भागसूचना
एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीष्मका दुर्योधनको संधिके लिये समझाते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनकी महिमा बताना एवं कर्णपर आक्षेप करना, कर्णकी आत्मप्रशंसा, भीष्मके द्वारा उसका पुनः उपहास एवं द्रोणाचार्यद्वारा भीष्मजीके कथनका अनुमोदन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
समवेतेषु सर्वेषु तेषु राजसु भारत।
दुर्योधनमिदं वाक्यं भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
समवेतेषु सर्वेषु तेषु राजसु भारत।
दुर्योधनमिदं वाक्यं भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! वहाँ एकत्र हुए उन समस्त राजाओंकी मण्डलीमें शान्तनुनन्दन भीष्मने दुर्योधनसे यह बात कही—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहस्पतिश्चोशना च ब्रह्माणं पर्युपस्थितौ।
मरुतश्च सहेन्द्रेण वसवश्चाग्निना सह ॥ २ ॥
आदित्याश्चैव साध्याश्च ये च सप्तर्षयो दिवि।
विश्वावसुश्च गन्धर्वः शुभाश्चाप्सरसां गणाः ॥ ३ ॥
मूलम्
बृहस्पतिश्चोशना च ब्रह्माणं पर्युपस्थितौ।
मरुतश्च सहेन्द्रेण वसवश्चाग्निना सह ॥ २ ॥
आदित्याश्चैव साध्याश्च ये च सप्तर्षयो दिवि।
विश्वावसुश्च गन्धर्वः शुभाश्चाप्सरसां गणाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, बृहस्पति और शुक्राचार्य ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित हुए। उनके साथ इन्द्रसहित मरुद्गण, अग्नि, वसुगण, आदित्य, साध्य, सप्तर्षि, विश्वावसु गन्धर्व और श्रेष्ठ अप्सराएँ भी वहाँ मौजूद थीं॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्कृत्योपजग्मुस्ते लोकवृद्धं पितामहम् ।
परिवार्य च विश्वेशं पर्यासत दिवौकसः ॥ ४ ॥
मूलम्
नमस्कृत्योपजग्मुस्ते लोकवृद्धं पितामहम् ।
परिवार्य च विश्वेशं पर्यासत दिवौकसः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सब देवता संसारके बड़े-बूढ़े पितामह ब्रह्माजीके पास गये और उन्हें प्रणाम करनेके पश्चात् उन लोकेश्वरको सब ओरसे घेरकर बैठ गये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां मनश्च तेजश्चाप्याददानाविवौजसा ।
पूर्वदेवौ व्यतिक्रान्तौ नरनारायणावृषी ॥ ५ ॥
मूलम्
तेषां मनश्च तेजश्चाप्याददानाविवौजसा ।
पूर्वदेवौ व्यतिक्रान्तौ नरनारायणावृषी ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय पुरातन देवता नर-नारायण ऋषि उधर आ निकले और अपनी कान्ति तथा ओजसे उन सबके चित्त और तेजका अपहरण-सा करते हुए उस स्थानको लाँघकर चले गये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहस्पतिस्तु पप्रच्छ ब्रह्माणं काविमाविति।
भवन्तं नोपतिष्ठेते तौ नः शंस पितामह ॥ ६ ॥
मूलम्
बृहस्पतिस्तु पप्रच्छ ब्रह्माणं काविमाविति।
भवन्तं नोपतिष्ठेते तौ नः शंस पितामह ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख बृहस्पतिजीने ब्रह्माजीसे पूछा—‘पितामह! ये दोनों कौन हैं, जिन्होंने आपका अभिनन्दन भी नहीं किया। हमें इनका परिचय दीजिये’॥६॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावेतौ पृथिवीं द्यां च भासयन्तौ तपस्विनौ।
ज्वलन्तौ रोचमानौ च व्याप्यातीतौ महाबलौ ॥ ७ ॥
नरनारायणावेतौ लोकाल्लोकं समास्थितौ ।
ऊर्जितौ स्वेन तपसा महासत्त्वपराक्रमौ ॥ ८ ॥
मूलम्
यावेतौ पृथिवीं द्यां च भासयन्तौ तपस्विनौ।
ज्वलन्तौ रोचमानौ च व्याप्यातीतौ महाबलौ ॥ ७ ॥
नरनारायणावेतौ लोकाल्लोकं समास्थितौ ।
