०२१ पुरोहितयाने

भागसूचना

एकविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीष्मके द्वारा द्रुपदके पुरोहितकी बातका समर्थन करते हुए अर्जुनकी प्रशंसा करना, इसके विरुद्ध कर्णके आक्षेपपूर्ण वचन तथा धृतराष्ट्रद्वारा भीष्मकी बातका समर्थन करते हुए दूतको सम्मानित करके विदा करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा प्रज्ञावृद्धो महाद्युतिः।
सम्पूज्यैनं यथाकालं भीष्मो वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा प्रज्ञावृद्धो महाद्युतिः।
सम्पूज्यैनं यथाकालं भीष्मो वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पुरोहितकी यह बात सुनकर बुद्धिमें बढ़े-चढ़े महातेजस्वी भीष्मने समयके अनुरूप उनकी पूजा करके इस प्रकार कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या कुशलिनः सर्वे सह दामोदरेण ते।
दिष्ट्या सहायवन्तश्च दिष्ट्या धर्मे च ते रताः ॥ २ ॥

मूलम्

दिष्ट्या कुशलिनः सर्वे सह दामोदरेण ते।
दिष्ट्या सहायवन्तश्च दिष्ट्या धर्मे च ते रताः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! सब पाण्डव भगवान् श्रीकृष्णके साथ सकुशल हैं, यह सौभाग्यकी बात है। उनके बहुत-से सहायक हैं और वे धर्ममें भी तत्पर हैं, यह और भी सौभाग्य तथा हर्षका विषय है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या च संधिकामास्ते भ्रातरः कुरुनन्दनाः।
दिष्ट्या न युद्धमनसः पाण्डवाः सह बान्धवैः ॥ ३ ॥

मूलम्

दिष्ट्या च संधिकामास्ते भ्रातरः कुरुनन्दनाः।
दिष्ट्या न युद्धमनसः पाण्डवाः सह बान्धवैः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले पाँचों भाई पाण्डव सन्धिकी इच्छा रखते हैं, यह सौभाग्यका विषय है। वे अपने बन्धु-बान्धवोंके साथ युद्धमें मन नहीं लगा रहे हैं, यह भी सौभाग्यकी बात है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवता सत्यमुक्तं तु सर्वमेतन्न संशयः।
अतितीक्ष्णं तु ते वाक्यं ब्राह्मण्यादिति मे मतिः ॥ ४ ॥

मूलम्

भवता सत्यमुक्तं तु सर्वमेतन्न संशयः।
अतितीक्ष्णं तु ते वाक्यं ब्राह्मण्यादिति मे मतिः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपने जितनी बातें कही हैं, वे सब सत्य है; इसमें संशय नहीं है। परंतु आपकी बातें बड़ी तीखी हैं। यह तीक्ष्णता ब्राह्मण-स्वभावके कारण ही है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंशयं क्लेशितास्ते वने चेह च पाण्डवाः।
प्राप्ताश्च धर्मतः सर्वं पितुर्धनमसंशयम् ॥ ५ ॥

मूलम्

असंशयं क्लेशितास्ते वने चेह च पाण्डवाः।
प्राप्ताश्च धर्मतः सर्वं पितुर्धनमसंशयम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निस्संदेह पाण्डवोंको वनमें और यहाँ भी कष्ट उठाना पड़ा है। उन्हें धर्मतः अपनी सारी पैतृक सम्पत्ति पानेका अधिकार प्राप्त हो चुका है; इसमें भी कोई संशय नहीं है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरीटी बलवान् पार्थः कृतास्त्रश्च महारथः।
को हि पाण्डुसुतं युद्धे विषहेत धनंजयम् ॥ ६ ॥

मूलम्

किरीटी बलवान् पार्थः कृतास्त्रश्च महारथः।
को हि पाण्डुसुतं युद्धे विषहेत धनंजयम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीपुत्र किरीटधारी महारथी अर्जुन बलवान् तथा अस्त्रविद्यामें निपुण हैं। कौन ऐसा वीर है, जो युद्धमें पाण्डुपुत्र अर्जुनका वेग सह सके?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि वज्रधरः साक्षात् किमुतान्ये धनुर्भृतः।
त्रयाणामपि लोकानां समर्थ इति मे मतिः ॥ ७ ॥

