०५५ दुर्योधनवाक्ये

भागसूचना

पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्रको धैर्य देते हुए दुर्योधनद्वारा अपने उत्कर्ष और पाण्डवोंके अपकर्षका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भेतव्यं महाराज न शोच्या भवता वयम्।
समर्थाः स्म पराञ्जेतुं बलिनः समरे विभो ॥ १ ॥

मूलम्

न भेतव्यं महाराज न शोच्या भवता वयम्।
समर्थाः स्म पराञ्जेतुं बलिनः समरे विभो ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— महाराज! आप डरें नहीं; आपके द्वारा हमलोग शोक करनेयोग्य नहीं हैं। प्रभो! हम बलवान् और शक्तिशाली हैं तथा समरभूमिमें शत्रुओंको जीतनेकी शक्ति रखते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वने प्रव्राजितान् पार्थान् यदाऽऽयान्मधुसूदनः।
महता बलचक्रेण परराष्ट्रावमर्दिना ॥ २ ॥
केकया धृष्टकेतुश्च धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
राजानश्चान्वयुः पार्थान् बहवोऽन्येऽनुयायिनः ॥ ३ ॥

मूलम्

वने प्रव्राजितान् पार्थान् यदाऽऽयान्मधुसूदनः।
महता बलचक्रेण परराष्ट्रावमर्दिना ॥ २ ॥
केकया धृष्टकेतुश्च धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
राजानश्चान्वयुः पार्थान् बहवोऽन्येऽनुयायिनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंको जब हमने वनमें भेज दिया, उस समय शत्रुओंके राष्ट्रोंको धूलमें मिला देनेवाले विशाल सैन्यसमूहके साथ श्रीकृष्ण यहाँ आये थे। उनके साथ केकयराजकुमार, धृष्टकेतु, द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न तथा और भी बहुत-से नरेश, जो पाण्डवोंके अनुयायी हैं, यहाँतक पधारे थे॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रप्रस्थस्य चादूरात् समाजग्मुर्महारथाः ।
व्यगर्हयंश्च संगम्य भवन्तं कुरुभिः सह ॥ ४ ॥

मूलम्

इन्द्रप्रस्थस्य चादूरात् समाजग्मुर्महारथाः ।
व्यगर्हयंश्च संगम्य भवन्तं कुरुभिः सह ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी महारथी इन्द्रप्रस्थके निकटतक आये और परस्पर मिलकर समस्त कौरवोंसहित आपकी निन्दा करने लगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते युधिष्ठिरमासीनमजिनैः प्रतिवासितम् ।
कृष्णप्रधानाः संहत्य पर्युपासन्त भारत ॥ ५ ॥
प्रत्यादानं च राज्यस्य कार्यमूचुर्नराधिपाः।
भवतः सानुबन्धस्य समुच्छेदं चिकीर्षवः ॥ ६ ॥

मूलम्

ते युधिष्ठिरमासीनमजिनैः प्रतिवासितम् ।
कृष्णप्रधानाः संहत्य पर्युपासन्त भारत ॥ ५ ॥
प्रत्यादानं च राज्यस्य कार्यमूचुर्नराधिपाः।
भवतः सानुबन्धस्य समुच्छेदं चिकीर्षवः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वे नरेश श्रीकृष्णकी प्रधानतामें संगठित हो वनमें विराजमान मृगचर्मधारी युधिष्ठिरके समीप जाकर बैठे और सगे-सम्बन्धियोंसहित आपका मूलोच्छेद कर डालनेकी इच्छा रखकर कहने लगे—‘धृतराष्ट्रके हाथसे राज्यको लौटा लेना ही कर्तव्य है’॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा चैवं मयोक्तास्तु भीष्मद्रोणकृपास्तदा।
ज्ञातिक्षयभयाद् राजन् भीतेन भरतर्षभ ॥ ७ ॥
न ते स्थास्यन्ति समये पाण्डवा इति मे मतिः।
समुच्छेदं हि नः कृत्स्नं वासुदेवश्चिकीर्षति ॥ ८ ॥

मूलम्

श्रुत्वा चैवं मयोक्तास्तु भीष्मद्रोणकृपास्तदा।
ज्ञातिक्षयभयाद् राजन् भीतेन भरतर्षभ ॥ ७ ॥
न ते स्थास्यन्ति समये पाण्डवा इति मे मतिः।
समुच्छेदं हि नः कृत्स्नं वासुदेवश्चिकीर्षति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उनके इस निश्चयको सुनकर मैंने कुटुम्बीजनोंके वधकी आशंकासे भयभीत हो भीष्म, द्रोण और कृपाचार्यसे इस प्रकार निवेदन किया—‘तात! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पाण्डवलोग अपनी प्रतिज्ञापर स्थिर नहीं रहेंगे; क्योंकि वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण हम सब लोगोंका पूर्णतः विनाश कर डालना चाहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋते च विदुरात् सर्वे यूयं वध्या मता मम।
धृतराष्ट्रस्तु धर्मज्ञो न वध्यः कुरुसत्तमः ॥ ९ ॥

मूलम्

ऋते च विदुरात् सर्वे यूयं वध्या मता मम।
धृतराष्ट्रस्तु धर्मज्ञो न वध्यः कुरुसत्तमः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘केवल विदुरजीको छोड़कर आप सब लोग मार डालनेके योग्य समझे गये हैं, यह बात मुझे मालूम हुई है। कुरुश्रेष्ठ धृतराष्ट्र धर्मज्ञ हैं, यह सोचकर उनका भी वध नहीं किया जायगा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुच्छेदं च कृत्स्नं नः कृत्वा तात जनार्दनः।
एकराज्यं कुरूणां स्म चिकीर्षति युधिष्ठिरे ॥ १० ॥