ऊर्जितौ स्वेन तपसा महासत्त्वपराक्रमौ ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजी बोले— बृहस्पते! ये जो दोनों महान् शक्तिशाली तपस्वी पृथ्वी और आकाशको प्रकाशित करते हुए हमलोगोंका अतिक्रमण करके आगे बढ़ गये हैं, नर और नारायण हैं। ये अपने तेजसे प्रज्वलित और कान्तिसे प्रकाशित हो रहे हैं। इनका धैर्य और पराक्रम महान् है। ये अपनी तपस्यासे अत्यन्त प्रभावशाली होनेके कारण भूलोकसे ब्रह्मलोकमें आये हैं॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतौ हि कर्मणा लोकं नन्दयामासतुर्ध्रुवम्।
द्विधाभूतौ महाप्राज्ञौ विद्धि ब्रह्मन् परंतपौ।
असुराणां विनाशाय देवगन्धर्वपूजितौ ॥ ९ ॥
मूलम्
एतौ हि कर्मणा लोकं नन्दयामासतुर्ध्रुवम्।
द्विधाभूतौ महाप्राज्ञौ विद्धि ब्रह्मन् परंतपौ।
असुराणां विनाशाय देवगन्धर्वपूजितौ ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्होंने अपने सत्कर्मोंसे निश्चय ही सम्पूर्ण लोकोंका आनन्द बढ़ाया है। ब्रह्मन्! ये दोनों अत्यन्त बुद्धिमान् और शत्रुओंको संताप देनेवाले हैं। इन्होंने एक होते हुए भी असुरोंका विनाश करनेके लिये दो शरीर धारण किये हैं। देवता और गन्धर्व सभी इनकी पूजा करते हैं॥९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगाम शक्रस्तच्छ्रुत्वा यत्र तौ तेपतुस्तपः।
सार्धं देवगणैः सर्वैर्बृहस्पतिपुरोगमैः ॥ १० ॥
मूलम्
जगाम शक्रस्तच्छ्रुत्वा यत्र तौ तेपतुस्तपः।
सार्धं देवगणैः सर्वैर्बृहस्पतिपुरोगमैः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर इन्द्र बृहस्पति आदि सब देवताओंके साथ उस स्थानपर गये जहाँ उन दोनों ऋषियोंने तपस्या की थी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा देवासुरे युद्धे भये जाते दिवौकसाम्।
अयाचत महात्मानौ नरनारायणौ वरम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तदा देवासुरे युद्धे भये जाते दिवौकसाम्।
अयाचत महात्मानौ नरनारायणौ वरम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों देवासुर-संग्राम उपस्थित था और उसमें देवताओंको महान् भय प्राप्त हुआ था; अतः उन्होंने उन दोनों महात्मा नर-नारायणसे वरदान माँगा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावब्रूतां वृणीष्वेति तदा भरतसत्तम।
अथैतावब्रवीच्छक्रः साह्यं नः क्रियतामिति ॥ १२ ॥
मूलम्
तावब्रूतां वृणीष्वेति तदा भरतसत्तम।
अथैतावब्रवीच्छक्रः साह्यं नः क्रियतामिति ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! देवताओंकी प्रार्थना सुनकर उस समय उन दोनों ऋषियोंने इन्द्रसे कहा—‘तुम्हारी जो इच्छा हो, उसके अनुसार वर माँगो।’ तब इन्द्रने उनसे कहा—‘भगवन्! आप हमारी सहायता करें’॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तौ शक्रमब्रूतां करिष्यावो यदिच्छसि।
ताभ्यां च सहितः शक्रो विजिग्ये दैत्यदानवान् ॥ १३ ॥
मूलम्
ततस्तौ शक्रमब्रूतां करिष्यावो यदिच्छसि।
ताभ्यां च सहितः शक्रो विजिग्ये दैत्यदानवान् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब नर-नारायण ऋषियोंने इन्द्रसे कहा—‘देवराज! तुम जो कुछ चाहते हो, वह हम करेंगे।’ फिर उन दोनोंको साथ लेकर इन्द्रने समस्त दैत्यों और दानवोंपर विजय पायी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नर इन्द्रस्य संग्रामे हत्वा शत्रून् परंतपः।
पौलोमान् कालखञ्जांश्च सहस्राणि शतानि च ॥ १४ ॥
मूलम्
नर इन्द्रस्य संग्रामे हत्वा शत्रून् परंतपः।
