०१६ इन्द्रवरुणादिसंवादे

भागसूचना

षोडशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

बृहस्पतिद्वारा अग्नि और इन्द्रका स्तवन तथा बृहस्पति एवं लोकपालोंकी इन्द्रसे बातचीत

मूलम् (वचनम्)

बृहस्पतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमग्ने सर्वदेवानां मुखं त्वमसि हव्यवाट्।
त्वमन्तः सर्वभूतानां गूढश्चरसि साक्षिवत् ॥ १ ॥

मूलम्

त्वमग्ने सर्वदेवानां मुखं त्वमसि हव्यवाट्।
त्वमन्तः सर्वभूतानां गूढश्चरसि साक्षिवत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पति बोले— अग्निदेव! आप सम्पूर्ण देवताओंके मुख हैं। आप ही देवताओंको हविष्य पहुँचानेवाले हैं। आप समस्त प्राणियोंके अन्तःकरणमें साक्षीकी भाँति गूढ़भावसे विचरते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामाहुरेकं कवयस्त्वामाहुस्त्रिविधं पुनः ।
त्वया त्यक्तं जगच्चेदं सद्यो नश्येद्धुताशन ॥ २ ॥

मूलम्

त्वामाहुरेकं कवयस्त्वामाहुस्त्रिविधं पुनः ।
त्वया त्यक्तं जगच्चेदं सद्यो नश्येद्धुताशन ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुष आपको एक बताते हैं। फिर वे ही आपको तीन प्रकारका कहते हैं। हुताशन! आपके त्याग देनेपर यह सम्पूर्ण जगत् तत्काल नष्ट हो जायगा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा तुभ्यं नमो विप्राः स्वकर्मविजितां गतिम्।
गच्छन्ति सह पत्नीभिः सुतैरपि च शाश्वतीम् ॥ ३ ॥

मूलम्

कृत्वा तुभ्यं नमो विप्राः स्वकर्मविजितां गतिम्।
गच्छन्ति सह पत्नीभिः सुतैरपि च शाश्वतीम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणलोग आपकी पूजा और वन्दना करके अपनी पत्नियों तथा पुत्रोंके साथ अपने कर्मोंद्वारा प्राप्त चिरस्थायी स्वर्गीय सुख लाभ करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेवाग्ने हव्यवाहस्त्वमेव परमं हविः।
यजन्ति सत्रैस्त्वामेव यज्ञैश्च परमाध्वरे ॥ ४ ॥

मूलम्

त्वमेवाग्ने हव्यवाहस्त्वमेव परमं हविः।
यजन्ति सत्रैस्त्वामेव यज्ञैश्च परमाध्वरे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्ने! आप ही हविष्यको वहन करनेवाले देवता हैं। आप ही उत्कृष्ट हवि हैं। याज्ञिक विद्वान् पुरुष बड़े-बड़े यज्ञोंमें अवान्तर सत्रों और यज्ञोंद्वारा आपकी ही आराधना करते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृष्ट्वा लोकांस्त्रीनिमान् हव्यवाह
प्राप्ते काले पचसि पुनः समिद्धः।
त्वं सर्वस्य भुवनस्य प्रसूति-
स्त्वमेवाग्ने भवसि पुनः प्रतिष्ठा ॥ ५ ॥

मूलम्

सृष्ट्वा लोकांस्त्रीनिमान् हव्यवाह
प्राप्ते काले पचसि पुनः समिद्धः।
त्वं सर्वस्य भुवनस्य प्रसूति-
स्त्वमेवाग्ने भवसि पुनः प्रतिष्ठा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हव्यवाहन! आप ही सृष्टिके समय इन तीनों लोकोंको उत्पन्न करके प्रलयकाल आनेपर पुनः प्रज्वलित हो इन सबका संहार करते हैं। अग्ने! आप ही सम्पूर्ण विश्वके उत्पत्तिस्थान हैं और आप ही पुनः इसके प्रलयकालमें आधार होते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामग्ने जलदानाहुर्विद्युतश्च मनीषिणः ।
दहन्ति सर्वभूतानि त्वत्तो निष्क्रम्य हेतयः ॥ ६ ॥