मूलम्

समुच्छेदं च कृत्स्नं नः कृत्वा तात जनार्दनः।
एकराज्यं कुरूणां स्म चिकीर्षति युधिष्ठिरे ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! श्रीकृष्ण हमारा सर्वनाश करके कौरवोंका एक राज्य बनाकर उसे युधिष्ठिरको सौंपना चाहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र किं प्राप्तकालं नः प्रणिपातः पलायनम्।
प्राणान् वा सम्परित्यज्य प्रतियुध्यामहे परान् ॥ ११ ॥

मूलम्

तत्र किं प्राप्तकालं नः प्रणिपातः पलायनम्।
प्राणान् वा सम्परित्यज्य प्रतियुध्यामहे परान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐसी अवस्थामें इस समय हमारा क्या कर्तव्य है? हम उनके चरणोंपर गिरें, पीठ दिखाकर भाग जायँ अथवा प्राणोंका मोह छोड़कर शत्रुओंका सामना करें॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतियुद्धे तु नियतः स्यादस्माकं पराजयः।
युधिष्ठिरस्य सर्वे हि पार्थिवा वशवर्तिनः ॥ १२ ॥
विरक्तराष्ट्राश्च वयं मित्राणि कुपितानि नः।
धिक्कृताः पार्थिवैः सर्वैः स्वजनेन च सर्वशः ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रतियुद्धे तु नियतः स्यादस्माकं पराजयः।
युधिष्ठिरस्य सर्वे हि पार्थिवा वशवर्तिनः ॥ १२ ॥
विरक्तराष्ट्राश्च वयं मित्राणि कुपितानि नः।
धिक्कृताः पार्थिवैः सर्वैः स्वजनेन च सर्वशः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उनके साथ युद्ध होनेपर हमारी पराजय निश्चित है; क्योंकि इस समय समस्त भूपाल राजा युधिष्ठिरके अधीन हैं। इस राज्यमें रहनेवाले सब लोग हमसे घृणा करते हैं। हमारे मित्र भी कुपित हो गये हैं। सम्पूर्ण नरेश और आत्मीयजन सभी हमें धिक्कार रहे हैं॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणिपाते न दोषोऽस्ति सन्धिर्नः शाश्वतीः समाः।
पितरं त्वेव शोचामि प्रज्ञानेत्रं जनाधिपम् ॥ १४ ॥

मूलम्

प्रणिपाते न दोषोऽस्ति सन्धिर्नः शाश्वतीः समाः।
पितरं त्वेव शोचामि प्रज्ञानेत्रं जनाधिपम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘(मैं समझता हूँ,) इस समय नतमस्तक हो जानेमें कोई दोष नहीं है। इससे हमलोगोंमें सदाके लिये शान्ति हो जायगी, केवल अपने प्रज्ञाचक्षु पिता महाराज धृतराष्ट्रके लिये ही मुझे शोक हो रहा है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्कृते दुःखमापन्नं क्लेशं प्राप्तमनन्तकम्।
कृतं हि तव पुत्रैश्च परेषामवरोधनम्।
मत्प्रियार्थं पुरैवैतद् विदितं ते नरोत्तम ॥ १५ ॥

मूलम्

मत्कृते दुःखमापन्नं क्लेशं प्राप्तमनन्तकम्।
कृतं हि तव पुत्रैश्च परेषामवरोधनम्।
मत्प्रियार्थं पुरैवैतद् विदितं ते नरोत्तम ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन्होंने मेरे लिये अनन्त क्लेश और दुःख सहन किये हैं।’ नरश्रेष्ठ पिताजी! आपके पुत्रों तथा मेरे भाइयोंने केवल मेरी प्रसन्नताके लिये शत्रुओंको सदा ही सताया है; ये सब बातें आप पहलेसे ही जानते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते राज्ञो धृतराष्ट्रस्य सामात्यस्य महारथाः।
वैरं प्रतिकरिष्यन्ति कुलोच्छेदेन पाण्डवाः ॥ १६ ॥

मूलम्

ते राज्ञो धृतराष्ट्रस्य सामात्यस्य महारथाः।
वैरं प्रतिकरिष्यन्ति कुलोच्छेदेन पाण्डवाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये वे महारथी पाण्डव मन्त्रियोंसहित महाराज धृतराष्ट्रके कुलका समूलोच्छेद करके अपने वैरका बदला लेंगे’॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रोणोऽब्रवीद् भीष्मः कृपो द्रौणिश्च भारत।
मत्वा मां महतीं चिन्तामास्थितं व्यथितेन्द्रियम् ॥ १७ ॥
अभिद्रुग्धाः परे चेन्नो न भेतव्यं परंतप।
असमर्थाः परे जेतुमस्मान् युधि समास्थितान् ॥ १८ ॥

मूलम्

ततो द्रोणोऽब्रवीद् भीष्मः कृपो द्रौणिश्च भारत।
मत्वा मां महतीं चिन्तामास्थितं व्यथितेन्द्रियम् ॥ १७ ॥
अभिद्रुग्धाः परे चेन्नो न भेतव्यं परंतप।
असमर्थाः परे जेतुमस्मान् युधि समास्थितान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! मेरी यह बात सुनकर आचार्य द्रोण, पितामह भीष्म, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामाने मुझे बड़ी भारी चिन्तामें पड़कर सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे व्यथित हुआ जान आश्वासन देते हुए कहा—‘परंतप! यदि शत्रुपक्षके लोग हमसे द्रोह रखते हैं तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये। शत्रुलोग युद्धमें उपस्थित होनेपर हमें जीतनेमें असमर्थ हैं॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकैकशः समर्थाः स्मो विजेतुं सर्वपार्थिवान्।
आगच्छन्तु विनेष्यामो दर्पमेषां शितैः शरैः ॥ १९ ॥

