०५६ संजयवाक्ये

भागसूचना

षट्‌पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

संजयद्वारा अर्जुनके ध्वज एवं अश्वोंका तथा युधिष्ठिर आदिके घोड़ोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षौहिणीः सप्त लब्ध्वा राजभिः सह संजय।
किंस्विदिच्छति कौन्तेयो युद्धप्रेप्सुर्युधिष्ठिरः ॥ १ ॥

मूलम्

अक्षौहिणीः सप्त लब्ध्वा राजभिः सह संजय।
किंस्विदिच्छति कौन्तेयो युद्धप्रेप्सुर्युधिष्ठिरः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनने पूछा— संजय! यह तो बताओ, सात अक्षौहिणी सेना पाकर राजाओंसहित कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर युद्धकी इच्छासे अब कौन-सा कार्य करना चाहते हैं?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव मुदितो राजन् युद्धप्रेप्सुर्युधिष्ठिरः।
भीमसेनार्जुनौ चोभौ यमावपि न बिभ्यतः ॥ २ ॥

मूलम्

अतीव मुदितो राजन् युद्धप्रेप्सुर्युधिष्ठिरः।
भीमसेनार्जुनौ चोभौ यमावपि न बिभ्यतः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! युधिष्ठिर युद्धकी अभिलाषा लेकर मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हो रहे हैं। भीमसेन, अर्जुन तथा दोनों भाई नकुल-सहदेव भी भयभीत नहीं हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथं तु दिव्यं कौन्तेयः सर्वा विभ्राजयन् दिशः।
मन्त्रं जिज्ञासमानः सन् बीभत्सुः समयोजयत् ॥ ३ ॥

मूलम्

रथं तु दिव्यं कौन्तेयः सर्वा विभ्राजयन् दिशः।
मन्त्रं जिज्ञासमानः सन् बीभत्सुः समयोजयत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार अर्जुनने तो अस्त्रप्रयोगसम्बन्धी मन्त्रकी परीक्षाके लिये अपने दिव्य रथकी प्रभासे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते हुए उसे जोत रखा था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमपश्याम संनद्धं मेघं विद्युद्युतं यथा।
समन्तात् समभिध्याय हृष्यमाणोऽभ्यभाषत ॥ ४ ॥

मूलम्

तमपश्याम संनद्धं मेघं विद्युद्युतं यथा।
समन्तात् समभिध्याय हृष्यमाणोऽभ्यभाषत ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय स्वर्णमय कवच धारण किये अर्जुन हमें बिजलीके प्रकाशसे सुशोभित मेघके समान दिखायी दे रहे थे। उन्होंने सब ओरसे उन मन्त्रोंका सम्यक् चिन्तन करके हर्षसे उल्लसित होकर मुझसे कहा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वरूपमिदं पश्य वयं जेष्याम संजय।
बीभत्सुर्मां यथोवाच तथावैम्यहमप्युत ॥ ५ ॥

मूलम्

पूर्वरूपमिदं पश्य वयं जेष्याम संजय।
बीभत्सुर्मां यथोवाच तथावैम्यहमप्युत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संजय! हमलोग युद्धमें अवश्य विजयी होंगे। उस विजयका यह पूर्वचिह्न अभीसे प्रकट हो रहा है। तुम भी देख लो।’ राजन्! अर्जुनने मुझसे जैसा कहा था, वैसा ही मैं भी समझता हूँ॥५॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रशंसस्यभिनन्दंस्तान् पार्थानक्षपराजितान् ।
अर्जुनस्य रथे ब्रूहि कथमश्वाः कथं ध्वजाः ॥ ६ ॥

मूलम्

प्रशंसस्यभिनन्दंस्तान् पार्थानक्षपराजितान् ।
अर्जुनस्य रथे ब्रूहि कथमश्वाः कथं ध्वजाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— संजय! तुम तो जूएमें हारे हुए कुन्तीपुत्रोंका अभिनन्दन करते हुए उनकी बड़ी प्रशंसा करने लगे। बताओ तो सही, अर्जुनके रथमें कैसे घोड़े और कैसे ध्वज हैं?॥६॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भौमनः सह शक्रेण बहुचित्रं विशाम्पते।
रूपाणि कल्पयामास त्वष्टा धाता सदा विभो ॥ ७ ॥

मूलम्

भौमनः सह शक्रेण बहुचित्रं विशाम्पते।
रूपाणि कल्पयामास त्वष्टा धाता सदा विभो ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— प्रजानाथ! विश्वकर्मा त्वष्टा तथा प्रजापतिने इन्द्रके साथ मिलकर अर्जुनके रथकी ध्वजामें अनेक प्रकारके रूपोंकी रचना की है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वजे हि तस्मिन् रूपाणि चक्रुस्ते देवमायया।
महाधनानि दिव्यानि महान्ति च लघूनि च ॥ ८ ॥

