भागसूचना
अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्रका दुर्योधनको संधिके लिये समझाना, दुर्योधनका अहंकारपूर्वक पाण्डवोंसे युद्ध करनेका ही निश्चय तथा धृतराष्ट्रका अन्य योद्धाओंको युद्धसे भय दिखाना
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रतेजा ब्रह्मचारी कौमारादपि पाण्डवः।
तेन संयुगमेष्यन्ति मन्दा विलपतो मम ॥ १ ॥
मूलम्
क्षत्रतेजा ब्रह्मचारी कौमारादपि पाण्डवः।
तेन संयुगमेष्यन्ति मन्दा विलपतो मम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— संजय! पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर क्षात्र-तेजसे सम्पन्न हैं। उन्होंने कुमारावस्थासे ही विधि-पूर्वक ब्रह्मचर्यका पालन किया है, परंतु मेरे ये मूर्ख पुत्र मेरे विलापकी ओर ध्यान न देकर उन्हीं युधिष्ठिरके साथ युद्ध छेड़नेवाले हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधन निवर्तस्व युद्धाद् भरतसत्तम।
न हि युद्धं प्रशंसन्ति सर्वावस्थमरिंदम ॥ २ ॥
मूलम्
दुर्योधन निवर्तस्व युद्धाद् भरतसत्तम।
न हि युद्धं प्रशंसन्ति सर्वावस्थमरिंदम ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतकुलभूषण शत्रुदमन दुर्योधन! तुम युद्धसे निवृत्त हो जाओ। श्रेष्ठ पुरुष किसी भी दशामें युद्धकी प्रशंसा नहीं करते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलमर्धं पृथिव्यास्ते सहामात्यस्य जीवितुम्।
प्रयच्छ पाण्डुपुत्राणां यथोचितमरिंदम ॥ ३ ॥
मूलम्
अलमर्धं पृथिव्यास्ते सहामात्यस्य जीवितुम्।
प्रयच्छ पाण्डुपुत्राणां यथोचितमरिंदम ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंका दमन करनेवाले वीर! तुम पाण्डवोंको उनका यथोचित राज्यभाग दे दो। बेटा! मन्त्रियों-सहित तुम्हारे जीवननिर्वाहके लिये तो आधा राज्य ही पर्याप्त है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद्धि कुरवः सर्वे मन्यन्ते धर्मसंहितम्।
यत् त्वं प्रशान्तिं मन्येथाः पाण्डुपुत्रैर्महात्मभिः ॥ ४ ॥
मूलम्
एतद्धि कुरवः सर्वे मन्यन्ते धर्मसंहितम्।
यत् त्वं प्रशान्तिं मन्येथाः पाण्डुपुत्रैर्महात्मभिः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त कौरव यही धर्मानुकूल समझते हैं कि तुम महात्मा पाण्डवोंके साथ (संधि करके आपसमें) शान्ति बनाये रखनेकी बात स्वीकार कर लो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गेमां समवेक्षस्व पुत्र स्वामेव वाहिनीम्।
जात एष तवाभावस्त्वं तु मोहान्न बुध्यसे ॥ ५ ॥
मूलम्
अङ्गेमां समवेक्षस्व पुत्र स्वामेव वाहिनीम्।
जात एष तवाभावस्त्वं तु मोहान्न बुध्यसे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स! तुम इस अपनी ही सेनाकी ओर दृष्टिपात करो। यह तुम्हारा विनाशकाल ही उपस्थित हुआ है, परंतु तुम मोहवश इस बातको समझ नहीं रहे हो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वहं युद्धमिच्छामि नैतदिच्छति बाह्लिकः।
न च भीष्मो न च द्रोणो नाश्वत्थामा न संजयः॥६॥
न सोमदत्तो न शलो न कृपो युद्धमिच्छति।
सत्यव्रतः पुरुमित्रो जयो भूरिश्रवास्तथा ॥ ७ ॥
मूलम्
न त्वहं युद्धमिच्छामि नैतदिच्छति बाह्लिकः।
न च भीष्मो न च द्रोणो नाश्वत्थामा न संजयः॥६॥
न सोमदत्तो न शलो न कृपो युद्धमिच्छति।
सत्यव्रतः पुरुमित्रो जयो भूरिश्रवास्तथा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, न तो मैं युद्ध करना चाहता हूँ, न बाह्लीक इसकी इच्छा रखते हैं और न भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा, संजय, सोमदत्त, शल तथा कृपाचार्य ही युद्ध करना चाहते हैं। सत्यव्रत, पुरुमित्र, जय और भूरिश्रवा भी युद्धके पक्षमें नहीं हैं॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषु सम्प्रतितिष्ठेयुः कुरवः पीडिताः परैः।