पौलोमान् कालखञ्जांश्च सहस्राणि शतानि च ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समय शत्रुओंको संताप देनेवाले नरस्वरूप अर्जुनने युद्धमें इन्द्रसे शत्रुता रखनेवाले सैकड़ों और हजारों पौलोम एवं कालखंज नामक दानवोंका संहार किया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष भ्रान्ते रथे तिष्ठन् भल्लेनापाहरच्छिरः।
जम्भस्य ग्रसमानस्य तदा ह्यर्जुन आहवे ॥ १५ ॥
मूलम्
एष भ्रान्ते रथे तिष्ठन् भल्लेनापाहरच्छिरः।
जम्भस्य ग्रसमानस्य तदा ह्यर्जुन आहवे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय ये नरस्वरूप अर्जुन सब ओर चक्कर लगानेवाले रथपर बैठे हुए थे, तो भी इन्होंने सबको अपना ग्रास बनानेवाले जम्भ नामक असुरका मस्तक अपने एक भल्लसे काट गिराया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष पारे समुद्रस्य हिरण्यपुरमारुजत्।
जित्वा षष्टिं सहस्राणि निवातकवचान् रणे ॥ १६ ॥
मूलम्
एष पारे समुद्रस्य हिरण्यपुरमारुजत्।
जित्वा षष्टिं सहस्राणि निवातकवचान् रणे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्होंने ही संग्राममें साठ हजार निवातकवचोंको पराजित करके समुद्रके उस पार बसे हुए दैत्योंके हिरण्यपुर नामक नगरको तहस-नहस कर डाला॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष देवान् सहेन्द्रेण जित्वा परपुरञ्जयः।
अतर्पयन्महाबाहुरर्जुनो जातवेदसम् ॥ १७ ॥
मूलम्
एष देवान् सहेन्द्रेण जित्वा परपुरञ्जयः।
अतर्पयन्महाबाहुरर्जुनो जातवेदसम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंके नगरपर विजय पानेवाले इन महाबाहु अर्जुनने खाण्डवदाहके समय इन्द्रसहित समस्त देवताओंको जीतकर अग्निदेवको पूर्णतः तृप्त किया था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणस्तथैवात्र भूयसोऽन्याञ्जघान ह ।
एवमेतौ महावीर्यौ तौ पश्यत समागतौ ॥ १८ ॥
मूलम्
नारायणस्तथैवात्र भूयसोऽन्याञ्जघान ह ।
एवमेतौ महावीर्यौ तौ पश्यत समागतौ ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णने भी खाण्डवदाहके समय दूसरे बहुत-से हिंसक प्राणियोंको यमलोक पहुँचाया था। इस प्रकार ये दोनों महान् पराक्रमी हैं। दुर्योधन! इस समय ये दोनों एक-दूसरेसे मिल गये हैं, इस बातको तुमलोग अच्छी तरह देख और समझ लो॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवार्जुनौ वीरौ समवेतौ महारथौ।
नरनारायणौ देवौ पूर्वदेवाविति श्रुतिः ॥ १९ ॥
मूलम्
वासुदेवार्जुनौ वीरौ समवेतौ महारथौ।
नरनारायणौ देवौ पूर्वदेवाविति श्रुतिः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परस्पर मिले हुए महारथी वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन पुरातन देवता नर और नारायण ही हैं; यह बात विख्यात है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजेयौ मानुषे लोके सेन्द्रैरपि सुरासुरैः।
एष नारायणः कृष्णः फाल्गुनश्च नरः स्मृतः।
नारायणो नरश्चैव सत्त्वमेकं द्विधा कृतम् ॥ २० ॥
मूलम्
अजेयौ मानुषे लोके सेन्द्रैरपि सुरासुरैः।
एष नारायणः कृष्णः फाल्गुनश्च नरः स्मृतः।
नारायणो नरश्चैव सत्त्वमेकं द्विधा कृतम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस मनुष्यलोकमें इन्हें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी नहीं जीत सकते। ये श्रीकृष्ण नारायण हैं और अर्जुन नर माने गये हैं। नारायण और नर दोनों एक ही सत्ता हैं, परंतु लोकहितके लिये दो शरीर धारण करके प्रकट हुए हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतौ हि कर्मणा लोकानश्नुवातेऽक्षयान् ध्रुवान्।
तत्र तत्रैव जायेते युद्धकाले पुनः पुनः ॥ २१ ॥
