भागसूचना
पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गुण-दोषोंके लक्षणोंका वर्णन और ब्रह्मविद्याका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
सनत्सुजात उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोकः क्रोधश्च लोभश्च कामो मानः परासुता।
ईर्ष्या मोहो विधित्सा च कृपासूया जुगुप्सुता ॥ १ ॥
द्वादशैते महादोषा मनुष्यप्राणनाशनाः ।
मूलम्
शोकः क्रोधश्च लोभश्च कामो मानः परासुता।
ईर्ष्या मोहो विधित्सा च कृपासूया जुगुप्सुता ॥ १ ॥
द्वादशैते महादोषा मनुष्यप्राणनाशनाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
सनत्सुजातजी कहते हैं— राजन्! शोक, क्रोध, लोभ, काम, मान, अत्यन्त निद्रा, ईर्ष्या, मोह, तृष्णा, कायरता, गुणोंमें दोष देखना और निन्दा करना—ये बारह महान् दोष मनुष्योंके प्राणनाशक हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकैकमेते राजेन्द्र मनुष्यान् पर्युपासते।
यैराविष्टो नरः पापं मूढसंज्ञो व्यवस्यति ॥ २ ॥
मूलम्
एकैकमेते राजेन्द्र मनुष्यान् पर्युपासते।
यैराविष्टो नरः पापं मूढसंज्ञो व्यवस्यति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! क्रमशः एकके पीछे दूसरा आकर ये सभी दोष मनुष्योंको प्राप्त होते जाते हैं, जिनके वशमें होकर मूढ़बुद्धि मानव पापकर्म करने लगता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्पृहयालुरुग्रः परुषो वा वदान्यः
क्रोधं बिभ्रन्मनसा वै विकत्थी।
नृशंसधर्माः षडिमे जना वै
प्राप्याप्यर्थं नोत सभाजयन्ते ॥ ३ ॥
मूलम्
स्पृहयालुरुग्रः परुषो वा वदान्यः
क्रोधं बिभ्रन्मनसा वै विकत्थी।
नृशंसधर्माः षडिमे जना वै
प्राप्याप्यर्थं नोत सभाजयन्ते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोलुप, क्रूर, कठोरभाषी, कृपण, मन-ही-मन क्रोध करनेवाले और अधिक आत्मप्रशंसा करनेवाले—ये छः प्रकारके मनुष्य निश्चय ही क्रूर कर्म करनेवाले होते हैं। ये प्राप्त हुई सम्पत्तिका उचित उपयोग नहीं करते॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भोगसंविद् विषमोऽतिमानी
दत्त्वा विकत्थी कृपणो दुर्बलश्च।
बहुप्रशंसी वन्दितद्विट् सदैव
सप्तैवोक्ताः पापशीला नृशंसाः ॥ ४ ॥
मूलम्
सम्भोगसंविद् विषमोऽतिमानी
दत्त्वा विकत्थी कृपणो दुर्बलश्च।
बहुप्रशंसी वन्दितद्विट् सदैव
सप्तैवोक्ताः पापशीला नृशंसाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्भोगमें मन लगानेवाले, विषमता रखनेवाले, अत्यन्त अभिमानी, दान देकर आत्मश्लाघा करनेवाले, कृपण, असमर्थ होकर भी अपनी बहुत बड़ाई करनेवाले और सम्मान्य पुरुषोंसे सदा द्वेष रखनेवाले—ये सात प्रकारके मनुष्य ही पापी और क्रूर कहे गये हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मश्च सत्यं च तपो दमश्च
अमात्सर्यं ह्रीस्तितिक्षानसूया ।
दानं श्रुतं चैव धृतिः क्षमा च
महाव्रता द्वादश ब्राह्मणस्य ॥ ५ ॥
मूलम्
धर्मश्च सत्यं च तपो दमश्च
अमात्सर्यं ह्रीस्तितिक्षानसूया ।
दानं श्रुतं चैव धृतिः क्षमा च
महाव्रता द्वादश ब्राह्मणस्य ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म, सत्य, तप, इन्द्रियसंयम, डाह न करना, लज्जा, सहनशीलता, किसीके दोष न देखना, दान, शास्त्रज्ञान, धैर्य और क्षमा—ये ब्राह्मणके बारह महान् व्रत हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो नैतेभ्यः प्रच्यवेद् द्वादशभ्यः
सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात्।
त्रिभिर्द्वाभ्यामेकतो वान्वितो यो
नास्य स्वमस्तीति च वेदितव्यम् ॥ ६ ॥
मूलम्
यो नैतेभ्यः प्रच्यवेद् द्वादशभ्यः
सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात्।
त्रिभिर्द्वाभ्यामेकतो वान्वितो यो
नास्य स्वमस्तीति च वेदितव्यम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इन बारह व्रतोंसे कभी च्युत नहीं होता, वह इस सम्पूर्ण पृथ्वीपर शासन कर सकता है। इनमेंसे तीन, दो या एक गुणसे भी जो युक्त है, उसका अपना कुछ भी नहीं होता—ऐसा समझना चाहिये (अर्थात् उसकी किसी भी वस्तुमें ममता नहीं होती)॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमस्त्यागोऽथाप्रमाद इत्येतेष्वमृतं स्थितम् ।
एतानि ब्रह्ममुख्यानां ब्राह्मणानां मनीषिणाम् ॥ ७ ॥
मूलम्
दमस्त्यागोऽथाप्रमाद इत्येतेष्वमृतं स्थितम् ।
एतानि ब्रह्ममुख्यानां ब्राह्मणानां मनीषिणाम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियनिग्रह, त्याग और अप्रमाद—इनमें अमृतकी स्थिति है। ब्रह्म ही जिनका प्रधान लक्ष्य है, उन बुद्धिमान् ब्राह्मणोंके ये ही मुख्य साधन हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद् वासद् वा परीवादो ब्राह्मणस्य न शस्यते।
नरकप्रतिष्ठास्ते वै स्युर्य एवं कुर्वते जनाः ॥ ८ ॥
मूलम्
सद् वासद् वा परीवादो ब्राह्मणस्य न शस्यते।
नरकप्रतिष्ठास्ते वै स्युर्य एवं कुर्वते जनाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सच्ची हो या झूठी, दूसरोंकी निन्दा करना ब्राह्मणको शोभा नहीं देता। जो लोग दूसरोंकी निन्दा करते हैं, वे अवश्य ही नरकमें पड़ते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदोऽष्टादशदोषः स स्यात् पुरा योऽप्रकीर्तितः।
लोकद्वेष्यं प्रातिकूल्यमभ्यसूया मृषा वचः ॥ ९ ॥
मूलम्
मदोऽष्टादशदोषः स स्यात् पुरा योऽप्रकीर्तितः।
लोकद्वेष्यं प्रातिकूल्यमभ्यसूया मृषा वचः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मदके अठारह दोष हैं, जो पहले सूचित करके भी स्पष्टरूपसे नहीं बताये गये थे—लोकविरोधी कार्य करना, शास्त्रके प्रतिकूल आचरण करना, गुणियोंपर दोषारोपण, असत्यभाषण॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामक्रोधौ पारतन्त्र्यं परिवादोऽथ पैशुनम्।
अर्थहानिर्विवादश्च मात्सर्यं प्राणिपीडनम् ॥ १० ॥
मूलम्
कामक्रोधौ पारतन्त्र्यं परिवादोऽथ पैशुनम्।
अर्थहानिर्विवादश्च मात्सर्यं प्राणिपीडनम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काम, क्रोध, पराधीनता, दूसरोंके दोष बताना, चुगली करना, धनका (दुरुपयोगसे) नाश, कलह, डाह, प्राणियोंको कष्ट पहुँचाना॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईर्ष्या मोदोऽतिवादश्च संज्ञानाशोऽभ्यसूयिता ।
तस्मात् प्राज्ञो न माद्येत सदा ह्येतद् विगर्हितम् ॥ ११ ॥
मूलम्
ईर्ष्या मोदोऽतिवादश्च संज्ञानाशोऽभ्यसूयिता ।
तस्मात् प्राज्ञो न माद्येत सदा ह्येतद् विगर्हितम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ईर्ष्या, हर्ष, बहुत बकवाद, विवेकशून्यता तथा गुणोंमें दोष देखनेका स्वभाव। इसलिये विद्वान् पुरुषको मदके वशीभूत नहीं होना चाहिये; क्योंकि सत्पुरुषोंने इस मदको सदा ही निन्दित बताया है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौहृदे वै षड् गुणा वेदितव्याः
