०४७ संजयप्रत्यागमने

भागसूचना

(यानसंधिपर्व)
सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डवोंके यहाँसे लौटे हुए संजयका कौरवसभामें आगमन

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सनत्सुजातेन विदुरेण च धीमता।
सार्धं कथयतो राज्ञः सा व्यतीयाय शर्वरी ॥ १ ॥

मूलम्

एवं सनत्सुजातेन विदुरेण च धीमता।
सार्धं कथयतो राज्ञः सा व्यतीयाय शर्वरी ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार महर्षि सनत्सुजात और बुद्धिमान् विदुरजीके साथ बातचीत करते हुए राजा धृतराष्ट्रकी सारी रात बीत गयी॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां रजन्यां व्युष्टायां राजानः सर्व एव ते।
सभामाविविशुर्हृष्टाः सूतस्योपदिदृक्षया ॥ २ ॥

मूलम्

तस्यां रजन्यां व्युष्टायां राजानः सर्व एव ते।
सभामाविविशुर्हृष्टाः सूतस्योपदिदृक्षया ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह रात बीतनेपर जब प्रभातकाल आया, तब सब राजालोग सूतपुत्र संजयको देखनेके लिये बड़े हर्षके साथ सभामें आये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुश्रूषमाणाः पार्थानां वाचो धर्मार्थसंहिताः।
धृतराष्ट्रमुखाः सर्वे ययू राजसभां शुभाम् ॥ ३ ॥
सुधावदातां विस्तीर्णां कनकाजिरभूषिताम् ।
चन्द्रप्रभां सुरुचिरां सिक्तां चन्दनवारिणा ॥ ४ ॥

मूलम्

शुश्रूषमाणाः पार्थानां वाचो धर्मार्थसंहिताः।
धृतराष्ट्रमुखाः सर्वे ययू राजसभां शुभाम् ॥ ३ ॥
सुधावदातां विस्तीर्णां कनकाजिरभूषिताम् ।
चन्द्रप्रभां सुरुचिरां सिक्तां चन्दनवारिणा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र आदि समस्त कौरवोंने भी पाण्डवोंकी धर्मार्थयुक्त बातें सुननेकी इच्छासे उस सुन्दर एवं विशाल राजसभामें प्रवेश किया, जो चूनेसे पुती होनेके कारण अत्यन्त उज्ज्वल दिखायी देती थी। सुवर्णमय प्रांगण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह सभा चन्द्रमाकी श्वेत रश्मियोंके समान प्रकाशित हो रही थी। वह देखनेमें अत्यन्त मनोहर थी और उसके भीतर चन्दनमिश्रित जलसे छिड़काव किया गया था॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुचिरैरासनैस्तीर्णां काञ्चनैर्दारवैरपि ।
अश्मसारमयैर्दान्तैः स्वास्तीर्णैः सोत्तरच्छदैः ॥ ५ ॥

मूलम्

रुचिरैरासनैस्तीर्णां काञ्चनैर्दारवैरपि ।
अश्मसारमयैर्दान्तैः स्वास्तीर्णैः सोत्तरच्छदैः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस राजसभामें सुवर्ण, काष्ठ, मणि तथा हाथीदाँतके बने हुए सुन्दर-सुन्दर आसन सुरुचिपूर्ण ढंगसे बिछे हुए थे और उनके ऊपर चादरें फैला दी गयी थीं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मो द्रोणः कृपः शल्यः कृतवर्मा जयद्रथः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सोमदत्तश्च बाह्लिकः ॥ ६ ॥
विदुरश्च महाप्राज्ञो युयुत्सुश्च महारथः।
सर्वे च सहिताः शूराः पार्थिवा भरतर्षभ ॥ ७ ॥
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य विविशुस्तां सभां शुभाम्।

मूलम्

भीष्मो द्रोणः कृपः शल्यः कृतवर्मा जयद्रथः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सोमदत्तश्च बाह्लिकः ॥ ६ ॥
विदुरश्च महाप्राज्ञो युयुत्सुश्च महारथः।
सर्वे च सहिताः शूराः पार्थिवा भरतर्षभ ॥ ७ ॥
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य विविशुस्तां सभां शुभाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, शल्य, कृतवर्मा, जयद्रथ, अश्वत्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाह्लिक, परम बुद्धिमान् विदुर, महारथी युयुत्सु तथा अन्य सभी शूरवीर नरेश धृतराष्ट्रको आगे करके उस सुन्दर सभामें एक साथ प्रविष्ट हुए॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासनश्चित्रसेनः शकुनिश्चापि सौबलः ॥ ८ ॥
दुर्मुखो दुःसहः कर्ण उलूकोऽथ विविंशतिः।
कुरुराजं पुरस्कृत्य दुर्योधनममर्षणम् ॥ ९ ॥
विविशुस्तां सभां राजन् सुराः शक्रसदो यथा।

मूलम्

दुःशासनश्चित्रसेनः शकुनिश्चापि सौबलः ॥ ८ ॥
दुर्मुखो दुःसहः कर्ण उलूकोऽथ विविंशतिः।
कुरुराजं पुरस्कृत्य दुर्योधनममर्षणम् ॥ ९ ॥
विविशुस्तां सभां राजन् सुराः शक्रसदो यथा।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! दुःशासन, चित्रसेन, सुबलपुत्र शकुनि, दुर्मुख, दुःसह, कर्ण, उलूक और विविंशति—इन सबने अमर्षमें भरे हुए कुरुराज दुर्योधनको आगे करके उस राजसभामें ठीक वैसे ही प्रवेश किया, जैसे देवतालोग इन्द्रकी सभामें प्रवेश करते हैं॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आविशद्भिस्तदा राजञ्शूरैः परिघबाहुभिः ॥ १० ॥
शुशुभे सा सभा राजन् सिंहैरिव गिरेर्गुहा।