मूलम्
एतौ हि कर्मणा लोकानश्नुवातेऽक्षयान् ध्रुवान्।
तत्र तत्रैव जायेते युद्धकाले पुनः पुनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये दोनों अपने सत्कर्मके प्रभावसे अक्षय एवं ध्रुवलोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं। लोकहितके लिये जब-जब जहाँ-जहाँ युद्धका अवसर आता है, तब-तब वहाँ-वहाँ ये बार-बार अवतार ग्रहण करते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् कर्मैव कर्तव्यमिति होवाच नारदः।
एतद्धि सर्वमाचष्ट वृष्णिचक्रस्य वेदवित् ॥ २२ ॥
मूलम्
तस्मात् कर्मैव कर्तव्यमिति होवाच नारदः।
एतद्धि सर्वमाचष्ट वृष्णिचक्रस्य वेदवित् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्टोंका दमन करके साधु पुरुषों एवं धर्मका संरक्षण ही इनका कर्तव्य है, ये सारी बातें वेदोंके ज्ञाता नारदजीने समस्त वृष्णिवंशियोंके सम्मुख कही थीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्खचक्रगदाहस्तं यदा द्रक्ष्यसि केशवम्।
पर्याददानं चास्त्राणि भीमधन्वानमर्जुनम् ॥ २३ ॥
सनातनौ महात्मानौ कृष्णावेकरथे स्थितौ।
दुर्योधन तदा तात स्मर्तासि वचनं मम ॥ २४ ॥
मूलम्
शङ्खचक्रगदाहस्तं यदा द्रक्ष्यसि केशवम्।
पर्याददानं चास्त्राणि भीमधन्वानमर्जुनम् ॥ २३ ॥
सनातनौ महात्मानौ कृष्णावेकरथे स्थितौ।
दुर्योधन तदा तात स्मर्तासि वचनं मम ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स दुर्योधन! जब तुम देखोगे कि दोनों सनातन महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन एक ही रथपर बैठे हैं, श्रीकृष्णके हाथमें शंख, चक्र और गदा है और भयंकर धनुष धारण करनेवाले अर्जुन निरन्तर नाना प्रकारके अस्त्र लेते और छोड़ते जा रहे हैं, तब तुम्हें मेरी बातें याद आयेंगी॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोचेदयमभावः स्यात् कुरूणां प्रत्युपस्थितः।
अर्थाच्च तात धर्माच्च तव बुद्धिरुपप्लुता ॥ २५ ॥
मूलम्
नोचेदयमभावः स्यात् कुरूणां प्रत्युपस्थितः।
अर्थाच्च तात धर्माच्च तव बुद्धिरुपप्लुता ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तुमने मेरी बात नहीं मानी तो समझ लो, कौरवोंका विनाश अवश्य ही उपस्थित हो जायगा। तात! तुम्हारी बुद्धि अर्थ और धर्म दोनोंसे भ्रष्ट हो गयी है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चेद् ग्रहीष्यसे वाक्यं श्रोतासि सुबहून् हतान्।
तवैव हि मतं सर्वे कुरवः पर्युपासते ॥ २६ ॥
मूलम्
न चेद् ग्रहीष्यसे वाक्यं श्रोतासि सुबहून् हतान्।
तवैव हि मतं सर्वे कुरवः पर्युपासते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मेरा कहना नहीं मानोगे तो एक दिन सुनोगे कि हमारे बहुत-से सगे-सम्बन्धी मार डाले गये; क्योंकि सब कौरव तुम्हारे ही मतका अनुसरण करते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयाणामेव च मतं तत् त्वमेकोऽनुमन्यसे।
रामेण चैव शप्तस्य कर्णस्य भरतर्षभ ॥ २७ ॥
दुर्जातेः सूतपुत्रस्य शकुनेः सौबलस्य च।
तथा क्षुद्रस्य पापस्य भ्रातुर्दुःशासनस्य च ॥ २८ ॥
मूलम्
त्रयाणामेव च मतं तत् त्वमेकोऽनुमन्यसे।
रामेण चैव शप्तस्य कर्णस्य भरतर्षभ ॥ २७ ॥
दुर्जातेः सूतपुत्रस्य शकुनेः सौबलस्य च।
तथा क्षुद्रस्य पापस्य भ्रातुर्दुःशासनस्य च ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! एक तुम्हीं ऐसे हो, जो कि परशुरामजीके द्वारा अभिशप्त खोटी जातिवाले सूतपुत्र कर्ण एवं सुबलपुत्र शकुनि तथा अपने नीच एवं पापात्मा भाई दुःशासन—इन तीनोंके मतका अनुमोदन एवं अनुसरण करते हो॥२७-२८॥
