भागसूचना
द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्रद्वारा अर्जुनसे प्राप्त होनेवाले भयका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य वै नानृता वाचः कदाचिदनुशुश्रुम।
त्रैलोक्यमपि तस्य स्याद् योद्धा यस्य धनंजयः ॥ १ ॥
मूलम्
यस्य वै नानृता वाचः कदाचिदनुशुश्रुम।
त्रैलोक्यमपि तस्य स्याद् योद्धा यस्य धनंजयः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— संजय! जिनके मुँहसे कभी कोई झूठ बात निकलती हमने नहीं सुनी है तथा जिनके पक्षमें धनंजय-जैसे योद्धा हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिरको (भूमण्डलका कौन कहे,) तीनों लोकोंका राज्य भी प्राप्त हो सकता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैव च न पश्यामि युधि गाण्डीवधन्वनः।
अनिशं चिन्तयानोऽपि यः प्रतीयाद् रथेन तम् ॥ २ ॥
मूलम्
तस्यैव च न पश्यामि युधि गाण्डीवधन्वनः।
अनिशं चिन्तयानोऽपि यः प्रतीयाद् रथेन तम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं निरन्तर सोचने-विचारनेपर भी युद्धमें गाण्डीवधारी अर्जुनका ही सामना करनेवाले किसी ऐसे वीरको नहीं देखता, जो रथपर आरूढ़ हो उनके सम्मुख जा सके॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्यतः कर्णिनालीकान् मार्गणान् हृदयच्छिदः।
प्रत्येता न समः कश्चिद् युधि गाण्डीवधन्वनः ॥ ३ ॥
मूलम्
अस्यतः कर्णिनालीकान् मार्गणान् हृदयच्छिदः।
प्रत्येता न समः कश्चिद् युधि गाण्डीवधन्वनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो हृदयको विदीर्ण कर देनेवाले कर्णी और नालीक आदि बाणोंकी निरन्तर वर्षा करते हैं, उन गाण्डीवधन्वा अर्जुनका युद्धमें सामना करनेवाला कोई भी समकक्ष योद्धा नहीं है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणकर्णौ प्रतीयातां यदि वीरौ नरर्षभौ।
कृतास्त्रौ बलिनां श्रेष्ठौ समरेष्वपराजितौ ॥ ४ ॥
महान् स्यात् संशयो लोके न त्वस्ति विजयो मम।
घृणी कर्णः प्रमादी च आचार्यः स्थविरो गुरुः ॥ ५ ॥
मूलम्
द्रोणकर्णौ प्रतीयातां यदि वीरौ नरर्षभौ।
कृतास्त्रौ बलिनां श्रेष्ठौ समरेष्वपराजितौ ॥ ४ ॥
महान् स्यात् संशयो लोके न त्वस्ति विजयो मम।
घृणी कर्णः प्रमादी च आचार्यः स्थविरो गुरुः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि बलवानोंमें श्रेष्ठ, अस्त्रविद्याके पारंगत विद्वान् तथा युद्धमें कभी पराजित न होनेवाले, मनुष्योंमें अग्रगण्य वीरवर द्रोणाचार्य और कर्ण अर्जुनका सामना करनेके लिये आगे बढ़ें तो भी मुझे अर्जुनपर विजय प्राप्त होनेमें महान् संदेह रहेगा। मैं तो देखता हूँ मेरी विजय होगी ही नहीं; क्योंकि कर्ण दयालु और प्रमादी है और आचार्य द्रोण वृद्ध होनेके साथ ही अर्जुनके गुरु हैं॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समर्थो बलवान् पार्थो दृढधन्वा जितक्लमः।
भवेत् सुतुमुलं युद्धं सर्वशोऽप्यपराजयः ॥ ६ ॥
मूलम्
समर्थो बलवान् पार्थो दृढधन्वा जितक्लमः।
भवेत् सुतुमुलं युद्धं सर्वशोऽप्यपराजयः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीपुत्र अर्जुन समर्थ और बलवान् हैं। उनका धनुष भी सुदृढ़ है। वे आलस्य और थकावटको जीत चुके हैं, अतः उनके साथ जो अत्यन्त भयंकर युद्ध छिड़ेगा, उसमें सब प्रकारसे उनकी ही विजय होगी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे ह्यस्त्रविदः शूराः सर्वे प्राप्ता महद् यशः।
अपि सर्वामरैश्वर्यं त्यजेयुर्न पुनर्जयम् ॥ ७ ॥
मूलम्
सर्वे ह्यस्त्रविदः शूराः सर्वे प्राप्ता महद् यशः।
अपि सर्वामरैश्वर्यं त्यजेयुर्न पुनर्जयम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त पाण्डव अस्त्रविद्याके ज्ञाता, शूरवीर तथा महान् यशको प्राप्त हैं। वे समस्त देवताओंका ऐश्वर्य छोड़ सकते हैं, परंतु अपनी विजयसे मुँह नहीं मोड़ेंगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधे नूनं भवेच्छान्तिस्तयोर्वा फाल्गुनस्य च।
