भागसूचना
अष्टषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
संजयका धृतराष्ट्रको भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा बतलाना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनो वासुदेवश्च धन्विनौ परमार्चितौ।
कामादन्यत्र सम्भूतौ सर्वभावाय सम्मितौ ॥ १ ॥
मूलम्
अर्जुनो वासुदेवश्च धन्विनौ परमार्चितौ।
कामादन्यत्र सम्भूतौ सर्वभावाय सम्मितौ ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! अर्जुन तथा भगवान् श्रीकृष्ण दोनों बड़े सम्मानित धनुर्धर हैं। वे (यद्यपि सदा साथ रहनेवाले नर और नारायण हैं, तथापि) लोककल्याणकी कामनासे पृथक्-पृथक् प्रकट हुए हैं और सब कुछ करनेमें समर्थ हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यामान्तरं समास्थाय यथामुक्तं मनस्विनः।
चक्रं तद् वासुदेवस्य मायया वर्तते विभो ॥ २ ॥
मूलम्
व्यामान्तरं समास्थाय यथामुक्तं मनस्विनः।
चक्रं तद् वासुदेवस्य मायया वर्तते विभो ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! उदारचेता भगवान् वासुदेवका सुदर्शन नामक चक्र उनकी मायासे अलक्षित होकर उनके पास रहता है। उसके मध्यभागका विस्तार लगभग साढ़े तीन हाथका है। वह भगवान्के संकल्पके अनुसार (विशाल एवं तेजस्वी रूप धारण करके शत्रुसंहारके लिये) प्रयुक्त होता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सापह्नवं कौरवेषु पाण्डवानां सुसम्मतम्।
सारासारबलं ज्ञातुं तेजःपुञ्जावभासितम् ॥ ३ ॥
मूलम्
सापह्नवं कौरवेषु पाण्डवानां सुसम्मतम्।
सारासारबलं ज्ञातुं तेजःपुञ्जावभासितम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवोंपर उसका प्रभाव प्रकट नहीं है। पाण्डवोंको वह अत्यन्त प्रिय है। वह सबके सार-असारभूत बलको जाननेमें समर्थ और तेजःपुंजसे प्रकाशित होनेवाला है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरकं शम्बरं चैव कंसं चैद्यं च माधवः।
जितवान् घोरसंकाशान् क्रीडन्निव महाबलः ॥ ४ ॥
मूलम्
नरकं शम्बरं चैव कंसं चैद्यं च माधवः।
जितवान् घोरसंकाशान् क्रीडन्निव महाबलः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबली भगवान् श्रीकृष्णने अत्यन्त भयंकरप्रतीत होनेवाले नरकासुर, शम्बरसुर, कंस तथा शिशुपालको भी खेल-ही-खेलमें जीत लिया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिवीं चान्तरिक्षं च द्यां चैव पुरुषोत्तमः।
मनसैव विशिष्टात्मा नयत्यात्मवशं वशी ॥ ५ ॥
मूलम्
पृथिवीं चान्तरिक्षं च द्यां चैव पुरुषोत्तमः।
मनसैव विशिष्टात्मा नयत्यात्मवशं वशी ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्णतः स्वाधीन एवं श्रेष्ठस्वरूप पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण मनके संकल्पमात्रसे ही भूतल, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोकको भी अपने अधीन कर सकते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयो भूयो हि यद् राजन् पृच्छसे पाण्डवान् प्रति।
सारासारबलं ज्ञातुं तत् समासेन मे शृणु ॥ ६ ॥
मूलम्
भूयो भूयो हि यद् राजन् पृच्छसे पाण्डवान् प्रति।
सारासारबलं ज्ञातुं तत् समासेन मे शृणु ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आप जो बारंबार पाण्डवोंके विषयमें, उनके सार या असारभूत बलको जाननेके लिये मुझसे पूछते रहते हैं, वह सब आप मुझसे संक्षेपमें सुनिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकतो वा जगत् कृत्स्नमेकतो वा जनार्दनः।
सारतो जगतः कृत्स्नादतिरिक्तो जनार्दनः ॥ ७ ॥
मूलम्
एकतो वा जगत् कृत्स्नमेकतो वा जनार्दनः।
सारतो जगतः कृत्स्नादतिरिक्तो जनार्दनः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक ओर सम्पूर्ण जगत् हो और दूसरी ओर अकेले भगवान् श्रीकृष्ण हों तो सारभूत बलकी दृष्टिसे वे भगवान् जनार्दन ही सम्पूर्ण जगत्से बढ़कर सिद्ध होंगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भस्म कुर्याज्जगदिदं मनसैव जनार्दनः।
