भागसूचना
सप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके विभिन्न नामोंकी व्युत्पत्तियोंका कथन
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयो मे पुण्डरीकाक्षं संजयाचक्ष्व पृच्छतः।
नामकर्मार्थवित् तात प्राप्नुयां पुरुषोत्तमम् ॥ १ ॥
मूलम्
भूयो मे पुण्डरीकाक्षं संजयाचक्ष्व पृच्छतः।
नामकर्मार्थवित् तात प्राप्नुयां पुरुषोत्तमम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— संजय! तुम भगवान् श्रीकृष्णके नाम और कर्मोंका अभिप्राय जानते हो, अतः मेरे प्रश्नके अनुसार एक बार पुनः कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णका वर्णन करो॥१॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतं मे वासुदेवस्य नामनिर्वचनं शुभम्।
यावत् तत्राभिजानेऽहमप्रमेयो हि केशवः ॥ २ ॥
मूलम्
श्रुतं मे वासुदेवस्य नामनिर्वचनं शुभम्।
यावत् तत्राभिजानेऽहमप्रमेयो हि केशवः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! मैंने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके नामोंकी मंगलमयी व्युत्पत्ति सुन रखी है, उसमें जितना मुझे स्मरण है, उतना बता रहा हूँ। वास्तवमें तो भगवान् श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंकी पहुँचसे परे हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसनात् सर्वभूतानां वसुत्वाद् देवयोनितः।
वासुदेवस्ततो वेद्यो बृहत्त्वाद् विष्णुरुच्यते ॥ ३ ॥
मूलम्
वसनात् सर्वभूतानां वसुत्वाद् देवयोनितः।
वासुदेवस्ततो वेद्यो बृहत्त्वाद् विष्णुरुच्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् समस्त प्राणियोंके निवासस्थान हैं तथा वे सब भूतोंमें वास करते हैं, इसलिये ‘वसु’ हैं एवं देवताओंकी उत्पत्तिके स्थान होनेसे और समस्त देवता उनमें वास करते हैं, इसलिये उन्हें ‘देव’ कहा जाता है। अतएव उनका नाम ‘वासुदेव’ है, ऐसा जानना चाहिये। बृहत् अर्थात् व्यापक होनेके कारण वे ही ‘विष्णु’ कहलाते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मौनाद् ध्यानाच्च योगाच्च विद्धि भारत माधवम्।
सर्वतत्त्वमयत्वाच्च मधुहा मधुसूदनः ॥ ४ ॥
मूलम्
मौनाद् ध्यानाच्च योगाच्च विद्धि भारत माधवम्।
सर्वतत्त्वमयत्वाच्च मधुहा मधुसूदनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! मौन, ध्यान और योगसे उनका बोध अथवा साक्षात्कार होता है; इसलिये आप उन्हें ‘माधव’ समझें। मधु शब्दसे प्रतिपादित पृथ्वी आदि सम्पूर्ण तत्त्वोंके उपादान एवं अधिष्ठान होनेके कारण मधुसूदन श्रीकृष्णको ‘मधुहा’ कहा गया है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्च निर्वृतिवाचकः।
विष्णुस्तद्भावयोगाच्च कृष्णो भवति सात्वतः ॥ ५ ॥
मूलम्
कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्च निर्वृतिवाचकः।
विष्णुस्तद्भावयोगाच्च कृष्णो भवति सात्वतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कृष्’ धातु सत्ता अर्थका वाचक है और ‘ण’ शब्द आनन्द अर्थका बोध कराता है, इन दोनों भावोंसे युक्त होनेके कारण यदुकुलमें अवतीर्ण हुए नित्य आनन्दस्वरूप श्रीविष्णु ‘कृष्ण’ कहलाते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्डरीकं परं धाम नित्यमक्षयमव्ययम्।
