भागसूचना
चतुःषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
विदुरका कौटुम्बिक कलहसे हानि बताते हुए धृतराष्ट्रको संधिकी सलाह देना
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शकुनीनामिहार्थाय पाशं भूमावयोजयत् ।
कश्चिच्छाकुनिकस्तात पूर्वेषामिति शुश्रुम ॥ १ ॥
मूलम्
शकुनीनामिहार्थाय पाशं भूमावयोजयत् ।
कश्चिच्छाकुनिकस्तात पूर्वेषामिति शुश्रुम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजी कहते हैं— तात! हमने पूर्वपुरुषोंके मुखसे सुन रखा है कि किसी समय एक चिड़ीमारने चिड़ियोंको फँसानेके लिये पृथ्वीपर एक जाल फैलाया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् द्वौ शकुनौ बद्धौ युगपत् सहचारिणौ।
तावुपादाय तं पाशं जग्मतुः खचरावुभौ ॥ २ ॥
मूलम्
तस्मिन् द्वौ शकुनौ बद्धौ युगपत् सहचारिणौ।
तावुपादाय तं पाशं जग्मतुः खचरावुभौ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस जालमें दो ऐसे पक्षी फँस गये, जो सदा साथ-साथ उड़ने और विचरनेवाले थे। वे दोनों पक्षी उस समय उस जालको लेकर आकाशमें उड़ चले॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ विहायसमाक्रान्तौ दृष्ट्वा शाकुनिकस्तदा।
अन्वधावदनिर्विण्णो येन येन स्म गच्छतः ॥ ३ ॥
मूलम्
तौ विहायसमाक्रान्तौ दृष्ट्वा शाकुनिकस्तदा।
अन्वधावदनिर्विण्णो येन येन स्म गच्छतः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चिड़ीमार उन दोनोंको आकाशमें उड़ते देखकर भी खिन्न या हताश नहीं हुआ। वे जिधर-जिधर गये, उधर-उधर ही वह उनके पीछे दौड़ता रहा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तमनुधावन्तं मृगयुं शकुनार्थिनम्।
आश्रमस्थो मुनिः कश्चिद् ददर्शाथ कृताह्निकः ॥ ४ ॥
मूलम्
तथा तमनुधावन्तं मृगयुं शकुनार्थिनम्।
आश्रमस्थो मुनिः कश्चिद् ददर्शाथ कृताह्निकः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों उस वनमें कोई मुनि रहते थे, जो उस समय संध्या-वन्दन आदि नित्यकर्म करके आश्रममें ही बैठे हुए थे। उन्होंने पक्षियोंको पकड़नेके लिये उनका पीछा करते हुए उस व्याधको देखा॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावन्तरिक्षगौ शीघ्रमनुयान्तं महीचरम् ।
श्लोकेनानेन कौरव्य पप्रच्छ स मुनिस्तदा ॥ ५ ॥
मूलम्
तावन्तरिक्षगौ शीघ्रमनुयान्तं महीचरम् ।
श्लोकेनानेन कौरव्य पप्रच्छ स मुनिस्तदा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! उन आकाशचारी पक्षियोंके पीछे-पीछे भूमिपर पैदल दौड़नेवाले उस व्याधसे मुनिने निम्नांकित श्लोकके अनुसार प्रश्न किया—॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचित्रमिदमाश्चर्यं मृगहन् प्रतिभाति मे।
प्लवमानौ हि खचरौ पदातिरनुधावसि ॥ ६ ॥
मूलम्
विचित्रमिदमाश्चर्यं मृगहन् प्रतिभाति मे।
प्लवमानौ हि खचरौ पदातिरनुधावसि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरे व्याध! मुझे यह बात बड़ी विचित्र और आश्चर्यजनक जान पड़ती है कि तू आकाशमें उड़ते हुए इन दोनों पक्षियोंके पीछे पृथ्वीपर पैदल दौड़ रहा है’॥६॥
मूलम् (वचनम्)
शाकुनिक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाशमेकमुभावेतौ सहितौ हरतो मम।
यत्र वै विवदिष्येते तत्र मे वशमेष्यतः ॥ ७ ॥
मूलम्
पाशमेकमुभावेतौ सहितौ हरतो मम।
यत्र वै विवदिष्येते तत्र मे वशमेष्यतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याध बोला— मुने! ये दोनों पक्षी आपसमें मिल गये हैं, अतः मेरे एकमात्र जालको लिये जा रहे हैं। अब ये जहाँ-कहीं एक दूसरेसे झगड़ेंगे, वहीं मेरे वशमें आ जायँगे॥७॥