मूलम्

आविशद्भिस्तदा राजञ्शूरैः परिघबाहुभिः ॥ १० ॥
शुशुभे सा सभा राजन् सिंहैरिव गिरेर्गुहा।

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! उस समय परिघके समान सुदृढ़ भुजाओंवाले उन शूरवीर नरेशोंके प्रवेश करनेसे वह सभा उसी प्रकार शोभा पाने लगी, जैसे सिंहोंके प्रवेश करनेसे पर्वतकी कन्दरा सुशोभित होती है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते प्रविश्य महेष्वासाः सभां सर्वे महौजसः ॥ ११ ॥
आसनानि विचित्राणि भेजिरे सूर्यवर्चसः।

मूलम्

ते प्रविश्य महेष्वासाः सभां सर्वे महौजसः ॥ ११ ॥
आसनानि विचित्राणि भेजिरे सूर्यवर्चसः।

अनुवाद (हिन्दी)

महान् धनुष धारण करनेवाले तथा सूर्यके समान कान्तिमान् उन समस्त महातेजस्वी नरेशोंने सभामें प्रवेश करके वहाँ बिछे हुए विचित्र आसनोंको सुशोभित किया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसनस्थेषु सर्वेषु तेषु राजसु भारत ॥ १२ ॥
द्वाःस्थो निवेदयामास सूतपुत्रमुपस्थितम् ।
अयं स रथ आयाति योऽयासीत् पाण्डवान् प्रति ॥ १३ ॥
दूतो नस्तूर्णमायातः सैन्धवैः साधुवाहिभिः।

मूलम्

आसनस्थेषु सर्वेषु तेषु राजसु भारत ॥ १२ ॥
द्वाःस्थो निवेदयामास सूतपुत्रमुपस्थितम् ।
अयं स रथ आयाति योऽयासीत् पाण्डवान् प्रति ॥ १३ ॥
दूतो नस्तूर्णमायातः सैन्धवैः साधुवाहिभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जब वे सब राजा आकर यथायोग्य आसनोंपर बैठ गये, तब द्वारपालने सूचना दी कि संजय राजसभाके द्वारपर उपस्थित हैं। यह वही रथ आ रहा है, जो पाण्डवोंके पास भेजा गया था। रथको अच्छी तरह वहन करनेवाले सिन्धुदेशीय घोड़ोंसे जुते हुए इस रथपर हमारे दूत संजय शीघ्र आ पहुँचे हैं॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपेयाय स तु क्षिप्रं रथात् प्रस्कन्द्य कुण्डली।
प्रविवेश सभां पूर्णां महीपालैर्महात्मभिः ॥ १४ ॥

मूलम्

उपेयाय स तु क्षिप्रं रथात् प्रस्कन्द्य कुण्डली।
प्रविवेश सभां पूर्णां महीपालैर्महात्मभिः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्वारपालके इतना कहते ही कानोंमें कुण्डल धारण किये संजय रथसे नीचे उतरकर राजसभाके निकट आया और महामना महीपालोंसे भरी हुई उस सभाके भीतर प्रविष्ट हुआ॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्तोऽस्मि पाण्डवान् गत्वा तं विजानीत कौरवाः।
यथावयः कुरून् सर्वान् प्रतिनन्दन्ति पाण्डवाः ॥ १५ ॥

मूलम्

प्राप्तोऽस्मि पाण्डवान् गत्वा तं विजानीत कौरवाः।
यथावयः कुरून् सर्वान् प्रतिनन्दन्ति पाण्डवाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— कौरवो! आपको विदित होना चाहिये कि मैं पाण्डवोंके यहाँ जाकर लौटा हूँ। पाण्डवलोग अवस्थाक्रमके अनुसार सभी कौरवोंका अभिनन्दन करते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवादयन्ति वृद्धांश्च वयस्यांश्च वयस्यवत्।
यूनश्चाभ्यवदन् पार्थाः प्रतिपूज्य यथावयः ॥ १६ ॥

मूलम्

अभिवादयन्ति वृद्धांश्च वयस्यांश्च वयस्यवत्।
यूनश्चाभ्यवदन् पार्थाः प्रतिपूज्य यथावयः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने बड़े-बूढ़ोंको प्रणाम कहलाया है। जो समवयस्क हैं, उनके साथ मित्रोचित बर्तावका संदेश दिया है तथा नवयुवकोंको भी उनकी अवस्थाके अनुसार सम्मान देकर उनसे प्रेमालापकी इच्छा प्रकट की है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाहं धृतराष्ट्रेण शिष्टः पूर्वमितो गतः।
अब्रुवं पाण्डवान् गत्वा तन्निबोधत पार्थिवाः ॥ १७ ॥
(अब्रूतां तत्र धर्मेण वासुदेवधनंजयौ।)

मूलम्

यथाहं धृतराष्ट्रेण शिष्टः पूर्वमितो गतः।
अब्रुवं पाण्डवान् गत्वा तन्निबोधत पार्थिवाः ॥ १७ ॥
(अब्रूतां तत्र धर्मेण वासुदेवधनंजयौ।)

अनुवाद (हिन्दी)

पहले यहाँसे जाते समय महाराज धृतराष्ट्रने मुझे जैसा उपदेश दिया था, पाण्डवोंके पास जाकर मैंने वैसी ही बातें कही हैं। राजाओ! अब भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने जो धर्मके अनुकूल उत्तर दिया है, उसे आपलोग ध्यान देकर सुनें॥१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि यानसंधिपर्वणि संजयप्रत्यागमने सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत यानसंधिपर्वमें संजयके लौटनेसे सम्बन्ध रखनेवाला सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४७॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल १७ श्लोक हैं।]