प्रिये हृष्यन्त्यप्रिये च व्यथन्ते।
स्यादात्मनः सुचिरं याचते यो
ददात्ययाच्यमपि देयं खलु स्यात्।
इष्टान् पुत्रान् विभवान् स्वांश्चदारा-
नभ्यर्थितश्चार्हति शुद्धभावः ॥ १२ ॥
मूलम्
सौहृदे वै षड् गुणा वेदितव्याः
प्रिये हृष्यन्त्यप्रिये च व्यथन्ते।
स्यादात्मनः सुचिरं याचते यो
ददात्ययाच्यमपि देयं खलु स्यात्।
इष्टान् पुत्रान् विभवान् स्वांश्चदारा-
नभ्यर्थितश्चार्हति शुद्धभावः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सौहार्द (मित्रता)-के छः गुण हैं, जो अवश्य ही जाननेयोग्य हैं। सुहृद्का प्रिय होनेपर हर्षित होना और अप्रिय होनेपर कष्टका अनुभव करना—ये दो गुण हैं। तीसरा गुण यह है कि अपना जो कुछ चिरसंचित धन है, उसे मित्रके माँगनेपर दे डाले। मित्रके लिये अयाच्य वस्तु भी अवश्य देनेयोग्य हो जाती है और तो क्या, सुहृद्के माँगनेपर वह शुद्धभावसे अपने प्रिय पुत्र, वैभव तथा पत्नीको भी उसके हितके लिये निछावर कर देता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्तद्रव्यः संवसेन्नेह कामाद्
भुङ्क्ते कर्म स्वाशिषं बाधते च ॥ १३ ॥
मूलम्
त्यक्तद्रव्यः संवसेन्नेह कामाद्
भुङ्क्ते कर्म स्वाशिषं बाधते च ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मित्रको धन देकर उसके यहाँ प्रत्युपकार पानेकी कामनासे निवास न करे—यह चौथा गुण है। अपने परिश्रमसे उपार्जित धनका उपभोग करे (मित्रकी कमाईपर अव-लम्बित न रहे)—यह पाँचवाँ गुण है तथा मित्रकी भलाईके लिये अपने भलेकी परवा न करे—यह छठा गुण है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रव्यवान् गुणवानेवं त्यागी भवति सात्त्विकः।
पञ्च भूतानि पञ्चभ्यो निवर्तयति तादृशः ॥ १४ ॥
मूलम्
द्रव्यवान् गुणवानेवं त्यागी भवति सात्त्विकः।
पञ्च भूतानि पञ्चभ्यो निवर्तयति तादृशः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो धनी गृहस्थ इस प्रकार गुणवान्, त्यागी और सात्त्विक होता है, वह अपनी पाँचों इन्द्रियोंसे पाँचों विषयोंको हटा देता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् समृद्धमप्यूर्ध्वं तपो भवति केवलम्।
सत्त्वात् प्रच्यवमानानां संकल्पेन समाहितम् ॥ १५ ॥
मूलम्
एतत् समृद्धमप्यूर्ध्वं तपो भवति केवलम्।
सत्त्वात् प्रच्यवमानानां संकल्पेन समाहितम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो (वैराग्यकी कमीके कारण) सत्त्वसे भ्रष्ट हो गये हैं, ऐसे मनुष्योंके दिव्य लोकोंकी प्राप्तिके संकल्पसे संचित किया हुआ यह इन्द्रियनिग्रहरूप तप समृद्ध होनेपर भी केवल ऊर्ध्वलोकोंकी प्राप्तिका कारण होता है [मुक्तिका नहीं]॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतो यज्ञाः प्रवर्धन्ते सत्यस्यैवावरोधनात्।
मनसान्यस्य भवति वाचान्यस्याथ कर्मणा ॥ १६ ॥
मूलम्
यतो यज्ञाः प्रवर्धन्ते सत्यस्यैवावरोधनात्।
मनसान्यस्य भवति वाचान्यस्याथ कर्मणा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि सत्यस्वरूप ब्रह्मका बोध न होनेसे ही इन सकाम यज्ञोंकी वृद्धि होती है। किसीका यज्ञ मनसे, किसीका वाणीसे और किसीका क्रियाके द्वारा सम्पन्न होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संकल्पसिद्धं पुरुषमसंकल्पोऽधितिष्ठति ।