मूलम्

एकैकशः समर्थाः स्मो विजेतुं सर्वपार्थिवान्।
आगच्छन्तु विनेष्यामो दर्पमेषां शितैः शरैः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हममेंसे एक-एक वीर भी समस्त राजाओंको जीतनेकी शक्ति रखता है। शत्रुलोग आवें तो सही, हम अपने पैने बाणोंसे उनका घमंड चूर-चूर कर देंगे’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरैकेन हि भीष्मेण विजिताः सर्वपार्थिवाः।
मृते पितर्यतिक्रुद्धो रथेनैकेन भारत ॥ २० ॥

मूलम्

पुरैकेन हि भीष्मेण विजिताः सर्वपार्थिवाः।
मृते पितर्यतिक्रुद्धो रथेनैकेन भारत ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! पहलेकी बात है, अपने पिता शान्तनुकी मृत्युके पश्चात् भीष्मजीने किसी समय अत्यन्त क्रोधमें भरकर एकमात्र रथकी सहायतासे अकेले ही सब राजाओंको जीत लिया था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जघान सुबहूंस्तेषां संरब्धः कुरुसत्तमः।
ततस्ते शरणं जग्मुर्देवव्रतमिमं भयात् ॥ २१ ॥

मूलम्

जघान सुबहूंस्तेषां संरब्धः कुरुसत्तमः।
ततस्ते शरणं जग्मुर्देवव्रतमिमं भयात् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रोषमें भरे हुए कुरुश्रेष्ठ भीष्मने जब उनमेंसे बहुत-से राजाओंको मार डाला, तब वे डरके मारे पुनः इन्हीं देवव्रत (भीष्म)-की शरणमें आये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भीष्मः सुसमर्थोऽयमस्माभिः सहितो रणे।
परान् विजेतुं तस्मात् ते व्येतु भीर्भरतर्षभ ॥ २२ ॥

मूलम्

स भीष्मः सुसमर्थोऽयमस्माभिः सहितो रणे।
परान् विजेतुं तस्मात् ते व्येतु भीर्भरतर्षभ ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वे ही पूर्ण सामर्थ्यशाली भीष्म युद्धमें शत्रुओंको जीतनेके लिये हमारे साथ हैं; अतः आपका भय दूर हो जाना चाहिये॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येषां निश्चयो ह्यासीत्‌ तत्कालेऽमिततेजसाम्।
पुरा परेषां पृथिवी कृत्स्नाऽऽसीद् वशवर्तिनी ॥ २३ ॥
अस्मान् पुनरमी नाद्य समर्था जेतुमाहवे।
छिन्नपक्षाः परे ह्यद्य वीर्यहीनाश्च पाण्डवाः ॥ २४ ॥

मूलम्

इत्येषां निश्चयो ह्यासीत्‌ तत्कालेऽमिततेजसाम्।
पुरा परेषां पृथिवी कृत्स्नाऽऽसीद् वशवर्तिनी ॥ २३ ॥
अस्मान् पुनरमी नाद्य समर्था जेतुमाहवे।
छिन्नपक्षाः परे ह्यद्य वीर्यहीनाश्च पाण्डवाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन अमिततेजस्वी भीष्म आदिने उसी समय युद्धमें हमारा साथ देनेका दृढ़ निश्चय कर लिया था। पहले यह सारी पृथ्वी हमारे शत्रुओंके काबूमें थी, किंतु अब हमारे हाथमें आ गयी है। हमारे ये शत्रु अब हमें युद्धमें जीतनेकी शक्ति नहीं रखते। सहायकोंके अभावमें पाण्डव पंख कटे हुए पक्षीके समान असहाय एवं पराक्रमशून्य हो गये हैं॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मत्संस्था च पृथिवी वर्तते भरतर्षभ।
एकार्थाः सुखदुःखेषु समानीताश्च पार्थिवाः ॥ २५ ॥

मूलम्

अस्मत्संस्था च पृथिवी वर्तते भरतर्षभ।
एकार्थाः सुखदुःखेषु समानीताश्च पार्थिवाः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! इस समय यह पृथ्वी हमारे अधिकारमें है। हमने जिन राजाओंको यहाँ बुलाया है, ये सब सुख और दुःखमें भी हमारे साथ एक-सा प्रयोजन रखते हैं—हमारे सुख-दुःखको अपना ही सुख-दुःख मानते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यग्निं प्रविशेयुस्ते समुद्रं वा परंतप।
मदर्थं पार्थिवाः सर्वे तद् विद्धि कुरुसत्तम ॥ २६ ॥

मूलम्

अप्यग्निं प्रविशेयुस्ते समुद्रं वा परंतप।
मदर्थं पार्थिवाः सर्वे तद् विद्धि कुरुसत्तम ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले कुरुश्रेष्ठ! निश्चित मानिये, ये सब समागत नरेश मेरे लिये जलती आगमें भी प्रवेश कर सकते हैं और समुद्रमें भी कूद सकते हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उन्मत्तमिव चापि त्वां प्रहसन्तीह दुःखितम्।
विलपन्तं बहुविधं भीतं परविकत्थने ॥ २७ ॥