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ विवादमनुप्राप्तौ शकुनौ मृत्युसंधितौ।
विगृह्य च सुदुर्बुद्धी पृथिव्यां संनिपेततुः ॥ ८ ॥
मूलम्
तौ विवादमनुप्राप्तौ शकुनौ मृत्युसंधितौ।
विगृह्य च सुदुर्बुद्धी पृथिव्यां संनिपेततुः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर कुछ ही देरमें कालके वशीभूत हुए वे दोनों दुर्बुद्धि पक्षी आपसमें झगड़ने लगे और लड़ते-लड़ते पृथ्वीपर गिर पड़े॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ युध्यमानौ संरब्धौ मृत्युपाशवशानुगौ।
उपसृत्यापरिज्ञातो जग्राह मृगहा तदा ॥ ९ ॥
मूलम्
तौ युध्यमानौ संरब्धौ मृत्युपाशवशानुगौ।
उपसृत्यापरिज्ञातो जग्राह मृगहा तदा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मौतके फंदेमें फँसे हुए वे पक्षी अत्यन्त कुपित होकर एक-दूसरेसे लड़ रहे थे, उसी समय व्याधने चुपचाप उनके पास आकर उन दोनोंको पकड़ लिया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ये ज्ञातयोऽर्थेषु मिथो गच्छन्ति विग्रहम्।
तेऽमित्रवशमायान्ति शकुनाविव विग्रहात् ॥ १० ॥
मूलम्
एवं ये ज्ञातयोऽर्थेषु मिथो गच्छन्ति विग्रहम्।
तेऽमित्रवशमायान्ति शकुनाविव विग्रहात् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार जो कुटुम्बीजन धन-सम्पत्तिके लिये आपसमें कलह करते हैं, वे युद्ध करके उन्हीं दोनों पक्षियोंकी भाँति शत्रुओंके वशमें पड़ जाते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भोजनं संकथनं सम्प्रश्नोऽथ समागमः।
एतानि ज्ञातिकार्याणि न विरोधः कदाचन ॥ ११ ॥
मूलम्
सम्भोजनं संकथनं सम्प्रश्नोऽथ समागमः।
एतानि ज्ञातिकार्याणि न विरोधः कदाचन ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ बैठकर भोजन करना, आपसमें प्रेमसे वार्तालाप करना, एक-दूसरेके सुख-दुःखको पूछना और सदा मिलते-जुलते रहना—ये ही भाई-बन्धुओंके काम हैं, परस्पर विरोध करना कदापि उचित नहीं है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये स्म काले सुमनसः सर्वे वृद्धानुपासते।
सिंहगुप्तमिवारण्यमप्रधृष्या भवन्ति ते ॥ १२ ॥
मूलम्
ये स्म काले सुमनसः सर्वे वृद्धानुपासते।
सिंहगुप्तमिवारण्यमप्रधृष्या भवन्ति ते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शुद्ध हृदयवाले मनुष्य समय-समयपर बड़े-बूढ़ोंकी सेवा एवं संग करते रहते हैं, वे सिंहसे सुरक्षित वनके समान दूसरोंके लिये दुर्धर्ष हो जाते हैं (शत्रु उनके पास आनेका साहस नहीं करते हैं)॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येऽर्थं संततमासाद्य दीना इव समासते।
श्रियं ते सम्प्रयच्छन्ति द्विषद्भ्यो भरतर्षभ ॥ १३ ॥
मूलम्
येऽर्थं संततमासाद्य दीना इव समासते।
श्रियं ते सम्प्रयच्छन्ति द्विषद्भ्यो भरतर्षभ ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जो धनको पाकर भी सदा दीनोंके समान तृष्णासे पीड़ित रहते हैं, वे (आपसमें कलह करके) अपनी सम्पत्ति शत्रुओंको दे डालते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धूमायन्ते व्यपेतानि ज्वलन्ति सहितानि च।
धृतराष्ट्रोल्मुकानीव ज्ञातयो भरतर्षभ ॥ १४ ॥
मूलम्
धूमायन्ते व्यपेतानि ज्वलन्ति सहितानि च।
