भागसूचना
(सनत्सुजातपर्व)
एकचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
विदुरजीके द्वारा स्मरण करनेपर आये हुए सनत्सुजात ऋषिसे धृतराष्ट्रको उपदेश देनेके लिये उनकी प्रार्थना
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुक्तं यदि ते किंचिद् वाचा विदुर विद्यते।
तन्मे शुश्रूषतो ब्रूहि विचित्राणि हि भाषसे ॥ १ ॥
मूलम्
अनुक्तं यदि ते किंचिद् वाचा विदुर विद्यते।
तन्मे शुश्रूषतो ब्रूहि विचित्राणि हि भाषसे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— विदुर! यदि तुम्हारी वाणीसे कुछ और कहना शेष रह गया हो तो कहो, मुझे उसे सुननेकी बड़ी इच्छा है; क्योंकि तुम्हारे कहनेका ढंग विलक्षण है॥१॥
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृतराष्ट्र कुमारो वै यः पुराणः सनातनः।
सनत्सुजातः प्रोवाच मृत्युर्नास्तीति भारत ॥ २ ॥
मूलम्
धृतराष्ट्र कुमारो वै यः पुराणः सनातनः।
सनत्सुजातः प्रोवाच मृत्युर्नास्तीति भारत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरने कहा— भरतवंशी धृतराष्ट्र! कुमार ‘सनत्सुजात’ नामसे विख्यात जो (ब्रह्माजीके पुत्र) परम प्राचीन सनातन ऋषि हैं, उन्होंने (एक बार) कहा था—‘मृत्यु है ही नहीं’॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ते गुह्यन् प्रकाशांश्च सर्वान् हृदयसंश्रयान्।
प्रवक्ष्यति महाराज सर्वबुद्धिमतां वरः ॥ ३ ॥
मूलम्
स ते गुह्यन् प्रकाशांश्च सर्वान् हृदयसंश्रयान्।
प्रवक्ष्यति महाराज सर्वबुद्धिमतां वरः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वे समस्त बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ हैं, वे ही आपके हृदयमें स्थित व्यक्त और अव्यक्त सभी प्रकारके प्रश्नोंका उत्तर देंगे॥३॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं त्वं न वेद तद् भूयो यन्मे ब्रूयात् सनातनः।
त्वमेव विदुर ब्रूहि प्रज्ञाशेषोऽस्ति चेत् तव ॥ ४ ॥
मूलम्
किं त्वं न वेद तद् भूयो यन्मे ब्रूयात् सनातनः।
त्वमेव विदुर ब्रूहि प्रज्ञाशेषोऽस्ति चेत् तव ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने कहा— विदुर! क्या तुम उस तत्त्वको नहीं जानते, जिसे अब पुनः सनातन ऋषि मुझे बतावेंगे? यदि तुम्हारी बुद्धि कुछ भी काम देती हो तो तुम्हीं मुझे उपदेश करो॥४॥
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रयोनावहं जातो नातोऽन्यद् वक्तुमुत्सहे।
कुमारस्य तु या बुद्धिर्वेद तां शाश्वतीमहम् ॥ ५ ॥
मूलम्
शूद्रयोनावहं जातो नातोऽन्यद् वक्तुमुत्सहे।
कुमारस्य तु या बुद्धिर्वेद तां शाश्वतीमहम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुर बोले— राजन्! मेरा जन्म शूद्रा स्त्रीके गर्भसे हुआ है, अतः (मेरा अधिकार न होनेसे) इसके अतिरिक्त और कोई उपदेश देनेका मैं साहस नहीं कर सकता, किंतु कुमार सनत्सुजातकी बुद्धि सनातन है, मैं उसे जानता हूँ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मीं हि योनिमापन्नः सुगुह्यमपि यो वदेत्।
न तेन गर्ह्यो देवानां तस्मादेतद् ब्रवीमि ते ॥ ६ ॥
मूलम्
ब्राह्मीं हि योनिमापन्नः सुगुह्यमपि यो वदेत्।
