भागसूचना
चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
संजयका धृतराष्ट्रको उनके दोष बताते हुए दुर्योधनपर शासन करनेकी सलाह देना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतन्महाराज यथा वदसि भारत।
युद्धे विनाशः क्षत्रस्य गाण्डीवेन प्रदृश्यते ॥ १ ॥
मूलम्
एवमेतन्महाराज यथा वदसि भारत।
युद्धे विनाशः क्षत्रस्य गाण्डीवेन प्रदृश्यते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— महाराज! आप जैसा कह रहे हैं, वही ठीक है। भारत! युद्धमें तो गाण्डीव धनुषके द्वारा क्षत्रियसमुदायका विनाश ही दिखायी देता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं तु नाभिजानामि तव धीरस्य नित्यशः।
यत् पुत्रवशमागच्छेस्तत्त्वज्ञः सव्यसाचिनः ॥ २ ॥
मूलम्
इदं तु नाभिजानामि तव धीरस्य नित्यशः।
यत् पुत्रवशमागच्छेस्तत्त्वज्ञः सव्यसाचिनः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु सदासे बुद्धिमान् माने जानेवाले आपके सम्बन्धमें मैं यह नहीं समझ पाता हूँ कि आप सव्यसाची अर्जुनके बल-पराक्रमको अच्छी तरह जानते हुए भी क्यों अपने पुत्रोंके अधीन हो रहे हैं?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैष कालो महाराज तव शश्वत् कृतागसः।
त्वया ह्येवादितः पार्था निकृता भरतर्षभ ॥ ३ ॥
मूलम्
नैष कालो महाराज तव शश्वत् कृतागसः।
त्वया ह्येवादितः पार्था निकृता भरतर्षभ ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतकुलभूषण महाराज! आप (स्वभावसे ही) पाण्डवोंका अपराध करनेवाले हैं। इस कारण इस समय आपके द्वारा जो विचार व्यक्त किया गया है, यह सदा स्थिर रहनेवाला नहीं है। आपने आरम्भसे ही कुन्तीपुत्रोंके साथ कपटपूर्ण बर्ताव किया है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता श्रेष्ठः सुहृद् यश्च सम्यक् प्रणिहितात्मवान्।
आस्थेयं हि हितं तेन न द्रोग्धा गुरुरुच्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
पिता श्रेष्ठः सुहृद् यश्च सम्यक् प्रणिहितात्मवान्।
आस्थेयं हि हितं तेन न द्रोग्धा गुरुरुच्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पिताके पदपर प्रतिष्ठित है, श्रेष्ठ सुहृद् है और मनमें भलीभाँति सावधानी रखनेवाला है, उसे अपने आश्रितोंका हितसाधन ही करना चाहिये। द्रोह रखनेवाला पुरुष पिता अथवा गुरुजन नहीं कहला सकता॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं जितमिदं लब्धमिति श्रुत्वा पराजितान्।
द्यूतकाले महाराज स्मयसे स्म कुमारवत् ॥ ५ ॥
मूलम्
इदं जितमिदं लब्धमिति श्रुत्वा पराजितान्।
द्यूतकाले महाराज स्मयसे स्म कुमारवत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! द्यूतक्रीड़ाके समय जब आप अपने पुत्रोंके मुखसे सुनते कि यह जीता, यह पाया तथा पाण्डवोंकी पराजय हो रही है, तब आप बालकोंकी तरह मुसकरा उठते थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परुषाण्युच्यमानांश्च पुरा पार्थानुपेक्षसे ।
कृत्स्नं राज्यं जयन्तीति प्रपातं नानुपश्यसि ॥ ६ ॥
मूलम्
परुषाण्युच्यमानांश्च पुरा पार्थानुपेक्षसे ।
कृत्स्नं राज्यं जयन्तीति प्रपातं नानुपश्यसि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय पाण्डवोंके प्रति कितनी ही कठोर बातें कही जा रही थीं, परंतु मेरे पुत्र सारा राज्य जीतते चले जा रहे हैं, यह जानकर आप उनकी उपेक्षा करते जाते थे। यह सब इनके भावी विनाश या पतनका कारण होगा, इसकी ओर आपकी दृष्टि नहीं जाती थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पित्र्यं राज्यं महाराज कुरवस्ते सजाङ्गलाः।
अथ वीरैर्जितामुर्वीमखिलां प्रत्यपद्यथाः ॥ ७ ॥
मूलम्
पित्र्यं राज्यं महाराज कुरवस्ते सजाङ्गलाः।
