०१७ नहुषभ्रंशे

भागसूचना

सप्तदशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अगस्त्यजीका इन्द्रसे नहुषके पतनका वृत्तान्त बताना

मूलम् (वचनम्)

शल्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ संचिन्तयानस्य देवराजस्य धीमतः।
नहुषस्य वधोपायं लोकपालैः सदैवतैः ॥ १ ॥
तपस्वी तत्र भगवानगस्त्यः प्रत्यदृश्यत।
सोऽब्रवीदर्च्य देवेन्द्रं दिष्ट्या वै वर्धते भवान् ॥ २ ॥
विश्वरूपविनाशेन वृत्रासुरवधेन च ।
दिष्ट्याद्य नहुषो भ्रष्टो देवराज्यात् पुरंदर।
दिष्ट्या हतारिं पश्यामि भवन्तं बलसूदन ॥ ३ ॥

मूलम्

अथ संचिन्तयानस्य देवराजस्य धीमतः।
नहुषस्य वधोपायं लोकपालैः सदैवतैः ॥ १ ॥
तपस्वी तत्र भगवानगस्त्यः प्रत्यदृश्यत।
सोऽब्रवीदर्च्य देवेन्द्रं दिष्ट्या वै वर्धते भवान् ॥ २ ॥
विश्वरूपविनाशेन वृत्रासुरवधेन च ।
दिष्ट्याद्य नहुषो भ्रष्टो देवराज्यात् पुरंदर।
दिष्ट्या हतारिं पश्यामि भवन्तं बलसूदन ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य कहते हैं— युधिष्ठिर! जिस समय बुद्धिमान् देवराज इन्द्र देवताओं तथा लोकपालोंके साथ बैठकर नहुषके वधका उपाय सोच रहे थे, उसी समय वहाँ तपस्वी भगवान् अगस्त्य दिखायी दिये। उन्होंने देवेन्द्रकी पूजा करके कहा—‘सौभाग्यकी बात है कि आप विश्वरूपके विनाश तथा वृत्रासुरके वधसे निरन्तर अभ्युदयशील हो रहे हैं। बलसूदन पुरंदर! यह भी सौभाग्यकी ही बात है कि आज नहुष देवताओंके राज्यसे भ्रष्ट हो गये। बलसूदन! सौभाग्यसे ही मैं आपको शत्रुहीन देख रहा हूँ’॥१—३॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वागतं ते महर्षेऽस्तु प्रीतोऽहं दर्शनात् तव।
पाद्यमाचमनीयं च गामर्घ्यं च प्रतीच्छ मे ॥ ४ ॥

मूलम्

स्वागतं ते महर्षेऽस्तु प्रीतोऽहं दर्शनात् तव।
पाद्यमाचमनीयं च गामर्घ्यं च प्रतीच्छ मे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— महर्षे! आपका स्वागत है, आपके दर्शनसे मुझे बड़ी प्रसन्नता मिली है, आपकी सेवामें यह पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय तथा गौ समर्पित है। आप मेरी दी हुई ये सब वस्तुएँ ग्रहण कीजिये॥४॥

मूलम् (वचनम्)

शल्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजितं चोपविष्टं तमासने मुनिसत्तमम्।
पर्यपृच्छत देवेशः प्रहृष्टो ब्राह्मणर्षभम् ॥ ५ ॥
एतदिच्छामि भगवन् कथ्यमानं द्विजोत्तम।
परिभ्रष्टः कथं स्वर्गान्नहुषः पापनिश्चयः ॥ ६ ॥

मूलम्

पूजितं चोपविष्टं तमासने मुनिसत्तमम्।
पर्यपृच्छत देवेशः प्रहृष्टो ब्राह्मणर्षभम् ॥ ५ ॥
एतदिच्छामि भगवन् कथ्यमानं द्विजोत्तम।
परिभ्रष्टः कथं स्वर्गान्नहुषः पापनिश्चयः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य कहते हैं— युधिष्ठिर! मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य जब पूजा ग्रहण करके आसनपर विराजमान हुए, उस समय देवेश्वर इन्द्रने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन विप्रशिरोमणिसे पूछा—‘भगवन्! द्विजश्रेष्ठ! मैं आपके शब्दोंमें यह सुनना चाहता हूँ कि पापपूर्ण विचार रखनेवाला नहुष स्वर्गसे किस प्रकार भ्रष्ट हुआ है?’॥

सूचना (हिन्दी)

नहुषका स्वर्गसे पतन

मूलम् (वचनम्)

अगस्त्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु शक्र प्रियं वाक्यं यथा राजा दुरात्मवान्।
स्वर्गाद् भ्रष्टो दुराचारो नहुषो बलदर्पितः ॥ ७ ॥

