०५० संजयवाक्ये

भागसूचना

पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

संजयद्वारा युधिष्ठिरके प्रधान सहायकोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमसौ पाण्डवो राजा धर्मपुत्रोऽभ्यभाषत।
श्रुत्वेह बहुलाः सेनाः प्रीत्यर्थं नः समागताः ॥ १ ॥

मूलम्

किमसौ पाण्डवो राजा धर्मपुत्रोऽभ्यभाषत।
श्रुत्वेह बहुलाः सेनाः प्रीत्यर्थं नः समागताः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! हमारी प्रसन्नता और सहायताके लिये यहाँ हस्तिनापुरमें बहुत-सी सेना एकत्र हो गयी है, यह समाचार सुनकर पाण्डवराज धर्मपुत्र युधिष्ठिरने क्या कहा?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमसौ चेष्टते सूत योत्स्यमानो युधिष्ठिरः।
के वास्य भ्रातृपुत्राणां पश्यन्त्याज्ञेप्सवो मुखम् ॥ २ ॥

मूलम्

किमसौ चेष्टते सूत योत्स्यमानो युधिष्ठिरः।
के वास्य भ्रातृपुत्राणां पश्यन्त्याज्ञेप्सवो मुखम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूत! भविष्यमें होनेवाले युद्धके लिये उद्यत होकर राजा युधिष्ठिर कैसी तैयारी कर रहे हैं? उनके भाइयों और पुत्रोंमेंसे कौन-कौन-से लोग उनसे किसी कार्यके लिये आज्ञा पानेकी इच्छासे उनका मुँह जोहते रहते हैं?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

के स्विदेनं वारयन्ति युद्धाच्छाम्येति वा पुनः।
निकृत्या कोपितं मन्दैर्धर्मज्ञं धर्मचारिणम् ॥ ३ ॥

मूलम्

के स्विदेनं वारयन्ति युद्धाच्छाम्येति वा पुनः।
निकृत्या कोपितं मन्दैर्धर्मज्ञं धर्मचारिणम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर धर्मके ज्ञाता हैं और धर्मके आचरणमें सदा तत्पर रहते हैं। मेरे मन्दबुद्धि पुत्रोंने अपने कपटपूर्ण बर्तावसे उन्हें कुपित कर दिया है। वहाँ कौन-कौन ऐसे हैं, जो उन्हें बारंबार शान्त रहनेकी सलाह देकर युद्धसे रोकते हैं?॥३॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञो मुखमुदीक्षन्ते पञ्चालाः पाण्डवैः सह।
युधिष्ठिरस्य भद्रं ते स सर्वाननुशास्ति च ॥ ४ ॥

मूलम्

राज्ञो मुखमुदीक्षन्ते पञ्चालाः पाण्डवैः सह।
युधिष्ठिरस्य भद्रं ते स सर्वाननुशास्ति च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— महाराज! आपका कल्याण हो। पांचाल और पाण्डव सभी राजा युधिष्ठिरके मुखकी ओर देखते रहते हैं और वे उन सबको विभिन्न कार्योंके लिये आज्ञा देते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथग्भूताः पाण्डवानां पञ्चालानां रथव्रजाः।
आयान्तमभिनन्दन्ति कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ५ ॥

मूलम्

पृथग्भूताः पाण्डवानां पञ्चालानां रथव्रजाः।
आयान्तमभिनन्दन्ति कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर सामने आते हैं, तब पाण्डवों तथा पांचालोंके रथसमूह पृथक्-पृथक् श्रेणियोंमें खड़े होकर उनका अभिनन्दन करते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नभः सूर्यमिवोद्यन्तं कौन्तेयं दीप्ततेजसम्।
पञ्चालाः प्रतिनन्दन्ति तेजोराशिमिवोदितम् ॥ ६ ॥

