०६९ संजयवाक्ये

भागसूचना

एकोनसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

संजयका धृतराष्ट्रको श्रीकृष्ण-प्राप्ति एवं तत्त्वज्ञानका साधन बताना

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं त्वं माधवं वेत्थ
सर्वलोक-महेश्वरम्।
कथम् एनं न वेदाहं
तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ १ ॥

मूलम्

कथं त्वं माधवं वेत्थ सर्वलोकमहेश्वरम्।
कथमेनं न वेदाहं तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! मधुवंशी भगवान् श्रीकृष्ण समस्त लोकोंके महान् ईश्वर हैं, इस बातको तुम कैसे जानते हो? और मैं इन्हें इस रूपमें क्यों नहीं जानता? इसका रहस्य मुझे बताओ॥१॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन्, न ते विद्या
मम विद्या न हीयते।
विद्या-हीनस् तमो-ध्वस्तो
नाभिजानाति केशवम् ॥ २ ॥

मूलम्

शृणु राजन् न ते विद्या मम विद्या न हीयते।
विद्याहीनस्तमोध्वस्तो नाभिजानाति केशवम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! सुनिये, आपको तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं है और मेरी ज्ञानदृष्टि कभी लुप्त नहीं होती है। जो मनुष्य तत्त्वज्ञानसे शून्य है और जिसकी बुद्धि अज्ञानान्धकारसे विनष्ट हो चुकी है, वह श्रीकृष्णके वास्तविक स्वरूपको नहीं जान सकता॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्यया तात जानामि
त्रियुगं मधुसूदनम्।
कर्तारम् अकृतं देवं
भूतानां प्रभव+अप्ययम्+++(←अप+इण्)+++ ॥ ३ ॥

मूलम्

विद्यया तात जानामि त्रियुगं मधुसूदनम्।
कर्तारमकृतं देवं भूतानां प्रभवाप्ययम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मैं ज्ञानदृष्टिसे ही प्राणियोंकी उत्पत्ति और विनाश करनेवाले त्रियुगस्वरूप भगवान् मधुसूदनको, जो सबके कर्ता हैं, परंतु किसीके कार्य नहीं हैं, जानता हूँ॥३॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावल्गणेऽत्र का भक्तिर् या
ते नित्या जनार्दने।
यया त्वम् अभिजानासि
त्रि-युगं मधु-सूदनम् ॥ ४ ॥

मूलम्

गावल्गणेऽत्र का भक्तिर्या ते नित्या जनार्दने।
यया त्वमभिजानासि त्रियुगं मधुसूदनम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! भगवान् श्रीकृष्णमें जो तुम्हारी नित्य भक्ति है, उसका स्वरूप क्या है? जिससे तुम त्रियुगस्वरूप भगवान् मधुसूदनके तत्त्वको जानते हो॥४॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मायां न सेवे भद्रं ते
न वृथा-धर्मम् आचरे।
शुद्ध-भावं गतो भक्त्या
शास्त्राद् वेद्मि जनार्दनम् ॥ ५ ॥

मूलम्

मायां न सेवे भद्रं ते न वृथा धर्ममाचरे।
शुद्धभावं गतो भक्त्या शास्त्राद् वेद्मि जनार्दनम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— महाराज! आपका कल्याण हो। मैं कभी माया (छल-कपट)-का सेवन नहीं करता। व्यर्थ (पाखण्डपूर्ण) धर्मका आचरण नहीं करता। भगवान्‌की भक्तिसे मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो गया है; अतः मैं शास्त्रके वचनोंसे भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूपको यथावत् जानता हूँ॥५॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन हृषीकेशं
प्रपद्यस्व जनार्दनम्।
आप्तो नः संजयस् तात
शरणं गच्छ केशवम् ॥ ६ ॥

मूलम्

दुर्योधन हृषीकेशं प्रपद्यस्व जनार्दनम्।
आप्तो नः संजयस्तात शरणं गच्छ केशवम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर धृतराष्ट्रने दुर्योधनसे कहा— बेटा दुर्योधन! संजय हमलोगोंका विश्वासपात्र है। इसकी बातोंपर श्रद्धा करके तुम सम्पूर्ण इन्द्रियोंके प्रेरक जनार्दन भगवान् श्रीकृष्णका आश्रय लो; उन्हींकी शरणमें जाओ॥६॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवान् देवकीपुत्रो
लोकांश् चेन् निहनिष्यति ।
प्रवदन्न् अर्जुने सख्यं
नाहं गच्छे ऽद्य केशवम् ॥ ७ ॥

