पाकर कितने ही मनुष्योंने मृत्युका वरण किया है। कुछ लोग गाँव छोड़कर दूसरे गाँवमें जा बसे हैं, कितने ही जंगलोंमें चले गये हैं और कितने ही मनुष्य प्राण देनेके लिये घरसे निकल पड़े हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उन्मादमेके पुष्यन्ति यान्त्यन्ये द्विषतां वशम्।
दास्यमेके च गच्छन्ति परेषामर्थहेतुना ॥ २६ ॥

मूलम्

उन्मादमेके पुष्यन्ति यान्त्यन्ये द्विषतां वशम्।
दास्यमेके च गच्छन्ति परेषामर्थहेतुना ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितने लोग पागल हो जाते हैं, बहुत-से शत्रुओंके वशमें पड़ जाते हैं और कितने ही मनुष्य धनके लिये दूसरोंकी दासता स्वीकार कर लेते हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपदेवास्य मरणात् पुरुषस्य गरीयसी।
श्रियो विनाशस्तद्ध्यस्य निमित्तं धर्मकामयोः ॥ २७ ॥

मूलम्

आपदेवास्य मरणात् पुरुषस्य गरीयसी।
श्रियो विनाशस्तद्ध्यस्य निमित्तं धर्मकामयोः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धन-सम्पत्तिका नाश मनुष्यके लिये भारी विपत्ति ही है। वह मृत्युसे भी बढ़कर है, क्योंकि सम्पत्ति ही मनुष्यके धर्म और कामकी सिद्धिका कारण है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदस्य धर्म्यं मरणं शाश्वतं लोकवर्त्म तत्।
समन्तात् सर्वभूतानां न तदत्येति कश्चन ॥ २८ ॥

मूलम्

यदस्य धर्म्यं मरणं शाश्वतं लोकवर्त्म तत्।
समन्तात् सर्वभूतानां न तदत्येति कश्चन ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यकी जो धर्मानुकूल मृत्यु है, वह परलोकके लिये सनातन मार्ग है। सम्पूर्ण प्राणियोंमेंसे कोई भी उस मृत्युका सब ओरसे उल्लंघन नहीं कर सकता॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तथा बाध्यते कृष्ण प्रकृत्या निर्धनो जनः।
यथा भद्रां श्रियं प्राप्य तया हीनः सुखैधितः ॥ २९ ॥

मूलम्

न तथा बाध्यते कृष्ण प्रकृत्या निर्धनो जनः।
यथा भद्रां श्रियं प्राप्य तया हीनः सुखैधितः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! जो जन्मसे ही निर्धन रहा है, उसे उस दरिद्रताके कारण उतना कष्ट नहीं पहुँचता, जितना कि कल्याणमयी सम्पत्तिको पाकर सुखमें ही पले हुए पुरुषको उस सम्पत्तिसे वंचित होनेपर होता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तदाऽऽत्मापराधेन सम्प्राप्तो व्यसनं महत्।
सेन्द्रान् गर्हयते देवान् नात्मानं च कथञ्चन ॥ ३० ॥

मूलम्

स तदाऽऽत्मापराधेन सम्प्राप्तो व्यसनं महत्।
सेन्द्रान् गर्हयते देवान् नात्मानं च कथञ्चन ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि वह मनुष्य उस समय अपने ही अपराधसे भारी संकटमें पड़ता है, तथापि वह इसके लिये इन्द्र आदि देवताओंकी ही निन्दा करता है; अपनेको किसी प्रकार भी दोष नहीं देता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चास्य सर्वशास्त्राणि प्रभवन्ति निबर्हणे।
सोऽभिक्रुध्यति भृत्यानां सुहृदश्चाभ्यसूयति ॥ ३१ ॥

मूलम्

न चास्य सर्वशास्त्राणि प्रभवन्ति निबर्हणे।
सोऽभिक्रुध्यति भृत्यानां सुहृदश्चाभ्यसूयति ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सम्पूर्ण शास्त्र भी उसके इस संकटको टालनेमें समर्थ नहीं होते। वह सेवकोंपर कुपित होता और सगे-सम्बन्धियोंके दोष देखने लगता है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तदा मन्युरेवैति स भूयः सम्प्रमुह्यति।
स मोहवशमापन्नः क्रूरं कर्म निषेवते ॥ ३२ ॥

मूलम्

तं तदा मन्युरेवैति स भूयः सम्प्रमुह्यति।
स मोहवशमापन्नः क्रूरं कर्म निषेवते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्धन अवस्थामें मनुष्यको केवल क्रोध आता है, जिससे वह पुनः मोहाच्छन्न हो जाता—विवेकशक्ति खो बैठता है। मोहके वशीभूत होकर वह क्रूरतापूर्ण कर्म करने लगता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापकर्मतया चैव संकरं तेन पुष्यति।
संकरो नरकायैव सा काष्ठा पापकर्मणाम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

पापकर्मतया चैव संकरं तेन पुष्यति।
संकरो नरकायैव सा काष्ठा पापकर्मणाम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पापकर्मोंमें प्रवृत्त होनेके कारण वह वर्णसंकर संतानोंका पोषक होता है और वर्णसंकर केवल नरककी ही प्राप्ति कराता है। पापियोंकी यही अन्तिम गति है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चेत् प्रबुध्यते कृष्ण नरकायैव गच्छति।
तस्य प्रबोधः प्रज्ञैव प्रज्ञाचक्षुस्तरिष्यति ॥ ३४ ॥