मूलम्

शृणु शक्र प्रियं वाक्यं यथा राजा दुरात्मवान्।
स्वर्गाद् भ्रष्टो दुराचारो नहुषो बलदर्पितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अगस्त्यजीने कहा— इन्द्र! बलके घमंडमें भरा हुआ दुराचारी और दुरात्मा राजा नहुष जिस प्रकार स्वर्गसे भ्रष्ट हुआ है, वह प्रिय समाचार सुनो॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रमार्ताश्च वहन्तस्तं नहुषं पापकारिणम्।
देवर्षयो महाभागास्तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः ॥ ८ ॥

मूलम्

श्रमार्ताश्च वहन्तस्तं नहुषं पापकारिणम्।
देवर्षयो महाभागास्तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग देवर्षि तथा निर्मल अन्तःकरणवाले ब्रह्मर्षि पापाचारी नहुषका बोझ ढोते-ढोते परिश्रमसे पीड़ित हो गये थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पप्रच्छुर्नहुषं देव संशयं जयतां वर।
य इमे ब्रह्मणा प्रोक्ता मन्त्रा वै प्रोक्षणे गवाम्॥९॥
एते प्रमाणं भवत उताहो नेति वासव।
नहुषो नेति तानाह तमसा मूढचेतनः ॥ १० ॥

मूलम्

पप्रच्छुर्नहुषं देव संशयं जयतां वर।
य इमे ब्रह्मणा प्रोक्ता मन्त्रा वै प्रोक्षणे गवाम्॥९॥
एते प्रमाणं भवत उताहो नेति वासव।
नहुषो नेति तानाह तमसा मूढचेतनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ इन्द्र! उस समय उन महर्षियोंने नहुषसे एक संदेह पूछा—‘देवेन्द्र! गौओंके प्रोक्षणके विषयमें जो ये मन्त्र वेदमें बताये गये हैं, इन्हें आप प्रामाणिक मानते हैं या नहीं।’ नहुषकी बुद्धि तमोमय अज्ञानके कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही थी। उसने महर्षियोंको उत्तर देते हुए कहा—‘मैं इन वेदमन्त्रोंको प्रमाण नहीं मानता’॥९-१०॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मे सम्प्रवृत्तस्त्वं धर्मं न प्रतिपद्यसे।
प्रमाणमेतदस्माकं पूर्वं प्रोक्तं महर्षिभिः ॥ ११ ॥

मूलम्

अधर्मे सम्प्रवृत्तस्त्वं धर्मं न प्रतिपद्यसे।
प्रमाणमेतदस्माकं पूर्वं प्रोक्तं महर्षिभिः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषिगण बोले— तुम अधर्ममें प्रवृत्त हो रहे हो, इसलिये धर्मका तत्त्व नहीं समझते हो। पूर्वकालमें महर्षियोंने इन सब मन्त्रोंको हमारे लिये प्रमाणभूत बताया है॥११॥

मूलम् (वचनम्)

अगस्त्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विवदमानः स मुनिभिः सह वासव।
अथ मामस्पृशन्मूर्ध्नि पादेनाधर्मपीडितः ॥ १२ ॥

मूलम्

ततो विवदमानः स मुनिभिः सह वासव।
अथ मामस्पृशन्मूर्ध्नि पादेनाधर्मपीडितः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अगस्त्यजी कहते हैं— इन्द्र! तब नहुष मुनियोंके साथ विवाद करने लगा और अधर्मसे पीड़ित होकर उस पापीने मेरे मस्तकपर पैरसे प्रहार किया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनाभूद्धततेजाश्च निःश्रीकश्च महीपतिः ।
ततस्तं तमसाऽऽविग्नमवोचं भृशपीडितम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तेनाभूद्धततेजाश्च निःश्रीकश्च महीपतिः ।
ततस्तं तमसाऽऽविग्नमवोचं भृशपीडितम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे उसका सारा तेज नष्ट हो गया। वह राजा श्रीहीन हो गया। तब तमोगुणमें डूबकर अत्यन्त पीड़ित हुए नहुषसे मैंने इस प्रकार कहा—॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मात्‌ पूर्वैः कृतं राजन् ब्रह्मर्षिभिरनुष्ठितम्।
अदुष्टं दूषयसि मे यच्च मूर्ध्न्यस्पृशः पदा ॥ १४ ॥
यच्चापि त्वमृषीन्‌ मूढ ब्रह्मकल्पान्‌ दुरासदान् ॥ १५ ॥
वाहान् कृत्वा वाहयसि तेन स्वर्गाद्धतप्रभः।
ध्वंस पाप परिभ्रष्टः क्षीणपुण्यो महीतले ॥ १६ ॥