न तु कृत्स्नं जगच्छक्तं भस्म कर्तुं जनार्दनम् ॥ ८ ॥
मूलम्
भस्म कुर्याज्जगदिदं मनसैव जनार्दनः।
न तु कृत्स्नं जगच्छक्तं भस्म कर्तुं जनार्दनम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण अपने मानसिक संकल्पमात्रसे इस सम्पूर्ण जगत्को भस्म कर सकते हैं; परंतु उन्हें भस्म करनेमें यह सारा जगत् समर्थ नहीं हो सकता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतः सत्यं यतो धर्मो यतो ह्रीरार्जवं यतः।
ततो भवति गोविन्दो यतः कृष्णस्ततो जयः ॥ ९ ॥
मूलम्
यतः सत्यं यतो धर्मो यतो ह्रीरार्जवं यतः।
ततो भवति गोविन्दो यतः कृष्णस्ततो जयः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस ओर सत्य, धर्म, लज्जा और सरलता है, उसी ओर भगवान् श्रीकृष्ण रहते हैं और जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिवीं चान्तरिक्षं च दिवं च पुरुषोत्तमः।
विचेष्टयति भूतात्मा क्रीडन्निव जनार्दनः ॥ १० ॥
मूलम्
पृथिवीं चान्तरिक्षं च दिवं च पुरुषोत्तमः।
विचेष्टयति भूतात्मा क्रीडन्निव जनार्दनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणियोंके आत्मा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण खेल-सा करते हुए ही पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोकका संचालन करते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कृत्वा पाण्डवान् सत्रं लोकं सम्मोहयन्निव।
अधर्मनिरतान् मूढान् दग्धुमिच्छति ते सुतान् ॥ ११ ॥
मूलम्
स कृत्वा पाण्डवान् सत्रं लोकं सम्मोहयन्निव।
अधर्मनिरतान् मूढान् दग्धुमिच्छति ते सुतान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे इस समय समस्त लोकको मोहित-सा करते हुए पाण्डवोंके मिससे आपके अधर्मपरायण मूढ़ पुत्रोंको भस्म करना चाहते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालचक्रं जगच्चक्रं युगचक्रं च केशवः।
आत्मयोगेन भगवान् परिवर्तयतेऽनिशम् ॥ १२ ॥
मूलम्
कालचक्रं जगच्चक्रं युगचक्रं च केशवः।
आत्मयोगेन भगवान् परिवर्तयतेऽनिशम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये भगवान् केशव ही अपनी योगशक्तिसे निरन्तर कालचक्र, संसारचक्र तथा युगचक्रको घुमाते रहते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालस्य च हि मृत्योश्च जङ्गमस्थावरस्य च।
ईशते भगवानेकः सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ १३ ॥
मूलम्
कालस्य च हि मृत्योश्च जङ्गमस्थावरस्य च।
ईशते भगवानेकः सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपसे यह सच कहता हूँ कि एकमात्र भगवान् श्रीकृष्ण ही काल, मृत्यु तथा चराचर जगत्के स्वामी एवं शासक हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईशन्नपि महायोगी सर्वस्य जगतो हरिः।
कर्माण्यारभते कर्तुं कीनाश इव वर्धनः ॥ १४ ॥
मूलम्
ईशन्नपि महायोगी सर्वस्य जगतो हरिः।
कर्माण्यारभते कर्तुं कीनाश इव वर्धनः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महायोगी श्रीहरि सम्पूर्ण जगत्के स्वामी एवं ईश्वर होते हुए भी खेतीको बढ़ानेवाले किसानकी भाँति सदा नये-नये कर्मोंका आरम्भ करते रहते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन वञ्चयते लोकान् मायायोगेन केशवः।
ये तमेव प्रपद्यन्ते न ते मुह्यन्ति मानवाः ॥ १५ ॥
मूलम्
तेन वञ्चयते लोकान् मायायोगेन केशवः।
ये तमेव प्रपद्यन्ते न ते मुह्यन्ति मानवाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् केशव अपनी मायाके प्रभावसे सब लोगोंको मोहमें डाले रहते हैं; किंतु जो मनुष्य केवल उन्हींकी शरण ले लेते हैं, वे उनकी मायासे मोहित नहीं होते हैं॥१५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि संजयवाक्येऽष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें संजयवाक्यविषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६८॥