अथ वीरैर्जितामुर्वीमखिलां प्रत्यपद्यथाः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कुरुजांगल देश ही आपका पैतृक राज्य है, किंतु शेष सारी पृथ्वी उन वीर पाण्डवोंने ही जीती है, जिसे आप पा गये हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहुवीर्यार्जिता भूमिस्तव पार्थैर्निवेदिता ।
मयेदं कृतमित्येव मन्यसे राजसत्तम ॥ ८ ॥
मूलम्
बाहुवीर्यार्जिता भूमिस्तव पार्थैर्निवेदिता ।
मयेदं कृतमित्येव मन्यसे राजसत्तम ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! कुन्तीपुत्रोंने अपने बाहुबलसे जीतकर यह भूमि आपकी सेवामें समर्पित की है, परंतु आप उसे अपनी जीती मानते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रस्तान् गन्धर्वराजेन मज्जतो ह्यप्लवेऽम्भसि।
आनिनाय पुनः पार्थः पुत्रांस्ते राजसत्तम ॥ ९ ॥
मूलम्
ग्रस्तान् गन्धर्वराजेन मज्जतो ह्यप्लवेऽम्भसि।
आनिनाय पुनः पार्थः पुत्रांस्ते राजसत्तम ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजशिरोमणे! (घोषयात्राके समय) गन्धर्वराज चित्रसेनने आपके पुत्रोंको कैद कर लिया था। वे सब-के-सब बिना नावके पानीमें डूब रहे थे, उस समय उन्हें अर्जुन ही पुनः छुड़ाकर ले आये थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुमारवच्च स्मयसे द्यूते विनिकृतेषु यत्।
पाण्डवेषु वने राजन् प्रव्रजत्सु पुनः पुनः ॥ १० ॥
मूलम्
कुमारवच्च स्मयसे द्यूते विनिकृतेषु यत्।
पाण्डवेषु वने राजन् प्रव्रजत्सु पुनः पुनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पाण्डवलोग जब द्यूतक्रीड़ामें छले गये और हारकर वनमें जाने लगे, उस समय आप बच्चोंकी तरह बार-बार मुसकराकर अपनी प्रसन्नता प्रकट कर रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवर्षतः शरव्रातानर्जुनस्य शितान् बहून्।
अप्यर्णवा विशुष्येयुः किं पुनर्मांसयोनयः ॥ ११ ॥
मूलम्
प्रवर्षतः शरव्रातानर्जुनस्य शितान् बहून्।
अप्यर्णवा विशुष्येयुः किं पुनर्मांसयोनयः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब अर्जुन असंख्य तीखे बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगेंगे, उस समय समुद्र भी सूख जा सकते हैं, फिर हाड़-मांसके शरीरोंसे पैदा हुए प्राणियोंकी तो बात ही क्या है?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्यतां फाल्गुनः श्रेष्ठो गाण्डीवं धनुषां बरम्।
केशवः सर्वभूतानामायुधानां सुदर्शनम् ॥ १२ ॥
वानरो रोचमानश्च केतुः केतुमतां वरः।
मूलम्
अस्यतां फाल्गुनः श्रेष्ठो गाण्डीवं धनुषां बरम्।
केशवः सर्वभूतानामायुधानां सुदर्शनम् ॥ १२ ॥
वानरो रोचमानश्च केतुः केतुमतां वरः।
अनुवाद (हिन्दी)
बाण चलानेवाले वीरोंमें अर्जुन श्रेष्ठ हैं, धनुषोंमें गाण्डीव उत्तम है, समस्त प्राणियोंमें भगवान् श्रीकृष्ण श्रेष्ठ हैं, आयुधोंमें सुदर्शन चक्र श्रेष्ठ है और पताकावाले ध्वजोंमें वानरसे उपलक्षित ध्वज ही श्रेष्ठ एवं प्रकाशमान है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतानि स रथे वहञ्छ्वेतहयो रणे ॥ १३ ॥
क्षपयिष्यति नो राजन् कालचक्रमिवोद्यतम्।
मूलम्
एवमेतानि स रथे वहञ्छ्वेतहयो रणे ॥ १३ ॥
क्षपयिष्यति नो राजन् कालचक्रमिवोद्यतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार इन सभी श्रेष्ठतम वस्तुओंको अपने साथ लिये हुए जब श्वेत घोड़ोंवाले अर्जुन रथपर आरूढ़ हो रणभूमिमें उपस्थित होंगे, उस समय ऊपर उठे हुए कालचक्रके समान वे हम सब लोगोंका संहार कर डालेंगे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याद्य वसुधा राजन् निखिला भरतर्षभ ॥ १४ ॥
यस्य भीमार्जुनौ योधौ स राजा राजसत्तम।
मूलम्
तस्याद्य वसुधा राजन् निखिला भरतर्षभ ॥ १४ ॥
यस्य भीमार्जुनौ योधौ स राजा राजसत्तम।
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंमें श्रेष्ठ भरतभूषण महाराज! अब तो यह सारी पृथ्वी उसीके अधिकारमें रहेगी, जिसकी ओरसे भीमसेन और अर्जुन-जैसे योद्धा लड़नेवाले होंगे। वही राजा होगा॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा भीमहतप्रायां मज्जन्तीं तव वाहिनीम् ॥ १५ ॥