मूलम्

न चेत् प्रबुध्यते कृष्ण नरकायैव गच्छति।
तस्य प्रबोधः प्रज्ञैव प्रज्ञाचक्षुस्तरिष्यति ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! यदि उसे फिरसे कर्तव्यका बोध नहीं होता, तो वह नरककी दिशामें ही बढ़ता जाता है। कर्तव्यका बोध करानेवाली प्रज्ञा ही है। जिसे प्रज्ञारूपी नेत्र प्राप्त हैं, वह निश्चय ही संकटसे पार हो जायगा॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञालाभे हि पुरुषः शास्त्राण्येवान्ववेक्षते।
शास्त्रनिष्ठः पुनर्धर्मं तस्य ह्रीरङ्गमुत्तमम् ॥ ३५ ॥
ह्रीमान् हि पापं प्रद्वेष्टि तस्य श्रीरभिवर्धते।
श्रीमान् स यावत् भवति तावद् भवति पूरुषः ॥ ३६ ॥

मूलम्

प्रज्ञालाभे हि पुरुषः शास्त्राण्येवान्ववेक्षते।
शास्त्रनिष्ठः पुनर्धर्मं तस्य ह्रीरङ्गमुत्तमम् ॥ ३५ ॥
ह्रीमान् हि पापं प्रद्वेष्टि तस्य श्रीरभिवर्धते।
श्रीमान् स यावत् भवति तावद् भवति पूरुषः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रज्ञाकी प्राप्ति होनेपर पुरुष केवल शास्त्रवचनोंपर ही दृष्टि रखता है। शास्त्रमें निष्ठा होनेपर वह पुनः धर्म करता है। धर्मका उत्तम अंग है लज्जा, जो धर्मके साथ ही आ जाती है। लज्जाशील मनुष्य पापसे द्वेष रखकर उससे दूर हो जाता है। अतः उसकी धन-सम्पत्ति बढ़ने लगती है। जो जितना ही श्रीसम्पन्न है, वह उतना ही पुरुष माना जाता है॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मनित्यः प्रशान्तात्मा कार्ययोगवहः सदा।
नाधर्मे कुरुते बुद्धिं न च पापे प्रवर्तते ॥ ३७ ॥

मूलम्

धर्मनित्यः प्रशान्तात्मा कार्ययोगवहः सदा।
नाधर्मे कुरुते बुद्धिं न च पापे प्रवर्तते ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाला पुरुष शान्तचित्त होकर नित्य-निरन्तर सत्कर्मोंमें लगा रहता है। वह कभी अधर्ममें मन नहीं लगाता और न पापमें ही प्रवृत्त होता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अह्रीको वा विमूढो वा नैव स्त्री न पुनः पुमान्।
नास्याधिकारो धर्मेऽस्ति यथा शूद्रस्तथैव सः ॥ ३८ ॥

मूलम्

अह्रीको वा विमूढो वा नैव स्त्री न पुनः पुमान्।
नास्याधिकारो धर्मेऽस्ति यथा शूद्रस्तथैव सः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो निर्लज्ज अथवा मूर्ख है, वह न तो स्त्री है और न पुरुष ही है। उसका धर्म-कर्ममें अधिकार नहीं है। वह शूद्रके समान है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ह्रीमानवति देवांश्च पितॄनात्मानमेव च।
तेनामृतत्वं व्रजति सा काष्ठा पुण्यकर्मणाम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

ह्रीमानवति देवांश्च पितॄनात्मानमेव च।
तेनामृतत्वं व्रजति सा काष्ठा पुण्यकर्मणाम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लज्जाशील पुरुष देवताओंकी, पितरोंकी तथा अपनी भी रक्षा करता है। इससे वह अमृतत्वको प्राप्त होता है। वही पुण्यात्मा पुरुषोंकी परम गति है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिदं मयि ते दृष्टं प्रत्यक्षं मधुसूदन।
यथा राज्यात् परिभ्रष्टो वसामि वसतीरिमाः ॥ ४० ॥

मूलम्

तदिदं मयि ते दृष्टं प्रत्यक्षं मधुसूदन।
यथा राज्यात् परिभ्रष्टो वसामि वसतीरिमाः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मधुसूदन! यह सब आपने मुझमें प्रत्यक्ष देखा है कि मैं किस प्रकार राज्यसे भ्रष्ट हुआ और कितने कष्टके साथ इन दिनों रह रहा हूँ॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वयं न श्रियं हातुमलं न्यायेन केनचित्।
अत्र नो यतमानानां वधश्चेदपि साधु तत् ॥ ४१ ॥

मूलम्

ते वयं न श्रियं हातुमलं न्यायेन केनचित्।
अत्र नो यतमानानां वधश्चेदपि साधु तत् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हमलोग किसी भी न्यायसे अपनी पैतृक सम्पत्तिका परित्याग करनेयोग्य नहीं हैं। इसके लिये प्रयत्न करते हुए यदि हमलोगोंका वध हो जाय तो वह भी अच्छा ही है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र नः प्रथमः कल्पो यद् वयं ते च माधव।
प्रशान्ताः समभूताश्च श्रियं तामश्नुवीमहि ॥ ४२ ॥

मूलम्

तत्र नः प्रथमः कल्पो यद् वयं ते च माधव।
प्रशान्ताः समभूताश्च श्रियं तामश्नुवीमहि ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! इस विषयमें हमारा पहला ध्येय यही है कि हम और कौरव आपसमें संधि करके शान्तभावसे रहकर उस सम्पत्तिका समानरूपसे उपभोग करें॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैषा परमा काष्ठा रौद्रकर्मक्षयोदया।
यद् वयं कौरवान् हत्वा तानि राष्ट्राण्यवाप्नुमः ॥ ४३ ॥

मूलम्

तत्रैषा परमा काष्ठा रौद्रकर्मक्षयोदया।
यद् वयं कौरवान् हत्वा तानि राष्ट्राण्यवाप्नुमः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरा पक्ष यह है कि हम कौरवोंको मारकर सारा राज्य अपने अधिकारमें कर लें; परंतु यह भयंकर क्रूरतापूर्ण कर्मकी पराकाष्ठा होगी (क्योंकि इस दशामें कितने ही निरपराध मनुष्योंका संहार करनेके पश्चात् हमारी विजय होगी)॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये पुनः स्युरसम्बद्धा अनार्याः कृष्ण शत्रवः।
तेषामप्यवधः कार्यः किं पुनर्ये स्युरीदृशाः ॥ ४४ ॥