मूलम्

नभः सूर्यमिवोद्यन्तं कौन्तेयं दीप्ततेजसम्।
पञ्चालाः प्रतिनन्दन्ति तेजोराशिमिवोदितम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे आकाश उदयकालमें उद्दीप्त तेजस्वी सूर्यदेवका अभिनन्दन करता है, उसी प्रकार, मानो तेजके पुंजका उदय होता हो, इस तरह दिखायी देनेवाले कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरका समस्त पांचालगण अभिनन्दन करते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगोपालाविपालाश्च नन्दमाना युधिष्ठिरम् ।
पञ्चालाः केकया मत्स्याः प्रतिनन्दन्ति पाण्डवम् ॥ ७ ॥

मूलम्

आगोपालाविपालाश्च नन्दमाना युधिष्ठिरम् ।
पञ्चालाः केकया मत्स्याः प्रतिनन्दन्ति पाण्डवम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ग्वालिये और गड़रियोंसे लेकर पांचाल, केकय और मत्स्यदेशोंके राजवंशतक सभी लोग पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरका सम्मान करते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मण्यो राजपुत्र्यश्च विशां दुहितरश्च याः।
क्रीडन्त्योऽभिसमायान्ति पार्थं संनद्धमीक्षितुम् ॥ ८ ॥

मूलम्

ब्राह्मण्यो राजपुत्र्यश्च विशां दुहितरश्च याः।
क्रीडन्त्योऽभिसमायान्ति पार्थं संनद्धमीक्षितुम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्योंकी कन्याएँ भी खेलती-खेलती युद्धके लिये सुसज्जित युधिष्ठिरको देखनेके लिये उनके पास आ जाती हैं॥८॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजयाचक्ष्व येनास्मान् पाण्डवा अभ्ययुञ्जत।
धृष्टद्युम्नस्य सैन्येन सोमकानां बलेन च ॥ ९ ॥

मूलम्

संजयाचक्ष्व येनास्मान् पाण्डवा अभ्ययुञ्जत।
धृष्टद्युम्नस्य सैन्येन सोमकानां बलेन च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! बताओ, पाण्डवलोग धृष्टद्युम्नकी सेना तथा अन्यान्य सोमकवंशियोंकी विशाल वाहिनीके सिवा और किस-किसकी सहायता पाकर हमलोगोंके साथ युद्ध करनेको उद्यत हुए हैं?॥९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावल्गणिस्तु तत्पृष्टः सभायां कुरुसंसदि।
निःश्वस्य सुभृशं दीर्घं मुहुः संचिन्तयन्निव ॥ १० ॥
तत्रानिमित्ततो दैवात् सूतं कश्मलमाविशत्।
तदाऽऽचचक्षे विदुरः सभायां राजसंसदि ॥ ११ ॥
संजयोऽयं महाराज मूर्च्छितः पतितो भुवि।
वाचं न सृजते कांचिद्धीनप्रज्ञोऽल्पचेतनः ॥ १२ ॥

मूलम्

गावल्गणिस्तु तत्पृष्टः सभायां कुरुसंसदि।
निःश्वस्य सुभृशं दीर्घं मुहुः संचिन्तयन्निव ॥ १० ॥
तत्रानिमित्ततो दैवात् सूतं कश्मलमाविशत्।
तदाऽऽचचक्षे विदुरः सभायां राजसंसदि ॥ ११ ॥
संजयोऽयं महाराज मूर्च्छितः पतितो भुवि।
वाचं न सृजते कांचिद्धीनप्रज्ञोऽल्पचेतनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कौरवोंकी सभामें राजा धृतराष्ट्रके इस प्रकार पूछनेपर संजय बारंबार लम्बी साँस खींचते हुए दीर्घकालतक गहरी चिन्तामें निमग्न-से हो गये और सहसा बिना किसी विशेष कारणके ही वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े। तब विदुरजीने उस राजसभामें धृतराष्ट्रसे कहा—‘महाराज! ये संजय मूर्च्छित होकर धरतीपर गिर पड़े हैं। इनकी बुद्धि और चेतना लुप्त-सी हो रही है, अतः अभी कुछ बोल नहीं सकते’॥१०—१२॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपश्यत् संजयो नूनं कुन्तीपुत्रान् महारथान्।
तैरस्य पुरुषव्याघ्रैर्भृशमुद्वेजितं मनः ॥ १३ ॥

