०५९ श्रीकृष्णवाक्यकथने

भागसूचना

एकोनषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

संजयका धृतराष्ट्रके पूछनेपर उन्हें श्रीकृष्ण और अर्जुनके अन्तःपुरमें कहे हुए संदेश सुनाना

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदब्रूतां महात्मानौ वासुदेवधनंजयौ ।
तन्मे ब्रूहि महाप्राज्ञ शुश्रूषे वचनं तव ॥ १ ॥

मूलम्

यदब्रूतां महात्मानौ वासुदेवधनंजयौ ।
तन्मे ब्रूहि महाप्राज्ञ शुश्रूषे वचनं तव ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— महाप्राज्ञ संजय! महात्मा भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने जो कुछ कहा हो, वह मुझे बताओ; मैं तुम्हारे मुखसे उनके संदेश सुनना चाहता हूँ॥१॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन् यथा दृष्टौ मया कृष्णधनंजयौ।
ऊचतुश्चापि यद्‌ वीरौ तत् ते वक्ष्यामि भारत ॥ २ ॥

मूलम्

शृणु राजन् यथा दृष्टौ मया कृष्णधनंजयौ।
ऊचतुश्चापि यद्‌ वीरौ तत् ते वक्ष्यामि भारत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— भरतवंशी नरेश! सुनिये। मैंने वीरवर श्रीकृष्ण और अर्जुनको जैसे देखा है और उन्होंने जो संदेश दिया है, वह आपको बता रहा हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादाङ्‌गुलीरभिप्रेक्षन् प्रयतोऽहं कृताञ्जलिः ।
शुद्धान्तं प्राविशं राजन्नाख्यातुं नरदेवयोः ॥ ३ ॥

मूलम्

पादाङ्‌गुलीरभिप्रेक्षन् प्रयतोऽहं कृताञ्जलिः ।
शुद्धान्तं प्राविशं राजन्नाख्यातुं नरदेवयोः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं नरदेव श्रीकृष्ण और अर्जुनसे आपका संदेश सुनानेके लिये मनको पूर्णतः संयममें रखकर अपने पैरोंकी अंगुलियोंपर ही दृष्टि लगाये और हाथ जोड़े हुए उनके अन्तःपुरमें गया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवाभिमन्युर्न यमौ तं देशमभियान्ति वै।
यत्र कृष्णौ च कृष्णा च सत्यभामा च भामिनी॥४॥

मूलम्

नैवाभिमन्युर्न यमौ तं देशमभियान्ति वै।
यत्र कृष्णौ च कृष्णा च सत्यभामा च भामिनी॥४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ श्रीकृष्ण, अर्जुन, द्रौपदी और मानिनी सत्यभामा विराज रही थीं, उस स्थानमें कुमार अभिमन्यु तथा नकुल-सहदेव भी नहीं जा सकते थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ मध्वासवक्षीबावुभौ चन्दनरूषितौ ।
स्रग्विणौ वरवस्त्रौ तौ दिव्याभरणभूषितौ ॥ ५ ॥

मूलम्

उभौ मध्वासवक्षीबावुभौ चन्दनरूषितौ ।
स्रग्विणौ वरवस्त्रौ तौ दिव्याभरणभूषितौ ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों मित्र मधुर पेय पीकर आनन्दविभोर हो रहे थे। उन दोनोंके श्रीअंग चन्दनसे चर्चित थे। वे सुन्दर वस्त्र और मनोहर पुष्पमाला धारण करके दिव्य आभूषणोंसे विभूषित थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैकरत्नविचित्रं तु काञ्चनं महदासनम्।
विविधास्तरणाकीर्णं यत्रासातामरिंदमौ ॥ ६ ॥

मूलम्

नैकरत्नविचित्रं तु काञ्चनं महदासनम्।
विविधास्तरणाकीर्णं यत्रासातामरिंदमौ ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंका दमन करनेवाले वे दोनों वीर जिस विशाल आसनपर बैठे थे, वह सोनेका बना हुआ था। उसमें अनेक प्रकारके रत्न जटित होनेके कारण उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। उसपर भाँति-भाँतिके सुन्दर बिछौने बिछे हुए थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनोत्सङ्गगौ पादौ केशवस्योपलक्षये ।
अर्जुनस्य च कृष्णायां सत्यायां च महात्मनः ॥ ७ ॥