मूलम्

उन्मत्तमिव चापि त्वां प्रहसन्तीह दुःखितम्।
विलपन्तं बहुविधं भीतं परविकत्थने ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेपर भी आप शत्रुओंकी मिथ्या प्रशंसा सुनकर पागल-से हो उठे हैं और दुःखी एवं भयभीत होकर नाना प्रकारसे विलाप कर रहे हैं। यह सब देखकर ये राजालोग यहाँ हँस रहे हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषां ह्येकैकशो राज्ञां समर्थः पाण्डवान् प्रति।
आत्मानं मन्यते सर्वो व्येतु ते भयमागतम् ॥ २८ ॥

मूलम्

एषां ह्येकैकशो राज्ञां समर्थः पाण्डवान् प्रति।
आत्मानं मन्यते सर्वो व्येतु ते भयमागतम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन राजाओंमेंसे प्रत्येक अपने-आपको पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेमें समर्थ मानता है; अतः आपके मनमें जो भय आ गया है, वह निकल जाना चाहिये॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेतुं समग्रां सेनां मे वासवोऽपि न शक्नुयात्।
हन्तुक्षय्यरूपेयं ब्रह्मणोऽपि स्वयम्भुवः ॥ २९ ॥

मूलम्

जेतुं समग्रां सेनां मे वासवोऽपि न शक्नुयात्।
हन्तुक्षय्यरूपेयं ब्रह्मणोऽपि स्वयम्भुवः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी सम्पूर्ण सेनाको इन्द्र भी नहीं जीत सकते। स्वयम्भू ब्रह्माजी भी इसका नाश नहीं कर सकते॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरः पुरं हित्वा पञ्च ग्रामान् स याचति।
भीतो हि मामकात्‌ सैन्यात् प्रभावाच्चैव मे विभो ॥ ३० ॥

मूलम्

युधिष्ठिरः पुरं हित्वा पञ्च ग्रामान् स याचति।
भीतो हि मामकात्‌ सैन्यात् प्रभावाच्चैव मे विभो ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! युधिष्ठिर तो मेरी सेना तथा प्रभावसे इतने डर गये हैं कि राजधानी या नगर लेनेकी बात छोड़कर अब पाँच गाँव माँगने लगे हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समर्थं मन्यसे यच्च कुन्तीपुत्रं वृकोदरम्।
तन्मिथ्या न हि मे कृत्स्नं प्रभावं वेत्सि भारत॥३१॥

मूलम्

समर्थं मन्यसे यच्च कुन्तीपुत्रं वृकोदरम्।
तन्मिथ्या न हि मे कृत्स्नं प्रभावं वेत्सि भारत॥३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! आप जो कुन्तीकुमार भीमको बहुत शक्तिशाली मान रहे हैं, वह भी मिथ्या ही है; क्योंकि आप मेरे प्रभावको पूर्णरूपसे नहीं जानते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्समो हि गदायुद्धे पृथिव्यां नास्ति कश्चन।
नासीत् कश्चिदतिक्रान्तो भविता न च कश्चन ॥ ३२ ॥

मूलम्

मत्समो हि गदायुद्धे पृथिव्यां नास्ति कश्चन।
नासीत् कश्चिदतिक्रान्तो भविता न च कश्चन ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गदायुद्धमें मेरी समानता करनेवाला इस पृथ्वीपर न तो कोई है, न भूतकालमें कोई हुआ था और न भविष्यमें ही कोई होगा॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युक्तो दुःखोषितश्चाहं विद्यापारगतस्तथा ।
तस्मान्न भीमान्नान्येभ्यो भयं मे विद्यते क्वचित् ॥ ३३ ॥

मूलम्

युक्तो दुःखोषितश्चाहं विद्यापारगतस्तथा ।
तस्मान्न भीमान्नान्येभ्यो भयं मे विद्यते क्वचित् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गदायुद्धका मेरा अभ्यास बहुत अच्छा है। मैंने गुरुके समीप क्लेशसहनपूर्वक रहकर अस्त्रविद्या सीखी है और उसमें मैं पारंगत हो गया हूँ। अतः भीमसेनसे या दूसरे योद्धाओंसे मुझे कभी कोई भय नहीं है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनसमो नास्ति गदायामिति निश्चयः।
संकर्षणस्य भद्रं ते यत् तदैनमुपावसम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

दुर्योधनसमो नास्ति गदायामिति निश्चयः।
संकर्षणस्य भद्रं ते यत् तदैनमुपावसम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका कल्याण हो। बलरामजीका भी यही निश्चय है कि गदायुद्धमें दुर्योधनके समान दूसरा कोई नहीं है। यह बात उन्होंने उस समय कही थी, जब मैं उनके पास रहकर गदाकी शिक्षा ले रहा था॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्धे संकर्षणसमो बलेनाभ्यधिको भुवि।
गदाप्रहारं भीमो मे न जातु विषहेद् युधि ॥ ३५ ॥

मूलम्

युद्धे संकर्षणसमो बलेनाभ्यधिको भुवि।
गदाप्रहारं भीमो मे न जातु विषहेद् युधि ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं युद्धमें बलरामजीके समान हूँ और बलमें इस भूतलपर सबसे बढ़कर हूँ। युद्धमें भीमसेन मेरी गदाका प्रहार कभी नहीं सह सकते॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकं प्रहारं यं दद्यां भीमाय रुषितो नृप।
स एवैनं नयेद् घोरः क्षिप्रं वैवस्वतक्षयम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