मूलम्

अपि वज्रधरः साक्षात् किमुतान्ये धनुर्भृतः।
त्रयाणामपि लोकानां समर्थ इति मे मतिः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘साक्षात् वज्रधारी इन्द्र भी युद्धमें उनका सामना नहीं कर सकते; फिर दूसरे धनुर्धरोंकी बात ही क्या है? मेरा तो ऐसा विश्वास है कि अर्जुन तीनों लोकोंका सामना करनेमें समर्थ हैं’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मे ब्रुवति तद् वाक्यं धृष्टमाक्षिप्य मन्युना।
दुर्योधनं समालोक्य कर्णो वचनमब्रवीत् ॥ ८ ॥

मूलम्

भीष्मे ब्रुवति तद् वाक्यं धृष्टमाक्षिप्य मन्युना।
दुर्योधनं समालोक्य कर्णो वचनमब्रवीत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी इस प्रकार कह ही रहे थे कि कर्णने दुर्योधनकी ओर देखकर क्रोधसे धृष्टतापूर्वक आक्षेप करते हुए (भीष्मजीके कथनकी अवहेलना करके) यह बात कही—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तत्राविदितं ब्रह्मल्ँलोके भूतेन केनचित्।
पुनरुक्तेन किं तेन भाषितेन पुनः पुनः ॥ ९ ॥

मूलम्

न तत्राविदितं ब्रह्मल्ँलोके भूतेन केनचित्।
पुनरुक्तेन किं तेन भाषितेन पुनः पुनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! इस लोकमें जो घटना बीत चुकी है, वह किसीको अज्ञात नहीं है, उसको दोहरानेसे या बारंबार उसपर भाषण देनेसे क्या लाभ है?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनार्थे शकुनिर्द्यूते निर्जितवान् पुरा।
समयेन गतोऽरण्यं पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १० ॥

मूलम्

दुर्योधनार्थे शकुनिर्द्यूते निर्जितवान् पुरा।
समयेन गतोऽरण्यं पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पहलेकी बात है, शकुनिने दुर्योधनके लिये पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको द्यूत-क्रीड़ामें परास्त किया था और वे उस जूएकी शर्तके अनुसार वनमें गये थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं समयमाश्रित्य राज्यं नेच्छति पैतृकम्।
बलमाश्रित्य मत्स्यानां पञ्चालानां च मूर्खवत् ॥ ११ ॥

मूलम्

स तं समयमाश्रित्य राज्यं नेच्छति पैतृकम्।
बलमाश्रित्य मत्स्यानां पञ्चालानां च मूर्खवत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युधिष्ठिर उस शर्तका पालन करके अपना पैतृक राज्य चाहते हों, ऐसी बात नहीं है। वे तो मूर्खोंकी भाँति मत्स्य और पांचाल देशकी सेनाके भरोसे राज्य लेना चाहते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनो भयाद् विद्वन् न दद्यात् पादमन्ततः।
धर्मतस्तु महीं कृत्स्नां प्रदद्याच्छत्रवेऽपि च ॥ १२ ॥

मूलम्

दुर्योधनो भयाद् विद्वन् न दद्यात् पादमन्ततः।
धर्मतस्तु महीं कृत्स्नां प्रदद्याच्छत्रवेऽपि च ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विद्वन्! दुर्योधन किसीके भयसे अपने राज्यका आधा कौन कहे चौथाई भाग भी नहीं देंगे; परंतु धर्मानुसार तो वे शत्रुको भी समूची पृथ्वीतक दे सकते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि काङ्क्षन्ति ते राज्यं पितृपैतामहं पुनः।
यथाप्रतिज्ञं कालं तं चरन्तु वनमाश्रिताः ॥ १३ ॥

मूलम्

यदि काङ्क्षन्ति ते राज्यं पितृपैतामहं पुनः।
यथाप्रतिज्ञं कालं तं चरन्तु वनमाश्रिताः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि पाण्डव अपने बाप-दादोंका राज्य लेना चाहते हैं तो पूर्व-प्रतिज्ञाके अनुसार उतने समयतक पुनः वनमें निवास करें॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनस्याङ्के वर्तन्तामकुतोभयाः ।
अधार्मिकीं तु मा बुद्धिं मौर्ख्यात् कुर्वन्तु केवलात् ॥ १४ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनस्याङ्के वर्तन्तामकुतोभयाः ।
अधार्मिकीं तु मा बुद्धिं मौर्ख्यात् कुर्वन्तु केवलात् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तत्पश्चात् वे दुर्योधनके आश्रयमें निर्भय होकर रह सकते हैं। केवल मूर्खतावश वे अपनी बुद्धिको अधर्मपरायण न बनावें॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ ते धर्ममुत्सृज्य युद्धमिच्छन्ति पाण्डवाः।
आसाद्येमान् कुरुश्रेष्ठान् स्मरिष्यन्ति वचो मम ॥ १५ ॥