धृतराष्ट्रोल्मुकानीव ज्ञातयो भरतर्षभ ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतकुलभूषण धृतराष्ट्र! जैसे जलते हुए काष्ठ अलग-अलग कर दिये जानेपर जल नहीं पाते, केवल धुआँ देते हैं और परस्पर मिल जानेपर प्रज्वलित हो उठते हैं, उसी प्रकार कुटुम्बीजन आपसी फूटके कारण अलग-अलग रहनेपर अशक्त हो जाते हैं तथा परस्पर संगठित होनेपर बलवान् एवं तेजस्वी होते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदमन्यत् प्रवक्ष्यामि यथा दृष्टं गिरौ मया।
श्रुत्वा तदपि कौरव्य यथा श्रेयस्तथा कुरु ॥ १५ ॥
मूलम्
इदमन्यत् प्रवक्ष्यामि यथा दृष्टं गिरौ मया।
श्रुत्वा तदपि कौरव्य यथा श्रेयस्तथा कुरु ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवनन्दन! पूर्वकालमें किसी पर्वतपर मैंने जैसा देखा था, उसके अनुसार यह एक दूसरी बात बता रहा हूँ। इसे भी सुनकर आपको जिसमें अपनी भलाई जान पड़े, वही कीजिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं किरातैः सहिता गच्छामो गिरिमुत्तरम्।
ब्राह्मणैर्देवकल्पैश्च विद्याजम्भकवार्तिकैः ॥ १६ ॥
मूलम्
वयं किरातैः सहिता गच्छामो गिरिमुत्तरम्।
ब्राह्मणैर्देवकल्पैश्च विद्याजम्भकवार्तिकैः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, हम बहुत-से भीलों और देवोपम ब्राह्मणोंके साथ उत्तर-दिशामें गन्धमादन पर्वतपर गये थे। हमारे साथ जो ब्राह्मण थे, उन्हें मन्त्र-यन्त्रादिरूप विद्या और ओषधियोंके साधन आदिकी बातें बहुत प्रिय थीं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुञ्जभूतं गिरिं सर्वमभितो गन्धमादनम्।
दीप्यमानौषधिगणं सिद्धगन्धर्वसेवितम् ॥ १७ ॥
मूलम्
कुञ्जभूतं गिरिं सर्वमभितो गन्धमादनम्।
दीप्यमानौषधिगणं सिद्धगन्धर्वसेवितम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त गन्धमादन पर्वत सब ओरसे कुंज-सा जान पड़ता था। वहाँ दिव्य ओषधियाँ प्रकाशित हो रही थीं। सिद्ध और गन्धर्व उस पर्वतपर निवास करते थे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रापश्याम वै सर्वे मधु पीतकमाक्षिकम्।
मरुप्रपाते विषमे निविष्टं कुम्भसम्मितम् ॥ १८ ॥
मूलम्
तत्रापश्याम वै सर्वे मधु पीतकमाक्षिकम्।
मरुप्रपाते विषमे निविष्टं कुम्भसम्मितम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ हम सब लोगोंने देखा, पर्वतकी एक दुर्गम गुफामें जहाँसे कोई कूल-किनारा न होनेके कारण गिरनेकी ही अधिक सम्भावना रहती है, एक मधुकोष है। वह मक्खियोंका तैयार किया हुआ नहीं था। उसका रंग सुवर्णके समान पीला था और वह देखनेमें घड़ेके समान जान पड़ता था॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशीविषै रक्ष्यमाणं कुबेरदयितं भृशम्।
यत् प्राप्य पुरुषो मर्त्योऽप्यमरत्वं नियच्छति ॥ १९ ॥
अचक्षुर्लभते चक्षुर्वृद्धो भवति वै युवा।
इति ते कथयन्ति स्म ब्राह्मणा जम्भसाधकाः ॥ २० ॥
मूलम्
आशीविषै रक्ष्यमाणं कुबेरदयितं भृशम्।
यत् प्राप्य पुरुषो मर्त्योऽप्यमरत्वं नियच्छति ॥ १९ ॥
अचक्षुर्लभते चक्षुर्वृद्धो भवति वै युवा।
इति ते कथयन्ति स्म ब्राह्मणा जम्भसाधकाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भयंकर विषधर सर्प उस मधुकी रक्षा करते थे। कुबेरको वह मधु अत्यन्त प्रिय था। हमारे साथी औषधसाधक ब्राह्मणलोग यह बता रहे थे कि इस मधुको पाकर मरणधर्मा मनुष्य भी अमरत्व प्राप्त कर लेता है। इसको पीनेसे अंधेको दृष्टि मिल जाती है और बूढ़ा भी जवान हो जाता है॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः किरातास्तद् दृष्ट्वा प्रार्थयन्तो महीपते।
विनेशुर्विषमे तस्मिन् ससर्पे गिरिगह्वरे ॥ २१ ॥
मूलम्
ततः किरातास्तद् दृष्ट्वा प्रार्थयन्तो महीपते।