एकं प्रहारं यं दद्यां भीमाय रुषितो नृप।
स एवैनं नयेद् घोरः क्षिप्रं वैवस्वतक्षयम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! मैं रोषमें भरकर भीमसेनपर गदाका जो एक बार प्रहार करूँगा, वह अत्यन्त भयंकर एक ही आघात उन्हें शीघ्र ही यमलोक पहुँचा देगा॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इच्छेयं च गदाहस्तं राजन् द्रष्टुं वृकोदरम्।
सुचिरं प्रार्थितो ह्येष मम नित्यं मनोरथः ॥ ३७ ॥

मूलम्

इच्छेयं च गदाहस्तं राजन् द्रष्टुं वृकोदरम्।
सुचिरं प्रार्थितो ह्येष मम नित्यं मनोरथः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं चाहता हूँ कि युद्धमें गदा हाथमें लिये हुए भीमसेनको अपने सामने देखूँ। मैंने दीर्घकालसे अपने मनमें सदा इसी मनोरथके सिद्ध होनेकी इच्छा रखी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदया निहतो ह्याजौ मया पार्थो वृकोदरः।
विशीर्णगात्रः पृथिवीं परासुः प्रपतिष्यति ॥ ३८ ॥

मूलम्

गदया निहतो ह्याजौ मया पार्थो वृकोदरः।
विशीर्णगात्रः पृथिवीं परासुः प्रपतिष्यति ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें मेरी गदासे आहत हुए कुन्तीपुत्र भीमसेनका शरीर छिन्न-भिन्न हो जायगा और वे प्राणशून्य होकर पृथ्वीपर पड़ जायँगे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदाप्रहाराभिहतो हिमवानपि पर्वतः ।
सकृन्मया विदीर्येत गिरिः शतसहस्रधा ॥ ३९ ॥

मूलम्

गदाप्रहाराभिहतो हिमवानपि पर्वतः ।
सकृन्मया विदीर्येत गिरिः शतसहस्रधा ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मैं एक बार अपनी गदाका आघात कर दूँ तो हिमालय पर्वत भी लाखों टुकड़ोंमें विदीर्ण हो जायगा॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चाप्येतद् विजानाति वासुदेवार्जुनौ तथा।
दुर्योधनसमो नास्ति गदायामिति निश्चयः ॥ ४० ॥

मूलम्

स चाप्येतद् विजानाति वासुदेवार्जुनौ तथा।
दुर्योधनसमो नास्ति गदायामिति निश्चयः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन भी इस बातको जानते हैं। श्रीकृष्ण और अर्जुनको भी यह ज्ञात है। यह निश्चित है कि गदायुद्धमें दुर्योधनके समान दूसरा कोई नहीं है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् ते वृकोदरमयं भयं व्येतु महाहवे।
व्यपनेष्याम्यहं ह्येनं मा राजन् विमना भव ॥ ४१ ॥

मूलम्

तत् ते वृकोदरमयं भयं व्येतु महाहवे।
व्यपनेष्याम्यहं ह्येनं मा राजन् विमना भव ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः राजन्! भीमसेनसे जो आपको भय हो रहा है, वह दूर हो जाना चाहिये। मैं महायुद्धमें उन्हें मार गिराऊँगा। इसलिये आप मनमें खेद न करें॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् मया हते क्षिप्रमर्जुनं बहवो रथाः।
तुल्यरूपा विशिष्टाश्च क्षेप्स्यन्ति भरतर्षभ ॥ ४२ ॥

मूलम्

तस्मिन् मया हते क्षिप्रमर्जुनं बहवो रथाः।
तुल्यरूपा विशिष्टाश्च क्षेप्स्यन्ति भरतर्षभ ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! मेरे द्वारा भीमसेनके मारे जानेपर (हमारे पक्षके) बहुत-से रथी जो अर्जुनके समान या उनसे भी बढ़कर हैं, उनके ऊपर शीघ्रतापूर्वक बाणोंकी वर्षा करने लगेंगे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मो द्रोणः कृपो द्रौणिः कर्णो भूरिश्रवास्तथा।
प्राग्ज्योतिषाधिपः शल्यः सिन्धुराजो जयद्रथः ॥ ४३ ॥
एकैक एषां शक्तस्तु हन्तुं भारत पाण्डवान्।
समेतास्तु क्षणेनैतान् नेष्यन्ति यमसादनम्।

मूलम्

भीष्मो द्रोणः कृपो द्रौणिः कर्णो भूरिश्रवास्तथा।
प्राग्ज्योतिषाधिपः शल्यः सिन्धुराजो जयद्रथः ॥ ४३ ॥
एकैक एषां शक्तस्तु हन्तुं भारत पाण्डवान्।
समेतास्तु क्षणेनैतान् नेष्यन्ति यमसादनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! भीष्म, द्रोण, कृप, अश्वत्थामा, कर्ण, भूरिश्रवा, प्राग्ज्योतिषनरेश भगदत्त, मद्रराज शल्य तथा सिन्धुराज जयद्रथ—इनमेंसे एक-एक वीर समस्त पाण्डवोंको मारनेकी शक्ति रखता है। यदि ये सब एक साथ मिल जायँ तो क्षणभरमें उन सबको यमलोक पहुँचा देंगे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समग्रा पार्थिवी सेना पार्थमेकं धनंजयम् ॥ ४४ ॥
कस्मादशक्ता निर्जेतुमिति हेतुर्न विद्यते।