मूलम्

अर्जुनोत्सङ्गगौ पादौ केशवस्योपलक्षये ।
अर्जुनस्य च कृष्णायां सत्यायां च महात्मनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने देखा, श्रीकृष्णके दोनों चरण अर्जुनकी गोदमें थे और महात्मा अर्जुनका एक पैर द्रौपदीकी तथा दूसरा सत्यभामाकी गोदमें था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काञ्चनं पादपीठं तु पार्थो मे प्रादिशत् तदा।
तदहं पाणिना स्पृष्ट्वा ततो भूमावुपाविशम् ॥ ८ ॥

मूलम्

काञ्चनं पादपीठं तु पार्थो मे प्रादिशत् तदा।
तदहं पाणिना स्पृष्ट्वा ततो भूमावुपाविशम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार अर्जुनने उस समय मुझे बैठनेके लिये एक सोनेके पादपीठ (पैर रखनेके पीढ़े)-की ओर संकेत कर दिया। परंतु मैं हाथसे उसका स्पर्शमात्र करके पृथ्वीपर ही बैठ गया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वरेखातलौ पादौ पार्थस्य शुभलक्षणौ।
पादपीठादपहृतौ तत्रापश्यमहं शुभौ ॥ ९ ॥

मूलम्

ऊर्ध्वरेखातलौ पादौ पार्थस्य शुभलक्षणौ।
पादपीठादपहृतौ तत्रापश्यमहं शुभौ ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बैठ जानेपर वहाँ मैंने पादपीठसे हटाये हुए अर्जुनके दोनों सुन्दर चरणोंको (ध्यानपूर्वक) देखा। उनके तलुओंमें ऊर्ध्वगामिनी रेखाएँ दृष्टिगोचर हो रही थीं और वे दोनों पैर शुभसूचक विविध लक्षणोंसे सम्पन्न थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्यामौ बृहन्तौ तरुणौ शालस्कन्धाविवोद्‌गतौ।
एकासनगतौ दृष्ट्वा भयं मां महदाविशत् ॥ १० ॥

मूलम्

श्यामौ बृहन्तौ तरुणौ शालस्कन्धाविवोद्‌गतौ।
एकासनगतौ दृष्ट्वा भयं मां महदाविशत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों श्यामवर्ण, बड़े डील-डौलवाले, तरुण तथा शालवृक्षके स्कन्धोंके समान उन्नत हैं। उन दोनोंको एक आसनपर बैठे देख मेरे मनमें बड़ा भय समा गया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रविष्णुसमावेतौ मन्दात्मा नावबुद्ध्यते ।
संश्रयाद् द्रोणभीष्माभ्यां कर्णस्य च विकत्थनात् ॥ ११ ॥

मूलम्

इन्द्रविष्णुसमावेतौ मन्दात्मा नावबुद्ध्यते ।
संश्रयाद् द्रोणभीष्माभ्यां कर्णस्य च विकत्थनात् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने सोचा, इन्द्र और विष्णुके समान अचिन्त्य शक्तिशाली इन दोनों वीरोंको मन्दबुद्धि दुर्योधन नहीं समझ पाता है। वह द्रोणाचार्य और भीष्मका भरोसा करके तथा कर्णकी डींगभरी बातें सुनकर मोहित हो रहा है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निदेशस्थाविमौ यस्य मानसस्तस्य सेत्स्यते।
संकल्पो धर्मराजस्य निश्चयो मे तदाभवत् ॥ १२ ॥

मूलम्

निदेशस्थाविमौ यस्य मानसस्तस्य सेत्स्यते।
संकल्पो धर्मराजस्य निश्चयो मे तदाभवत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये दोनों महात्मा जिनकी आज्ञाका पालन करनेके लिये सदा उद्यत रहते हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिरका मानसिक संकल्प अवश्य सिद्ध होगा; यही उस समय मेरा निश्चय हुआ था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्कृतश्चान्नपानाभ्यामासीनो लब्धसत्क्रियः ।
अञ्जलिं मूर्ध्नि संधाय तौ संदेशमचोदयम् ॥ १३ ॥