मूलम्

ये पुनः स्युरसम्बद्धा अनार्याः कृष्ण शत्रवः।
तेषामप्यवधः कार्यः किं पुनर्ये स्युरीदृशाः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! जिनका अपने साथ कोई सम्बन्ध न हो तथा जो सर्वथा नीच एवं शत्रुभाव रखनेवाले हों, उनका भी वध करना उचित नहीं है। फिर जो सगे-सम्बन्धी, श्रेष्ठ और सुहृद् हैं, ऐसे लोगोंका वध कैसे उचित हो सकता है?॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञातयश्चैव भूयिष्ठाः सहाया गुरवश्च नः।
तेषां वधोऽतिपापीयान् किं नो युद्धेऽस्ति शोभनम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

ज्ञातयश्चैव भूयिष्ठाः सहाया गुरवश्च नः।
तेषां वधोऽतिपापीयान् किं नो युद्धेऽस्ति शोभनम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारे विरोधियोंमें अधिकांश हमारे भाई-बन्धु, सहायक और गुरुजन हैं। उनका वध तो बहुत बड़ा पाप है। युद्धमें अच्छी बात क्या है? (कुछ नहीं)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापः क्षत्रियधर्मोऽयं वयं च क्षत्रबन्धवः।
स नः स्वधर्मोऽधर्मो वा वृत्तिरन्या विगर्हिता ॥ ४६ ॥

मूलम्

पापः क्षत्रियधर्मोऽयं वयं च क्षत्रबन्धवः।
स नः स्वधर्मोऽधर्मो वा वृत्तिरन्या विगर्हिता ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रियोंका यह (युद्धरूप) धर्म पापरूप ही है। हम भी क्षत्रिय ही हैं, अतः वह हमारा स्वधर्म पाप होनेपर भी हमें तो करना ही होगा, क्योंकि उसे छोड़कर दूसरी किसी वृत्तिको अपनाना भी निन्दाकी बात होगी॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रः करोति शुश्रूषां वैश्या वै पण्यजीविकाः।
वयं वधेन जीवामः कपालं ब्राह्मणैर्वृतम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

शूद्रः करोति शुश्रूषां वैश्या वै पण्यजीविकाः।
वयं वधेन जीवामः कपालं ब्राह्मणैर्वृतम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्र सेवाका कार्य करता है, वैश्य व्यापारसे जीविका चलाते हैं, हम क्षत्रिय युद्धमें दूसरोंका वध करके जीवन-निर्वाह करते हैं और ब्राह्मणोंने अपनी जीविकाके लिये भिक्षापात्र चुन लिया है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियः क्षत्रियं हन्ति मत्स्यो मत्स्येन जीवति।
श्वा श्वानं हन्ति दाशार्ह पश्य धर्मो यथागतः ॥ ४८ ॥

मूलम्

क्षत्रियः क्षत्रियं हन्ति मत्स्यो मत्स्येन जीवति।
श्वा श्वानं हन्ति दाशार्ह पश्य धर्मो यथागतः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रिय क्षत्रियको मारता है, मछली मछलीको खाकर जीती है और कुत्ता कुत्तेको काटता है। दशार्हनन्दन! देखिये; यही परम्परासे चला आनेवाला धर्म है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्धे कृष्ण कलिर्नित्यं प्राणाः सीदन्ति संयुगे।
बलं तु नीतिमाधाय युध्ये जयपराजयौ ॥ ४९ ॥

मूलम्

युद्धे कृष्ण कलिर्नित्यं प्राणाः सीदन्ति संयुगे।
बलं तु नीतिमाधाय युध्ये जयपराजयौ ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! युद्धमें सदा कलह ही होता है और उसीके कारण प्राणोंका नाश होता है। मैं तो नीतिबलका ही आश्रय लेकर युद्ध करूँगा। फिर ईश्वरकी इच्छाके अनुसार जय हो या पराजय॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नात्मच्छन्देन भूतानां जीवितं मरणं तथा।
नाप्यकाले सुखं प्राप्यं दुःखं वापि यदूत्तम ॥ ५० ॥

मूलम्

नात्मच्छन्देन भूतानां जीवितं मरणं तथा।
नाप्यकाले सुखं प्राप्यं दुःखं वापि यदूत्तम ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणियोंके जीवन और मरण अपनी इच्छाके अनुसार नहीं होते हैं (यही दशा जय और पराजयकी भी है)। यदुश्रेष्ठ! किसीको सुख अथवा दुःखकी प्राप्ति भी असमयमें नहीं होती है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको ह्यपि बहून् हन्ति घ्नन्त्येकं बहवोऽप्युत।
शूरं कापुरुषो हन्ति अयशस्वी यशस्विनम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

एको ह्यपि बहून् हन्ति घ्नन्त्येकं बहवोऽप्युत।
शूरं कापुरुषो हन्ति अयशस्वी यशस्विनम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें एक योद्धा भी बहुत-से सैनिकोंका संहार कर डालता है तथा बहुत-से योद्धा मिलकर भी किसी एकको ही मार पाते हैं। कभी कायर शूरवीरको मार देता है और अयशस्वी पुरुष यशस्वी वीरको पराजित कर देता है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयो नैवोभयोर्दृष्टो नोभयोश्च पराजयः।
तथैवापचयो दृष्टो व्यपयाने क्षयव्ययौ ॥ ५२ ॥

मूलम्

जयो नैवोभयोर्दृष्टो नोभयोश्च पराजयः।
तथैवापचयो दृष्टो व्यपयाने क्षयव्ययौ ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