मूलम्

त्वामग्ने जलदानाहुर्विद्युतश्च मनीषिणः ।
दहन्ति सर्वभूतानि त्वत्तो निष्क्रम्य हेतयः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निदेव! मनीषी पुरुष आपको ही मेघ और विद्युत् कहते हैं। आपसे ही ज्वालाएँ निकलकर सम्पूर्ण भूतोंको दग्ध करती हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वय्यापो निहिताः सर्वास्त्वयि सर्वमिदं जगत्।
न तेऽस्त्यविदितं किंचित् त्रिषु लोकेषु पावक ॥ ७ ॥

मूलम्

त्वय्यापो निहिताः सर्वास्त्वयि सर्वमिदं जगत्।
न तेऽस्त्यविदितं किंचित् त्रिषु लोकेषु पावक ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पावक! आपमें ही सारा जल संचित है। आपमें ही यह सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है। तीनों लोकोंमें कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयोनिं भजते सर्वो विशस्वापोऽविशङ्कितः।
अहं त्वां वर्धयिष्यामि ब्राह्मैर्मन्त्रैः सनातनैः ॥ ८ ॥

मूलम्

स्वयोनिं भजते सर्वो विशस्वापोऽविशङ्कितः।
अहं त्वां वर्धयिष्यामि ब्राह्मैर्मन्त्रैः सनातनैः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त पदार्थ अपने-अपने कारणमें प्रवेश करते हैं। अतः आप भी निःशंक होकर जलमें प्रवेश कीजिये। मैं सनातन वेदमन्त्रोंद्वारा आपको बढ़ाऊँगा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्तुतो हव्यवाट् स भगवान् कविरुत्तमः।
बृहस्पतिमथोवाच प्रीतिमान् वाक्यमुत्तमम् ।
दर्शयिष्यामि ते शक्रं सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ९ ॥

मूलम्

एवं स्तुतो हव्यवाट् स भगवान् कविरुत्तमः।
बृहस्पतिमथोवाच प्रीतिमान् वाक्यमुत्तमम् ।
दर्शयिष्यामि ते शक्रं सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार स्तुति की जानेपर हविष्य वहन करनेवाले श्रेष्ठ एवं सर्वज्ञ भगवान् अग्निदेव प्रसन्न होकर बृहस्पतिसे यह उत्तम वचन बोले—‘ब्रह्मन्! मैं आपको इन्द्रका दर्शन कराऊँगा, यह मैं आपसे सत्य कह रहा हूँ’॥९॥

मूलम् (वचनम्)

शल्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविश्यापस्ततो वह्निः ससमुद्राः सपल्वलाः।
आससाद सरस्तच्च गूढो यत्र शतक्रतुः ॥ १० ॥

मूलम्

प्रविश्यापस्ततो वह्निः ससमुद्राः सपल्वलाः।
आससाद सरस्तच्च गूढो यत्र शतक्रतुः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर अग्निदेव छोटे गड्‌ढेसे लेकर बड़े-से-बड़े समुद्रतकके जलमें प्रवेश करके पता लगाते हुए क्रमशः उस सरोवरमें जा पहुँचे, जहाँ इन्द्र छिपे हुए थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तत्रापि पद्मानि विचिन्वन् भरतर्षभ।
अपश्यत् स तु देवेन्द्रं बिसमध्यगतं स्थितम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अथ तत्रापि पद्मानि विचिन्वन् भरतर्षभ।
अपश्यत् स तु देवेन्द्रं बिसमध्यगतं स्थितम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उसमें भी कमलोंके भीतर खोज करते हुए अग्निदेवने एक कमलके नालमें बैठे हुए देवेन्द्रको देखा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगत्य च ततस्तूर्णं तमाचष्ट बृहस्पतेः।
अणुमात्रेण वपुषा पद्मतन्त्वाश्रितं प्रभुम् ॥ १२ ॥

मूलम्

आगत्य च ततस्तूर्णं तमाचष्ट बृहस्पतेः।
अणुमात्रेण वपुषा पद्मतन्त्वाश्रितं प्रभुम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे तुरंत लौटकर अग्निदेवने बृहस्पतिको बताया कि भगवान् इन्द्र सूक्ष्म शरीर धारण करके एक कमलनालका आश्रय लेकर रहते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वा देवर्षिगन्धर्वैः सहितोऽथ बृहस्पतिः।
पुराणैः कर्मभिर्देवं तुष्टाव बलसूदनम् ॥ १३ ॥