न तु हन्तार्जुनस्यास्ति जेता चास्य न विद्यते ॥ ८ ॥
मन्युस्तस्य कथं शाम्येन्मन्दान् प्रति य उत्थितः।
मूलम्
वधे नूनं भवेच्छान्तिस्तयोर्वा फाल्गुनस्य च।
न तु हन्तार्जुनस्यास्ति जेता चास्य न विद्यते ॥ ८ ॥
मन्युस्तस्य कथं शाम्येन्मन्दान् प्रति य उत्थितः।
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही द्रोणाचार्य और कर्णका वध हो जानेपर हमारे पक्षके लोग शान्त हो जायँगे अथवा अर्जुनके मारे जानेपर पाण्डव शान्त हो बैठेंगे, परंतु अर्जुनका वध करने-वाला तो कोई है ही नहीं, उन्हें जीतनेवाला भी संसारमें कोई नहीं है। मेरे मन्दबुद्धि पुत्रोंके प्रति उनके हृदयमें जो क्रोध जाग उठा है, वह कैसे शान्त होगा?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्येऽप्यस्त्राणि जानन्ति जीयन्ते च जयन्ति च ॥ ९ ॥
एकान्तविजयस्त्वेव श्रूयते फाल्गुनस्य ह।
मूलम्
अन्येऽप्यस्त्राणि जानन्ति जीयन्ते च जयन्ति च ॥ ९ ॥
एकान्तविजयस्त्वेव श्रूयते फाल्गुनस्य ह।
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे योद्धा भी अस्त्र चलाना जानते हैं, परंतु वे कभी हारते हैं और कभी जीतते भी हैं। केवल अर्जुन ही ऐसे हैं, जिनकी निरन्तर विजय ही सुनी जाती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयस्त्रिंशत् समाहूय खाण्डवेऽग्निमतर्पयत् ॥ १० ॥
जिगाय च सुरान् सर्वान् नास्य विद्मः पराजयम्।
मूलम्
त्रयस्त्रिंशत् समाहूय खाण्डवेऽग्निमतर्पयत् ॥ १० ॥
जिगाय च सुरान् सर्वान् नास्य विद्मः पराजयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
खाण्डवदाहके समय अर्जुनने (मुख्य-मुख्य) तैंतीस1 देवताओंको युद्धके लिये ललकारकर अग्नि-देवको तृप्त किया और सभी देवताओंको जीत लिया। उनकी कभी पराजय हुई हो, इसका पता हमें आजतक नहीं लगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य यन्ता हृषीकेशः शीलवृत्तसमो युधि ॥ ११ ॥
ध्रुवस्तस्य जयस्तात यथेन्द्रस्य जयस्तथा।
मूलम्
यस्य यन्ता हृषीकेशः शीलवृत्तसमो युधि ॥ ११ ॥
ध्रुवस्तस्य जयस्तात यथेन्द्रस्य जयस्तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
तात! साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण, जिनका स्वभाव और आचार-व्यवहार भी अर्जुनके ही समान है, अर्जुनका रथ हाँकते हैं, अतः इन्द्रकी विजयकी भाँति उनकी भी विजय निश्चित है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णावेकरथे यत्तावधिज्यं गाण्डिवं धनुः ॥ १२ ॥
युगपत् त्रीणि तेजांसि समेतान्यनुशुश्रुम।
मूलम्
कृष्णावेकरथे यत्तावधिज्यं गाण्डिवं धनुः ॥ १२ ॥
युगपत् त्रीणि तेजांसि समेतान्यनुशुश्रुम।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण और अर्जुन एक रथपर उपस्थित हैं और गाण्डीव धनुषकी प्रत्यंचा चढ़ी हुई है, इस प्रकार ये तीनों तेज एक ही साथ एकत्र हो गये हैं, यह हमारे सुननेमें आया है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवास्ति नो धनुस्तादृक् न योद्धा न च सारथिः॥१३॥
तच्च मन्दा न जानन्ति दुर्योधनवशानुगाः।
मूलम्
नैवास्ति नो धनुस्तादृक् न योद्धा न च सारथिः॥१३॥
तच्च मन्दा न जानन्ति दुर्योधनवशानुगाः।
अनुवाद (हिन्दी)
हमलोगोंके यहाँ न तो वैसा धनुष है, न अर्जुन-जैसा पराक्रमी योद्धा है और न श्रीकृष्णके समान सारथि ही है, परंतु दुर्योधनके वशीभूत हुए मेरे मूर्ख पुत्र इस बातको नहीं समझ पाते॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शेषयेदशनिर्दीप्तो विपतन् मूर्ध्नि संजय ॥ १४ ॥
न तु शेषं शरास्तात कुर्युरस्ताः किरीटिना।
मूलम्
शेषयेदशनिर्दीप्तो विपतन् मूर्ध्नि संजय ॥ १४ ॥
न तु शेषं शरास्तात कुर्युरस्ताः किरीटिना।
अनुवाद (हिन्दी)
