०३१ युधिष्ठिरसंदेशे

भागसूचना

एकत्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका मुख्य-मुख्य कुरुवंशियोंके प्रति संदेश

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत सन्तमसन्तं वा बालं वृद्धं च संजय।
उताबलं बलीयांसं धाता प्रकुरुते वशे ॥ १ ॥

मूलम्

उत सन्तमसन्तं वा बालं वृद्धं च संजय।
उताबलं बलीयांसं धाता प्रकुरुते वशे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— संजय! साधु-असाधु, बालक-वृद्ध तथा निर्बल एवं बलिष्ठ—सबको विधाता अपने वशमें रखता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत बालाय पाण्डित्यं पण्डितायोत बालताम्।
ददाति सर्वमीशानः पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरन् ॥ २ ॥

मूलम्

उत बालाय पाण्डित्यं पण्डितायोत बालताम्।
ददाति सर्वमीशानः पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरन् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही सबका नियन्ता है और प्राणियोंके पूर्वजन्मके कर्मोंके अनुसार उन्हें सब प्रकारका फल देता है। वही मूर्खको विद्वान् और विद्वान्‌को मूर्ख बना देता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलं जिज्ञासमानस्य आचक्षीथा यथातथम्।
अथ मन्त्रं मन्त्रयित्वा याथातथ्येन हृष्टवत् ॥ ३ ॥

मूलम्

बलं जिज्ञासमानस्य आचक्षीथा यथातथम्।
अथ मन्त्रं मन्त्रयित्वा याथातथ्येन हृष्टवत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन अथवा धृतराष्ट्र यदि मेरे बल और सेनाका समाचार पूछें तो तुम उन्हें सब ठीक-ठीक बता देना। जिससे वे प्रसन्न होकर आपसमें सलाह करके यथार्थरूपसे अपने कर्तव्यका निश्चय कर सकें॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावल्गणे कुरून् गत्वा धृतराष्ट्रं महाबलम्।
अभिवाद्योपसंगृह्य ततः पृच्छेरनामयम् ॥ ४ ॥

मूलम्

गावल्गणे कुरून् गत्वा धृतराष्ट्रं महाबलम्।
अभिवाद्योपसंगृह्य ततः पृच्छेरनामयम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! तुम कुरुदेशमें जाकर मेरी ओरसे महाबली धृतराष्ट्रको प्रणाम करके उनके दोनों पैर पकड़ लेना और उनसे स्वास्थ्यका समाचार पूछना॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रूयाश्चैनं त्वमासीनं कुरुभिः परिवारितम्।
तवैव राजन् वीर्येण सुखं जीवन्ति पाण्डवाः ॥ ५ ॥

मूलम्

ब्रूयाश्चैनं त्वमासीनं कुरुभिः परिवारितम्।
तवैव राजन् वीर्येण सुखं जीवन्ति पाण्डवाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् कौरवोंसे घिरकर बैठे हुए इन महाराज धृतराष्ट्रसे कहना—‘राजन्! पाण्डवलोग आपकी ही सामर्थ्यसे सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव प्रसादाद् बालास्ते प्राप्ता राज्यमरिंदम।
राज्ये तान् स्थापयित्वाग्रे नोपेक्षस्व विनश्यतः ॥ ६ ॥

मूलम्

तव प्रसादाद् बालास्ते प्राप्ता राज्यमरिंदम।
राज्ये तान् स्थापयित्वाग्रे नोपेक्षस्व विनश्यतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन नरेश! जब वे बालक थे, तब आपकी ही कृपासे उन्हें राज्य मिला था। पहले उन्हें राज्यपर बिठाकर अब अपने ही आगे उन्हें नष्ट होते देख उपेक्षा न कीजिये’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वमप्येतदेकस्य नालं संजय कस्यचित्।
तात संहत्य जीवामो द्विषतां मा वशं गमः ॥ ७ ॥

मूलम्

सर्वमप्येतदेकस्य नालं संजय कस्यचित्।
तात संहत्य जीवामो द्विषतां मा वशं गमः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! उन्हें यह भी बताना कि ‘तात! यह सारा राज्य किसी एकके ही लिये पर्याप्त हो, ऐसी बात नहीं है। हम सब लोग मिलकर एक साथ रहकर सुखपूर्वक जीवन-निर्वाह करें, इसके विपरीत करके आप शत्रुओंके वशमें न पड़ें’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा भीष्मं शान्तनवं भारतानां पितामहम्।
शिरसाभिवदेथास्त्वं मम नाम प्रकीर्तयन् ॥ ८ ॥
अभिवाद्य च वक्तव्यस्ततोऽस्माकं पितामहः।
भवता शन्तनोर्वंशो निमग्नः पुनरुद्‌धृतः ॥ ९ ॥
स त्वं कुरु तथा तात स्वमतेन पितामह।
यथा जीवन्ति ते पौत्राः प्रीतिमन्तः परस्परम् ॥ १० ॥