मूलम्

गत्वा देवर्षिगन्धर्वैः सहितोऽथ बृहस्पतिः।
पुराणैः कर्मभिर्देवं तुष्टाव बलसूदनम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब बृहस्पतिजीने देवर्षियों और गन्धर्वोंके साथ वहाँ जाकर बलसूदन इन्द्रके पुरातन कर्मोंका वर्णन करते हुए उनकी स्तुति की—॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महासुरो हतः शक्र नमुचिर्दारुणस्त्वया।
शम्बरश्च बलश्चैव तथोभौ घोरविक्रमौ ॥ १४ ॥

मूलम्

महासुरो हतः शक्र नमुचिर्दारुणस्त्वया।
शम्बरश्च बलश्चैव तथोभौ घोरविक्रमौ ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन्द्र! आपने अत्यन्त भयंकर नमुचि नामक महान् असुरको मार गिराया है। शम्बर और बल दोनों भयंकर पराक्रमी दानव थे; परंतु उन्हें भी आपने मार डाला॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतक्रतो विवर्धस्व सर्वाञ्छत्रून् निषूदय।
उत्तिष्ठ शक्र सम्पश्य देवर्षींश्च समागतान् ॥ १५ ॥

मूलम्

शतक्रतो विवर्धस्व सर्वाञ्छत्रून् निषूदय।
उत्तिष्ठ शक्र सम्पश्य देवर्षींश्च समागतान् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शतक्रतो! आप अपने तेजस्वी स्वरूपसे बढ़िये और समस्त शत्रुओंका संहार कीजिये। इन्द्रदेव! उठिये और यहाँ पधारे हुए देवर्षियोंका दर्शन कीजिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महेन्द्र दानवान् हत्वा लोकास्त्रातास्त्वया विभो।
अपां फेनं समासाद्य विष्णुतेजोऽतिबृंहितम्।
त्वया वृत्रो हतः पूर्वं देवराज जगत्पते ॥ १६ ॥

मूलम्

महेन्द्र दानवान् हत्वा लोकास्त्रातास्त्वया विभो।
अपां फेनं समासाद्य विष्णुतेजोऽतिबृंहितम्।
त्वया वृत्रो हतः पूर्वं देवराज जगत्पते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो महेन्द्र! आपने कितने ही दानवोंका वध करके समस्त लोकोंकी रक्षा की है। जगदीश्वर देवराज! भगवान् विष्णुके तेजसे अत्यन्त शक्तिशाली बने हुए समुद्रफेनको लेकर आपने पूर्वकालमें वृत्रासुरका वध किया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं सर्वभूतेषु शरण्य ईड्य-
स्त्वया समं विद्यते नेह भूतम्।
त्वया धार्यन्ते सर्वभूतानि शक्र
त्वं देवानां महिमानं चकर्थ ॥ १७ ॥

मूलम्

त्वं सर्वभूतेषु शरण्य ईड्य-
स्त्वया समं विद्यते नेह भूतम्।
त्वया धार्यन्ते सर्वभूतानि शक्र
त्वं देवानां महिमानं चकर्थ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप सम्पूर्ण भूतोंमें स्तवन करने योग्य और सबके शरणदाता हैं। आपकी समानता करनेवाला जगत्‌में दूसरा कोई प्राणी नहीं है। शक्र! आप ही सम्पूर्ण भूतोंको धारण करते हैं और आपने ही देवताओंकी महिमा बढ़ायी है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाहि सर्वांश्च लोकांश्च महेन्द्र बलमाप्नुहि।
एवं संस्तूयमानश्च सोऽवर्धत शनैः शनैः ॥ १८ ॥

मूलम्

पाहि सर्वांश्च लोकांश्च महेन्द्र बलमाप्नुहि।
एवं संस्तूयमानश्च सोऽवर्धत शनैः शनैः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महेन्द्र! आप शक्ति प्राप्त कीजिये और सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा कीजिये।’ इस प्रकार स्तुति की जानेपर देवराज इन्द्र धीरे-धीरे बढ़ने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वं चैव वपुरास्थाय बभूव स बलान्वितः।
अब्रवीच्च गुरुं देवो बृहस्पतिमवस्थितम् ॥ १९ ॥