मूलम्

अपश्यत् संजयो नूनं कुन्तीपुत्रान् महारथान्।
तैरस्य पुरुषव्याघ्रैर्भृशमुद्वेजितं मनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— निश्चय ही संजयने महारथी कुन्तीपुत्रोंको देखा है। जान पड़ता है, उन पुरुषसिंह पाण्डवोंने इसके मनको अत्यन्त उद्विग्न कर दिया है॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजयश्चेतनां लब्ध्वा प्रत्याश्वस्येदमब्रवीत् ।
धृतराष्ट्रं महाराज सभायां कुरुसंसदि ॥ १४ ॥

मूलम्

संजयश्चेतनां लब्ध्वा प्रत्याश्वस्येदमब्रवीत् ।
धृतराष्ट्रं महाराज सभायां कुरुसंसदि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इतनेमें ही संजयको चेत हो आया और वे आश्वस्त होकर कौरव-सभामें धृतराष्ट्रसे बोले॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टवानस्मि राजेन्द्र कुन्तीपुत्रान् महारथान्।
मत्स्यराजगृहावासनिरोधेनावकर्शितान् ॥ १५ ॥

मूलम्

दृष्टवानस्मि राजेन्द्र कुन्तीपुत्रान् महारथान्।
मत्स्यराजगृहावासनिरोधेनावकर्शितान् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजेन्द्र! मैंने महारथी कुन्तीपुत्रोंका दर्शन किया है। वे अज्ञातवासके समय मत्स्यनरेश विराटके घरमें छिपकर रहनेके कारण अत्यन्त दुबले हो गये हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु यैर्हि महाराज पाण्डवा अभ्ययुञ्जत।
धृष्टद्युम्नेन वीरेण युद्धे वस्तेऽभ्ययुञ्जत ॥ १६ ॥

मूलम्

शृणु यैर्हि महाराज पाण्डवा अभ्ययुञ्जत।
धृष्टद्युम्नेन वीरेण युद्धे वस्तेऽभ्ययुञ्जत ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! पाण्डवोंने जिन लोगोंकी सहायता पाकर युद्धके लिये तैयारी की है, उनका परिचय देता हूँ, सुनिये। पहली बात यह है कि उन्हें वीरवर धृष्टद्युम्नका पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ है, जिससे सबल होकर उन पाण्डवोंने आपलोगोंपर चढ़ाई करनेकी तैयारी की है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो नैव रोषान्न भयान्न लोभान्नार्थकारणात्।
न हेतुवादाद् धर्मात्मा सत्यं जह्यात् कदाचन ॥ १७ ॥
यः प्रमाणं महाराज धर्मे धर्मभृतां वरः।
अजातशत्रुणा तेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ १८ ॥

मूलम्

यो नैव रोषान्न भयान्न लोभान्नार्थकारणात्।
न हेतुवादाद् धर्मात्मा सत्यं जह्यात् कदाचन ॥ १७ ॥
यः प्रमाणं महाराज धर्मे धर्मभृतां वरः।
अजातशत्रुणा तेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! जो धर्मात्मा न रोषसे, न भयसे, न लोभसे, न अर्थके लिये और न बहाना बनाकर ही कभी सत्यका परित्याग कर सकते हैं, जो धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ हैं और धर्मके विषयमें प्रमाण माने जाते हैं, उन अजातशत्रुके प्रभावसे पाण्डवोंने युद्धकी तैयारी की है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य बाहुबले तुल्यः पृथिव्यां नास्ति कश्चन।
यो वै सर्वान् महीपालान् वशे चक्रे धनुर्धरः।
यः काशीनङ्गमगधान् कलिङ्गांश्च युधाजयत् ॥ १९ ॥
तेन वो भीमसेनेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत।