मूलम्

सत्कृतश्चान्नपानाभ्यामासीनो लब्धसत्क्रियः ।
अञ्जलिं मूर्ध्नि संधाय तौ संदेशमचोदयम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् अन्न और जलके द्वारा मेरा सत्कार किया गया। यथोचित आदर-सत्कार पाकर जब मैं बैठा, तब माथेपर अंजलि जोड़कर मैंने उन दोनोंसे आपका संदेश कह सुनाया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुर्गुणकिणाङ्केन पाणिना शुभलक्षणम् ।
पादमानमयन् पार्थः केशवं समचोदयत् ॥ १४ ॥

मूलम्

धनुर्गुणकिणाङ्केन पाणिना शुभलक्षणम् ।
पादमानमयन् पार्थः केशवं समचोदयत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुनने जिसमें धनुषकी डोरीकी रगड़से चिह्न बन गया था, उस हाथसे भगवान् श्रीकृष्णके शुभसूचक लक्षणोंसे युक्त चरणको धीरे-धीरे दबाते हुए उन्हें मुझको उत्तर देनेके लिये प्रेरित किया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रकेतुरिवोत्थाय सर्वाभरणभूषितः ।
इन्द्रवीर्योपमः कृष्णः संविष्टो माभ्यभाषत ॥ १५ ॥
वाचं स वदतां श्रेष्ठो ह्लादिनीं वचनक्षमाम्।
त्रासिनीं धार्तराष्ट्राणां मृदुपूर्वां सुदारुणाम् ॥ १६ ॥

मूलम्

इन्द्रकेतुरिवोत्थाय सर्वाभरणभूषितः ।
इन्द्रवीर्योपमः कृष्णः संविष्टो माभ्यभाषत ॥ १५ ॥
वाचं स वदतां श्रेष्ठो ह्लादिनीं वचनक्षमाम्।
त्रासिनीं धार्तराष्ट्राणां मृदुपूर्वां सुदारुणाम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर इन्द्रके समान पराक्रमी तथा समस्त आभूषणोंसे विभूषित वक्ताओंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण इन्द्रध्वजके समान उठ बैठे और मुझसे पहले तो मृदुल एवं मनको आह्लाद प्रदान करनेवाली प्रवचनयोग्य वाणी बोले। फिर वह वाणी अत्यन्त दारुणरूपमें प्रकट हुई, जो आपके पुत्रोंके लिये भय उपस्थित करनेवाली थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचं तां वचनार्हस्य शिक्षाक्षरसमन्विताम्।
अश्रौषमहमिष्टार्थां पश्चाद्धृदयहारिणीम् ॥ १७ ॥

मूलम्

वाचं तां वचनार्हस्य शिक्षाक्षरसमन्विताम्।
अश्रौषमहमिष्टार्थां पश्चाद्धृदयहारिणीम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् बातचीतमें कुशल भगवान् श्रीकृष्णकी वह वाणी मेरे सुननेमें आयी, जिसका एक-एक अक्षर शिक्षाप्रद था। वह अभीष्ट अर्थका प्रतिपादन करनेवाली तथा मनको मोह लेनेवाली थी॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजयेदं वचो ब्रूया धृतराष्ट्रं मनीषिणम्।
कुरुमुख्यस्य भीष्मस्य द्रोणस्यापि च शृण्वतः ॥ १८ ॥

मूलम्

संजयेदं वचो ब्रूया धृतराष्ट्रं मनीषिणम्।
कुरुमुख्यस्य भीष्मस्य द्रोणस्यापि च शृण्वतः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा— संजय! जब कुरुकुलके प्रधान पुरुष भीष्म तथा आचार्य द्रोण भी सुन रहे हों, उसी समय तुम बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रसे यह बात कहना॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवयोर्वचनात् सूत ज्येष्ठानप्यभिवादयन् ।
यवीयसश्च कुशलं पश्चात् पृष्ट्वैवमुत्तरम् ॥ १९ ॥