मूलम्

भगवान् देवकीपुत्रो लोकांश्चेन्निहनिष्यति ।
प्रवदन्नर्जुने सख्यं नाहं गच्छेऽद्य केशवम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— पिताजी! माना कि देवकीनन्दन श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् हैं और वे इच्छा करते ही सम्पूर्ण लोकोंका संहार कर डालेंगे, तथापि वे अपनेको अर्जुनका मित्र बताते हैं; अतः अब मैं उनकी शरणमें नहीं जाऊँगा॥७॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवाग् गान्धारि पुत्रस्ते गच्छत्येष सुदुर्मतिः।
ईर्षुर्दुरात्मा मानी च श्रेयसां वचनातिगः ॥ ८ ॥

मूलम्

अवाग् गान्धारि पुत्रस्ते गच्छत्येष सुदुर्मतिः।
ईर्षुर्दुरात्मा मानी च श्रेयसां वचनातिगः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब धृतराष्ट्रने गान्धारीसे कहा— गान्धारी! तुम्हारा दुर्बुद्धि, दुरात्मा, ईर्ष्यालु और अभिमानी पुत्र श्रेष्ठ पुरुषोंकी आज्ञाका उल्लंघन करके नरककी ओर जा रहा है॥८॥

मूलम् (वचनम्)

गान्धार्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐश्वर्यकाम दुष्टात्मन् वृद्धानां शासनातिग।
ऐश्वर्यजीविते हित्वा पितरं मां च बालिश ॥ ९ ॥
वर्धयन् दुर्हृदां प्रीतिं मां च शोकेन वर्धयन्।
निहतो भीमसेनेन स्मर्तासि वचनं पितुः ॥ १० ॥

मूलम्

ऐश्वर्यकाम दुष्टात्मन् वृद्धानां शासनातिग।
ऐश्वर्यजीविते हित्वा पितरं मां च बालिश ॥ ९ ॥
वर्धयन् दुर्हृदां प्रीतिं मां च शोकेन वर्धयन्।
निहतो भीमसेनेन स्मर्तासि वचनं पितुः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गान्धारी बोली— दुष्टात्मा दुर्योधन! तू ऐश्वर्यकी इच्छा रखकर अपने बड़े-बूढ़ोंकी आज्ञाका उल्लंघन करता है! अरे मूर्ख! इस ऐश्वर्य, जीवन, पिता और मुझ माताको भी त्यागकर शत्रुओंकी प्रसन्नता और मेरा शोक बढ़ाता हुआ जब तू भीमसेनके हाथों मारा जायगा, उस समय तुझे पिताकी बातें याद आयेंगी॥९-१०॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियोऽसि राजन् कृष्णस्य धृतराष्ट्र निबोध मे।
यस्य ते संजयो दूतो यस्त्वां श्रेयसि योक्ष्यते ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रियोऽसि राजन् कृष्णस्य धृतराष्ट्र निबोध मे।
यस्य ते संजयो दूतो यस्त्वां श्रेयसि योक्ष्यते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर व्यासजीने कहा— राजा धृतराष्ट्र! मेरी बातोंपर ध्यान दो। वास्तवमें तुम श्रीकृष्णके प्रिय हो, तभी तो तुम्हें संजय-जैसा दूत मिला है, जो तुम्हें कल्याण-साधनमें लगायेगा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानात्येष हृषीकेशं पुराणं यच्च वै परम्।
शुश्रूषमाणमेकाग्रं मोक्ष्यते महतो भयात् ॥ १२ ॥

मूलम्

जानात्येष हृषीकेशं पुराणं यच्च वै परम्।
शुश्रूषमाणमेकाग्रं मोक्ष्यते महतो भयात् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह संजय पुराणपुरुष भगवान् श्रीकृष्णको जानता है और उनका जो परमतत्त्व है, वह भी इसे ज्ञात है। यदि तुम एकाग्रचित्त होकर इसकी बातें सुनोगे तो यह तुम्हें महान् भयसे मुक्त कर देगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैचित्रवीर्य पुरुषाः क्रोधहर्षसमावृताः ।
सिता बहुविधैः पाशैर्ये न तुष्टाः स्वकैर्धनैः ॥ १३ ॥
यमस्य वशमायान्ति काममूढाः पुनः पुनः।
अन्धनेत्रा यथैवान्धा नीयमानाः स्वकर्मभिः ॥ १४ ॥

मूलम्

वैचित्रवीर्य पुरुषाः क्रोधहर्षसमावृताः ।
सिता बहुविधैः पाशैर्ये न तुष्टाः स्वकैर्धनैः ॥ १३ ॥
यमस्य वशमायान्ति काममूढाः पुनः पुनः।
अन्धनेत्रा यथैवान्धा नीयमानाः स्वकर्मभिः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विचित्रवीर्यकुमार! जो मनुष्य अपने धनसे संतुष्ट नहीं हैं और काम आदि विविध प्रकारके बन्धनोंसे बँधकर हर्ष और क्रोधके वशीभूत हो रहे हैं, वे काममोहित पुरुष अंधोंके नेतृत्वमें चलनेवाले अंधोंकी भाँति अपने कर्मोंद्वारा प्रेरित होकर बारंबार यमराजके वशमें आते हैं॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष एकायनः पन्था येन यान्ति मनीषिणः।
तं दृष्ट्वा मृत्युमत्येति महांस्तत्र न सज्जति ॥ १५ ॥