ते युद्धं नाभिनन्दन्ति तत् तुभ्यं तात रोचताम् ॥ ८ ॥
मूलम्
येषु सम्प्रतितिष्ठेयुः कुरवः पीडिताः परैः।
ते युद्धं नाभिनन्दन्ति तत् तुभ्यं तात रोचताम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंसे पीड़ित होनेपर कौरवसैनिक जिनके आश्रयमें खड़े हो सकते हैं, वे ही लोग युद्धका अनुमोदन नहीं कर रहे हैं। तात! उनके इस विचारको तुम्हें भी पसंद करना चाहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वं करोषि कामेन कर्णः कारयिता तव।
दुःशासनश्च पापात्मा शकुनिश्चापि सौबलः ॥ ९ ॥
मूलम्
न त्वं करोषि कामेन कर्णः कारयिता तव।
दुःशासनश्च पापात्मा शकुनिश्चापि सौबलः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मैं जानता हूँ,) तुम अपनी इच्छासे युद्ध नहीं कर रहे हो, अपितु पापात्मा दुःशासन, कर्ण तथा सुबल-पुत्र शकुनि ही तुमसे यह कार्य करा रहे हैं॥९॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं भवति न द्रोणे नाश्वत्थाम्नि न संजये।
न भीष्मे न च काम्बोजे न कृपे न च बाह्लिके॥१०॥
सत्यव्रते पुरुमित्रे भूरिश्रवसि वा पुनः।
अन्येषु वा तावकेषु भारं कृत्वा समाह्वयम् ॥ ११ ॥
मूलम्
नाहं भवति न द्रोणे नाश्वत्थाम्नि न संजये।
न भीष्मे न च काम्बोजे न कृपे न च बाह्लिके॥१०॥
सत्यव्रते पुरुमित्रे भूरिश्रवसि वा पुनः।
अन्येषु वा तावकेषु भारं कृत्वा समाह्वयम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— पिताजी! मैंने आप, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, संजय, भीष्म, काम्बोजनरेश, कृपाचार्य, बाह्लीक, सत्यव्रत, पुरुमित्र, भूरिश्रवा अथवा आपके अन्यान्य योद्धाओंपर सारा बोझ रखकर पाण्डवोंको युद्धके लिये आमन्त्रित नहीं किया है॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं च तात कर्णश्च रणयज्ञं वितत्य वै।
युधिष्ठिरं पशुं कृत्वा दीक्षितौ भरतर्षभ ॥ १२ ॥
मूलम्
अहं च तात कर्णश्च रणयज्ञं वितत्य वै।
युधिष्ठिरं पशुं कृत्वा दीक्षितौ भरतर्षभ ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! भरतश्रेष्ठ! मैंने तथा कर्णने रणयज्ञका विस्तार करके युधिष्ठिरको बलिपशु बनाकर उस यज्ञकी दीक्षा ले ली है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथो वेदी स्रुवः खड्गो गदा स्रुक् कवचोऽजिनम्।
चातुर्होत्रं च धुर्या मे शरा दर्भा हविर्यशः ॥ १३ ॥
मूलम्
रथो वेदी स्रुवः खड्गो गदा स्रुक् कवचोऽजिनम्।
चातुर्होत्रं च धुर्या मे शरा दर्भा हविर्यशः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें रथ ही वेदी है, खड्ग स्रुवा है, गदा स्रुक् है, कवच मृगचर्म है, रथका भार वहन करनेवाले मेरे चारों घोड़े ही चार होता हैं, बाण कुश हैं और यश ही हविष्य है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मयज्ञेन नृपते इष्ट्वा वैवस्वतं रणे।
विजित्य च समेष्यावो हतामित्रौ श्रिया वृतौ ॥ १४ ॥
मूलम्
आत्मयज्ञेन नृपते इष्ट्वा वैवस्वतं रणे।
विजित्य च समेष्यावो हतामित्रौ श्रिया वृतौ ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! हम दोनों समरांगणमें अपने इस यज्ञके द्वारा यमराजका यजन करके शत्रुओंको मारकर विजयी हो विजयलक्ष्मीसे शोभा पाते हुए पुनः राजधानीमें लौटेंगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं च तात कर्णश्च भ्राता दुःशासनश्च मे।
एते वयं हनिष्यामः पाण्डवान् समरे त्रयः ॥ १५ ॥
मूलम्
अहं च तात कर्णश्च भ्राता दुःशासनश्च मे।