मूलम्

तथा भीष्मं शान्तनवं भारतानां पितामहम्।
शिरसाभिवदेथास्त्वं मम नाम प्रकीर्तयन् ॥ ८ ॥
अभिवाद्य च वक्तव्यस्ततोऽस्माकं पितामहः।
भवता शन्तनोर्वंशो निमग्नः पुनरुद्‌धृतः ॥ ९ ॥
स त्वं कुरु तथा तात स्वमतेन पितामह।
यथा जीवन्ति ते पौत्राः प्रीतिमन्तः परस्परम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह भरतवंशियोंके पितामह शान्तनुनन्दन भीष्मजीको भी मेरा नाम लेते हुए सिर झुकाकर प्रणाम करना और प्रणामके पश्चात् हमारे उन पितामहसे इस प्रकार कहना—‘दादाजी! आपने शान्तनुके डूबते हुए वंशका पुनरुद्धार किया था। अब फिर अपनी बुद्धिसे विचार करके कोई ऐसा काम कीजिये, जिससे आपके सभी पौत्र परस्पर प्रेमपूर्वक जीवन बिता सकें’॥८—१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव विदुरं ब्रूयाः कुरूणां मन्त्रधारिणम्।
अयुद्धं सौम्य भाषस्व हितकामो युधिष्ठिरे ॥ ११ ॥

मूलम्

तथैव विदुरं ब्रूयाः कुरूणां मन्त्रधारिणम्।
अयुद्धं सौम्य भाषस्व हितकामो युधिष्ठिरे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! इसी प्रकार कौरवोंके मन्त्री विदुरजीसे कहना—‘सौम्य! आप युद्ध न होनेकी ही सलाह दें; क्योंकि आप युधिष्ठिरका हित चाहनेवाले हैं’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ दुर्योधनं ब्रूया राजपुत्रममर्षणम्।
मध्ये कुरूणामासीनमनुनीय पुनः पुनः ॥ १२ ॥

मूलम्

अथ दुर्योधनं ब्रूया राजपुत्रममर्षणम्।
मध्ये कुरूणामासीनमनुनीय पुनः पुनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कौरवोंकी सभामें बैठे हुए अमर्षमें भरे रहनेवाले राजकुमार दुर्योधनसे बार-बार अनुनय-विनय करके कहना—॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपापां यदुपैक्षस्त्वं कृष्णामेतां सभागताम्।
तत् दुःखमतितिक्षाम मा वधिष्म कुरूनिति ॥ १३ ॥

मूलम्

अपापां यदुपैक्षस्त्वं कृष्णामेतां सभागताम्।
तत् दुःखमतितिक्षाम मा वधिष्म कुरूनिति ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमने द्रौपदीको बिना किसी अपराधके सभामें बुलाकर जो उसका तिरस्कार किया, उस दुःखको हमलोगोंने इसलिये चुपचाप सह लिया है कि हमें कौरवोंका वध न करना पड़े॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पूर्वापरान् क्लेशानतितिक्षन्त पाण्डवाः।
बलीयांसोऽपि सन्तो यत् तत् सर्वं कुरवो विदुः ॥ १४ ॥

मूलम्

एवं पूर्वापरान् क्लेशानतितिक्षन्त पाण्डवाः।
बलीयांसोऽपि सन्तो यत् तत् सर्वं कुरवो विदुः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी प्रकार पाण्डवोंने अत्यन्त बलिष्ठ होते हुए भी जो (तुम्हारे दिये हुए) पहले और पीछेके सभी क्लेशोंको सहन किया है, उसे सब कौरव जानते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्नः प्राव्राजयः सौम्य अजिनैः प्रतिवासितान्।
तद् दुःखमतितिक्षाम मा वधिष्म कुरूनिति ॥ १५ ॥

मूलम्

यन्नः प्राव्राजयः सौम्य अजिनैः प्रतिवासितान्।
तद् दुःखमतितिक्षाम मा वधिष्म कुरूनिति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! तुमने हमलोगोंको मृगछाला पहनाकर जो वनमें निर्वासित कर दिया, उस दुःखको भी हम इसलिये सह लेते हैं कि हमें कौरवोंका वध न करना पड़े॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् कुन्तीं समतिक्रम्य कृष्णां केशेष्वधर्षयत्।
दुःशासनस्तेऽनुमते तच्चास्माभिरुपेक्षितम् ॥ १६ ॥