तद्भावात् पुण्डरीकाक्षो दस्युत्रासाज्जनार्दनः ॥ ६ ॥
मूलम्
पुण्डरीकं परं धाम नित्यमक्षयमव्ययम्।
तद्भावात् पुण्डरीकाक्षो दस्युत्रासाज्जनार्दनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नित्य, अक्षय, अविनाशी एवं परम भगवद्धामका नाम पुण्डरीक है। उसमें स्थित होकर जो अक्षतभावसे विराजते हैं, वे भगवान् ‘पुण्डरीकाक्ष’ कहलाते हैं। (अथवा पुण्डरीक—कमलके समान उनके अक्षि—नेत्र हैं, इसलिये उनका नाम पुण्डरीकाक्ष है)। दस्युजनोंको त्रास (अर्दन या पीड़ा) देनेके कारण उनको ‘जनार्दन’ कहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतः सत्त्वान्न च्यवते यच्च सत्त्वान्न हीयते।
सत्त्वतः सात्वतस्तस्मादार्षभाद् वृषभेक्षणः ॥ ७ ॥
मूलम्
यतः सत्त्वान्न च्यवते यच्च सत्त्वान्न हीयते।
सत्त्वतः सात्वतस्तस्मादार्षभाद् वृषभेक्षणः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सत्यसे कभी च्युत नहीं होते और न सत्त्वसे अलग ही होते हैं, इसलिये सद्भावके सम्बन्धसे उनका नाम ‘सात्वत’ है। आर्ष कहते हैं वेदको, उससे भासित होनेके कारण भगवान्का एक नाम ‘आर्षभ’ है। आर्षभके योगसे ही वे ‘वृषभेक्षण’ कहलाते हैं (वृषभका अर्थ है वेद, वही ईक्षण—नेत्रके समान उनका ज्ञापक है; इस व्युत्पत्तिके अनुसार वृषभेक्षण नामकी सिद्धि होती है)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जायते जनित्रायमजस्तस्मादनीकजित् ।
देवानां स्वप्रकाशत्वाद् दमाद् दामोदरो विभुः ॥ ८ ॥
मूलम्
न जायते जनित्रायमजस्तस्मादनीकजित् ।
देवानां स्वप्रकाशत्वाद् दमाद् दामोदरो विभुः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसेनाओंपर विजय पानेवाले ये भगवान् श्रीकृष्ण किसी जन्मदाताके द्वारा जन्म ग्रहण नहीं करते हैं, इसलिये ‘अज’ कहलाते हैं। देवता स्वयंप्रकाशरूप होते हैं, अतः उत्कृष्ट रूपसे प्रकाशित होनेके कारण भगवान् श्रीकृष्णको ‘उदर’ कहा गया है और दम (इन्द्रियसंयम) नामक गुणसे सम्पन्न होनेके कारण उनका नाम ‘दाम’ है। इस प्रकार दाम और उदर—इन दोनों शब्दोंके संयोगसे वे ‘दामोदर’ कहलाते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हर्षात् सुखात् सुखैश्वर्याद्धृषीकेशत्वमश्नुते ।
बाहुभ्यां रोदसी बिभ्रन्महाबाहुरिति स्मृतः ॥ ९ ॥
मूलम्
हर्षात् सुखात् सुखैश्वर्याद्धृषीकेशत्वमश्नुते ।
बाहुभ्यां रोदसी बिभ्रन्महाबाहुरिति स्मृतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे हर्ष अर्थात् सुखसे युक्त होनेके कारण हृषीक हैं और सुख-ऐश्वर्यसे सम्पन्न होनेके कारण ‘ईश’ कहे गये हैं। इस प्रकार वे भगवान् ‘हृषीकेश’ नाम धारण करते हैं। अपनी दोनों बाहुओंद्वारा भगवान् इस पृथ्वी और आकाशको धारण करते हैं, इसलिये उनका नाम ‘महाबाहु’ है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधो न क्षीयते जातु यस्मात् तस्मादधोक्षजः।
नराणामयनाच्चापि ततो नारायणः स्मृतः ॥ १० ॥
मूलम्
अधो न क्षीयते जातु यस्मात् तस्मादधोक्षजः।