मूलम्

स्वं चैव वपुरास्थाय बभूव स बलान्वितः।
अब्रवीच्च गुरुं देवो बृहस्पतिमवस्थितम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने पूर्व शरीरको प्राप्त करके वे बल-पराक्रमसे सम्पन्न हो गये। तत्पश्चात् इन्द्रने वहाँ खड़े हुए अपने गुरु बृहस्पतिसे कहा—॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं कार्यमवशिष्टं वो हतस्त्वाष्ट्रो महासुरः।
वृत्रश्च सुमहाकायो यो वै लोकाननाशयत् ॥ २० ॥

मूलम्

किं कार्यमवशिष्टं वो हतस्त्वाष्ट्रो महासुरः।
वृत्रश्च सुमहाकायो यो वै लोकाननाशयत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! त्वष्टाका पुत्र विशालकाय महासुर वृत्र, जो सम्पूर्ण लोकोंका विनाश कर रहा था, मेरे द्वारा मारा गया; अब आपलोगोंका कौन-सा बचा हुआ कार्य करूँ?’॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

बृहस्पतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानुषो नहुषो राजा देवर्षिगणतेजसा।
देवराज्यमनुप्राप्तः सर्वान् नो बाधते भृशम् ॥ २१ ॥

मूलम्

मानुषो नहुषो राजा देवर्षिगणतेजसा।
देवराज्यमनुप्राप्तः सर्वान् नो बाधते भृशम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पति बोले— देवेन्द्र! मनुष्य-लोकका राजा नहुष देवर्षियोंके प्रभावसे देवताओंका राज्य पा गया है, जो हम सब लोगोंको बड़ा कष्ट दे रहा है॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं च नहुषो राज्यं देवानां प्राप दुर्लभम्।
तपसा केन वा युक्तः किंवीर्यो वा बृहस्पते ॥ २२ ॥
(तत् सर्वं कथयध्वं मे यथेन्द्रत्वमुपेयिवान्।)

मूलम्

कथं च नहुषो राज्यं देवानां प्राप दुर्लभम्।
तपसा केन वा युक्तः किंवीर्यो वा बृहस्पते ॥ २२ ॥
(तत् सर्वं कथयध्वं मे यथेन्द्रत्वमुपेयिवान्।)

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— बृहस्पते! नहुषने देवताओंका दुर्लभ राज्य कैसे प्राप्त किया? वह किस तपस्यासे संयुक्त है? अथवा उसमें कितना बल और पराक्रम है? उसे किस प्रकार इन्द्रपदकी प्राप्ति हुई है? ये सारी बातें आप सब लोग मुझे बताइये॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

बृहस्पतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवा भीताः शक्रमकामयन्त
त्वया त्यक्तं महदैन्द्रं पदं तत्।
तदा देवाः पितरोऽथर्षयश्च
गन्धर्वमुख्याश्च समेत्य सर्वे ॥ २३ ॥
गत्वाब्रुवन् नहुषं तत्र शक्र
त्वं नो राजा भव भुवनस्य गोप्ता।
तानब्रवीन्नहुषो नास्मि शक्त
आप्यायध्वं तपसा तेजसा माम् ॥ २४ ॥

मूलम्

देवा भीताः शक्रमकामयन्त
त्वया त्यक्तं महदैन्द्रं पदं तत्।
तदा देवाः पितरोऽथर्षयश्च
गन्धर्वमुख्याश्च समेत्य सर्वे ॥ २३ ॥
गत्वाब्रुवन् नहुषं तत्र शक्र
त्वं नो राजा भव भुवनस्य गोप्ता।
तानब्रवीन्नहुषो नास्मि शक्त
आप्यायध्वं तपसा तेजसा माम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पति बोले— शक्र! आपने जब उस महान् इन्द्र-पदका परित्याग कर दिया, तब देवतालोग भयभीत होकर दूसरे किसी इन्द्रकी कामना करने लगे। तब देवता, पितर, ऋषि तथा मुख्य गन्धर्व—सब मिलकर राजा नहुषके पास गये। शक्र! वहाँ उन्होंने नहुषसे इस प्रकार कहा—‘आप हमारे राजा होइये और सम्पूर्ण विश्वकी रक्षा कीजिये।’ यह सुनकर नहुषने उनसे कहा—‘मुझमें इन्द्र बननेकी शक्ति नहीं है, अतः आपलोग अपने तप और तेजसे मुझे आप्यायित (पुष्ट) कीजिये’॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तैर्वर्धितश्चापि देवै
राजाभवन्नहुषो घोरवीर्यः ।
त्रैलोक्ये च प्राप्य राज्यं महर्षीन्
कृत्वा वाहान्‌ याति लोकान्‌ दुरात्मा ॥ २५ ॥