न तो कहीं दोनों पक्षोंकी विजय होती देखी गयी है और न दोनोंकी पराजय ही दृष्टिगोचर हुई है। हाँ, दोनोंके धन-वैभवका नाश अवश्य देखा गया है। यदि कोई पक्ष पीठ दिखाकर भाग जाय, तो उसे भी धन और जन दोनोंकी हानि उठानी पड़ती है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वथा वृजिनं युद्धं को घ्नन् न प्रतिहन्यते।
हतस्य च हृषीकेश समौ जयपराजयौ ॥ ५३ ॥

मूलम्

सर्वथा वृजिनं युद्धं को घ्नन् न प्रतिहन्यते।
हतस्य च हृषीकेश समौ जयपराजयौ ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे सिद्ध होता है कि युद्ध सर्वथा पापरूप ही है। दूसरोंको मारनेवाला कौन ऐसा पुरुष है, जो बदलेमें स्वयं भी मारा न जाता हो? हृषीकेश! जो युद्धमें मारा गया, उसके लिये तो विजय और पराजय दोनों समान हैं॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पराजयश्च मरणान्मन्ये नैव विशिष्यते।
यस्य स्याद् विजयः कृष्ण तस्याप्यपचयो ध्रुवम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

पराजयश्च मरणान्मन्ये नैव विशिष्यते।
यस्य स्याद् विजयः कृष्ण तस्याप्यपचयो ध्रुवम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! मैं तो ऐसा मानता हूँ कि पराजय मृत्युसे अच्छी वस्तु नहीं है। जिसकी विजय होती है, उसे भी निश्चय ही धन-जनकी भारी हानि उठानी पड़ती है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्ततो दयितं घ्नन्ति केचिदप्यपरे जनाः।
तस्याङ्ग बलहीनस्य पुत्रान् भ्रातॄनपश्यतः ॥ ५५ ॥
निर्वेदो जीविते कृष्ण सर्वतश्चोपजायते।

मूलम्

अन्ततो दयितं घ्नन्ति केचिदप्यपरे जनाः।
तस्याङ्ग बलहीनस्य पुत्रान् भ्रातॄनपश्यतः ॥ ५५ ॥
निर्वेदो जीविते कृष्ण सर्वतश्चोपजायते।

अनुवाद (हिन्दी)

युद्ध समाप्त होनेतक कितने ही विपक्षी सैनिक विजयी योद्धाके अनेक प्रियजनोंको मार डालते हैं। जो विजय पाता है, वह भी (कुटुम्ब और धनसम्बन्धी) बलसे शून्य हो जाता है और कृष्ण! जब वह युद्धमें मारे गये अपने पुत्रों और भाइयोंको नहीं देखता है, तो वह सब ओरसे विरक्त हो जाता है; उसे अपने जीवनसे भी वैराग्य हो जाता है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये ह्येव धीरा ह्रीमन्त आर्याः करुणवेदिनः ॥ ५६ ॥
त एव युद्धे हन्यन्ते यवीयान् मुच्यते जनः।
हत्वाप्यनुशयो नित्यं परानपि जनार्दन ॥ ५७ ॥

मूलम्

ये ह्येव धीरा ह्रीमन्त आर्याः करुणवेदिनः ॥ ५६ ॥
त एव युद्धे हन्यन्ते यवीयान् मुच्यते जनः।
हत्वाप्यनुशयो नित्यं परानपि जनार्दन ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग धीर-वीर, लज्जाशील, श्रेष्ठ और दयालु हैं, वे ही प्रायः युद्धमें मारे जाते हैं और अधम श्रेणीके मनुष्य जीवित बच जाते हैं। जनार्दन! शत्रुओंको मारनेपर भी उनके लिये सदा मनमें पश्चात्ताप बना रहता है॥५६-५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुबन्धश्च पापोऽत्र शेषश्चाप्यवशिष्यते ।
शेषो हि बलमासाद्य न शेषमनुशेषयेत् ॥ ५८ ॥
सर्वोच्छेदे च यतते वैरस्यान्तविधित्सया।

मूलम्

अनुबन्धश्च पापोऽत्र शेषश्चाप्यवशिष्यते ।
शेषो हि बलमासाद्य न शेषमनुशेषयेत् ॥ ५८ ॥
सर्वोच्छेदे च यतते वैरस्यान्तविधित्सया।

अनुवाद (हिन्दी)

भागे हुए शत्रुका पीछा करना अनुबन्ध कहलाता है, यह भी पापपूर्ण कार्य है। मारे जानेवाले शत्रुओंमेंसे कोई-कोई बचा रह जाता है। वह अवशिष्ट शत्रु शक्तिका संचय करके विजेताके पक्षमें जो लोग बचे हैं, उनमेंसे किसीको जीवित नहीं छोड़ना चाहता। वह शत्रुका अन्त कर डालनेकी इच्छासे विरोधी दलको सम्पूर्णरूपसे नष्ट कर देनेका प्रयत्न करता है॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयो वैरं प्रसृजति दुःखमास्ते पराजितः ॥ ५९ ॥
सुखं प्रशान्तः स्वपिति हित्वा जयपराजयौ।

मूलम्

जयो वैरं प्रसृजति दुःखमास्ते पराजितः ॥ ५९ ॥
सुखं प्रशान्तः स्वपिति हित्वा जयपराजयौ।

अनुवाद (हिन्दी)

विजयकी प्राप्ति भी चिरस्थायी शत्रुताकी सृष्टि करती है। पराजित पक्ष बड़े दुःखसे समय बिताता है। जो किसीसे शत्रुता न रखकर शान्तिका आश्रय लेता है, वह जय-पराजयकी चिन्ता छोड़कर सुखसे सोता है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातवैरश्च पुरुषो दुःखं स्वपिति नित्यदा ॥ ६० ॥
अनिवृत्तेन मनसा ससर्प इव वेश्मनि।

मूलम्

जातवैरश्च पुरुषो दुःखं स्वपिति नित्यदा ॥ ६० ॥
अनिवृत्तेन मनसा ससर्प इव वेश्मनि।

अनुवाद (हिन्दी)