ब्राह्मणस्य विशेषण किञ्चान्यदपि मे शृणु ॥ १७ ॥
मूलम्
संकल्पसिद्धं पुरुषमसंकल्पोऽधितिष्ठति ।
ब्राह्मणस्य विशेषण किञ्चान्यदपि मे शृणु ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संकल्पसिद्ध अर्थात् सकामपुरुषसे संकल्परहित यानी निष्कामपुरुषकी स्थिति ऊँची होती है; किंतु ब्रह्मवेत्ताकी स्थिति उससे भी विशिष्ट है। इसके सिवा एक बात और बताता हूँ, सुनो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यापयेन्महदेतद् यशस्यं
वाचो विकाराः कवयो वदन्ति।
अस्मिन् योगे सर्वमिदं प्रतिष्ठितं
ये तद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ १८ ॥
मूलम्
अध्यापयेन्महदेतद् यशस्यं
वाचो विकाराः कवयो वदन्ति।
अस्मिन् योगे सर्वमिदं प्रतिष्ठितं
ये तद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह महत्त्वपूर्ण शास्त्र परम यशरूप परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला है, इसे शिष्योंको अवश्य पढ़ाना चाहिये। परमात्मासे भिन्न यह सारा दृश्य-प्रपंच वाणीका विकारमात्र है—ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं। इस योगशास्त्रमें यह परमात्मविषयक सम्पूर्ण ज्ञान प्रतिष्ठित है; इसे जो जान लेते हैं, वे अमर हो जाते हैं अर्थात् जन्म-मरणसे मुक्त हो जाते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कर्मणा सुकृतेनैव राजन्
सत्यं जयेज्जुहुयाद् वा यजेद् वा।
नैतेन बालोऽमृत्युमभ्येति राजन्
रतिं चासौ न लभत्यन्तकाले ॥ १९ ॥
मूलम्
न कर्मणा सुकृतेनैव राजन्
सत्यं जयेज्जुहुयाद् वा यजेद् वा।
नैतेन बालोऽमृत्युमभ्येति राजन्
रतिं चासौ न लभत्यन्तकाले ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! (निष्कामभावके बिना किये हुए) केवल पुण्यकर्मके द्वारा सत्यस्वरूप ब्रह्मको नहीं जीता जा सकता। अथवा जो हवन या यज्ञ किया जाता है, उससे भी अज्ञानी पुरुष अमरत्व—मुक्तिको नहीं पा सकता तथा अन्तकालमें उसे शान्ति भी नहीं मिलती॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूष्णीमेक उपासीत चेष्टेत मनसापि न।
तथा संस्तुतिनिन्दाभ्यां प्रीतिरोषौ विवर्जयेत् ॥ २० ॥
मूलम्
तूष्णीमेक उपासीत चेष्टेत मनसापि न।
तथा संस्तुतिनिन्दाभ्यां प्रीतिरोषौ विवर्जयेत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये सब प्रकारकी चेष्टासे रहित होकर एकान्तमें उपासना करे, मनसे भी कोई चेष्टा न होने दे तथा स्तुतिमें राग और निन्दामें द्वेष न करे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रैव तिष्ठन् क्षत्रिय ब्रह्माविशति पश्यति।
वेदेषु चानुपूर्व्येण एतद् विद्वन् ब्रवीमि ते ॥ २१ ॥
मूलम्
अत्रैव तिष्ठन् क्षत्रिय ब्रह्माविशति पश्यति।
वेदेषु चानुपूर्व्येण एतद् विद्वन् ब्रवीमि ते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उपर्युक्त साधन करनेसे मनुष्य यहाँ ही ब्रह्मका साक्षात्कार करके उसमें विलीन हो जाता है। विद्वन्! वेदोंमें क्रमशः विचार करके जो मैंने जाना है, वही तुम्हें बता रहा हूँ॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सनत्सुजातपर्वणि सनत्सुजातवाक्ये पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सनत्सुजातपर्वमें सनत्सुजातवाक्यविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४५॥