मूलम्

एवमुक्तैर्वर्धितश्चापि देवै
राजाभवन्नहुषो घोरवीर्यः ।
त्रैलोक्ये च प्राप्य राज्यं महर्षीन्
कृत्वा वाहान्‌ याति लोकान्‌ दुरात्मा ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके ऐसा कहनेपर देवताओंने उसे तप और तेजसे बढ़ाया। फिर भयंकर पराक्रमी राजा नहुष स्वर्गका राजा बन गया। इस प्रकार त्रिलोकीका राज्य पाकर वह दुरात्मा नहुष महर्षियोंको अपना वाहन बनाकर सब लोकोंमें घूमता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजोहरं दृष्टिविषं सुघोरं
मा त्वं पश्येर्नहुषं वै कदाचित्।
देवाश्च सर्वे नहुषं भृशार्ता
न पश्चन्ते गूढरूपाश्चरन्तः ॥ २६ ॥

मूलम्

तेजोहरं दृष्टिविषं सुघोरं
मा त्वं पश्येर्नहुषं वै कदाचित्।
देवाश्च सर्वे नहुषं भृशार्ता
न पश्चन्ते गूढरूपाश्चरन्तः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह देखनेमात्रसे सबका तेज हर लेता है। उसकी दृष्टिमें भयंकर विष है। वह अत्यन्त घोर स्वभावका हो गया है। तुम नहुषकी ओर कभी देखना नहीं। सब देवता भी अत्यन्त पीड़ित हो गूढरूपसे विचरते रहते हैं; परंतु नहुषकी ओर कभी देखते नहीं हैं॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

शल्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वदत्यङ्गिरसां वरिष्ठे
बृहस्पतौ लोकपालः कुबेरः ।
वैवस्वतश्चैव यमः पुराणो
देवश्च सोमो वरुणश्चाजगाम ॥ २७ ॥

मूलम्

एवं वदत्यङ्गिरसां वरिष्ठे
बृहस्पतौ लोकपालः कुबेरः ।
वैवस्वतश्चैव यमः पुराणो
देवश्च सोमो वरुणश्चाजगाम ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य कहते हैं— राजन्! अंगिराके पुत्रोंमें श्रेष्ठ बृहस्पति जब ऐसा कह रहे थे, उसी समय लोकपाल कुबेर, सूर्यपुत्र यम, पुरातन देवता चन्द्रमा तथा वरुण भी वहाँ आ पहुँचे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वै समागम्य महेन्द्रमूचु-
र्दिष्ट्या त्वाष्ट्रो निहतश्चैव वृत्रः।
दिष्ट्या च त्वां कुशलिनमक्षतं च
पश्यामो वै निहतारिं च शक्र ॥ २८ ॥

मूलम्

ते वै समागम्य महेन्द्रमूचु-
र्दिष्ट्या त्वाष्ट्रो निहतश्चैव वृत्रः।
दिष्ट्या च त्वां कुशलिनमक्षतं च
पश्यामो वै निहतारिं च शक्र ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब देवराज इन्द्रसे मिलकर बोले—‘शक्र! बड़े सौभाग्यकी बात है कि आपने त्वष्टाके पुत्र वृत्रासुरका वध किया। हमलोग आपको शत्रुका वध करनेके पश्चात् सकुशल और अक्षत देखते हैं, यह भी बड़े आनन्दकी बात है’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तान् यथावच्च हि लोकपालान्
समेत्य वै प्रीतमना महेन्द्रः।
उवाच चैनान् प्रतिभाष्य शक्रः
संचोदयिष्यन्नहुषस्यान्तरेण ॥ २९ ॥

मूलम्

स तान् यथावच्च हि लोकपालान्
समेत्य वै प्रीतमना महेन्द्रः।
उवाच चैनान् प्रतिभाष्य शक्रः
संचोदयिष्यन्नहुषस्यान्तरेण ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन लोकपालोंसे यथायोग्य मिलकर महेन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उन सबको सम्बोधित करके राजा नहुषके भीतर बुद्धिभेद उत्पन्न करनेके लिये प्रेरणा देते हुए कहा—॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा देवानां नहुषो घोररूप-
स्तत्र साह्यं दीयतां मे भवद्भिः।
ते चाब्रुवन् नहुषो घोररूपो
दृष्टीविषस्तस्य बिभीम ईश ॥ ३० ॥