मूलम्

यस्य बाहुबले तुल्यः पृथिव्यां नास्ति कश्चन।
यो वै सर्वान् महीपालान् वशे चक्रे धनुर्धरः।
यः काशीनङ्गमगधान् कलिङ्गांश्च युधाजयत् ॥ १९ ॥
तेन वो भीमसेनेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत।

अनुवाद (हिन्दी)

बाहुबलमें जिनकी समानता करनेवाला इस भूमण्डलमें दूसरा कोई नहीं है, जिन्होंने केवल धनुष धारण करके युद्धमें काशी, अंग, मगध और कलिंग आदि देशोंके समस्त भूपालोंको जीतकर अपने वशमें कर लिया था, उन भीमसेनके बलसे पाण्डवोंने आपलोगोंपर आक्रमण करनेका उद्योग आरम्भ किया है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य वीर्येण सहसा चत्वारो भुवि पाण्डवाः ॥ २० ॥
निःसृत्य जतुगेहाद् वै हिडिम्बात्‌ पुरुषादकात्।
यश्चैषामभवद् द्वीपः कुन्तीपुत्रो वृकोदरः ॥ २१ ॥
याज्ञसेनीमथो यत्र सिन्धुराजोऽपकृष्टवान् ।
तत्रैषामभवद् द्वीपः कुन्तीपुत्रो वृकोदरः ॥ २२ ॥
यश्च तान् संगतान्‌ सर्वान् पाण्डवान्‌ वारणावते।
दह्यतो मोचयामास तेन वस्तेऽभ्ययुञ्जत ॥ २३ ॥

मूलम्

यस्य वीर्येण सहसा चत्वारो भुवि पाण्डवाः ॥ २० ॥
निःसृत्य जतुगेहाद् वै हिडिम्बात्‌ पुरुषादकात्।
यश्चैषामभवद् द्वीपः कुन्तीपुत्रो वृकोदरः ॥ २१ ॥
याज्ञसेनीमथो यत्र सिन्धुराजोऽपकृष्टवान् ।
तत्रैषामभवद् द्वीपः कुन्तीपुत्रो वृकोदरः ॥ २२ ॥
यश्च तान् संगतान्‌ सर्वान् पाण्डवान्‌ वारणावते।
दह्यतो मोचयामास तेन वस्तेऽभ्ययुञ्जत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके बल और पराक्रमसे चारों पाण्डव सहसा लाक्षाभवनसे निकलकर इस पृथ्वीपर जीवित बच गये, जिन्होंने मनुष्यभक्षी राक्षस हिडिम्बसे अपने भाइयोंकी रक्षा की, उस संकटके समय जो कुन्तीकुमार भीम इन पाण्डवोंके लिये द्वीपके समान आश्रयदाता हो गये, जब सिन्धुराज जयद्रथने द्रौपदीका अपहरण किया था, उस समय भी जिन कुन्तीकुमार वृकोदरने उन सबको द्वीपकी भाँति आश्रय दिया था तथा जिन्होंने वारणावत नगरमें एकत्र हुए समस्त पाण्डवोंको लाक्षागृहकी आगमें जलनेसे बचा लिया था, उन्हीं भीमसेनके बलसे पाण्डवोंने आपलोगोंके साथ युद्धकी तैयारी की है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णायां चरता प्रीतिं येन क्रोधवशा हताः।
प्रविश्य विषमं घोरं पर्वतं गन्धमादनम् ॥ २४ ॥
यस्य नागायुतैर्वीर्यं भुजयोः सारमर्पितम्।
तेन वो भीमसेनेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ २५ ॥

