भागसूचना
त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कौरवसभामें धृतराष्ट्रका युद्धसे भय दिखाकर शान्तिके लिये प्रस्ताव करना
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैव पाण्डवाः सर्वे पराक्रान्ता जिगीषवः।
तथैवाभिसरास्तेषां त्यक्तात्मानो जये धृताः ॥ १ ॥
मूलम्
यथैव पाण्डवाः सर्वे पराक्रान्ता जिगीषवः।
तथैवाभिसरास्तेषां त्यक्तात्मानो जये धृताः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— संजय! जैसे समस्त पाण्डव पराक्रमी और विजयके अभिलाषी हैं, उसी प्रकार उनके सहायक भी विजयके लिये कटिबद्ध तथा उनके लिये अपने प्राण निछावर करनेको तैयार हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेव हि पराक्रान्तानाचक्षीथाः परान् मम।
पञ्चालान् केकयान् मत्स्यान् मागधान् वत्सभूमिपान् ॥ २ ॥
मूलम्
त्वमेव हि पराक्रान्तानाचक्षीथाः परान् मम।
पञ्चालान् केकयान् मत्स्यान् मागधान् वत्सभूमिपान् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमने ही मेरे निकट पराक्रमशाली पांचाल, केकय, मत्स्य, मागध तथा वत्सदेशीय उत्कृष्ट भूमिपालोंके नाम लिये हैं—(ये सभी पाण्डवोंकी विजय चाहते हैं)॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्च सेन्द्रानिमाल्ँलोकानिच्छन् कुर्याद् वशे बली।
स स्रष्टा जगतः कृष्णः पाण्डवानां जये धृतः ॥ ३ ॥
मूलम्
यश्च सेन्द्रानिमाल्ँलोकानिच्छन् कुर्याद् वशे बली।
स स्रष्टा जगतः कृष्णः पाण्डवानां जये धृतः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके सिवा जो इच्छा करते ही इन्द्र आदि देवताओंसहित इन सम्पूर्ण लोकोंको अपने वशमें कर सकते हैं, वे जगत्स्रष्टा महाबली भगवान् श्रीकृष्ण भी पाण्डवोंको विजय दिलानेका दृढ़ निश्चय कर चुके हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समस्तामर्जुनाद् विद्यां सात्यकिः क्षिप्रमाप्तवान्।
शैनेयः समरे स्थाता बीजवत् प्रवपञ्छरान् ॥ ४ ॥
मूलम्
समस्तामर्जुनाद् विद्यां सात्यकिः क्षिप्रमाप्तवान्।
शैनेयः समरे स्थाता बीजवत् प्रवपञ्छरान् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिनिके पौत्र सात्यकिने थोड़े ही समयमें अर्जुनसे उनकी सारी अस्त्रविद्या सीख ली थी। इस युद्धमें वे भी बीजकी भाँति बाणोंको बोते हुए पाण्डवपक्षकी ओरसे खड़े होंगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नश्च पाञ्चाल्यः क्रूरकर्मा महारथः।
मामकेषु रणं कर्ता बलेषु परमास्त्रवित् ॥ ५ ॥
मूलम्
धृष्टद्युम्नश्च पाञ्चाल्यः क्रूरकर्मा महारथः।
मामकेषु रणं कर्ता बलेषु परमास्त्रवित् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम अस्त्रोंका ज्ञाता और क्रूरतापूर्ण पराक्रम प्रकट करनेवाला पांचालराजकुमार महारथी धृष्टद्युम्न भी मेरी सेनाओंमें घुसकर युद्ध करेगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरस्य च क्रोधादर्जुनस्य च विक्रमात्।
यमाभ्यां भीमसेनाच्च भयं मे तात जायते ॥ ६ ॥
अमानुषं मनुष्येन्द्रैर्जालं विततमन्तरा ।
न मे सैन्यास्तरिष्यन्ति ततः क्रोशामि संजय ॥ ७ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरस्य च क्रोधादर्जुनस्य च विक्रमात्।
यमाभ्यां भीमसेनाच्च भयं मे तात जायते ॥ ६ ॥
अमानुषं मनुष्येन्द्रैर्जालं विततमन्तरा ।
न मे सैन्यास्तरिष्यन्ति ततः क्रोशामि संजय ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात संजय! मुझे युधिष्ठिरके क्रोधसे, अर्जुनके पराक्रमसे, दोनों भाई नकुल और सहदेवसे तथा भीमसेनसे बड़ा भय लगता है। संजय! इन नरेशोंके द्वारा मेरी सेनाके भीतर जब अलौकिक अस्त्रोंका जाल-सा बिछा दिया जायगा, तब मेरे सैनिक उसे पार नहीं कर सकेंगे; इसीलिये मैं बिलख रहा हूँ॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शनीयो मनस्वी च लक्ष्मीवान् ब्रह्मवर्चसी।
मेधावी सुकृतप्रज्ञो धर्मात्मा पाण्डुनन्दनः ॥ ८ ॥
मित्रामात्यैः सुसम्पन्नः सम्पन्नो युद्धयोजकैः।
भ्रातृभिः श्वशुरैर्वीरैरुपपन्नो महारथैः ॥ ९ ॥