एते वयं हनिष्यामः पाण्डवान् समरे त्रयः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! मैं, कर्ण तथा भाई दुःशासन—हम तीन ही समरभूमिमें पाण्डवोंका संहार कर डालेंगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि पाण्डवान् हत्वा प्रशास्ता पृथिवीमिमाम्।
मां वा हत्वा पाण्डुपुत्रा भोक्तारः पृथिवीमिमाम् ॥ १६ ॥
मूलम्
अहं हि पाण्डवान् हत्वा प्रशास्ता पृथिवीमिमाम्।
मां वा हत्वा पाण्डुपुत्रा भोक्तारः पृथिवीमिमाम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
या तो मैं ही पाण्डवोंको मारकर इस पृथ्वीका शासन करूँगा या पाण्डव ही मुझे मारकर भूमण्डलका राज्य भोगेंगे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्तं मे जीवितं राज्यं धनं सर्वं च पार्थिव।
न जातु पाण्डवैः सार्धं वसेयमहमच्युत ॥ १७ ॥
मूलम्
त्यक्तं मे जीवितं राज्यं धनं सर्वं च पार्थिव।
न जातु पाण्डवैः सार्धं वसेयमहमच्युत ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राज्यच्युत न होनेवाले महाराज! मैं जीवन, राज्य, धन—सब कुछ छोड़ सकता हूँ, परंतु पाण्डवोंके साथ मिलकर कदापि नहीं रह सकता॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावद्धि सूच्यास्तीक्ष्णाया विध्येदग्रेण मारिष।
तावदप्यपरित्याज्यं भूमेर्नः पाण्डवान् प्रति ॥ १८ ॥
मूलम्
यावद्धि सूच्यास्तीक्ष्णाया विध्येदग्रेण मारिष।
तावदप्यपरित्याज्यं भूमेर्नः पाण्डवान् प्रति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूज्य पिताजी! तीखी सूईके अग्रभागसे जितनी भूमि बिंध सकती है, उतनी भी मैं पाण्डवोंको नहीं दे सकता॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वान् वस्तात शोचामि त्यक्तो दुर्योधनो मया।
ये मन्दमनुयास्यध्वं यान्तं वैवस्वतक्षयम् ॥ १९ ॥
मूलम्
सर्वान् वस्तात शोचामि त्यक्तो दुर्योधनो मया।
ये मन्दमनुयास्यध्वं यान्तं वैवस्वतक्षयम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— तात कौरवगण! दुर्योधनको तो मैंने त्याग दिया। यमलोकको जाते हुए उस मूर्खका तुम लोगोंमेंसे जो अनुसरण करेंगे मैं उन सभी लोगोंके लिये शोकमें पड़ा हूँ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुरूणामिव यूथेषु व्याघ्राः प्रहरतां वराः।
वरान् वरान् हनिष्यन्ति समेता युधि पाण्डवाः ॥ २० ॥
मूलम्
रुरूणामिव यूथेषु व्याघ्राः प्रहरतां वराः।
वरान् वरान् हनिष्यन्ति समेता युधि पाण्डवाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रहार करनेवालोंमें श्रेष्ठ व्याघ्र जैसे रुरु नामक मृगोंके झुंडोंमें घुसकर बड़ों-बड़ोंको मार डालते हैं, उसी प्रकार योद्धाओंमें अग्रगण्य पाण्डव युद्धमें एकत्र होकर कौरवोंके प्रधान-प्रधान वीरोंका वध कर डालेंगे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतीपमिव मे भाति युयुधानेन भारती।
व्यस्ता सीमन्तिनी ग्रस्ता प्रमृष्टा दीर्घबाहुना ॥ २१ ॥
मूलम्
प्रतीपमिव मे भाति युयुधानेन भारती।
व्यस्ता सीमन्तिनी ग्रस्ता प्रमृष्टा दीर्घबाहुना ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पुरुषसे तिरस्कृत हुई नारीकी भाँति इस भरतवंशियोंकी सेनाको विशाल बाँहोंवाले वीर सात्यकिने अपने अधिकारमें करके रौंद डाला है और वह अब विपरीत दिशाकी ओर अस्त-व्यस्त दशामें भागी जा रही है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्पूर्णं पूरयन् भूयो धनं पार्थस्य माधवः।
शैनेयः समरे स्थाता बीजवत् प्रवपञ्शरान् ॥ २२ ॥
मूलम्
सम्पूर्णं पूरयन् भूयो धनं पार्थस्य माधवः।
शैनेयः समरे स्थाता बीजवत् प्रवपञ्शरान् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधुवंशी सात्यकि युधिष्ठिरके भरे-पूरे बल-वैभवको और भी बढ़ाते हुए, जैसे किसान खेतोंमें बीज बोता है, उसी प्रकार समरभूमिमें बाण बिखेरते हुए खड़े होंगे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेनामुखे प्रयुद्धानां भीमसेनो भविष्यति।