न तेन गर्ह्यो देवानां तस्मादेतद् ब्रवीमि ते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणयोनिमें जिसका जन्म हुआ है, वह यदि गोपनीय तत्त्वका प्रतिपादन कर दे तो देवताओंकी निन्दाका पात्र नहीं बनता। इसी कारण मैं आपको ऐसा कह रहा हूँ॥६॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रवीहि विदुर त्वं मे पुराणं तं सनातनम्।
कथमेतेन देहेन स्यादिहैव समागमः ॥ ७ ॥
मूलम्
ब्रवीहि विदुर त्वं मे पुराणं तं सनातनम्।
कथमेतेन देहेन स्यादिहैव समागमः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने कहा— विदुर! उन परम प्राचीन सनातन ऋषिका पता मुझे बताओ। भला, इसी देहसे यहाँ ही उनका समागम कैसे हो सकता है?॥७॥
सूचना (हिन्दी)
श्रीसनत्सुजात और महाराज धृतराष्ट्र
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिन्तयामास विदुरस्तमृषिं शंसितव्रतम् ।
स च तच्चिन्तितं ज्ञात्वा दर्शयामास भारत ॥ ८ ॥
मूलम्
चिन्तयामास विदुरस्तमृषिं शंसितव्रतम् ।
स च तच्चिन्तितं ज्ञात्वा दर्शयामास भारत ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर विदुरजीने उत्तम व्रतवाले उन सनातन ऋषिका स्मरण किया। उन्होंने भी यह जानकर कि विदुर मेरा स्मरण कर रहे हैं, प्रत्यक्ष दर्शन दिया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चैनं प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा।
सुखोपविष्टं विश्रान्तमथैनं विदुरोऽब्रवीत् ॥ ९ ॥
मूलम्
स चैनं प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा।
सुखोपविष्टं विश्रान्तमथैनं विदुरोऽब्रवीत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरने शास्त्रोक्त विधिसे पाद्य, अर्घ्य एवं मधुपर्क आदि अर्पण करके उनका स्वागत किया। इसके बाद जब वे सुखपूर्वक बैठकर विश्राम करने लगे, तब विदुरने उनसे कहा—॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् संशयः कश्चिद् धृतराष्ट्रस्य मानसः।
यो न शक्यो मया वक्तुं त्वमस्मै वक्तुमर्हसि ॥ १० ॥
मूलम्
भगवन् संशयः कश्चिद् धृतराष्ट्रस्य मानसः।
यो न शक्यो मया वक्तुं त्वमस्मै वक्तुमर्हसि ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! धृतराष्ट्रके हृदयमें कुछ संशय है, जिसका समाधान मेरे द्वारा किया जाना उचित नहीं है। आप ही इस विषयका निरूपण करनेयोग्य हैं’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं श्रुत्वायं मनुष्येन्द्रः सर्वदुःखातिगो भवेत्।
लाभालाभौ प्रियद्वेष्यौ यथैनं न जरान्तकौ ॥ ११ ॥
विषहेरन् भयामर्षौ क्षुत्पिपासे मदोद्भवौ।
अरतिश्चैव तन्द्री च कामक्रोधौ क्षयोदयौ ॥ १२ ॥
मूलम्
यं श्रुत्वायं मनुष्येन्द्रः सर्वदुःखातिगो भवेत्।
लाभालाभौ प्रियद्वेष्यौ यथैनं न जरान्तकौ ॥ ११ ॥
विषहेरन् भयामर्षौ क्षुत्पिपासे मदोद्भवौ।
अरतिश्चैव तन्द्री च कामक्रोधौ क्षयोदयौ ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसे सुनकर ये नरेश सब दुःखोंसे पार हो जायँ और लाभ-हानि, प्रिय-अप्रिय, जरा-मृत्यु, भय-अमर्ष, भूख-प्यास, मद-ऐश्वर्य, चिन्ता-आलस्य, काम-क्रोध तथा अवनति-उन्नति—ये इन्हें कष्ट न पहुँचा सकें॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सनत्सुजातपर्वणि विदुरकृतसनत्सुजातप्रार्थने एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सनत्सुजातपर्वमें विदुरजीके द्वारा सनत्सुजातकी प्रार्थनाविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४१॥