भागसूचना
पञ्चषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्रका दुर्योधनको समझाना
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधन विजानीहि यत् त्वां वक्ष्यामि पुत्रक।
उत्पथं मन्यसे मार्गमनभिज्ञ इवाध्वगः ॥ १ ॥
मूलम्
दुर्योधन विजानीहि यत् त्वां वक्ष्यामि पुत्रक।
उत्पथं मन्यसे मार्गमनभिज्ञ इवाध्वगः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— बेटा दुर्योधन! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसपर ध्यान दो। तुम इस समय अनजान बटोहीके समान कुमार्गको भी सुमार्ग समझ रहे हो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चानां पाण्डुपुत्राणां यत् तेजः प्रजिहीर्षसि।
पञ्चानामिव भूतानां महतां लोकधारिणाम् ॥ २ ॥
मूलम्
पञ्चानां पाण्डुपुत्राणां यत् तेजः प्रजिहीर्षसि।
पञ्चानामिव भूतानां महतां लोकधारिणाम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यही कारण है कि तुम सम्पूर्ण लोकोंके आधारस्वरूप पाँच महाभूतोंके समान पाँचों पाण्डवोंके तेजका अपहरण करनेकी इच्छा कर रहे हो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरं हि कौन्तेयं परं धर्ममिहास्थितम्।
परां गतिमसम्प्रेत्य न त्वं जेतुमिहार्हसि ॥ ३ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरं हि कौन्तेयं परं धर्ममिहास्थितम्।
परां गतिमसम्प्रेत्य न त्वं जेतुमिहार्हसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर यहाँ उत्तम धर्मका आश्रय लेकर रहते हैं। तुम मृत्युको प्राप्त हुए बिना उन्हें जीत लोगे, यह कदापि सम्भव नहीं है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनं च कौन्तेयं यस्य नास्ति समो बले।
रणान्तकं तर्जयसे महावातमिव द्रुमः ॥ ४ ॥
मूलम्
भीमसेनं च कौन्तेयं यस्य नास्ति समो बले।
रणान्तकं तर्जयसे महावातमिव द्रुमः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वृक्ष प्रचण्ड आँधीको डाँट बतावे, उसी प्रकार तुम समरांगणमें कालके समान विचरनेवाले कुन्तीकुमार भीमसेनको जिसके समान बलवान् इस भूतलपर दूसरा कोई नहीं है, डराने-धमकानेका साहस करते हो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वशस्त्रभृतां श्रेष्ठं मेरुं शिखरिणामिव।
युधि गाण्डीवधन्वानं को नु युध्येत बुद्धिमान् ॥ ५ ॥
मूलम्
सर्वशस्त्रभृतां श्रेष्ठं मेरुं शिखरिणामिव।
युधि गाण्डीवधन्वानं को नु युध्येत बुद्धिमान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पर्वतोंमें मेरु श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त शस्त्रधारियोंमें गाण्डीवधारी अर्जुन श्रेष्ठ है। भला कौन बुद्धिमान् मनुष्य रणभूमिमें उसके साथ जूझनेका साहस करेगा?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नश्च पाञ्चाल्यः कमिवाद्य न शातयेत्।
शत्रुमध्ये शरान् मुञ्चन् देवराडशनीमिव ॥ ६ ॥
मूलम्
धृष्टद्युम्नश्च पाञ्चाल्यः कमिवाद्य न शातयेत्।
शत्रुमध्ये शरान् मुञ्चन् देवराडशनीमिव ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे देवराज इन्द्र वज्र छोड़ते हैं, उसी प्रकार पांचाल-राजकुमार धृष्टद्युम्न शत्रुओंकी सेनापर बाणोंकी वर्षा करता है। वह अब किसे छिन्न-भिन्न नहीं कर डालेगा?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिश्चापि दुर्धर्षः सम्मतोऽन्धकवृष्णिषु ।
ध्वंसयिष्यति ते सेनां पाण्डवेयहिते रतः ॥ ७ ॥
मूलम्
सात्यकिश्चापि दुर्धर्षः सम्मतोऽन्धकवृष्णिषु ।
ध्वंसयिष्यति ते सेनां पाण्डवेयहिते रतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्धक और वृष्णिवंशका सम्माननीय योद्धा सात्यकि भी दुर्धर्ष वीर है। वह सदा पाण्डवोंके हितमें तत्पर रहता है। (युद्ध छिड़नेपर) वह तुम्हारी समस्त सेनाका संहार कर डालेगा॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः पुनः प्रतिमानेन त्रील्लोँकानतिरिच्यते।
तं कृष्णं पुण्डरीकाक्षं को नु युद्ध्येत बुद्धिमान् ॥ ८ ॥
मूलम्
यः पुनः प्रतिमानेन त्रील्लोँकानतिरिच्यते।
तं कृष्णं पुण्डरीकाक्षं को नु युद्ध्येत बुद्धिमान् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तुलनामें तीनों लोकोंसे भी बढ़कर हैं, उन कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णके साथ कौन समझदार मनुष्य युद्ध करेगा?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकतो ह्यस्य दाराश्च ज्ञातयश्च सबान्धवाः।