मूलम्

समग्रा पार्थिवी सेना पार्थमेकं धनंजयम् ॥ ४४ ॥
कस्मादशक्ता निर्जेतुमिति हेतुर्न विद्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओंकी समस्त सेना एकमात्र अर्जुनको परास्त करनेमें असमर्थ कैसे होगी? इसके लिये कोई कारण नहीं है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरव्रातैस्तु भीष्मेण शतशो निचितोऽवशः ॥ ४५ ॥
द्रोणद्रौणिकृपैश्चैव गन्ता पार्थो यमक्षयम्।

मूलम्

शरव्रातैस्तु भीष्मेण शतशो निचितोऽवशः ॥ ४५ ॥
द्रोणद्रौणिकृपैश्चैव गन्ता पार्थो यमक्षयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्म, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्यके चलाये हुए सैकड़ों बाण-समूहोंसे विद्ध होकर कुन्तीपुत्र अर्जुनको विवशतापूर्वक यमलोकमें जाना पड़ेगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामहोऽपि गाङ्गेयः शान्तनोरधि भारत ॥ ४६ ॥
ब्रह्मर्षिसदृशो जज्ञे देवैरपि सुदुःसहः।

मूलम्

पितामहोऽपि गाङ्गेयः शान्तनोरधि भारत ॥ ४६ ॥
ब्रह्मर्षिसदृशो जज्ञे देवैरपि सुदुःसहः।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! हमारे पितामह गंगापुत्र भीष्मजी तो अपने पिता शान्तनुसे भी बढ़कर पराक्रमी हैं। ये ब्रह्मर्षियोंके समान प्रभावसे सम्पन्न होकर उत्पन्न हुए हैं। इनका वेग देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुःसह है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हन्ता विद्यते चापि राजन् भीष्मस्य कश्चन ॥ ४७ ॥
पित्रा ह्युक्तः प्रसन्नेन नाकामस्त्वं मरिष्यसि।

मूलम्

न हन्ता विद्यते चापि राजन् भीष्मस्य कश्चन ॥ ४७ ॥
पित्रा ह्युक्तः प्रसन्नेन नाकामस्त्वं मरिष्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भीष्मजीको मारनेवाला तो कोई है ही नहीं; क्योंकि उनके पिताने प्रसन्न होकर उन्हें यह वरदान दिया है कि तुम अपनी इच्छाके बिना नहीं मरोगे॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मर्षेश्च भरद्वाजाद् द्रोणो द्रोण्यामजायत ॥ ४८ ॥
द्रोणाज्जज्ञे महाराज द्रौणिश्च परमास्त्रवित्।

मूलम्

ब्रह्मर्षेश्च भरद्वाजाद् द्रोणो द्रोण्यामजायत ॥ ४८ ॥
द्रोणाज्जज्ञे महाराज द्रौणिश्च परमास्त्रवित्।

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे वीर आचार्य द्रोण हैं, जो ब्रह्मर्षि भरद्वाजके वीर्यसे कलशमें उत्पन्न हुए हैं। महाराज! इन्हीं आचार्य द्रोणसे वीर अश्वत्थामाकी उत्पत्ति हुई है, जो अस्त्र-विद्याके बहुत बड़े पण्डित हैं॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपश्चाचार्यमुख्योऽयं महर्षेर्गौतमादपि ॥ ४९ ॥
शरस्तम्बोद्भवः श्रीमानवध्य इति मे मतिः।

मूलम्

कृपश्चाचार्यमुख्योऽयं महर्षेर्गौतमादपि ॥ ४९ ॥
शरस्तम्बोद्भवः श्रीमानवध्य इति मे मतिः।

अनुवाद (हिन्दी)

आचार्योंमें प्रधान कृप भी महर्षि गौतमके अंशसे सरकण्डोंके समूहमें उत्पन्न हुए हैं। ये श्रीमान् आचार्यपाद अवध्य हैं, ऐसा मेरा विश्वास है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयोनिजास्त्रयो ह्येते पिता माता च मातुलः ॥ ५० ॥
अश्वत्थाम्नो महाराज स च शूरः स्थितो मम।
सर्व एते महाराज देवकल्पा महारथाः ॥ ५१ ॥

मूलम्

अयोनिजास्त्रयो ह्येते पिता माता च मातुलः ॥ ५० ॥
अश्वत्थाम्नो महाराज स च शूरः स्थितो मम।
सर्व एते महाराज देवकल्पा महारथाः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! अश्वत्थामाके ये पिता, माता और मामा तीनों ही अयोनिज हैं। अश्वत्थामा भी शूरवीर एवं मेरे पक्षमें स्थित हैं। राजन्! ये सभी योद्धा देवताओंके समान पराक्रमी एवं महारथी हैं॥५०-५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्रस्यापि व्यथां कुर्युः संयुगे भरतर्षभ।
नैतेषामर्जुनः शक्त एकैकं प्रति वीक्षितुम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

शक्रस्यापि व्यथां कुर्युः संयुगे भरतर्षभ।
नैतेषामर्जुनः शक्त एकैकं प्रति वीक्षितुम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! ये चारों वीर युद्धमें देवराज इन्द्रको भी पीड़ा दे सकते हैं। अर्जुन तो इनमेंसे किसी एककी ओर भी आँख उठाकर देख नहीं सकते॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहितास्तु नरव्याघ्रा हनिष्यन्ति धनंजयम्।
भीष्मद्रोणकृपाणां च तुल्यः कर्णो मतो मम ॥ ५३ ॥

मूलम्

सहितास्तु नरव्याघ्रा हनिष्यन्ति धनंजयम्।
भीष्मद्रोणकृपाणां च तुल्यः कर्णो मतो मम ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये नरश्रेष्ठ जब एक साथ होकर युद्ध करेंगे, तब अर्जुनको अवश्य मार डालेंगे। भीष्म, द्रोण और कृप—इन तीनोंके समान पराक्रमी तो अकेला कर्ण ही है, यह मेरी मान्यता है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञातश्च रामेण मत्समोऽसीति भारत।
कुण्डले रुचिरे चास्तां कर्णस्य सहजे शुभे ॥ ५४ ॥