मूलम्

यत् कुन्तीं समतिक्रम्य कृष्णां केशेष्वधर्षयत्।
दुःशासनस्तेऽनुमते तच्चास्माभिरुपेक्षितम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारी अनुमतिसे दुःशासनने माता कुन्तीकी उपेक्षा करके जो द्रौपदीके केश पकड़ लिये, उस अपराधकी भी हमने इसीलिये उपेक्षा कर दी है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोचितं स्वकं भागं लभेमहि परंतप।
निवर्तय परद्रव्याद् बुद्धिं गृद्धां नरर्षभ ॥ १७ ॥

मूलम्

अथोचितं स्वकं भागं लभेमहि परंतप।
निवर्तय परद्रव्याद् बुद्धिं गृद्धां नरर्षभ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतप! परंतु अब हम अपना उचित भाग निश्चय ही लेंगे। नरश्रेष्ठ! तुम दूसरोंके धनसे अपनी लोभयुक्त बुद्धि हटा लो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शान्तिरेवं भवेद् राजन् प्रीतिश्चैव परस्परम्।
राज्यैकदेशमपि नः प्रयच्छ शममिच्छताम् ॥ १८ ॥

मूलम्

शान्तिरेवं भवेद् राजन् प्रीतिश्चैव परस्परम्।
राज्यैकदेशमपि नः प्रयच्छ शममिच्छताम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! इस प्रकार हमलोगोंमें परस्पर शान्ति एवं प्रीति बनी रह सकती है। हम शान्ति चाहते हैं; भले ही तुम हमें राज्यका एक हिस्सा ही दे दो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविस्थलं वृकस्थलं माकन्दीं वारणावतम्।
अवसानं भवत्वत्र किंचिदेकं च पञ्चमम् ॥ १९ ॥

मूलम्

अविस्थलं वृकस्थलं माकन्दीं वारणावतम्।
अवसानं भवत्वत्र किंचिदेकं च पञ्चमम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत तथा पाँचवाँ कोई भी एक गाँव दे दो। इसीपर युद्धकी समाप्ति हो जायगी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातॄणां देहि पञ्चानां पञ्च ग्रामान् सुयोधन।
शान्तिर्नोऽस्तु महाप्राज्ञ ज्ञातिभिः सह संजय ॥ २० ॥

मूलम्

भ्रातॄणां देहि पञ्चानां पञ्च ग्रामान् सुयोधन।
शान्तिर्नोऽस्तु महाप्राज्ञ ज्ञातिभिः सह संजय ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुयोधन! हम पाँच भाइयोंको पाँच गाँव दे दो।’ महाप्राज्ञ संजय! ऐसा हो जानेपर अपने कुटुम्बीजनोंके साथ हमलोगोंकी शान्ति बनी रहेगी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्राता भ्रातरमन्वेतु पिता पुत्रेण युज्यताम्।
स्मयमानाः समायान्तु पञ्चालाः कुरुभिः सह ॥ २१ ॥
अक्षतान् कुरुपाञ्चालान् पश्येयमिति कामये।
सर्वे सुमनसस्तात शाम्याम भरतर्षभ ॥ २२ ॥

मूलम्

भ्राता भ्रातरमन्वेतु पिता पुत्रेण युज्यताम्।
स्मयमानाः समायान्तु पञ्चालाः कुरुभिः सह ॥ २१ ॥
अक्षतान् कुरुपाञ्चालान् पश्येयमिति कामये।
सर्वे सुमनसस्तात शाम्याम भरतर्षभ ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भाई-भाईसे मिले और पिता पुत्रसे मिले। पांचालदेशीय क्षत्रिय कुरुवंशियोंके साथ मुसकराते हुए मिलें। मेरी यही कामना है कि कौरवों तथा पांचालोंको अक्षतशरीर देखूँ। तात! भरतश्रेष्ठ दुर्योधन! हम सब लोग प्रसन्नचित्त होकर शान्त हो जायँ, ऐसी चेष्टा करो’॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलमेव शमायास्मि तथा युद्धाय संजय।
धर्मार्थयोरलं चाहं मृदवे दारुणाय च ॥ २३ ॥

मूलम्

अलमेव शमायास्मि तथा युद्धाय संजय।
धर्मार्थयोरलं चाहं मृदवे दारुणाय च ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! मैं शान्ति रखनेमें भी समर्थ हूँ और युद्ध करनेमें भी। धर्म और अर्थके विषयका भी मुझे ठीक-ठीक ज्ञान है। मैं समयानुसार कोमल भी हो सकता हूँ और कठोर भी॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सञ्जययानपर्वणि युधिष्ठिरसंदेशे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत संजययानपर्वमें युधिष्ठिरसंदेशविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१॥