मूलम्

अथ ते धर्ममुत्सृज्य युद्धमिच्छन्ति पाण्डवाः।
आसाद्येमान् कुरुश्रेष्ठान् स्मरिष्यन्ति वचो मम ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि पाण्डव धर्मको त्यागकर युद्ध ही करना चाहते हैं तो इन कुरुश्रेष्ठ वीरोंसे भिड़नेपर मेरी बात याद करेंगे’॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु राधेय वाचा ते कर्म तत् स्मर्तुमर्हसि।
एक एव यदा पार्थः षड्‌रथाञ्जितवान् युधि ॥ १६ ॥

मूलम्

किं नु राधेय वाचा ते कर्म तत् स्मर्तुमर्हसि।
एक एव यदा पार्थः षड्‌रथाञ्जितवान् युधि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी बोले— राधानन्दन! तू जो इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें बनाता है, इससे क्या होगा? तुझे पार्थका वह पराक्रम याद करना चाहिये, जब कि विराटनगरके युद्धमें उन्होंने अकेले ही सम्पूर्ण सेनासहित छः अतिरथियोंको जीत लिया था॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुशो जीयमानस्य कर्म दृष्टं तदैव ते।
न चेदेवं करिष्यामो यदयं ब्राह्मणोऽब्रवीत्।
ध्रुवं युधि हतास्तेन भक्षयिष्याम पांसुकान् ॥ १७ ॥

मूलम्

बहुशो जीयमानस्य कर्म दृष्टं तदैव ते।
न चेदेवं करिष्यामो यदयं ब्राह्मणोऽब्रवीत्।
ध्रुवं युधि हतास्तेन भक्षयिष्याम पांसुकान् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेरा पराक्रम तो उसी समय देखा गया था, जब कि अनेक बार उनके सामने जाकर तुझे परास्त होना पड़ा। इन ब्राह्मणदेवताने जो कुछ कहा है, यदि हमलोग तदनुसार कार्य नहीं करेंगे तो यह निश्चय है कि युद्धमें पाण्डुनन्दन अर्जुनके हाथसे आहत होकर हमें धूल खानी पड़ेगी॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रस्ततो भीष्ममनुमान्य प्रसाद्य च।
अवभर्त्स्य च राधेयमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १८ ॥

मूलम्

धृतराष्ट्रस्ततो भीष्ममनुमान्य प्रसाद्य च।
अवभर्त्स्य च राधेयमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर धृतराष्ट्रने कर्णको डाँटकर भीष्मजीका सम्मान किया और उन्हें राजी करके इस प्रकार कहा—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मद्धितं वाक्यमिदं भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत्।
पाण्डवानां हितं चैव सर्वस्य जगतस्तथा ॥ १९ ॥

मूलम्

अस्मद्धितं वाक्यमिदं भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत्।
पाण्डवानां हितं चैव सर्वस्य जगतस्तथा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शान्तनुनन्दन भीष्मने हमारे लिये यह हितकर बात कही है। इसमें पाण्डवोंका तथा सम्पूर्ण जगत्‌का भी हित है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्तयित्वा तु पार्थेभ्यः प्रेषयिष्यामि संजयम्।
स भवान् प्रति यात्वद्य पाण्डवानेव मा चिरम् ॥ २० ॥

मूलम्

चिन्तयित्वा तु पार्थेभ्यः प्रेषयिष्यामि संजयम्।
स भवान् प्रति यात्वद्य पाण्डवानेव मा चिरम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! अब मैं कुछ सोच-विचारकर पाण्डवोंके पास संजयको भेजूँगा। आप पुनः पाण्डवोंके पास ही पधारें, विलम्ब न करें’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं सत्कृत्य कौरव्यः प्रेषयामास पाण्डवान्।
सभामध्ये समाहूय संजयं वाक्यमब्रवीत् ॥ २१ ॥

मूलम्

स तं सत्कृत्य कौरव्यः प्रेषयामास पाण्डवान्।
सभामध्ये समाहूय संजयं वाक्यमब्रवीत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर राजा धृतराष्ट्रने उन ब्राह्मणका सत्कार करके उन्हें पाण्डवोंके पास वापस भेजा और सभामें संजयको बुलाकर यह बात कही॥२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सञ्जययानपर्वणि पुरोहितयाने एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत संजययानपर्वमें पुरोहितकी यात्राविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१॥