किसीसे वैर बाँधनेवाला पुरुष सर्पयुक्त गृहमें रहनेवालेकी भाँति उद्विग्नचित्त होकर सदा दुःखकी नींद सोता है॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्सादयति यः सर्वं यशसा स विमुच्यते ॥ ६१ ॥
अकीर्तिं सर्वभूतेषु शाश्वतीं सोऽधिगच्छति।

मूलम्

उत्सादयति यः सर्वं यशसा स विमुच्यते ॥ ६१ ॥
अकीर्तिं सर्वभूतेषु शाश्वतीं सोऽधिगच्छति।

अनुवाद (हिन्दी)

जो शत्रुके कुलमें आबालवृद्ध सभी पुरुषोंका उच्छेद कर डालता है, वह वीरोचित यशसे वंचित हो जाता है। वह समस्त प्राणियोंमें सदा बनी रहनेवाली अपकीर्ति (निन्दा)-का भागी होता है॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि वैराणि शाम्यन्ति दीर्घकालधृतान्यपि ॥ ६२ ॥
आख्यातारश्च विद्यन्ते पुमांश्चेद् विद्यते कुले।

मूलम्

न हि वैराणि शाम्यन्ति दीर्घकालधृतान्यपि ॥ ६२ ॥
आख्यातारश्च विद्यन्ते पुमांश्चेद् विद्यते कुले।

अनुवाद (हिन्दी)

दीर्घकालतक मनमें दबाये रखनेपर भी वैरकी आग सर्वथा बुझ नहीं पाती; क्योंकि यदि कोई उस कुलमें विद्यमान है, तो उससे पूर्वघटित वैर बढ़ानेवाली घटनाओंको बतानेवाले बहुत-से लोग मिल जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चापि वैरं वैरेण केशव व्युपशाम्यति ॥ ६३ ॥
हविषाग्निर्यथा कृष्ण भूय एवाभिवर्धते।

मूलम्

न चापि वैरं वैरेण केशव व्युपशाम्यति ॥ ६३ ॥
हविषाग्निर्यथा कृष्ण भूय एवाभिवर्धते।

अनुवाद (हिन्दी)

केशव! जैसे घी डालनेपर आग बुझनेके बजाय और अधिक प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वैर करनेसे वैरकी आग शान्त नहीं होती, अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोऽन्यथा नास्ति शान्तिर्नित्यमन्तरमन्ततः ॥ ६४ ॥
अन्तरं लिप्समानानामयं दोषो निरन्तरः।

मूलम्

अतोऽन्यथा नास्ति शान्तिर्नित्यमन्तरमन्ततः ॥ ६४ ॥
अन्तरं लिप्समानानामयं दोषो निरन्तरः।

अनुवाद (हिन्दी)

(क्योंकि दोनों पक्षोंमें सदा कोई-न-कोई छिद्र मिलनेकी सम्भावना रहती है) इसलिये दोनों पक्षोंमेंसे एकका सर्वथा नाश हुए बिना पूर्णतः शान्ति नहीं प्राप्त होती है। जो लोग छिद्र ढूँढ़ते रहते हैं, उनके सामने यह दोष निरन्तर प्रस्तुत रहता है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौरुषे यो हि बलवानाधिर्हृदयबाधनः।
तस्य त्यागेन वा शान्तिर्मरणेनापि वा भवेत् ॥ ६५ ॥

मूलम्

पौरुषे यो हि बलवानाधिर्हृदयबाधनः।
तस्य त्यागेन वा शान्तिर्मरणेनापि वा भवेत् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि अपनेमें पुरुषार्थ है, तो पूर्ववैरको याद करके जो हृदयको पीड़ा देनेवाली प्रबल चिन्ता सदा बनी रहती है, उसे वैराग्यपूर्वक त्याग देनेसे ही शान्ति मिल सकती है; अथवा मर जानेसे ही उस चिन्ताका निवारण हो सकता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा मूलघातेन द्विषतां मधुसूदन।
फलनिर्वृत्तिरिद्धा स्यात् तन्नृशंसतरं भवेत् ॥ ६६ ॥

मूलम्

अथवा मूलघातेन द्विषतां मधुसूदन।
फलनिर्वृत्तिरिद्धा स्यात् तन्नृशंसतरं भवेत् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा शत्रुओंको समूल नष्ट कर देनेसे ही अभीष्ट फलकी सिद्धि हो सकती है। परंतु मधुसूदन! यह बड़ी क्रूरताका कार्य होगा॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या तु त्यागेन शान्तिः स्यात् तदृते वध एव सः।
संशयाच्च समुच्छेदाद् द्विषतामात्मनस्तथा ॥ ६७ ॥

मूलम्

या तु त्यागेन शान्तिः स्यात् तदृते वध एव सः।
संशयाच्च समुच्छेदाद् द्विषतामात्मनस्तथा ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राज्यको त्याग देनेसे उसके बिना जो शान्ति मिलती है, वह भी वधके ही समान है। क्योंकि उस दशामें शत्रुओंसे सदा यह संदेह बना रहता है कि ये अवसर देखकर प्रहार करेंगे और धन-सम्पत्तिसे वंचित होनेके कारण अपने विनाशकी सम्भावना भी रहती ही है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च त्यक्तुं तदिच्छामो न चेच्छामः कुलक्षयम्।
अत्र या प्रणिपातेन शान्तिः सैव गरीयसी ॥ ६८ ॥

मूलम्

न च त्यक्तुं तदिच्छामो न चेच्छामः कुलक्षयम्।
अत्र या प्रणिपातेन शान्तिः सैव गरीयसी ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हमलोग न तो राज्य त्यागना चाहते हैं और न कुलके विनाशकी ही इच्छा रखते हैं। यदि नम्रता दिखानेसे भी शान्ति हो जाय तो वही सबसे बढ़कर है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वथा यतमानानामयुद्धमभिकाङ्क्षताम् ।
सान्त्वे प्रतिहते युद्धं प्रसिद्धं नापराक्रमः ॥ ६९ ॥