मूलम्

कृष्णायां चरता प्रीतिं येन क्रोधवशा हताः।
प्रविश्य विषमं घोरं पर्वतं गन्धमादनम् ॥ २४ ॥
यस्य नागायुतैर्वीर्यं भुजयोः सारमर्पितम्।
तेन वो भीमसेनेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने द्रौपदीपर अपना प्रेम जताते हुए अत्यन्त दुर्गम एवं भयंकर गन्धमादन पर्वतकी भूमिमें प्रवेश करके क्रोधवश नामवाले राक्षसोंको मार डाला, जिनकी दोनों भुजाओंमें दस हजार हाथियोंके समान बल है, उन्हीं भीमसेनके बलसे पाण्डवोंने आपलोगोंपर आक्रमणका उद्योग किया है॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णद्वितीयो विक्रम्य तुष्ट्यर्थं जातवेदसः।
अजयद् यः पुरा वीरो युध्यमानं पुरंदरम् ॥ २६ ॥
यः स साक्षान्महादेवं गिरिशं शूलपाणिनम्।
तोषयामास युद्धेन देवदेवमुमापतिम् ॥ २७ ॥
यश्च सर्वान् वशे चक्रे लोकपालान् धनुर्धरः।
तेन वो विजयेनाजौ पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ २८ ॥

मूलम्

कृष्णद्वितीयो विक्रम्य तुष्ट्यर्थं जातवेदसः।
अजयद् यः पुरा वीरो युध्यमानं पुरंदरम् ॥ २६ ॥
यः स साक्षान्महादेवं गिरिशं शूलपाणिनम्।
तोषयामास युद्धेन देवदेवमुमापतिम् ॥ २७ ॥
यश्च सर्वान् वशे चक्रे लोकपालान् धनुर्धरः।
तेन वो विजयेनाजौ पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन वीरशिरोमणिने पहले केवल भगवान् श्रीकृष्णके साथ जाकर अग्निदेवकी तृप्तिके लिये पराक्रम करके अपने साथ युद्ध करनेवाले देवराज इन्द्रको भी पराजित कर दिया, जिन्होंने युद्धके द्वारा पर्वतपर शयन करनेवाले तथा हाथोंमें त्रिशूल लिये रहनेवाले साक्षात् देवाधिदेव महादेव उमापतिको भी संतुष्ट किया था तथा जिन धनुर्धर वीरने समस्त लोकपालोंको भी हराकर अपने वशमें कर लिया, उन्हीं अर्जुनके बलपर पाण्डवलोग युद्धमें आपलोगोंसे भिड़नेको तैयार हैं॥२६—२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः प्रतीचीं दिशं चक्रे वशे म्लेच्छगणायुताम्।
स तत्र नकुलो योद्धा चित्रयोधी व्यवस्थितः ॥ २९ ॥
तेन वो दर्शनीयेन वीरेणातिधनुर्भृता।
माद्रीपुत्रेण कौरव्य पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ३० ॥

मूलम्

यः प्रतीचीं दिशं चक्रे वशे म्लेच्छगणायुताम्।
स तत्र नकुलो योद्धा चित्रयोधी व्यवस्थितः ॥ २९ ॥
तेन वो दर्शनीयेन वीरेणातिधनुर्भृता।
माद्रीपुत्रेण कौरव्य पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! जिन्होंने सहस्रों म्लेच्छोंसे भरी हुई पश्चिम दिशाको जीतकर अपने अधीन कर लिया था, वे विचित्र रीतिसे युद्ध करनेमें कुशल योद्धा नकुल उधरसे युद्धके लिये तैयार खड़े हैं। माद्रीकुमार नकुल महान् धनुर्धर और अत्यन्त दर्शनीय वीर हैं। उनके बलसे पाण्डवोंने आपलोगोंपर आक्रमणकी तैयारी की है॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः काशीनङ्गमगन् कलिङ्गांश्च युधाजयत्।
तेन वः सहदेवेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ३१ ॥

मूलम्

यः काशीनङ्गमगन् कलिङ्गांश्च युधाजयत्।
तेन वः सहदेवेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने युद्धमें काशी, अंग, मगध तथा कलिंग-देशके राजाओंको पराजित किया है, उन वीरवर सहदेवके बलसे पाण्डव आपलोगोंसे भिड़नेके लिये तैयार हुए हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य वीर्येण सदृशाश्चत्वारो भुवि मानवाः।
अश्वत्थामा धृष्टकेतू रुक्मी प्रद्युम्न एव च ॥ ३२ ॥
तेन वः सहदेवेन युद्धं राजन् महात्ययम्।
यवीयसा नृवीरेण माद्रीनन्दिकरेण च ॥ ३३ ॥