मूलम्

आवयोर्वचनात् सूत ज्येष्ठानप्यभिवादयन् ।
यवीयसश्च कुशलं पश्चात् पृष्ट्वैवमुत्तरम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूत! हम दोनोंकी ओरसे पहले तुम हमसे बड़ी अवस्थावाले श्रेष्ठ पुरुषोंको प्रणाम कहना और जो लोग अवस्थामें हमसे छोटे हों, उनकी कुशल पूछना। इसके बाद हमारा यह उत्तर सुना देना—॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजध्वं विविधैर्यज्ञैर्विप्रेभ्यो दत्त दक्षिणाः।
पुत्रैर्दारैश्च मोदध्वं महद् वो भयमागतम् ॥ २० ॥

मूलम्

यजध्वं विविधैर्यज्ञैर्विप्रेभ्यो दत्त दक्षिणाः।
पुत्रैर्दारैश्च मोदध्वं महद् वो भयमागतम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरवो! नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान आरम्भ करो, ब्राह्मणोंको दक्षिणाएँ दो, पुत्रों और स्त्रियोंसे मिल-जुलकर आनन्द भोग लो; क्योंकि तुम्हारे ऊपर बहुत बड़ा भय आ पहुँचा है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थांस्त्यजत पात्रेभ्यः सुतान् प्राप्नुत कामजान्।
प्रियं प्रियेभ्यश्चरत राजा हि त्वरते जये ॥ २१ ॥

मूलम्

अर्थांस्त्यजत पात्रेभ्यः सुतान् प्राप्नुत कामजान्।
प्रियं प्रियेभ्यश्चरत राजा हि त्वरते जये ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम सुपात्र व्यक्तियोंको धनका दान दे लो, अपनी इच्छाके अनुसार पुत्र पैदा कर लो तथा अपने प्रेमीजनोंका प्रिय कार्य सिद्ध कर लो; क्योंकि राजा युधिष्ठिर अब तुमलोगोंपर विजय पानेके लिये उतावले हो रहे हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋणमेतत् प्रवृद्धं मे हृदयान्नापसर्पति।
यद् गोविन्देति चुक्रोश कृष्णा मां दूरवासिनम् ॥ २२ ॥

मूलम्

ऋणमेतत् प्रवृद्धं मे हृदयान्नापसर्पति।
यद् गोविन्देति चुक्रोश कृष्णा मां दूरवासिनम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिस समय कौरवसभामें द्रौपदीका वस्त्र खींचा जा रहा था, मैं हस्तिनापुरसे बहुत दूर था। उस समय कृष्णाने आर्तभावसे ‘गोविन्द’ कहकर जो मुझे पुकारा था, उसका मेरे ऊपर बहुत बड़ा ऋण है और यह ऋण बढ़ता ही जा रहा है। (अपराधी कौरवोंका संहार किये बिना) उसका भार मेरे हृदयसे दूर नहीं हो सकता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजोमयं दुराधर्षं गाण्डीवं यस्य कार्मुकम्।
मद्‌द्वितीयेन तेनेह वैरं वः सव्यसाचिना ॥ २३ ॥

मूलम्

तेजोमयं दुराधर्षं गाण्डीवं यस्य कार्मुकम्।
मद्‌द्वितीयेन तेनेह वैरं वः सव्यसाचिना ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके पास अजेय तेजस्वी गाण्डीव नामक धनुष है और जिनका मित्र या सहायक दूसरा मैं हूँ, उन्हीं सव्यसाची अर्जुनके साथ यहाँ तुमने वैर बढ़ाया है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्‌द्वितीयं पुनः पार्थं कः प्रार्थयितुमिच्छति।
यो न कालपरीतो वाप्यपि साक्षात् पुरंदरः ॥ २४ ॥

मूलम्

मद्‌द्वितीयं पुनः पार्थं कः प्रार्थयितुमिच्छति।
यो न कालपरीतो वाप्यपि साक्षात् पुरंदरः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसको कालने सब ओरसे घेर न लिया हो, ऐसा कौन पुरुष, भले ही वह साक्षात् इन्द्र ही क्यों न हो, उस अर्जुनके साथ युद्ध करना चाहता है, जिसका सहायक दूसरा मैं हूँ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहुभ्यामुद्वहेद् भूमिं दहेत् क्रुद्ध इमाः प्रजाः।
पातयेत् त्रिदिवाद् देवान् योऽर्जुनं समरे जयेत् ॥ २५ ॥