मूलम्

सर्वथा यतमानानामयुद्धमभिकाङ्क्षताम् ।
सान्त्वे प्रतिहते युद्धं प्रसिद्धं नापराक्रमः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि हम युद्धकी इच्छा न रखकर साम, दान और भेद सभी उपायोंसे राज्यकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न कर रहे हैं, तथापि यदि हमारी सामनीति असफल हुई तो युद्ध ही हमारा प्रधान कर्तव्य होगा, हम पराक्रम छोड़कर बैठ नहीं सकते॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिघातेन सान्त्वस्य दारुणं सम्प्रवर्तते।
तच्छुनामिव सम्पाते पण्डितैरुपलक्षितम् ॥ ७० ॥

मूलम्

प्रतिघातेन सान्त्वस्य दारुणं सम्प्रवर्तते।
तच्छुनामिव सम्पाते पण्डितैरुपलक्षितम् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब शान्तिके प्रयत्नोंमें बाधा आती है, तब भयंकर युद्ध स्वतः आरम्भ हो जाता है। पण्डितोंने इस युद्धकी उपमा कुत्तोंके कलहसे दी है॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाङ्‌गूलचालनं क्ष्वेडा प्रतिवाचो विवर्तनम्।
दन्तदर्शनमारावस्ततो युद्धं प्रवर्तते ॥ ७१ ॥

मूलम्

लाङ्‌गूलचालनं क्ष्वेडा प्रतिवाचो विवर्तनम्।
दन्तदर्शनमारावस्ततो युद्धं प्रवर्तते ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुत्ते पहले पूँछ हिलाते हैं, फिर गुर्राते और गर्जते हैं। तत्पश्चात् एक-दूसरेके निकट पहुँचते हैं। फिर दाँत दिखाना और भूकना आरम्भ करते हैं। तत्पश्चात् उनमें युद्ध होने लगता है॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र यो बलवान् कृष्ण जित्वा सोऽत्ति तदामिषम्।
एवमेव मनुष्येषु विशेषो नास्ति कश्चन ॥ ७२ ॥

मूलम्

तत्र यो बलवान् कृष्ण जित्वा सोऽत्ति तदामिषम्।
एवमेव मनुष्येषु विशेषो नास्ति कश्चन ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! उनमें जो बलवान् होता है, वही उस मांसको खाता है, जिसके लिये कि उनमें लड़ाई हुई थी। यही दशा मनुष्योंकी है। इनमें कोई विशेषता नहीं है1 ॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वथा त्वेतदुचितं दुर्बलेषु बलीयसाम्।
अनादरोऽविरोधश्च प्रणिपाती हि दुर्बलः ॥ ७३ ॥

मूलम्

सर्वथा त्वेतदुचितं दुर्बलेषु बलीयसाम्।
अनादरोऽविरोधश्च प्रणिपाती हि दुर्बलः ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सर्वथा उचित है कि बलवानोंकी दुर्बलोंके प्रति आदरबुद्धि न हो। वे उसका विरोध भी नहीं करते। दुर्बल वही है, जो सदा झुकनेके लिये तैयार रहे॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता राजा च वृद्धश्च सर्वथा मानमर्हति।
तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च धृतराष्ट्रो जनार्दन ॥ ७४ ॥

मूलम्

पिता राजा च वृद्धश्च सर्वथा मानमर्हति।
तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च धृतराष्ट्रो जनार्दन ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! पिता, राजा और वृद्ध सर्वथा समादरके ही योग्य हैं। अतः धृतराष्ट्र हमारे लिये सदा माननीय एवं पूजनीय हैं॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रस्नेहश्च बलवान् धृतराष्ट्रस्य माधव।
स पुत्रवशमापन्नः प्रणिपातं प्रहास्यति ॥ ७५ ॥

मूलम्

पुत्रस्नेहश्च बलवान् धृतराष्ट्रस्य माधव।
स पुत्रवशमापन्नः प्रणिपातं प्रहास्यति ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! धृतराष्ट्रमें अपने पुत्रके प्रति प्रबल आसक्ति है। वे पुत्रके वशमें होनेके कारण कभी झुकना नहीं स्वीकार करेंगे॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र किं मन्यसे कृष्ण प्राप्तकालमनन्तरम्।
कथमर्थाच्च धर्माच्च न हीयेमहि माधव ॥ ७६ ॥

मूलम्

तत्र किं मन्यसे कृष्ण प्राप्तकालमनन्तरम्।
कथमर्थाच्च धर्माच्च न हीयेमहि माधव ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव श्रीकृष्ण! ऐसे समयमें आप क्या उचित समझते हैं? हम कैसा बर्ताव करें, जिससे हमें अर्थ और धर्मसे भी वंचित न होना पड़े?॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईदृशेऽत्यर्थकृच्छ्रेऽस्मिन् कमन्यं मधुसूदन ।
उपसम्प्रष्टुमर्हामि त्वामृते पुरुषोत्तम ॥ ७७ ॥

मूलम्

ईदृशेऽत्यर्थकृच्छ्रेऽस्मिन् कमन्यं मधुसूदन ।
उपसम्प्रष्टुमर्हामि त्वामृते पुरुषोत्तम ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषोत्तम मधुसूदन! ऐसे महान् संकटके समय हम आपको छोड़कर और किससे सलाह ले सकते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियश्च प्रियकामश्च गतिज्ञः सर्वकर्मणाम्।
को हि कृष्णास्ति नस्त्वादृक् सर्वनिश्चयवित्‌ सुहृत् ॥ ७८ ॥