धृत्या च पुरुषव्याघ्रो नैभृत्येन च पाण्डवः।
अनृशंसो वदान्यश्च ह्रीमान् सत्यपराक्रमः ॥ १० ॥
बहुश्रुतः कृतात्मा च वृद्धसेवी जितेन्द्रियः।
तं सर्वगुणसम्पन्नं समिद्धमिव पावकम् ॥ ११ ॥
तपन्तमभि को मन्दः पतिष्यति पतङ्गवत्।
पाण्डवाग्निमनावार्यं मुमूर्षुर्नष्टचेतनः ॥ १२ ॥
मूलम्
दर्शनीयो मनस्वी च लक्ष्मीवान् ब्रह्मवर्चसी।
मेधावी सुकृतप्रज्ञो धर्मात्मा पाण्डुनन्दनः ॥ ८ ॥
मित्रामात्यैः सुसम्पन्नः सम्पन्नो युद्धयोजकैः।
भ्रातृभिः श्वशुरैर्वीरैरुपपन्नो महारथैः ॥ ९ ॥
धृत्या च पुरुषव्याघ्रो नैभृत्येन च पाण्डवः।
अनृशंसो वदान्यश्च ह्रीमान् सत्यपराक्रमः ॥ १० ॥
बहुश्रुतः कृतात्मा च वृद्धसेवी जितेन्द्रियः।
तं सर्वगुणसम्पन्नं समिद्धमिव पावकम् ॥ ११ ॥
तपन्तमभि को मन्दः पतिष्यति पतङ्गवत्।
पाण्डवाग्निमनावार्यं मुमूर्षुर्नष्टचेतनः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर दर्शनीय, मनस्वी, लक्ष्मीवान्, ब्रह्मर्षियोंके समान तेजस्वी, मेधावी, सुनिश्चित बुद्धिसे युक्त, धर्मात्मा, मित्रों तथा मन्त्रियोंसे सम्पन्न, युद्धके लिये उद्योगशील सैनिकोंसे संयुक्त, महारथी भाइयों और वीरशिरोमणि श्वशुरोंसे सुरक्षित, धैर्यवान्, मन्त्रणाको गुप्त रखनेवाले, पुरुषोंमें सिंहके समान पराक्रमी, दयालु, उदार, लज्जाशील, यथार्थ पराक्रमसे सम्पन्न, अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता, मनको वशमें रखनेवाले, वृद्धसेवी तथा जितेन्द्रिय हैं। इस प्रकार सर्वगुणसम्पन्न और प्रज्वलित अग्निके समान ताप देनेवाले उन युधिष्ठिरके सम्मुख युद्ध करनेके लिये कौन मूर्ख जा सकेगा? कौन अचेत एवं मरणासन्न मनुष्य पतंगोंकी भाँति दुर्निवार पाण्डवरूपी अग्निमें जान-बूझकर गिरेगा?॥८—१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तनुरुद्धः शिखी राजा मिथ्योपचरितो मया।
मन्दानां मम पुत्राणां युद्धेनान्तं करिष्यति ॥ १३ ॥
मूलम्
तनुरुद्धः शिखी राजा मिथ्योपचरितो मया।
मन्दानां मम पुत्राणां युद्धेनान्तं करिष्यति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिर सूक्ष्म और एक स्थानमें अवरुद्ध अग्निके समान हैं। मैंने मिथ्या व्यवहारसे उनका तिरस्कार किया है, अतः वे युद्ध करके मेरे मूर्ख पुत्रोंका अवश्य विनाश कर डालेंगे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैरयुद्धं साधु मन्ये कुरवस्तन्निबोधत।
युद्धे विनाशः कृत्स्नस्य कुलस्य भविता ध्रुवम् ॥ १४ ॥
एषा मे परमा बुद्धिर्यया शाम्यति मे मनः।
यदि त्वयुद्धमिष्टं वो वयं शान्त्यै यतामहे ॥ १५ ॥
मूलम्
तैरयुद्धं साधु मन्ये कुरवस्तन्निबोधत।
युद्धे विनाशः कृत्स्नस्य कुलस्य भविता ध्रुवम् ॥ १४ ॥
एषा मे परमा बुद्धिर्यया शाम्यति मे मनः।
यदि त्वयुद्धमिष्टं वो वयं शान्त्यै यतामहे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवो! मैं पाण्डवोंके साथ युद्ध न होना ही अच्छा मानता हूँ। तुमलोग इसे अच्छी तरह समझ लो। यदि युद्ध हुआ तो समस्त कुरुकुलका विनाश अवश्यम्भावी है। मेरी बुद्धिका यही सर्वोत्तम निश्चय है। इसीसे मेरे मनको शान्ति मिलती है। यदि तुम्हें भी युद्ध न होना ही अभीष्ट हो तो हम शान्तिके लिये प्रयत्न करें॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु नः क्लिश्यमानानामुपेक्षेत युधिष्ठिरः।
जुगुप्सति ह्यधर्मेण मामेवोद्दिश्य कारणम् ॥ १६ ॥
मूलम्
न तु नः क्लिश्यमानानामुपेक्षेत युधिष्ठिरः।
जुगुप्सति ह्यधर्मेण मामेवोद्दिश्य कारणम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर हमें (युद्धकी चर्चासे) क्लेशमें पड़े देख हमारी उपेक्षा नहीं कर सकते। वे तो मुझे ही अधर्मपूर्वक कलह बढ़ानेमें कारण मानकर मेरी निन्दा करते हैं (फिर मेरे ही द्वारा शान्तिप्रस्ताव उपस्थित किये जानेपर वे क्यों नहीं सहमत होंगे?)॥१६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि धृतराष्ट्रवाक्ये त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें धृतराष्ट्रवाक्यविषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५३॥