विनेशुर्विषमे तस्मिन् ससर्पे गिरिगह्वरे ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय उस मधुका अद्भुत गुण सुनकर और उसे प्रत्यक्ष देखकर भीलोंने उसे पानेकी चेष्टा की; परंतु सर्पोंसे भरी हुई उस दुर्गम पर्वतगुहामें जाकर वे सब-के-सब नष्ट हो गये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव तव पुत्रोऽयं पृथिवीमेक इच्छति।
मधु पश्यति सम्मोहात् प्रपातं नानुपश्यति ॥ २२ ॥
मूलम्
तथैव तव पुत्रोऽयं पृथिवीमेक इच्छति।
मधु पश्यति सम्मोहात् प्रपातं नानुपश्यति ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार आपका यह पुत्र दुर्योधन अकेला ही सारी पृथ्वीका राज्य भोगना चाहता है। यह मोहवश केवल मधुको ही देखता है, भावी पतन या विनाशकी ओर इसकी दृष्टि नहीं जाती है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनो योद्धुमनाः समरे सव्यसाचिना।
न च पश्यामि तेजोऽस्य विक्रमं वा तथाविधम् ॥ २३ ॥
मूलम्
दुर्योधनो योद्धुमनाः समरे सव्यसाचिना।
न च पश्यामि तेजोऽस्य विक्रमं वा तथाविधम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन समरभूमिमें सव्यसाची अर्जुनके साथ युद्ध करनेकी बात सोचता है, परंतु मैं इसके भीतर अर्जुनके समान तेज या पराक्रम नहीं देखता॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकेन रथमास्थाय पृथिवी येन निर्जिता।
भीष्मद्रोणप्रभृतयः संत्रस्ताः साधुयायिनः ॥ २४ ॥
विराटनगरे भग्नाः किं तत्र तव दृश्यताम्।
प्रतीक्षमाणो यो वीरः क्षमते वीक्षितं तव ॥ २५ ॥
मूलम्
एकेन रथमास्थाय पृथिवी येन निर्जिता।
भीष्मद्रोणप्रभृतयः संत्रस्ताः साधुयायिनः ॥ २४ ॥
विराटनगरे भग्नाः किं तत्र तव दृश्यताम्।
प्रतीक्षमाणो यो वीरः क्षमते वीक्षितं तव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस वीरने अकेले ही रथपर बैठकर सारी पृथ्वीपर विजय पायी है, विराटनगरपर चढ़ाई करने गये हुए भीष्म और द्रोण-जैसे महान् योद्धाओंको भी जिसने भयभीत करके भगा दिया है, उसके सामने आपका पुत्र क्या पराक्रम कर सकता है? यह आप ही देखिये। आज भी वह वीर आपकी मैत्रीपूर्ण दृष्टिकी प्रतीक्षा कर रहा है और आपकी आज्ञासे वह कौरवोंका सारा अपराध क्षमा कर सकता है॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रुपदो मत्स्यराजश्च संक्रुद्धश्च धनंजयः।
न शेषयेयुः समरे वायुयुक्ता इवाग्नयः ॥ २६ ॥
मूलम्
द्रुपदो मत्स्यराजश्च संक्रुद्धश्च धनंजयः।
न शेषयेयुः समरे वायुयुक्ता इवाग्नयः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा द्रुपद, मत्स्यनरेश विराट और क्रोधमें भरा हुआ अर्जुन—ये तीनों वायुका सहारा पाकर प्रज्वलित हुई त्रिविध अग्नियोंके समान जब युद्धभूमिमें आक्रमण करेंगे, तब किसीको जीता नहीं छोड़ेंगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्के कुरुष्व राजानं धृतराष्ट्र युधिष्ठिरम्।
युध्यतोर्हि द्वयोर्युद्धे नैकान्तेन भवेज्जयः ॥ २७ ॥
मूलम्
अङ्के कुरुष्व राजानं धृतराष्ट्र युधिष्ठिरम्।
युध्यतोर्हि द्वयोर्युद्धे नैकान्तेन भवेज्जयः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज धृतराष्ट्र! आप राजा युधिष्ठिरको अपनी गोदमें बैठा लीजिये; क्योंकि जब दोनों पक्षोंमें युद्ध छिड़ जायगा, तब विजय किसकी होगी, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि विदुरवाक्ये चतुःषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें विदुरवाक्यविषयक चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६४॥