मूलम्

ध्वजे हि तस्मिन् रूपाणि चक्रुस्ते देवमायया।
महाधनानि दिव्यानि महान्ति च लघूनि च ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन तीनोंने देवमायाके द्वारा उस ध्वजमें छोटी-बड़ी अनेक प्रकारकी बहुमूल्य एवं दिव्य मूर्तियोंका निर्माण किया है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनानुरोधाय हनूमान् मारुतात्मजः ।
आत्मप्रतिकृतिं तस्मिन् ध्वज आरोपयिष्यति ॥ ९ ॥

मूलम्

भीमसेनानुरोधाय हनूमान् मारुतात्मजः ।
आत्मप्रतिकृतिं तस्मिन् ध्वज आरोपयिष्यति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनके अनुरोधकी रक्षाके लिये पवननन्दन हनुमान्‌जी उस ध्वजमें युद्धके समय अपने स्वरूपको स्थापित करेंगे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वा दिशो योजनमात्रमन्तरं
स तिर्यगूर्ध्वं च रुरोध वै ध्वजः।
न सज्जतेऽसौ तरुभिः संवृतोऽपि
तथा हि माया विहिता भौमनेन ॥ १० ॥

मूलम्

सर्वा दिशो योजनमात्रमन्तरं
स तिर्यगूर्ध्वं च रुरोध वै ध्वजः।
न सज्जतेऽसौ तरुभिः संवृतोऽपि
तथा हि माया विहिता भौमनेन ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस ध्वजने एक योजनतक सम्पूर्ण दिशाओं तथा अगल-बगल एवं ऊपरके अवकाशको व्याप्त कर रखा था। विश्वकर्माने ऐसी माया रच रखी है कि वह ध्वज वृक्षोंसे आवृत अथवा अवरुद्ध होनेपर भी कहीं अटकता नहीं है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाऽऽकाशे शक्रधनुः प्रकाशते
न चैकवर्णं न च वेद्मि किं नु तत्।
तथा ध्वजो विहितो भौमनेन
बह्वाकारं दृश्यते रूपमस्य ॥ ११ ॥

मूलम्

यथाऽऽकाशे शक्रधनुः प्रकाशते
न चैकवर्णं न च वेद्मि किं नु तत्।
तथा ध्वजो विहितो भौमनेन
बह्वाकारं दृश्यते रूपमस्य ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे आकाशमें बहुरंगा इन्द्रधनुष प्रकाशित होता है और यह समझमें नहीं आता कि वह क्या है? ठीक ऐसा ही विश्वकर्माका बनाया हुआ वह रंग-बिरंगा ध्वज है। उसका रूप अनेक प्रकारका दिखायी देता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाग्निधूमो दिवमेति रुद्ध्वा
वर्णान् बिभ्रत्‌ तैजसांश्चित्ररूपान् ।
तथा ध्वजो विहितो भौमनेन
न चेद् भारो भविता नोत रोधः ॥ १२ ॥

मूलम्

यथाग्निधूमो दिवमेति रुद्ध्वा
वर्णान् बिभ्रत्‌ तैजसांश्चित्ररूपान् ।
तथा ध्वजो विहितो भौमनेन
न चेद् भारो भविता नोत रोधः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे अग्निसहित धूम विचित्र तेजोमय आकार और रंग धारण करके सब ओर फैलकर ऊपर आकाशकी ओर बढ़ता जाता है, उसी प्रकार विश्वकर्माने उस ध्वजका निर्माण किया है। उसके कारण रथपर कोई भार नहीं बढ़ता है और न उसकी गतिमें कहीं कोई रुकावट ही पैदा होती है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वेतास्तस्मिन् वातवेगाः सदश्वा
दिव्या युक्ताश्चित्ररथेन दत्ताः ।
भुव्यन्तरिक्षे दिवि वा नरेन्द्र
येषां गतिर्हीयते नात्र सर्वा।
शतं यत् तत् पूर्यते नित्यकालं
हतं हतं दत्तवरं पुरस्तात् ॥ १३ ॥