मूलम्

बाहुभ्यामुद्वहेद् भूमिं दहेत् क्रुद्ध इमाः प्रजाः।
पातयेत् त्रिदिवाद् देवान् योऽर्जुनं समरे जयेत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अर्जुनको युद्धमें जीत ले, वह अपनी दोनों भुजाओंपर इस पृथ्वीको उठा सकता है, कुपित होकर इन समस्त प्रजाओंको भस्म कर सकता है, और सम्पूर्ण देवताओंको स्वर्गसे नीचे गिरा सकता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवासुरमनुष्येषु यक्षगन्धर्वभोगिषु ।
न तं पश्याम्यहं युद्धे पाण्डवं योऽभ्ययाद् रणे ॥ २६ ॥

मूलम्

देवासुरमनुष्येषु यक्षगन्धर्वभोगिषु ।
न तं पश्याम्यहं युद्धे पाण्डवं योऽभ्ययाद् रणे ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवताओं, असुरों, मनुष्यों, यक्षों, गन्धर्वों तथा नागोंमें भी मुझे कोई ऐसा वीर नहीं दिखायी देता, जो पाण्डुनन्दन अर्जुनका सामना कर सके॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तद् विराटनगरे श्रूयते महदद्भुतम्।
एकस्य च बहूनां च पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ २७ ॥

मूलम्

यत् तद् विराटनगरे श्रूयते महदद्भुतम्।
एकस्य च बहूनां च पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विराटनगरमें अकेले अर्जुन और बहुत-से कौरवोंका जो अद्भुत और महान् संग्राम सुना जाता है, वही मेरे उपर्युक्त कथनकी सत्यताका पर्याप्त प्रमाण है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकेन पाण्डुपुत्रेण विराटनगरे यदा।
भग्नाः पलायत दिशः पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ २८ ॥

मूलम्

एकेन पाण्डुपुत्रेण विराटनगरे यदा।
भग्नाः पलायत दिशः पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब विराटनगरमें एकमात्र पाण्डुकुमार अर्जुनसे पराजित हो तुमलोगोंने भागकर विभिन्न दिशाओंकी शरण ली थी, वह एक ही दृष्टान्त अर्जुनकी प्रबलताका पर्याप्त प्रमाण है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलं वीर्यं च तेजश्च शीघ्रता लघुहस्तता।
अविषादश्च धैर्यं च पार्थान्नान्यत्र विद्यते ॥ २९ ॥

मूलम्

बलं वीर्यं च तेजश्च शीघ्रता लघुहस्तता।
अविषादश्च धैर्यं च पार्थान्नान्यत्र विद्यते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बल, पराक्रम, तेज, शीघ्रकारिता, हाथोंकी फुर्ती, विषादहीनता तथा धैर्य—ये सभी सद्‌गुण कुन्तीपुत्र अर्जुनके सिवा (एक साथ) दूसरे किसी पुरुषमें नहीं हैं’॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यब्रवीद्‌धृषीकेशः पार्थमुद्धर्षयन् गिरा ।
गर्जन् समयवर्षीव गगने पाकशासनः ॥ ३० ॥

मूलम्

इत्यब्रवीद्‌धृषीकेशः पार्थमुद्धर्षयन् गिरा ।
गर्जन् समयवर्षीव गगने पाकशासनः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे इन्द्र आकाशमें गर्जता हुआ समयपर वर्षा करता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको अपनी वाणीसे आनन्दित करते हुए उपर्युक्त बात कही॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशवस्य वचः श्रुत्वा किरीटी श्वेतवाहनः।
अर्जुनस्तन्महद् वाक्यमब्रवीद् रोमहर्षणम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

केशवस्य वचः श्रुत्वा किरीटी श्वेतवाहनः।
अर्जुनस्तन्महद् वाक्यमब्रवीद् रोमहर्षणम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णका वचन सुनकर किरीटधारी श्वेतवाहन अर्जुनने भी उसी रोमांचकारी महावाक्यको दुहरा दिया॥३१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि संजयेन श्रीकृष्णवाक्यकथने एकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें संजयद्वारा श्रीकृष्णके संदेशका कथनविषयक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५९॥