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवमायुष्मता वाच्यं यन्मामात्थ पितामह।
क्षत्रधर्मे स्थितो ह्यस्मि स्वधर्मादनपेयिवान् ॥ २९ ॥
मूलम्
नैवमायुष्मता वाच्यं यन्मामात्थ पितामह।
क्षत्रधर्मे स्थितो ह्यस्मि स्वधर्मादनपेयिवान् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण बोला— पितामह! आपने मेरे प्रति जिन शब्दोंका प्रयोग किया है, वे अनुचित हैं। आप-जैसे वृद्ध पुरुषको ऐसी बातें मुँहसे नहीं निकालनी चाहिये। मैं क्षत्रियधर्ममें स्थित हूँ और अपने धर्मसे कभी भ्रष्ट नहीं हुआ हूँ॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं चान्यन्मयि दुर्वृत्तं येन मां परिगर्हसे।
न हि मे वृजिनं किंचिद् धार्तराष्ट्रा विदुः क्वचित्॥३०॥
नाचरं वृजिनं किंचिद् धार्तराष्ट्रस्य नित्यशः।
मूलम्
किं चान्यन्मयि दुर्वृत्तं येन मां परिगर्हसे।
न हि मे वृजिनं किंचिद् धार्तराष्ट्रा विदुः क्वचित्॥३०॥
नाचरं वृजिनं किंचिद् धार्तराष्ट्रस्य नित्यशः।
अनुवाद (हिन्दी)
मुझमें कौन-सा ऐसा दुराचार है जिसके कारण आप मेरी निन्दा करते हैं। महाराज धृतराष्ट्रके पुत्रोंने कभी मेरा कोई पापाचार देखा या जाना हो ऐसी बात नहीं है। मैंने दुर्योधनका कभी कोई अनिष्ट नहीं किया है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि पाण्डवान् सर्वान् हनिष्यामि रणे स्थितान् ॥ ३१ ॥
प्राग्विरुद्धैः शमं सद्भिः कथं वा क्रियते पुनः।
मूलम्
अहं हि पाण्डवान् सर्वान् हनिष्यामि रणे स्थितान् ॥ ३१ ॥
प्राग्विरुद्धैः शमं सद्भिः कथं वा क्रियते पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
मैं युद्धभूमिमें खड़े होनेपर समस्त पाण्डवोंको अवश्य मार डालूँगा। जो लोग पहले अपने विरोधी रहे हों, उनके साथ पुनः संधि कैसे की जा सकती है?॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञो हि धृतराष्ट्रस्य सर्वं कार्यं प्रियं मया।
तथा दुर्योधनस्यापि स हि राज्ये समाहितः ॥ ३२ ॥
मूलम्
राज्ञो हि धृतराष्ट्रस्य सर्वं कार्यं प्रियं मया।
तथा दुर्योधनस्यापि स हि राज्ये समाहितः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे जिस प्रकार राजा धृतराष्ट्रका समस्त प्रिय कार्य करना चाहिये, उसी प्रकार दुर्योधनका भी करना उचित है; क्योंकि अब वे ही राज्यपर प्रतिष्ठित हैं॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णस्य तु वचः श्रुत्वा भीष्मः शान्तनवः पुनः।
धृतराष्ट्रं महाराज सम्भाष्येदं वचोऽब्रवीत् ॥ ३३ ॥
मूलम्
कर्णस्य तु वचः श्रुत्वा भीष्मः शान्तनवः पुनः।
धृतराष्ट्रं महाराज सम्भाष्येदं वचोऽब्रवीत् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज जनमेजय! कर्णकी बात सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्मने राजा धृतराष्ट्रको सम्बोधित करके पुनः इस प्रकार कहा—॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदयं कत्थते नित्यं हन्ताहं पाण्डवानिति।
नायं कलापि सम्पूर्णा पाण्डवानां महात्मनाम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
यदयं कत्थते नित्यं हन्ताहं पाण्डवानिति।
नायं कलापि सम्पूर्णा पाण्डवानां महात्मनाम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! यह कर्ण जो प्रतिदिन यह डींग हाँका करता है कि मैं पाण्डवोंको मार डालूँगा, वह व्यर्थ है। मेरी रायमें यह महात्मा पाण्डवोंकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनयो योऽयमागन्ता पुत्राणां ते दुरात्मनाम्।