मूलम्

यस्य वीर्येण सदृशाश्चत्वारो भुवि मानवाः।
अश्वत्थामा धृष्टकेतू रुक्मी प्रद्युम्न एव च ॥ ३२ ॥
तेन वः सहदेवेन युद्धं राजन् महात्ययम्।
यवीयसा नृवीरेण माद्रीनन्दिकरेण च ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस भूमण्डलमें अश्वत्थामा, धृष्टकेतु, रुक्मी तथा प्रद्युम्न—ये चार पुरुष ही बल और पराक्रममें जिनकी समानता कर सकते हैं, जो माद्रीको आनन्द प्रदान करनेवाले तथा पाण्डवोंमें सबसे छोटे हैं, उन नरश्रेष्ठ वीर सहदेवके साथ आपलोगोंका महान् विनाशकारी युद्ध होनेवाला है॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपश्चचार या घोरं काशिकन्या पुरा सती।
भीष्मस्य वधमिच्छन्ती प्रेत्यापि भरतर्षभ ॥ ३४ ॥
पाञ्चालस्य सुता जज्ञे दैवाच्च स पुनः पुमान्।
स्त्रीपुंसोः पुरुषव्याघ्र यः स वेद गुणागुणान् ॥ ३५ ॥

मूलम्

तपश्चचार या घोरं काशिकन्या पुरा सती।
भीष्मस्य वधमिच्छन्ती प्रेत्यापि भरतर्षभ ॥ ३४ ॥
पाञ्चालस्य सुता जज्ञे दैवाच्च स पुनः पुमान्।
स्त्रीपुंसोः पुरुषव्याघ्र यः स वेद गुणागुणान् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! पूर्वकालमें काशिराजकी जिस सती-साध्वी कन्या अम्बाने भीष्मजीके वधकी इच्छासे घोर तपस्या की थी, वही मृत्युके पश्चात् पांचालराज द्रुपदकी पुत्री होकर उत्पन्न हुई, परंतु दैववश वह फिर पुरुष हो गयी। वह वीर पांचालकुमार स्त्री और पुरुष दोनों शरीरोंके गुण और अवगुणको जानता है॥३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः कलिङ्गान् समापेदे पाञ्चाल्यो युद्धदुर्मदः।
शिखण्डिना वः कुरवः कृतास्त्रेणाभ्ययुञ्जत ॥ ३६ ॥

मूलम्

यः कलिङ्गान् समापेदे पाञ्चाल्यो युद्धदुर्मदः।
शिखण्डिना वः कुरवः कृतास्त्रेणाभ्ययुञ्जत ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरवो! वह द्रुपदकुमार युद्धमें उन्मत्त होकर लड़नेवाला है। उसीने कलिंगदेशीय क्षत्रियोंको पराजित किया था। उस अस्त्रवेत्ता वीरका नाम शिखण्डी है, जिसके बलपर पाण्डवोंने आपलोगोंसे युद्धकी तैयारी की है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं यक्षः पुरुषं चक्रे भीष्मस्य निधनेच्छया।
महेष्वासेन रौद्रेण पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ३७ ॥

मूलम्

यं यक्षः पुरुषं चक्रे भीष्मस्य निधनेच्छया।
महेष्वासेन रौद्रेण पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे स्थूणाकर्ण यक्षने पुरुष बना दिया था, भीष्मके वधकी इच्छा रखनेवाले उस भयंकर एवं महाधनुर्धर शिखण्डीके बलपर पाण्डव आपसे युद्ध करनेको तैयार हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महेष्वासा राजपुत्रा भ्रातरः पञ्च केकयाः।
आमुक्तकवचाः शूरास्तैश्च वस्तेऽभ्ययुञ्जत ॥ ३८ ॥