नराणामयनाच्चापि ततो नारायणः स्मृतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण कभी नीचे गिरकर क्षीण नहीं होते, अतः (‘अधो न क्षीयते जातु’—इस व्युत्पत्तिके अनुसार) ‘अधोक्षज’ कहलाते हैं। वे नरों (जीवात्माओं)-के अयन (आश्रय) हैं, इसलिये उन्हें ‘नारायण’ भी कहते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरणात् सदनाच्चापि ततोऽसौ पुरुषोत्तमः।
असतश्च सतश्चैव सर्वस्य प्रभवाप्ययात् ॥ ११ ॥
सर्वस्य च सदा ज्ञानात् सर्वमेतं प्रचक्षते।
मूलम्
पूरणात् सदनाच्चापि ततोऽसौ पुरुषोत्तमः।
असतश्च सतश्चैव सर्वस्य प्रभवाप्ययात् ॥ ११ ॥
सर्वस्य च सदा ज्ञानात् सर्वमेतं प्रचक्षते।
अनुवाद (हिन्दी)
वे सर्वत्र परिपूर्ण हैं तथा सबके निवासस्थान हैं, इसलिये ‘पुरुष’ हैं और सब पुरुषोंमें उत्तम होनेके कारण उनकी ‘पुरुषोत्तम’ संज्ञा है। वे सत् और असत् सबकी उत्पत्ति और लयके स्थान हैं तथा सर्वदा उन सबका ज्ञान रखते हैं; इसलिये उन्हें ‘सर्व’ कहते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्ये प्रतिष्ठितः कृष्णः सत्यमत्र प्रतिष्ठितम् ॥ १२ ॥
सत्यात् सत्यं तु गोविन्दस्तस्मात् सत्योऽपि नामतः।
मूलम्
सत्ये प्रतिष्ठितः कृष्णः सत्यमत्र प्रतिष्ठितम् ॥ १२ ॥
सत्यात् सत्यं तु गोविन्दस्तस्मात् सत्योऽपि नामतः।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण सत्यमें प्रतिष्ठित हैं और सत्य उनमें प्रतिष्ठित है। वे भगवान् गोविन्द सत्यसे भी उत्कृष्ट सत्य हैं। अतः उनका एक नाम ‘सत्य’ भी है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुर्विक्रमणाद् देवो जयनाज्जिष्णुरुच्यते ॥ १३ ॥
शाश्वतत्वादनन्तश्च गोविन्दो वेदनाद् गवाम्।
मूलम्
विष्णुर्विक्रमणाद् देवो जयनाज्जिष्णुरुच्यते ॥ १३ ॥
शाश्वतत्वादनन्तश्च गोविन्दो वेदनाद् गवाम्।
अनुवाद (हिन्दी)
विक्रमण (वामनावतारमें तीनों लोकोंको आक्रान्त) करनेके कारण वे भगवान् ‘विष्णु’ कहलाते हैं। वे सबपर विजय पानेसे ‘जिष्णु’, शाश्वत (नित्य) होनेसे ‘अनन्त’ तथा गौओं (इन्द्रियों)-के ज्ञाता और प्रकाशक होनेके कारण (गां विन्दति) इस व्युत्पत्तिके अनुसार ‘गोविन्द’ कहलाते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतत्त्वं कुरुते तत्त्वं तेन मोहयते प्रजाः ॥ १४ ॥
मूलम्
अतत्त्वं कुरुते तत्त्वं तेन मोहयते प्रजाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपनी सत्ता-स्फूर्ति देकर असत्यको भी सत्य-सा कर देते हैं और इस प्रकार सारी प्रजाको मोहमें डाल देते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधो धर्मनित्यो भगवान् मधुसूदनः।
आगन्ता हि महाबाहुरानृशंस्यार्थमच्युतः ॥ १५ ॥
मूलम्
एवंविधो धर्मनित्यो भगवान् मधुसूदनः।
आगन्ता हि महाबाहुरानृशंस्यार्थमच्युतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निरन्तर धर्ममें तत्पर रहनेवाले उन भगवान् मधुसूदनका स्वरूप ऐसा ही है। अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले महाबाहु श्रीकृष्ण कौरवोंपर कृपा करनेके लिये यहाँ पधारनेवाले हैं॥१५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि संजयवाक्ये सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें संजयवाक्यविषयक सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७०॥