तात संजय! अपने तेजसे जलता हुआ वज्र किसीके मस्तकपर पड़कर सम्भव है, उसके जीवनको बचा दे, परंतु किरीटधारी अर्जुनके चलाये हुए बाण जिसे लग जायँगे, उसे जीवित नहीं छोड़ेंगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि चास्यन्निवाभाति निघ्नन्निव धनंजयः ॥ १५ ॥
उद्धरन्निव कायेभ्यः शिरांसि शरवृष्टिभिः।
मूलम्
अपि चास्यन्निवाभाति निघ्नन्निव धनंजयः ॥ १५ ॥
उद्धरन्निव कायेभ्यः शिरांसि शरवृष्टिभिः।
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे तो वीर धनंजय युद्धमें बाणोंको चलाते, योद्धाओंके प्राण लेते और अपनी बाणवर्षाद्वारा उनके शरीरोंसे मस्तकोंको काटते हुए-से प्रतीत हो रहे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि बाणमयं तेजः प्रदीप्तमिव सर्वतः ॥ १६ ॥
गाण्डीवोत्थं दहेताजौ पुत्राणां मम वाहिनीम्।
मूलम्
अपि बाणमयं तेजः प्रदीप्तमिव सर्वतः ॥ १६ ॥
गाण्डीवोत्थं दहेताजौ पुत्राणां मम वाहिनीम्।
अनुवाद (हिन्दी)
क्या गाण्डीव धनुषसे प्रकट हुआ बाणमय तेज सब ओर प्रज्वलित-सा होकर मेरे पुत्रोंकी (विशाल) वाहिनीको युद्धमें जलाकर भस्म कर डालेगा?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि सारथ्यघोषेण भयार्ता सव्यसाचिनः ॥ १७ ॥
वित्रस्ता बहुधा सेना भारती प्रतिभाति मे।
मूलम्
अपि सारथ्यघोषेण भयार्ता सव्यसाचिनः ॥ १७ ॥
वित्रस्ता बहुधा सेना भारती प्रतिभाति मे।
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि श्रीकृष्णके रथ-संचालनकी आवाज सुनकर भरतवंशियोंकी यह सेना सव्यसाची अर्जुनके भयसे पीड़ित और नाना प्रकारसे आतंकित हो जायगी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा कक्षं महानग्निः प्रदहेत् सर्वतश्चरन्।
महार्चिरनिलोद्धूतस्तद्वद् धक्ष्यति मामकान् ॥ १८ ॥
मूलम्
यथा कक्षं महानग्निः प्रदहेत् सर्वतश्चरन्।
महार्चिरनिलोद्धूतस्तद्वद् धक्ष्यति मामकान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वायुके वेगसे बढ़ी हुई आग सब ओर फैलकर प्रचण्ड लपटोंसे युक्त हो घास-फूस अथवा जंगलको जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन मेरे पुत्रोंको दग्ध कर डालेंगे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदोद्वमन् निशितान् बाणसंघां-
स्तानाततायी समरे किरीटी ।
सृष्टोऽन्तकः सर्वहरो विधात्रा
यथा भवेत् तद्वदपारणीयः ॥ १९ ॥
मूलम्
यदोद्वमन् निशितान् बाणसंघां-
स्तानाततायी समरे किरीटी ।
सृष्टोऽन्तकः सर्वहरो विधात्रा
यथा भवेत् तद्वदपारणीयः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय शस्त्रपाणि किरीटधारी अर्जुन समर-भूमिमें रोषपूर्वक पैने बाणसमूहोंकी वर्षा करेंगे, उस समय विधाताके रचे हुए सर्वसंहारक कालके समान उनसे पार पाना असम्भव हो जायगा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा ह्यभीक्ष्णं सुबहून् प्रकारान्
श्रोतास्मि तानावसथे कुरूणाम् ।
तेषां समन्ताच्च तथा रणाग्रे
क्षयः किलायं भरतानुपैति ॥ २० ॥
मूलम्
तदा ह्यभीक्ष्णं सुबहून् प्रकारान्
श्रोतास्मि तानावसथे कुरूणाम् ।
तेषां समन्ताच्च तथा रणाग्रे
क्षयः किलायं भरतानुपैति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मैं महलोंमें बैठा हुआ बार-बार कौरवोंकी विविध अवस्थाओंकी कथा सुनता रहूँगा। अहो! युद्धके मुहानेपर निश्चय ही सब ओरसे यह भरतवंशका विनाश आ पहुँचा है॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि धृतराष्ट्रवाक्ये द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें धृतराष्ट्रवाक्यविषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५२॥
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कुछ विद्वान् ‘त्रयस्त्रिंशत् समाऽऽहूय’ ऐसा पाठ मानकर आर्ष संधिकी कल्पना करके यह अर्थ करते हैं कि तैंतीस वर्षकी अवस्था बीत जानेपर अर्जुनने अग्निदेवको खाण्डववनमें बुलाकर तृप्त किया था। ↩︎