मूलम्

महेष्वासा राजपुत्रा भ्रातरः पञ्च केकयाः।
आमुक्तकवचाः शूरास्तैश्च वस्तेऽभ्ययुञ्जत ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केकयदेशके पाँच राजकुमार जो परस्पर भाई हैं, सदा कवच बाँधे युद्धके लिये उद्यत रहते हैं। वे महान् धनुर्धर शूरवीर हैं। उनके बलपर पाण्डवोंने आपलोगोंसे युद्धकी तैयारी की है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो दीर्घबाहुः क्षिप्रास्त्रो धृतिमान् सत्यविक्रमः।
तेन वो वृष्णिवीरेण युयुधानेन संगरः ॥ ३९ ॥

मूलम्

यो दीर्घबाहुः क्षिप्रास्त्रो धृतिमान् सत्यविक्रमः।
तेन वो वृष्णिवीरेण युयुधानेन संगरः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी बड़ी-बड़ी भुजाएँ हैं, जो बड़ी शीघ्रतासे अस्त्र-संचालन करते हैं तथा जो धीर एवं सत्यपराक्रमी हैं, उन वृष्णिवीर सात्यकिके साथ आपलोगोंका संग्राम होनेवाला है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य आसीच्छरणं काले पाण्डवानां महात्मनाम्।
रणे तेन विराटेन भविता वः समागमः ॥ ४० ॥

मूलम्

य आसीच्छरणं काले पाण्डवानां महात्मनाम्।
रणे तेन विराटेन भविता वः समागमः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अज्ञातवासके समय महात्मा पाण्डवोंके आश्रयदाता थे, उन राजा विराटके साथ भी आपलोगोंका युद्ध होगा॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स काशिपती राजा वाराणस्यां महारथः।
स तेषामभवद् योद्धा तेन वस्तेऽभ्ययुञ्जत ॥ ४१ ॥

मूलम्

यः स काशिपती राजा वाराणस्यां महारथः।
स तेषामभवद् योद्धा तेन वस्तेऽभ्ययुञ्जत ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काशिदेशके अधिपति महारथी नरेश जो वाराणसीपुरीमें रहते हैं, पाण्डवोंकी ओरसे युद्ध करनेको तैयार हैं। उनको साथ लेकर पाण्डव आपलोगोंपर आक्रमण करनेके लिये तैयार हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिशुभिर्दुर्जयैः संख्ये द्रौपदेयैर्महात्मभिः ।
आशीविषसमस्पर्शैः पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ४२ ॥

मूलम्

शिशुभिर्दुर्जयैः संख्ये द्रौपदेयैर्महात्मभिः ।
आशीविषसमस्पर्शैः पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीके महामना पुत्र देखनेमें बालक होनेपर भी समरभूमिमें दुर्जय हैं। उन्हें छेड़ना विषधर सर्पोंको छू लेनेके समान है। उनके बलपर भी पाण्डव आपलोगोंसे भिड़नेकी तैयारी कर रहे हैं॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः कृष्णसदृशो वीर्य युधिष्ठिरसमो दमे।
तेनाभिमन्युना संख्ये पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ४३ ॥

मूलम्

यः कृष्णसदृशो वीर्य युधिष्ठिरसमो दमे।
तेनाभिमन्युना संख्ये पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पराक्रममें भगवान् श्रीकृष्णके समान और इन्द्रियसंयममें युधिष्ठिरके तुल्य हैं, उन अभिमन्युको साथ लेकर पाण्डवोंने आपलोगोंसे युद्धकी तैयारी की है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चैवाप्रतिमो वीर्ये धृष्टकेतुर्महायशाः ।
दुःसहः समरे क्रुद्धः शैशुपालिर्महारथः ॥ ४४ ॥
तेन वश्चेदिराजेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत।
अक्षौहिण्या परिवृतः पाण्डवान् योऽभिसंश्रितः ॥ ४५ ॥