मूलम्

यस्मात्‌ पूर्वैः कृतं राजन् ब्रह्मर्षिभिरनुष्ठितम्।
अदुष्टं दूषयसि मे यच्च मूर्ध्न्यस्पृशः पदा ॥ १४ ॥
यच्चापि त्वमृषीन्‌ मूढ ब्रह्मकल्पान्‌ दुरासदान् ॥ १५ ॥
वाहान् कृत्वा वाहयसि तेन स्वर्गाद्धतप्रभः।
ध्वंस पाप परिभ्रष्टः क्षीणपुण्यो महीतले ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! पूर्वकालके ब्रह्मर्षियोंने जिसका अनुष्ठान किया है—जिसे प्रमाणभूत माना है, उस निर्दोष वेदमतको जो तुम सदोष बताते हो—उसे अप्रामाणिक मानते हो, इसके सिवा तुमने जो मेरे सिरपर लात मारी है तथा पापात्मा मूढ़! जो तुम ब्रह्माजीके समान दुर्धर्ष तेजस्वी ऋषियोंको वाहन बनाकर उनसे अपनी पालकी ढुलवा रहे हो, इससे तेजोहीन हो गये हो। तुम्हारा पुण्य क्षीण हो गया है। अतः स्वर्गसे भ्रष्ट होकर तुम पृथ्वीपर गिरो॥१४—१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशवर्षसहस्राणि सर्परूपधरो महान् ।
विचरिष्यसि पूर्णेषु पुनः स्वर्गमवाप्स्यसि ॥ १७ ॥

मूलम्

दशवर्षसहस्राणि सर्परूपधरो महान् ।
विचरिष्यसि पूर्णेषु पुनः स्वर्गमवाप्स्यसि ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वहाँ दस हजार वर्षोंतक तुम महान् सर्पका रूप धारण करके विचरोगे और उतने वर्ष पूर्ण हो जानेपर पुनः स्वर्गलोक प्राप्त कर लोगे’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं भ्रष्टो दुरात्मा स देवराज्यादरिंदम।
दिष्ट्या वर्धामहे शक्र हतो ब्राह्मणकण्टकः ॥ १८ ॥

मूलम्

एवं भ्रष्टो दुरात्मा स देवराज्यादरिंदम।
दिष्ट्या वर्धामहे शक्र हतो ब्राह्मणकण्टकः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन शक्र! इस प्रकार दुरात्मा नहुष देवताओंके राज्यसे भ्रष्ट हो गया। ब्राह्मणोंका कण्टक मारा गया। सौभाग्यकी बात है कि अब हमलोगोंकी वृद्धि हो रही है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिविष्टपं प्रपद्यस्व पाहि लोकाञ्छचीपते।
जितेन्द्रियो जितामित्रः स्तूयमानो महर्षिभिः ॥ १९ ॥

मूलम्

त्रिविष्टपं प्रपद्यस्व पाहि लोकाञ्छचीपते।
जितेन्द्रियो जितामित्रः स्तूयमानो महर्षिभिः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शचीपते! अब आप अपनी इन्द्रियों और शत्रुओंपर विजय पा गये हैं। महर्षिगण आपकी स्तुति करते हैं, अतः आप स्वर्गलोकमें चलें और तीनों लोकोंकी रक्षा करें॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

शल्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो देवा भृशं तुष्टा महर्षिगणसंवृताः।
पितरश्चैव यक्षाश्च भुजगा राक्षसास्तथा ॥ २० ॥
गन्धर्वा देवकन्याश्च सर्वे चाप्सरसां गणाः।
सरांसि सरितः शैलाः सागराश्च विशाम्पते ॥ २१ ॥

मूलम्

ततो देवा भृशं तुष्टा महर्षिगणसंवृताः।
पितरश्चैव यक्षाश्च भुजगा राक्षसास्तथा ॥ २० ॥
गन्धर्वा देवकन्याश्च सर्वे चाप्सरसां गणाः।
सरांसि सरितः शैलाः सागराश्च विशाम्पते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर महर्षियोंसे घिरे हुए देवता, पितर, यक्ष, नाग, राक्षस, गन्धर्व, देवकन्याएँ तथा समस्त अप्सराएँ बहुत प्रसन्न हुईं। सरिताएँ, सरोवर, शैल और समुद्र भी बहुत संतुष्ट हुए॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपागम्याब्रुवन् सर्वे दिष्ट्या वर्धसि शत्रुहन्।
हतश्च नहुषः पापो दिष्ट्यागस्त्येन धीमता।
दिष्ट्या पापसमाचारः कृतः सर्पो महीतले ॥ २२ ॥

मूलम्

उपागम्याब्रुवन् सर्वे दिष्ट्या वर्धसि शत्रुहन्।
हतश्च नहुषः पापो दिष्ट्यागस्त्येन धीमता।
दिष्ट्या पापसमाचारः कृतः सर्पो महीतले ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब लोग इन्द्रके पास आकर बोले—‘शत्रुहन्! आपका अभ्युदय हो रहा है, यह सौभाग्यकी बात है। बुद्धिमान् अगस्त्यजीने पापी नहुषको मार डाला और उस पापाचारीको पृथ्वीपर सर्प बना दिया, यह भी हमारे लिये बड़े हर्ष तथा सौभाग्यकी बात है’॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सेनोद्योगपर्वणि इन्द्रागस्त्यसंवादे नहुषभ्रंशे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सेनोद्योगपर्वमें इन्द्र और अगस्त्यके संवादके प्रसंगमें नहुषके पतनसे सम्बन्ध रखनेवाला सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७॥