तदस्य कर्म जानीहि सूतपुत्रस्य दुर्मतेः ॥ ३५ ॥
मूलम्
अनयो योऽयमागन्ता पुत्राणां ते दुरात्मनाम्।
तदस्य कर्म जानीहि सूतपुत्रस्य दुर्मतेः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारे दुरात्मा पुत्रोंपर अन्यायके फलस्वरूप जो यह महान् संकट आनेवाला है, वह सब इस दूषित बुद्धिवाले सूतपुत्र कर्णकी ही करतूत समझो॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतमाश्रित्य पुत्रस्ते मन्दबुद्धिः सुयोधनः।
अवामन्यत तान् वीरान् देवपुत्रानरिंदमान् ॥ ३६ ॥
मूलम्
एतमाश्रित्य पुत्रस्ते मन्दबुद्धिः सुयोधनः।
अवामन्यत तान् वीरान् देवपुत्रानरिंदमान् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारे मन्दबुद्धि पुत्र दुर्योधनने इसीका सहारा लेकर शत्रुओंका दमन करनेवाले उन वीर देवपुत्र पाण्डवोंका अपमान किया है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं चाप्येतेन तत्कर्म कृतपूर्वं सुदुष्करम्।
तैर्यथा पाण्डवैः सर्वैरेकैकेन कृतं पुरा ॥ ३७ ॥
मूलम्
किं चाप्येतेन तत्कर्म कृतपूर्वं सुदुष्करम्।
तैर्यथा पाण्डवैः सर्वैरेकैकेन कृतं पुरा ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आजसे पहले समस्त पाण्डवोंने मिलकर अथवा उनमेंसे एक-एकने अलग-अलग जैसे-जैसे दुष्कर पराक्रम किये हैं, वैसा कौन-सा कठिन पुरुषार्थ इस सूतपुत्रने पहले कभी किया है?॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा विराटनगरे भ्रातरं निहतं प्रियम्।
धनंजयेन विक्रम्य किमनेन तदा कृतम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा विराटनगरे भ्रातरं निहतं प्रियम्।
धनंजयेन विक्रम्य किमनेन तदा कृतम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब विराटनगरमें अर्जुनने अपना पराक्रम दिखाते हुए इसके सामने ही इसके प्यारे भाईको मार डाला था, तब इसने सब कुछ अपनी आँखोंसे देखकर भी अर्जुनका क्या बिगाड़ लिया?॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहितान् हि कुरून् सर्वानभियातो धनंजयः।
प्रमथ्य चाच्छिनद् वासः किमयं प्रोषितस्तदा ॥ ३९ ॥
मूलम्
सहितान् हि कुरून् सर्वानभियातो धनंजयः।
प्रमथ्य चाच्छिनद् वासः किमयं प्रोषितस्तदा ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब धनंजयने अकेले ही समस्त कौरवोंपर आक्रमण किया और सबको मूर्च्छित करके उनके वस्त्र छीन लिये थे, उस समय यह कर्ण क्या कहीं परदेश चला गया था?॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वैर्घोषयात्रायां ह्रियते यत् सुतस्तव।
क्व तदा सूतपुत्रोऽभूद् य इदानीं वृषायते ॥ ४० ॥
मूलम्
गन्धर्वैर्घोषयात्रायां ह्रियते यत् सुतस्तव।
क्व तदा सूतपुत्रोऽभूद् य इदानीं वृषायते ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘घोषयात्राके समय जब गन्धर्वलोग तुम्हारे पुत्रको कैद करके लिये जा रहे थे, उस समय यह सूतपुत्र कहाँ था? जो इस समय साँड़की तरह डँकार रहा है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु तत्रापि भीमेन पार्थेन च महात्मना।
यमाभ्यामेव संगम्य गन्धर्वास्ते पराजिताः ॥ ४१ ॥
मूलम्
ननु तत्रापि भीमेन पार्थेन च महात्मना।
यमाभ्यामेव संगम्य गन्धर्वास्ते पराजिताः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ भी तो महात्मा भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेवने ही मिलकर उन गन्धर्वोंको परास्त किया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतान्यस्य मृषोक्तानि बहूनि भरतर्षभ।