दुर्योधनमुखा दृष्ट्वा क्षयं यास्यन्ति कौरवाः।
मूलम्
तथा भीमहतप्रायां मज्जन्तीं तव वाहिनीम् ॥ १५ ॥
दुर्योधनमुखा दृष्ट्वा क्षयं यास्यन्ति कौरवाः।
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी सेनाके अधिकांश वीर भीमसेनके हाथों मारे जायँगे और दुर्योधन आदि कौरव विपत्तिके समुद्रमें डूबती हुई इस सेनाको देखते-देखते स्वयं भी नष्ट हो जायँगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भीमार्जुनयोर्भीता लप्स्यन्ते विजयं विभो ॥ १६ ॥
तव पुत्रा महाराज राजानश्चानुसारिणः।
मूलम्
न भीमार्जुनयोर्भीता लप्स्यन्ते विजयं विभो ॥ १६ ॥
तव पुत्रा महाराज राजानश्चानुसारिणः।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! महाराज! आपके पुत्र तथा इनका साथ देनेवाले नरेश भीमसेन और अर्जुनसे भयभीत होकर कभी विजय नहीं पा सकेंगे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्स्यास्त्वामद्य नार्चन्ति पञ्चालाश्च सकेकयाः ॥ १७ ॥
शाल्वेयाः शूरसेनाश्च सर्वे त्वामवजानते।
पार्थं ह्येते गताः सर्वे वीर्यज्ञास्तस्य धीमतः ॥ १८ ॥
मूलम्
मत्स्यास्त्वामद्य नार्चन्ति पञ्चालाश्च सकेकयाः ॥ १७ ॥
शाल्वेयाः शूरसेनाश्च सर्वे त्वामवजानते।
पार्थं ह्येते गताः सर्वे वीर्यज्ञास्तस्य धीमतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मत्स्यदेशके क्षत्रिय अब आपका आदर नहीं करते हैं। पांचाल, केकय, शाल्व तथा शूरसेन देशोंके सभी राजा एवं राजकुमार आपकी अवहेलना करते हैं। वे सब परम बुद्धिमान् अर्जुनके पराक्रमको जानते हैं, अतः उन्हींके पक्षमें मिल गये हैं॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्त्या ह्यस्य विरुध्यन्ते तव पुत्रैः सदैव ते।
अनर्हानेव तु वधे धर्मयुक्तान् विकर्मणा ॥ १९ ॥
योऽक्लेशयत् पाण्डुपुत्रान् यो विद्वेष्ट्यधुनापि वै।
सर्वोपायैर्नियन्तव्यः सानुगः पापपूरुषः ॥ २० ॥
तव पुत्रो महाराज नानुशोचितुमर्हसि।
द्यूतकाले मया चोक्तं विदुरेण च धीमता ॥ २१ ॥
मूलम्
भक्त्या ह्यस्य विरुध्यन्ते तव पुत्रैः सदैव ते।
अनर्हानेव तु वधे धर्मयुक्तान् विकर्मणा ॥ १९ ॥
योऽक्लेशयत् पाण्डुपुत्रान् यो विद्वेष्ट्यधुनापि वै।
सर्वोपायैर्नियन्तव्यः सानुगः पापपूरुषः ॥ २० ॥
तव पुत्रो महाराज नानुशोचितुमर्हसि।
द्यूतकाले मया चोक्तं विदुरेण च धीमता ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरके प्रति भक्ति रखनेके कारण वे सब सदा ही आपके पुत्रोंके साथ विरोध रखते हैं। महाराज! जो सदा धर्ममें तत्पर रहनेके कारण वध (और क्लेश पाने)-के कदापि योग्य नहीं थे, उन पाण्डुपुत्रोंको जिसने सदा विपरीत बर्तावसे कष्ट पहुँचाया है और जो इस समय भी उनके प्रति द्वेषभाव ही रखता है, आपके उस पापी पुत्र दुर्योधनको ही सभी उपायोंसे साथियोंसहित काबूमें रखना चाहिये। आप बारंबार इस तरह शोक न करें। द्यूतक्रीड़ाके समय मैंने तथा परम बुद्धिमान् विदुरजीने भी आपको यही सलाह दी थी, (परंतु आपने ध्यान नहीं दिया)॥१९—२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिदं ते विलपितं पाण्डवान् प्रति भारत।
अनीशेनेव राजेन्द्र सर्वमेतन्निरर्थकम् ॥ २२ ॥
मूलम्
यदिदं ते विलपितं पाण्डवान् प्रति भारत।
अनीशेनेव राजेन्द्र सर्वमेतन्निरर्थकम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! आपने जो पाण्डवोंके बल-पराक्रमकी चर्चा करके असमर्थकी भाँति विलाप किया है, यह सब व्यर्थ है॥२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि संजयवाक्ये चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें संजयवाक्यविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५४॥