मूलम्

एष एकायनः पन्था येन यान्ति मनीषिणः।
तं दृष्ट्वा मृत्युमत्येति महांस्तत्र न सज्जति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह ज्ञानमार्ग एकमात्र परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला है। जिसपर मनीषी (ज्ञानी) पुरुष चलते हैं, उस मार्गको देख या जान लेनेपर मनुष्य जन्म-मृत्युरूप संसारको लाँघ जाता है और वह महात्मा पुरुष कभी इस संसारमें आसक्त नहीं होता है॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्ग संजय मे शंस पन्थानमकुतोभयम्।
येन गत्वा हृषीकेशं प्राप्नुयां सिद्धिमुत्तमाम् ॥ १६ ॥

मूलम्

अङ्ग संजय मे शंस पन्थानमकुतोभयम्।
येन गत्वा हृषीकेशं प्राप्नुयां सिद्धिमुत्तमाम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— वत्स संजय! तुम मुझे वह निर्भय मार्ग बताओ, जिससे चलकर मैं सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी परममोक्षस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णको प्राप्त कर सकूँ॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाकृतात्मा कृतात्मानं जातु विद्याज्जनार्दनम्।
आत्मनस्तु क्रियोपायो नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात् ॥ १७ ॥

मूलम्

नाकृतात्मा कृतात्मानं जातु विद्याज्जनार्दनम्।
आत्मनस्तु क्रियोपायो नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— महाराज! जिसने अपने मनको वशमें नहीं किया है, वह कभी नित्यसिद्ध परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णको नहीं पा सकता। अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें किये बिना दूसरा कोई कर्म उन परमात्माकी प्राप्तिका उपाय नहीं हो सकता॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणामुदीर्णानां कामत्यागोऽप्रमादतः ।
अप्रमादोऽविहिंसा च ज्ञानयोनिरसंशयम् ॥ १८ ॥

मूलम्

इन्द्रियाणामुदीर्णानां कामत्यागोऽप्रमादतः ।
अप्रमादोऽविहिंसा च ज्ञानयोनिरसंशयम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विषयोंकी ओर दौड़नेवाली इन्द्रियोंकी भोग-कामनाओंका पूर्ण सावधानीके साथ त्याग कर देना, प्रमादसे दूर रहना तथा किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना—ये तीन निश्चय ही तत्त्वज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणां यमे यत्तो भव राजन्नतन्द्रितः।
बुद्धिश्च ते मा च्यवतु नियच्छैनां यतस्ततः ॥ १९ ॥

मूलम्

इन्द्रियाणां यमे यत्तो भव राजन्नतन्द्रितः।
बुद्धिश्च ते मा च्यवतु नियच्छैनां यतस्ततः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आप आलस्य छोड़कर इन्द्रियोंके संयममें तत्पर हो जाइये और अपनी बुद्धिको जैसे भी सम्भव हो, नियन्त्रणमें रखिये, जिससे वह अपने लक्ष्यसे भ्रष्ट न हो॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतज्ज्ञानं विदुर्विप्रा ध्रुवमिन्द्रियधारणम् ।
एतज्ज्ञानं च पन्थाश्च येन यान्ति मनीषिणः ॥ २० ॥

मूलम्

एतज्ज्ञानं विदुर्विप्रा ध्रुवमिन्द्रियधारणम् ।
एतज्ज्ञानं च पन्थाश्च येन यान्ति मनीषिणः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रियोंको दृढ़तापूर्वक संयममें रखना चाहिये। विद्वान् ब्राह्मण इसीको ज्ञान मानते हैं। यह ज्ञान ही वह मार्ग है, जिससे मनीषी पुरुष चलते हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्राप्यः केशवो राजन्निन्द्रियैरजितैर्नृभिः ।
आगमाधिगमाद् योगाद् वशी तत्त्वे प्रसीदति ॥ २१ ॥

मूलम्

अप्राप्यः केशवो राजन्निन्द्रियैरजितैर्नृभिः ।
आगमाधिगमाद् योगाद् वशी तत्त्वे प्रसीदति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मनुष्य अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त किये बिना भगवान् श्रीकृष्णको नहीं पा सकते। जिसने शास्त्रज्ञान और योगके प्रभावसे अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें कर रखा है, वही तत्त्वज्ञान पाकर प्रसन्न होता है॥२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि संजयवाक्ये एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें संजयवाक्यविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६९॥