विकत्थनस्य भद्रं ते सदा धर्मार्थलोपिनः ॥ ४२ ॥
मूलम्
एतान्यस्य मृषोक्तानि बहूनि भरतर्षभ।
विकत्थनस्य भद्रं ते सदा धर्मार्थलोपिनः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतश्रेष्ठ! तुम्हारा भला हो। यह कर्ण व्यर्थ ही शेखी बघारता रहता है। इसकी कही हुई बहुत-सी बातें इसी तरह झूठी हैं। यह तो धर्म और अर्थ—दोनोंका ही लोप करनेवाला है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मस्य तु वचः श्रुत्वा भारद्वाजो महामनाः।
धृतराष्ट्रमुवाचेदं राजमध्येऽभिपूजयन् ॥ ४३ ॥
मूलम्
भीष्मस्य तु वचः श्रुत्वा भारद्वाजो महामनाः।
धृतराष्ट्रमुवाचेदं राजमध्येऽभिपूजयन् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीकी यह बात सुनकर महामना द्रोणाचार्यने समस्त राजाओंके मध्यमें उनकी प्रशंसा करते हुए राजा धृतराष्ट्रसे इस प्रकार कहा—॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदाह भरतश्रेष्ठो भीष्मस्तत् क्रियतां नृप।
न काममर्थलिप्सूनां वचनं कर्तुमर्हसि ॥ ४४ ॥
मूलम्
यदाह भरतश्रेष्ठो भीष्मस्तत् क्रियतां नृप।
न काममर्थलिप्सूनां वचनं कर्तुमर्हसि ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! भरतकुलतिलक भीष्मजीने जो कहा है, वही कीजिये। जो लोग अर्थ और कामके लोभी हैं, उनकी बातें आपको नहीं माननी चाहिये॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा युद्धात् साधु मन्ये पाण्डवैः सह संगतम्।
यद् वाक्यमर्जुनेनोक्तं संजयेन निवेदितम् ॥ ४५ ॥
सर्वं तदपि जानामि करिष्यति च पाण्डवः।
मूलम्
पुरा युद्धात् साधु मन्ये पाण्डवैः सह संगतम्।
यद् वाक्यमर्जुनेनोक्तं संजयेन निवेदितम् ॥ ४५ ॥
सर्वं तदपि जानामि करिष्यति च पाण्डवः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तो युद्धसे पहले पाण्डवोंके साथ संधि करना ही अच्छा समझता हूँ। अर्जुनने जो बात कही है और संजयने उनका जो संदेश यहाँ सुनाया है, मैं वह सब जानता और समझता हूँ। पाण्डुनन्दन अर्जुन वैसा करके ही रहेंगे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यस्य त्रिषु लोकेषु सदृशोऽस्ति धनुर्धरः ॥ ४६ ॥
मूलम्
न ह्यस्य त्रिषु लोकेषु सदृशोऽस्ति धनुर्धरः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तीनों लोकोंमें अर्जुनके समान कोई धनुर्धर नहीं है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनादृत्य तु तद् वाक्यमर्थवद् द्रोणभीष्मयोः।
ततः स संजयं राजा पर्यपृच्छत पाण्डवान् ॥ ४७ ॥
मूलम्
अनादृत्य तु तद् वाक्यमर्थवद् द्रोणभीष्मयोः।
ततः स संजयं राजा पर्यपृच्छत पाण्डवान् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्य और भीष्मकी बातें सार्थक और सारगर्भित थीं, तथापि उनकी अवहेलना करके राजा धृतराष्ट्र पुनः संजयसे पाण्डवोंका समाचार पूछने लगे॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदैव कुरवः सर्वे निराशा जीवितेऽभवन्।
भीष्मद्रोणौ यदा राजा न सम्यगनुभाषते ॥ ४८ ॥
मूलम्
तदैव कुरवः सर्वे निराशा जीवितेऽभवन्।
भीष्मद्रोणौ यदा राजा न सम्यगनुभाषते ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजा धृतराष्ट्रने भीष्म और द्रोणाचार्यसे भी अच्छी तरह वार्तालाप नहीं किया, तभी समस्त कौरव अपने जीवनसे निराश हो गये॥४८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि भीष्मद्रोणवाक्ये एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें भीष्मद्रोणवचनविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४९॥