तं सर्वे संश्रयिष्यन्ति प्राकारमकुतोभयम् ॥ २३ ॥
मूलम्
सेनामुखे प्रयुद्धानां भीमसेनो भविष्यति।
तं सर्वे संश्रयिष्यन्ति प्राकारमकुतोभयम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनामें समस्त पाण्डव योद्धाओंके आगे भीमसेन खड़े होंगे और समस्त योद्धा उन्हें भयरहित प्राकार (चहारदीवारी)-के समान मानकर उन्हींका आश्रय लेंगे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा द्रक्ष्यसि भीमेन कुञ्जरान् विनिपातितान्।
विशीर्णदन्तान् गिर्याभान् भिन्नकुम्भान् सशोणितान् ॥ २४ ॥
तानभिप्रेक्ष्य संग्रामे विशीर्णानिव पर्वतान्।
भीतो भीमस्य संस्पर्शात् स्मर्तासि वचनस्य मे ॥ २५ ॥
मूलम्
यदा द्रक्ष्यसि भीमेन कुञ्जरान् विनिपातितान्।
विशीर्णदन्तान् गिर्याभान् भिन्नकुम्भान् सशोणितान् ॥ २४ ॥
तानभिप्रेक्ष्य संग्रामे विशीर्णानिव पर्वतान्।
भीतो भीमस्य संस्पर्शात् स्मर्तासि वचनस्य मे ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब तुम देखोगे कि भीमसेनने पर्वताकार गजराजोंके दाँत तोड़ एवं कुम्भस्थल विदीर्ण करके उन्हें रक्तरंजित दशामें धराशायी कर दिया है और वे रणभूमिमें टूट-फूटकर गिरे हुए पर्वतोंके समान दृष्टिगोचर हो रहे हैं, तब उन सबपर दृष्टिपात करके भीमसेनके स्पर्शसे भी भयभीत होकर मेरी कही हुई बातोंको याद करोगे॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्दग्धं भीमसेनेन सैन्यं रथहयद्विपम्।
गतिमग्नेरिव प्रेक्ष्य स्मर्तासि वचनस्य मे ॥ २६ ॥
मूलम्
निर्दग्धं भीमसेनेन सैन्यं रथहयद्विपम्।
गतिमग्नेरिव प्रेक्ष्य स्मर्तासि वचनस्य मे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन जब घोड़े, रथ और हाथियोंसे भरी हुई सारी कौरव-सेनाको अपनी क्रोधाग्निसे दग्ध करने लगेंगे, उस समय अग्निके समान उनका प्रबल वेग देखकर तुम्हें मेरी बातें याद आयेंगी॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महद् वो भयमागामि न चेच्छाम्यथ पाण्डवैः।
गदया भीमसेनेन हताः शममुपैष्यथ ॥ २७ ॥
मूलम्
महद् वो भयमागामि न चेच्छाम्यथ पाण्डवैः।
गदया भीमसेनेन हताः शममुपैष्यथ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमलोगोंपर बहुत बड़ा भय आनेवाला है। मैं नहीं चाहता कि पाण्डवोंके साथ तुम्हारा युद्ध हो। यदि हो गया तो तुमलोग भीमसेनकी गदासे मारे जाकर सदाके लिये शान्त हो जाओगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महावनमिवच्छिन्नं यदा द्रक्ष्यसि पातितम्।
बलं कुरूणां भीमेन तदा स्मर्तासि मे वचः ॥ २८ ॥
मूलम्
महावनमिवच्छिन्नं यदा द्रक्ष्यसि पातितम्।
बलं कुरूणां भीमेन तदा स्मर्तासि मे वचः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काटकर गिराये हुए विशाल वनकी भाँति जब तुम कौरवसेनाको भीमसेनके द्वारा मार गिरायी हुई देखोगे, तब तुम्हें मेरे वचनोंका स्मरण हो आयेगा॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदुक्त्वा राजा तु सर्वांस्तान् पृथिवीपतीन्।
अनुभाष्य महाराज पुनः पप्रच्छ संजयम् ॥ २९ ॥
मूलम्
एतावदुक्त्वा राजा तु सर्वांस्तान् पृथिवीपतीन्।
अनुभाष्य महाराज पुनः पप्रच्छ संजयम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज जनमेजय! राजा धृतराष्ट्रने वहाँ बैठे हुए समस्त भूपालोंसे उपर्युक्त बातें कहकर उन्हें समझा-बुझाकर पुनः संजयसे पूछा॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि धृतराष्ट्रवाक्येऽष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें धृतराष्ट्रवाक्यविषयक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५८॥