मूलम्

प्रियश्च प्रियकामश्च गतिज्ञः सर्वकर्मणाम्।
को हि कृष्णास्ति नस्त्वादृक् सर्वनिश्चयवित्‌ सुहृत् ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! आपके समान हमारा प्रिय, हितैषी, समस्त कर्मोंके परिणामको जाननेवाला और सभी बातोंमें एक निश्चित सिद्धान्त रखनेवाला सुहृद् कौन है?॥७८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः प्रत्युवाच धर्मराजं जनार्दनः।
उभयोरेव वामर्थे यास्यामि कुरुसंसदम् ॥ ७९ ॥

मूलम्

एवमुक्तः प्रत्युवाच धर्मराजं जनार्दनः।
उभयोरेव वामर्थे यास्यामि कुरुसंसदम् ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णने उनसे कहा—‘राजन्! मैं दोनों पक्षोंके हितके लिये कौरवोंकी सभामें जाऊँगा॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शमं तत्र लभेयं चेद् युष्मदर्थमहापयन्।
पुण्यं मे सुमहद् राजंश्चरितं स्यान्महाफलम् ॥ ८० ॥

मूलम्

शमं तत्र लभेयं चेद् युष्मदर्थमहापयन्।
पुण्यं मे सुमहद् राजंश्चरितं स्यान्महाफलम् ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वहाँ जाकर आपके लाभमें किसी प्रकारकी बाधा न पहुँचाते हुए यदि मैं दोनों पक्षोंमें संधि करा सका, तो समझूँगा कि मेरे द्वारा यह महान् फलदायक एवं बहुत बड़ा पुण्यकर्म सम्पन्न हो गया॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोचयेयं मृत्युपाशात् संरब्धान् कुरुसृंजयान्।
पाण्डवान् धार्तराष्ट्रांश्च सर्वां च पृथिवीमिमाम् ॥ ८१ ॥

मूलम्

मोचयेयं मृत्युपाशात् संरब्धान् कुरुसृंजयान्।
पाण्डवान् धार्तराष्ट्रांश्च सर्वां च पृथिवीमिमाम् ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐसा होनेपर एक-दूसरेके प्रति रोषमें भरे हुए इन कौरवों, सृंजयों, पाण्डवों और धृतराष्ट्रपुत्रोंको तथा इस सारी पृथ्वीको भी मानो मैं मौतके फंदेसे छुड़ा लूँगा’॥८१॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ममैतन्मतं कृष्ण यत् त्वं यायाः कुरून् प्रति।
सुयोधनः सूक्तमपि न करिष्यति ते वचः ॥ ८२ ॥

मूलम्

न ममैतन्मतं कृष्ण यत् त्वं यायाः कुरून् प्रति।
सुयोधनः सूक्तमपि न करिष्यति ते वचः ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— श्रीकृष्ण! मेरा यह विचार नहीं है कि आप कौरवोंके यहाँ जायँ; क्योंकि आपकी कही हुई अच्छी बातोंको भी दुर्योधन नहीं मानेगा॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समेतं पार्थिवं क्षत्रं दुर्योधनवशानुगम्।
तेषां मध्यावतरणं तव कृष्ण न रोचये ॥ ८३ ॥

मूलम्

समेतं पार्थिवं क्षत्रं दुर्योधनवशानुगम्।
तेषां मध्यावतरणं तव कृष्ण न रोचये ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके सिवा इस समय दुर्योधनके वशमें रहनेवाले भूमण्डलके सभी क्षत्रिय वहाँ एकत्र हुए हैं। उनके बीचमें आपका जाना मुझे अच्छा नहीं लगता॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि नः प्रीणयेद् द्रव्यं न देवत्वं कुतः सुखम्।
न च सर्वामरैश्वर्यं तव द्रोहेण माधव ॥ ८४ ॥

मूलम्

न हि नः प्रीणयेद् द्रव्यं न देवत्वं कुतः सुखम्।
न च सर्वामरैश्वर्यं तव द्रोहेण माधव ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! यदि दुर्योधनने द्रोहवश आपके साथ कोई अनुचित बर्ताव किया, तो धन, सुख, देवत्व तथा सम्पूर्ण देवताओंका ऐश्वर्य भी हमें प्रसन्न नहीं कर सकेगा॥८४॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानाम्येतां महाराज धार्तराष्ट्रस्य पापताम्।
अवाच्यास्तु भविष्यामः सर्वलोके महीक्षिताम् ॥ ८५ ॥

मूलम्

जानाम्येतां महाराज धार्तराष्ट्रस्य पापताम्।
अवाच्यास्तु भविष्यामः सर्वलोके महीक्षिताम् ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान्‌ने कहा— महाराज! धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन कितना पापाचारी है, यह मैं जानता हूँ, तथापि वहाँ जाकर संधिके लिये प्रयत्न करनेपर हम सब लोग सम्पूर्ण जगत्‌के राजाओंकी दृष्टिमें निन्दाके पात्र न होंगे॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चापि मम पर्याप्ताः सहिताः सर्वपार्थिवाः।
क्रुद्धस्य संयुगे स्थातुं सिंहस्येवेतरे मृगाः ॥ ८६ ॥

मूलम्

न चापि मम पर्याप्ताः सहिताः सर्वपार्थिवाः।
क्रुद्धस्य संयुगे स्थातुं सिंहस्येवेतरे मृगाः ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(मेरे तिरस्कारके भयसे भी आप चिन्तित न हों, क्योंकि) जैसे क्रोधमें भरे हुए सिंहके सामने दूसरे पशु नहीं ठहर सकते हैं, उसी प्रकार यदि मैं कोप करूँ, तो संसारके सारे भूपाल मिलकर भी युद्धमें मेरे सामने खड़े नहीं हो सकते हैं॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ चेत् ते प्रवर्तन्ते मयि किञ्चिदसाम्प्रतम्।
निर्दहेयं कुरून् सर्वानिति मे धीयते मतिः ॥ ८७ ॥