मूलम्

अनुज्ञातश्च रामेण मत्समोऽसीति भारत।
कुण्डले रुचिरे चास्तां कर्णस्य सहजे शुभे ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! परशुरामजीने कर्णको (शिक्षा देनेके पश्चात् घर लौटनेकी) आज्ञा देते हुए यह कहा था कि तुम (अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञानमें) मेरे समान हो। इसके सिवा कर्णको जन्मके साथ ही दो सुन्दर और कल्याणकारी कुण्डल प्राप्त हुए थे॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते शच्यर्थं महेन्द्रेण याचितः स परंतपः।
अमोघया महाराज शक्त्या परमभीमया ॥ ५५ ॥

मूलम्

ते शच्यर्थं महेन्द्रेण याचितः स परंतपः।
अमोघया महाराज शक्त्या परमभीमया ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु देवराज इन्द्रने शत्रुओंको संताप देनेवाले वीरवर कर्णसे शचीके लिये वे दोनों कुण्डल माँग लिये। महाराज! कर्णने बदलेमें अत्यन्त भयंकर एवं अमोघ शक्ति लेकर वे कुण्डल दिये थे॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य शक्त्योपगूढस्य कस्माज्जीवेद् धनंजयः।
विजयो मे ध्रुवं राजन् फलं पाणाविवाहितम् ॥ ५६ ॥

मूलम्

तस्य शक्त्योपगूढस्य कस्माज्जीवेद् धनंजयः।
विजयो मे ध्रुवं राजन् फलं पाणाविवाहितम् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उस अमोघ शक्तिसे सुरक्षित कर्णके सामने युद्धके लिये आकर अर्जुन कैसे जीवित रह सकते हैं? राजन्! हाथपर रखे हुए फलकी भाँति विजयकी प्राप्ति तो मुझे अवश्य ही होगी॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिव्यक्तः परेषां च कृत्स्नो भुवि पराजयः।
अह्ना ह्येकेन भीष्मोऽयं प्रयुतं हन्ति भारत ॥ ५७ ॥

मूलम्

अभिव्यक्तः परेषां च कृत्स्नो भुवि पराजयः।
अह्ना ह्येकेन भीष्मोऽयं प्रयुतं हन्ति भारत ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! इस पृथ्वीपर मेरे शत्रुओंकी पूर्णतः पराजय तो इसीसे स्पष्ट है कि ये पितामह भीष्म प्रतिदिन दस हजार विपक्षी योद्धाओंका संहार करेंगे॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्समाश्च महेष्वासा द्रोणद्रौणिकृपा अपि।
संशप्तकानां वृन्दानि क्षत्रियाणां परंतप ॥ ५८ ॥
अर्जुनं वयमस्मान् वा निहन्यात् कपिकेतनः।
तं चालमिति मन्यन्ते सव्यसाचिवधे धृताः ॥ ५९ ॥
पार्थिवाः स भवांस्तेभ्यो ह्यकस्माद् व्यथते कथम्।

मूलम्

तत्समाश्च महेष्वासा द्रोणद्रौणिकृपा अपि।
संशप्तकानां वृन्दानि क्षत्रियाणां परंतप ॥ ५८ ॥
अर्जुनं वयमस्मान् वा निहन्यात् कपिकेतनः।
तं चालमिति मन्यन्ते सव्यसाचिवधे धृताः ॥ ५९ ॥
पार्थिवाः स भवांस्तेभ्यो ह्यकस्माद् व्यथते कथम्।

अनुवाद (हिन्दी)

परंतप! द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा और कृपाचार्य भी उन्हींके समान महाधनुर्धर हैं। इनके सिवा ‘संशप्तक’ नामक क्षत्रियोंके समूह भी मेरे ही पक्षमें हैं; जो यह कहते हैं कि या तो हमलोग अर्जुनको मार डालेंगे या कपिध्वज अर्जुन ही हमें मार डालेंगे, तभी हमारे उनके युद्धकी समाप्ति होगी। वे सब नरेश अर्जुनके वधका दृढ़ निश्चय कर चुके हैं और उसके लिये अपनेको पर्याप्त समझते हैं। ऐसी दशामें आप उन पाण्डवोंसे भयभीत हो अकस्मात् व्यथित क्यों हो उठते हैं?॥५८-५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेने च निहते कोऽन्यो युध्येत भारत ॥ ६० ॥
परेषां तन्ममाचक्ष्व यदि वेत्थ परंतप।

मूलम्

भीमसेने च निहते कोऽन्यो युध्येत भारत ॥ ६० ॥
परेषां तन्ममाचक्ष्व यदि वेत्थ परंतप।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले भरतनन्दन! अर्जुन और भीमसेनके मारे जानेपर शत्रुओंके दलमें दूसरा कौन ऐसा वीर है, जो युद्ध कर सकेगा? यदि आप किसीको जानते हों तो बताइये॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्च ते भ्रातरः सर्वे धृष्टद्युम्नोऽथ सात्यकिः ॥ ६१ ॥
परेषां सप्त ये राजन् योधाः सारं बलं मतम्।