मूलम्

श्वेतास्तस्मिन् वातवेगाः सदश्वा
दिव्या युक्ताश्चित्ररथेन दत्ताः ।
भुव्यन्तरिक्षे दिवि वा नरेन्द्र
येषां गतिर्हीयते नात्र सर्वा।
शतं यत् तत् पूर्यते नित्यकालं
हतं हतं दत्तवरं पुरस्तात् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके उस रथमें वायुके समान वेगशाली दिव्य एवं उत्तम जातिके श्वेत अश्व जुते हुए हैं, जिन्हें गन्धर्वराज चित्ररथने दिया था। नरेन्द्र! पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्ग आदि किसी भी स्थानमें उन अश्वोंकी पूर्ण गति क्षीण या अवरुद्ध नहीं होती है। उस रथमें पूरे सौ घोड़े सदा जुते रहते हैं। उनमेंसे यदि कोई मारा जाता है तो पहलेके दिये हुए वरके प्रभावसे नया घोड़ा उत्पन्न होकर उसके स्थानकी पूर्ति कर देता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा राज्ञो दन्तवर्णा बृहन्तो
रथे युक्ता भान्ति तद्वीर्यतुल्याः।
ऋक्षप्रख्या भीमसेनस्य वाहा
रथे वायोस्तुल्यवेगा बभूवुः ॥ १४ ॥

मूलम्

तथा राज्ञो दन्तवर्णा बृहन्तो
रथे युक्ता भान्ति तद्वीर्यतुल्याः।
ऋक्षप्रख्या भीमसेनस्य वाहा
रथे वायोस्तुल्यवेगा बभूवुः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिरके रथमें भी वैसे ही शक्तिशाली श्वेतवर्णके विशाल अश्व जुते हुए हैं, जो अत्यन्त सुशोभित होते हैं। भीमसेनके घोड़ोंका रंग रीछके समान काला है। वे उनके रथमें जोते जानेपर वायुके समान तीव्र वेगसे चलते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल्माषाङ्गास्तित्तिरिचित्रपृष्ठा
भ्रात्रा दत्ताः प्रीयता फाल्गुनेन।
भ्रातुर्वीरस्य स्वैस्तुरङ्गैर्विशिष्टा
मुदा युक्ताः सहदेवं वहन्ति ॥ १५ ॥

मूलम्

कल्माषाङ्गास्तित्तिरिचित्रपृष्ठा
भ्रात्रा दत्ताः प्रीयता फाल्गुनेन।
भ्रातुर्वीरस्य स्वैस्तुरङ्गैर्विशिष्टा
मुदा युक्ताः सहदेवं वहन्ति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने प्रसन्न होकर अपने छोटे भाई सहदेवको जो अश्व प्रदान किये थे, जिनके सम्पूर्ण अंग विचित्र रंगके हैं और पृष्ठभाग भी तीतर पक्षीके समान चितकबरे प्रतीत होते हैं तथा जो वीर भाई अर्जुनके अपने अश्वोंकी अपेक्षा भी उत्कृष्ट हैं, ऐसे सुन्दर अश्व बड़ी प्रसन्नताके साथ सहदेवके रथका भार वहन करते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माद्रीपुत्रं नकुलं त्वाजमीढ
महेन्द्रदत्ता हरयो वाजिमुख्याः ।
समा वायोर्बलवन्तस्तरस्विनो
वहन्ति वीरं वृत्रशत्रुं यथेन्द्रम् ॥ १६ ॥

मूलम्

माद्रीपुत्रं नकुलं त्वाजमीढ
महेन्द्रदत्ता हरयो वाजिमुख्याः ।
समा वायोर्बलवन्तस्तरस्विनो
वहन्ति वीरं वृत्रशत्रुं यथेन्द्रम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अजमीढकुलनन्दन! देवराज इन्द्रके दिये हुए हरे रंगके उत्तम घोड़े, जो वायुके समान बलवान् तथा वेगवान् हैं, माद्रीकुमार वीर नकुलके रथका भार वहन करते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे पहले वे वृत्रशत्रु देवेन्द्रका भार वहन किया करते थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुल्याश्चैभिर्वयसा विक्रमेण
महाजवाश्चित्ररूपाः सदश्वाः ।
सौभद्रादीन् द्रौपदेयान् कुमारान्
वहन्त्यश्वा देवदत्ता बृहन्तः ॥ १७ ॥

मूलम्

तुल्याश्चैभिर्वयसा विक्रमेण
महाजवाश्चित्ररूपाः सदश्वाः ।
सौभद्रादीन् द्रौपदेयान् कुमारान्
वहन्त्यश्वा देवदत्ता बृहन्तः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवस्था और बल-पराक्रममें पूर्वोक्त अश्वोंके ही समान महान् वेगशाली, विचित्र रूप-रंगवाले उत्तम जातिके अश्व सुभद्रानन्दन अभिमन्युसहित द्रौपदीके पुत्रोंका भार वहन करते हैं। वे विशाल अश्व भी देवताओंके दिये हुए हैं॥१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि संजयवाक्ये षट्‌पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें संजयवाक्यविषयक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५६॥