मूलम्

यश्चैवाप्रतिमो वीर्ये धृष्टकेतुर्महायशाः ।
दुःसहः समरे क्रुद्धः शैशुपालिर्महारथः ॥ ४४ ॥
तेन वश्चेदिराजेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत।
अक्षौहिण्या परिवृतः पाण्डवान् योऽभिसंश्रितः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके पराक्रमकी कहीं तुलना नहीं है, शिशुपालका वह महारथी पुत्र महायशस्वी धृष्टकेतु समरभूमिमें कुपित होनेपर शत्रुओंके लिये दुःसह हो उठता है। उस चेदिराजके साथ पाण्डवलोग आपपर आक्रमण करनेकी तैयारी कर रहे हैं। उसने एक अक्षौहिणी सेनाके साथ आकर पाण्डवोंका पक्ष ग्रहण किया है॥४४-४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः संश्रयः पाण्डवानां देवानामिव वासवः।
तेन वो वासुदेवेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ४६ ॥

मूलम्

यः संश्रयः पाण्डवानां देवानामिव वासवः।
तेन वो वासुदेवेन पाण्डवा अभ्ययुञ्जत ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे इन्द्र देवताओंके आश्रयदाता हैं, उसी प्रकार जो पाण्डवोंको शरण देनेवाले हैं, उन भगवान् वासुदेवके साथ पाण्डवोंने आपपर आक्रमण करनेकी तैयारी की है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा चेदिपतेर्भ्राता शरभो भरतर्षभ।
करकर्षेण सहितस्ताभ्यां वस्तेऽभ्ययुञ्जत ॥ ४७ ॥

मूलम्

तथा चेदिपतेर्भ्राता शरभो भरतर्षभ।
करकर्षेण सहितस्ताभ्यां वस्तेऽभ्ययुञ्जत ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! चेदिराजके भाई शरभ (अपने अनुज) करकर्षके साथ पाण्डवोंकी सहायताके लिये आये हैं। उन दोनोंको साथ लेकर उन्होंने आपसे युद्ध करनेका उद्योग किया है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जारासंधिः सहदेवो जयत्सेनश्च तावुभौ।
युद्धेऽप्रतिरथौ वीरौ पाण्डवार्थे व्यवस्थितौ ॥ ४८ ॥

मूलम्

जारासंधिः सहदेवो जयत्सेनश्च तावुभौ।
युद्धेऽप्रतिरथौ वीरौ पाण्डवार्थे व्यवस्थितौ ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरासंधपुत्र सहदेव और जयत्सेन दोनों युद्धमें अपना सानी नहीं रखते हैं। वे दोनों मागध वीर पाण्डवोंकी सहायताके लिये आकर डटे हुए हैं॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रुपदश्च महातेजा बलेन महता वृतः।
त्यक्तात्मा पाण्डवार्थाय योत्स्यमानो व्यवस्थितः ॥ ४९ ॥

मूलम्

द्रुपदश्च महातेजा बलेन महता वृतः।
त्यक्तात्मा पाण्डवार्थाय योत्स्यमानो व्यवस्थितः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी राजा द्रुपद विशाल सेनाके साथ आये हैं और पाण्डवोंके लिये अपने शरीर और प्राणोंकी परवा न करके युद्ध करनेके लिये उद्यत हैं॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते चान्ये च बहवः प्राच्योदीच्या महीक्षितः।
शतशो यानुपाश्रित्य धर्मराजो व्यवस्थितः ॥ ५० ॥

मूलम्

एते चान्ये च बहवः प्राच्योदीच्या महीक्षितः।
शतशो यानुपाश्रित्य धर्मराजो व्यवस्थितः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये तथा और भी बहुत-से पूर्व तथा उत्तर-दिशाओंमें रहनेवाले नरेश सैकड़ोंकी संख्यामें आकर वहाँ डटे हुए हैं, जिनका आश्रय लेकर महाराज युधिष्ठिर युद्धके लिये तैयार हैं॥५०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि संजयवाक्ये पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें संजयवाक्यविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५०॥