मूलम्

पञ्च ते भ्रातरः सर्वे धृष्टद्युम्नोऽथ सात्यकिः ॥ ६१ ॥
परेषां सप्त ये राजन् योधाः सारं बलं मतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पाँचों भाई पाण्डव, धृष्टद्युम्न और सात्यकि—ये कुल सात योद्धा ही शत्रु-पक्षके सारभूत बल माने जाते हैं॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्माकं तु विशिष्टा ये भीष्मद्रोणकृपादयः ॥ ६२ ॥
द्रौणिर्वैकर्तनः कर्णः सोमदत्तोऽथ बाह्लिकः।
प्राग्ज्योतिषाधिपः शल्य आवन्त्यौ च जयद्रथः ॥ ६३ ॥
दुःशासनो दुर्मुखश्च दुःसहश्च विशाम्पते।
श्रुतायुश्चित्रसेनश्च पुरुमित्रो विविंशतिः ॥ ६४ ॥
शलो भूरिश्रवाश्चैव विकर्णश्च तवात्मजः।

मूलम्

अस्माकं तु विशिष्टा ये भीष्मद्रोणकृपादयः ॥ ६२ ॥
द्रौणिर्वैकर्तनः कर्णः सोमदत्तोऽथ बाह्लिकः।
प्राग्ज्योतिषाधिपः शल्य आवन्त्यौ च जयद्रथः ॥ ६३ ॥
दुःशासनो दुर्मुखश्च दुःसहश्च विशाम्पते।
श्रुतायुश्चित्रसेनश्च पुरुमित्रो विविंशतिः ॥ ६४ ॥
शलो भूरिश्रवाश्चैव विकर्णश्च तवात्मजः।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! हमलोगोंके पक्षमें जो विशिष्ट योद्धा हैं, उनकी संख्या अधिक है; यथा—भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि, अश्वत्थामा, वैकर्तन कर्ण, सोमदत्त, बाह्लिक, प्राग्ज्योतिषनरेश भगदत्त, शल्य, अवन्तीके दोनों राजकुमार विन्द और अनुविन्द, जयद्रथ, दुःशासन, दुर्मुख, दुःसह, श्रुतायु, चित्रसेन, पुरुमित्र, विविंशति, शल, भूरिश्रवा तथा आपका पुत्र विकर्ण। (इस प्रकार अपने पक्षके प्रमुख वीरोंकी संख्या शत्रुओंके प्रमुख वीरोंसे तीन गुनी अधिक है)॥६२—६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षौहिण्यो हि मे राजन् दशैका च समाहृताः।
न्यूनाः परेषां सप्तैव कस्मान्मे स्यात् पराजयः ॥ ६५ ॥

मूलम्

अक्षौहिण्यो हि मे राजन् दशैका च समाहृताः।
न्यूनाः परेषां सप्तैव कस्मान्मे स्यात् पराजयः ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! अपने यहाँ ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ संगृहीत हो गयी हैं, परंतु शत्रुओंके पक्षमें हमसे बहुत कम कुल सात अक्षौहिणी सेनाएँ हैं; फिर मेरी पराजय कैसे हो सकती है?॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलं त्रिगुणतो हीनं योध्यं प्राह बृहस्पतिः।
परेभ्यस्त्रिगुणा चेयं मम राजन्ननीकिनी ॥ ६६ ॥

मूलम्

बलं त्रिगुणतो हीनं योध्यं प्राह बृहस्पतिः।
परेभ्यस्त्रिगुणा चेयं मम राजन्ननीकिनी ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! बृहस्पतिका कथन है कि शत्रुओंकी सेना अपनेसे एक तिहाई भी कम हो तो उसके साथ अवश्य युद्ध करना चाहिये। परंतु मेरी यह सेना तो शत्रुओंकी अपेक्षा चार अक्षौहिणी अधिक है, इसलिये यह अन्तर मेरी सम्पूर्ण सेनाकी एक तिहाईसे भी अधिक है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणहीनं परेषां च बहु पश्यामि भारत।
गुणोदयं बहुगुणमात्मनश्च विशाम्पते ॥ ६७ ॥

मूलम्

गुणहीनं परेषां च बहु पश्यामि भारत।
गुणोदयं बहुगुणमात्मनश्च विशाम्पते ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! प्रजानाथ! मैं देख रहा हूँ कि शत्रुओंका बल हमारी अपेक्षा अनेक प्रकारसे गुणहीन (न्यूनतम) है, परंतु मेरा अपना बल सब प्रकारसे बहुत अधिक एवं गुणशाली है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् सर्वं समाज्ञाय बलाग्र‌्यं मम भारत।
न्यूनतां पाण्डवानां च न मोहं गन्तुमर्हसि ॥ ६८ ॥

मूलम्

एतत् सर्वं समाज्ञाय बलाग्र‌्यं मम भारत।
न्यूनतां पाण्डवानां च न मोहं गन्तुमर्हसि ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! इन सभी दृष्टियोंसे मेरा बल अधिक है और पाण्डवोंका बहुत कम है, यह जानकर आप व्याकुल एवं अधीर न हों॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा संजयं भूयः पर्यपृच्छत भारत।
विवित्सुः प्राप्तकालानि ज्ञात्वा परपुरंजयः ॥ ६९ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा संजयं भूयः पर्यपृच्छत भारत।
विवित्सुः प्राप्तकालानि ज्ञात्वा परपुरंजयः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! ऐसा कहकर शत्रुनगरविजयी दुर्योधनने शत्रुओंकी स्थिति जान लेनेके पश्चात् समयोचित कर्तव्योंकी जानकारीके लिये पुनः संजयसे प्रश्न किया॥६९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि दुर्योधनवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें दुर्योधनवाक्यविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५५॥