मूलम्

राजा देवानां नहुषो घोररूप-
स्तत्र साह्यं दीयतां मे भवद्भिः।
ते चाब्रुवन् नहुषो घोररूपो
दृष्टीविषस्तस्य बिभीम ईश ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन देवताओंका राजा नहुष बड़ा भयंकर हो रहा है। उसे स्वर्गसे हटानेके कार्यमें आपलोग मेरी सहायता करें।’ यह सुनकर उन्होंने उत्तर दिया—‘देवेश्वर! नहुष तो बड़ा भयंकर रूपवाला है। उसकी दृष्टिमें विष है। अतः हमलोग उससे डरते हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं चेद् राजानं नहुषं पराजये-
स्ततो वयं भागमर्हाम शक्र।
इन्द्रोऽब्रवीद् भवतु भवानपां पति-
र्यमः कुबेरश्च मयाभिषेकम् ॥ ३१ ॥
सम्प्राप्नुवन्त्वद्य सहैव दैवतै
रिपुं जयाम तं नहुषं घोरदृष्टिम्।
ततः शक्रं ज्वलनोऽप्याह भागं
प्रयच्छ मह्यं तव साह्यं करिष्ये।
तमाह शक्रो भविताग्ने तवापि
चेन्द्राग्न्योर्वै भाग एको महाक्रतौ ॥ ३२ ॥

मूलम्

त्वं चेद् राजानं नहुषं पराजये-
स्ततो वयं भागमर्हाम शक्र।
इन्द्रोऽब्रवीद् भवतु भवानपां पति-
र्यमः कुबेरश्च मयाभिषेकम् ॥ ३१ ॥
सम्प्राप्नुवन्त्वद्य सहैव दैवतै
रिपुं जयाम तं नहुषं घोरदृष्टिम्।
ततः शक्रं ज्वलनोऽप्याह भागं
प्रयच्छ मह्यं तव साह्यं करिष्ये।
तमाह शक्रो भविताग्ने तवापि
चेन्द्राग्न्योर्वै भाग एको महाक्रतौ ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शक्र! यदि आप हमारी सहायतासे राजा नहुषको पराजित करनेके लिये उद्यत हैं तो हम भी यज्ञमें भाग पानेके अधिकारी हों।’ इन्द्रने कहा—‘वरुणदेव! आप जलके स्वामी हों, यमराज और कुबेर भी मेरे द्वारा अपने-अपने पदपर अभिषिक्त हों। देवताओंसहित हम सब लोग भयंकर दृष्टिवाले अपने शत्रु नहुषको परास्त करेंगे।’ तब अग्निने भी इन्द्रसे कहा—‘प्रभो! मुझे भी भाग दीजिये, मैं आपकी सहायता करूँगा।’ तब इन्द्रने उनसे कहा—‘अग्निदेव! महायज्ञमें इन्द्र और अग्निका एक सम्मिलित भाग होगा, जिसपर तुम्हारा भी अधिकार रहेगा’॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

शल्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संचिन्त्य भगवान् महेन्द्रः पाकशासनः।
कुबेरं सर्वयक्षाणां धनानां च प्रभुं तथा ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवं संचिन्त्य भगवान् महेन्द्रः पाकशासनः।
कुबेरं सर्वयक्षाणां धनानां च प्रभुं तथा ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य कहते हैं— राजन्! इस प्रकार सोच-विचारकर पाकशासन भगवान् महेन्द्रने कुबेरको सम्पूर्ण यक्षों तथा धनका अधिपति बना दिया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैवस्वतं पितॄणां च वरुणं चाप्यपां तथा।
आधिपत्यं ददौ शक्रः संचिन्त्य वरदस्तथा ॥ ३४ ॥

मूलम्

वैवस्वतं पितॄणां च वरुणं चाप्यपां तथा।
आधिपत्यं ददौ शक्रः संचिन्त्य वरदस्तथा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार वरदायक इन्द्रने खूब सोच-समझकर वैवस्वत यमको पितरोंका तथा वरुणको जलका स्वामित्व प्रदान किया॥३४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सेनोद्योगपर्वणि इन्द्रवरुणादिसंवादे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सेनोद्योगपर्वमें इन्द्रवरुणादिसंवादविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ३४ श्लोक हैं।]