आत्मा च पृथिवी चेयमेकतश्च धनंजयः ॥ ९ ॥
मूलम्
एकतो ह्यस्य दाराश्च ज्ञातयश्च सबान्धवाः।
आत्मा च पृथिवी चेयमेकतश्च धनंजयः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णके लिये एक ओर स्त्री, कुटुम्बीजन, भाई-बन्धु, अपना शरीर और यह सारा भूमण्डल है, तो दूसरी ओर अकेला अर्जुन है (अर्थात् वे अर्जुनके लिये इन सबका त्याग कर सकते हैं)॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवोऽपि दुर्धर्षो यतात्मा यत्र पाण्डवः।
अविषह्यं पृथिव्यापि तद् बलं यत्र केशवः ॥ १० ॥
मूलम्
वासुदेवोऽपि दुर्धर्षो यतात्मा यत्र पाण्डवः।
अविषह्यं पृथिव्यापि तद् बलं यत्र केशवः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाला दुर्धर्ष वीर पाण्डुपुत्र अर्जुन है, वहीं वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण भी रहते हैं और जिस सेनामें साक्षात् श्रीकृष्ण विराज रहे हों, उसका वेग समस्त भूमण्डलके लिये भी असह्य हो जाता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिष्ठ तात सतां वाक्ये सुहृदामर्थवादिनाम्।
वृद्धं शान्तनवं भीष्मं तितिक्षस्व पितामहम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तिष्ठ तात सतां वाक्ये सुहृदामर्थवादिनाम्।
वृद्धं शान्तनवं भीष्मं तितिक्षस्व पितामहम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! तुम सत्पुरुषों तथा तुम्हारे हितकी बात बतानेवाले सुहृदोंके कथनानुसार कार्य करो। वृद्ध शान्तनुनन्दन भीष्म तुम्हारे पितामह हैं। तुम उनकी प्रत्येक बात सहन करो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां च ब्रुवाणं शुश्रूष कुरूणामर्थदर्शिनम्।
द्रोणं कृपं विकर्णं च महाराजं च बाह्लिकम् ॥ १२ ॥
एते ह्यपि यथैवाहं मन्तुमर्हसि तांस्तथा।
सर्वे धर्मविदो ह्येते तुल्यस्नेहाश्च भारत ॥ १३ ॥
मूलम्
मां च ब्रुवाणं शुश्रूष कुरूणामर्थदर्शिनम्।
द्रोणं कृपं विकर्णं च महाराजं च बाह्लिकम् ॥ १२ ॥
एते ह्यपि यथैवाहं मन्तुमर्हसि तांस्तथा।
सर्वे धर्मविदो ह्येते तुल्यस्नेहाश्च भारत ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं भी कौरवोंके हितकी ही बात सोचता हूँ; अतः मेरी भी सुनो। आचार्य द्रोण, कृप, विकर्ण और महाराज बाह्लीक—ये भी तुम्हारे हितैषी ही हैं; अतः तुम्हें मेरे ही समान इनका भी समादर करना चाहिये। भरतनन्दन! ये सब लोग धर्मके ज्ञाता हैं और दोनों पक्षके लोगोंपर समानभावसे स्नेह रखते हैं॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तद् विराटनगरे सह भ्रातृभिरग्रतः।
उत्सृज्य गाः सुसंत्रस्तं बलं ते समशीर्यत ॥ १४ ॥
यच्चैव नगरे तस्मिञ्छ्रूयते महदद्भुतम्।
एकस्य च बहूनां च पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ १५ ॥
मूलम्
यत् तद् विराटनगरे सह भ्रातृभिरग्रतः।
उत्सृज्य गाः सुसंत्रस्तं बलं ते समशीर्यत ॥ १४ ॥
यच्चैव नगरे तस्मिञ्छ्रूयते महदद्भुतम्।
एकस्य च बहूनां च पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराटनगरमें तुम्हारे भाइयोंसहित जो सारी सेना युद्धके लिये गयी थी, वह वहाँकी समस्त गौओंको छोड़कर अत्यन्त भयभीत हो तुम्हारे सामने ही भाग खड़ी हुई थी। उस नगरमें जो एक (अर्जुन)-का बहुतोंके साथ अत्यन्त अद्भुत युद्ध हुआ सुना जाता है; वह एक ही दृष्टान्त (उसकी प्रबलता और अजेयताके लिये) पर्याप्त है॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनस्तत् तथाकार्षीत् किं पुनः सर्व एव ते।
स भ्रातॄनभिजानीहि वृत्त्या तं प्रतिपादय ॥ १६ ॥
मूलम्
अर्जुनस्तत् तथाकार्षीत् किं पुनः सर्व एव ते।
स भ्रातॄनभिजानीहि वृत्त्या तं प्रतिपादय ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, जब अकले अर्जुनने इतना अद्भुत कार्य कर डाला, तब वे सब भाई मिलकर क्या नहीं कर सकते? अतः तुम पाण्डवोंको अपना भाई ही समझो और उनकी वृत्ति (स्वत्व) उन्हें देकर उनके साथ भ्रातृत्व बढ़ाओ॥१६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि धृतराष्ट्रवाक्ये पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें धृतराष्ट्रवाक्यविषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६५॥