मूलम्

अथ चेत् ते प्रवर्तन्ते मयि किञ्चिदसाम्प्रतम्।
निर्दहेयं कुरून् सर्वानिति मे धीयते मतिः ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वे मेरे साथ थोड़ा-सा भी अनुचित बर्ताव करेंगे, तो मैं उन समस्त कौरवोंको जलाकर भस्म कर डालूँगा; यह मेरा निश्चित विचार है॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जातु गमनं पार्थ भवेत् तत्र निरर्थकम्।
अर्थप्राप्तिः कदाचित् स्यादन्ततो वाप्यवाच्यता ॥ ८८ ॥

मूलम्

न जातु गमनं पार्थ भवेत् तत्र निरर्थकम्।
अर्थप्राप्तिः कदाचित् स्यादन्ततो वाप्यवाच्यता ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः कुन्तीनन्दन! मेरा वहाँ जाना कदापि निरर्थक नहीं होगा। सम्भव है, वहाँ अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धि हो जाय और यदि काम न बना, तो भी हम निन्दासे तो बच ही जायँगे॥८८॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्‌ तुभ्यं रोचते कृष्ण स्वस्ति प्राप्नुहि कौरवान्।
कृतार्थं स्वस्तिमन्तं त्वां द्रक्ष्यामि पुनरागतम् ॥ ८९ ॥

मूलम्

यत्‌ तुभ्यं रोचते कृष्ण स्वस्ति प्राप्नुहि कौरवान्।
कृतार्थं स्वस्तिमन्तं त्वां द्रक्ष्यामि पुनरागतम् ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— श्रीकृष्ण! आपकी जैसी रुचि हो, वही कीजिये। आपका कल्याण हो। आप प्रसन्नतापूर्वक कौरवोंके पास जाइये। आशा है, मैं पुनः आपको अपने कार्यमें सफल होकर यहाँ सकुशल लौटा हुआ देखूँगा॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्वक्सेन कुरून् गत्वा भरताञ्छमय प्रभो।
यथा सर्वे सुमनसः सह स्याम सुचेतसः ॥ ९० ॥

मूलम्

विष्वक्सेन कुरून् गत्वा भरताञ्छमय प्रभो।
यथा सर्वे सुमनसः सह स्याम सुचेतसः ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विष्वक्‌सेन प्रभो! आप कुरुदेशमें जाकर भरत-वंशियोंको शान्त कीजिये, जिससे हम सब लोग शुद्ध हृदयसे प्रसन्नचित्त होकर एक साथ रह सकें॥९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्राता चासि सखा चासि बीभत्सोर्मम च प्रियः।
सौहृदेनाविशङ्क्योऽसि स्वस्ति प्राप्नुहि भूतये ॥ ९१ ॥

मूलम्

भ्राता चासि सखा चासि बीभत्सोर्मम च प्रियः।
सौहृदेनाविशङ्क्योऽसि स्वस्ति प्राप्नुहि भूतये ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप हमलोगोंके भाई और मित्र हैं। अर्जुनके तथा मेरे भी प्रीतिभाजन हैं। आपके सौहार्दके विषयमें हमारे मनमें कोई शंका नहीं है। अतः आप उभय पक्षोंकी भलाईके लिये वहाँ जाइये। आपका कल्याण हो॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मान् वेत्थ परान् वेत्थ वेत्थार्थान्‌ वेत्थ भाषितुम्।
यद् यदस्मद्धितं कृष्ण तत्‌ तद् वाच्यः सुयोधनः ॥ ९२ ॥

मूलम्

अस्मान् वेत्थ परान् वेत्थ वेत्थार्थान्‌ वेत्थ भाषितुम्।
यद् यदस्मद्धितं कृष्ण तत्‌ तद् वाच्यः सुयोधनः ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! आप हमको जानते हैं, कौरवोंको भी जानते हैं, हम दोनोंके स्वार्थोंसे भी आप अपरिचित नहीं हैं और बातचीत कैसे करनी चाहिये, यह भी आपको अच्छी तरह ज्ञात है। अतः जिस-जिस बातसे हमारा हित हो, वह सब आप दुर्योधनको बतावें॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यद् धर्मेण संयुक्तमुपपद्येद्धितं वचः।
तत् तत् केशव भाषेथाः सान्त्वं वा यदि वेतरत्॥९३॥

मूलम्

यद् यद् धर्मेण संयुक्तमुपपद्येद्धितं वचः।
तत् तत् केशव भाषेथाः सान्त्वं वा यदि वेतरत्॥९३॥

अनुवाद (हिन्दी)

केशव! जो-जो बात धर्मसंगत, युक्तियुक्त और हितकर हो, वह सब कोमल हो या कठोर, आप अवश्य कहें॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि युधिष्ठिरकृतकृष्णप्रेरणे द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥

मूलम्

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि युधिष्ठिरकृतकृष्णप्रेरणे द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें युधिष्ठिरद्वारा श्रीकृष्णको प्रेरणाविषयक बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७२॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ९८ श्लोक हैं।]


  1. कुत्तोंके दुम हिलानेके समान राजाओंका ध्वज-कम्पन है, उनके गुर्रानेकी जगह उनका सिंहनाद है। कुत्ते जो एक-दूसरेको देखकर गर्जते हैं, उसी प्रकार दो विरोधी क्षत्रिय एक-दूसरेके प्रति उत्तर-प्रत्युत्तरके रूपमें आक्षेपजनक बातें कहते हैं। एक-दूसरेके निकट जाना दोनोंमें समानरूपसे होता है। राजालोग क्रोधमें आकर जो दाँतोंसे होठ चबाते हैं, यही कुत्तोंके समान उनका दाँत दिखाना है। विकट गर्जन-तर्जन भूकना है और युद्ध करना ही कुत्तोंके समान लड़ना है। राज्यकी प्राप्ति ही वह मांसका टुकड़ा है, जिसके लिये उनमें लड़ाई होती है। ↩︎