भागसूचना
पञ्चदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
इन्द्रकी आज्ञासे इन्द्राणीके अनुरोधपर नहुषका ऋषियोंको अपना वाहन बनाना तथा बृहस्पति और अग्निका संवाद
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः स भगवाञ्छच्या तां पुनरब्रवीत्।
विक्रमस्य न कालोऽयं नहुषो बलवत्तरः ॥ १ ॥
मूलम्
एवमुक्तः स भगवाञ्छच्या तां पुनरब्रवीत्।
विक्रमस्य न कालोऽयं नहुषो बलवत्तरः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य कहते हैं— युधिष्ठिर! शचीदेवीके ऐसा कहनेपर भगवान् इन्द्रने पुनः उनसे कहा—‘देवि! यह पराक्रम करनेका समय नहीं है। आजकल नहुष बहुत बलवान् हो गया है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवर्धितश्च ऋषिभिर्हव्यकव्यैश्च भाविनि ।
नीतिमत्र विधास्यामि देवि तां कर्तुमर्हसि ॥ २ ॥
मूलम्
विवर्धितश्च ऋषिभिर्हव्यकव्यैश्च भाविनि ।
नीतिमत्र विधास्यामि देवि तां कर्तुमर्हसि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भामिनि! ऋषियोंने हव्य और कव्य देकर उसकी शक्तिको बहुत बढ़ा दिया है। अतः मैं यहाँ नीतिसे काम लूँगा। देवि! तुम उसी नीतिका पालन करो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुह्यं चैतत् त्वया कार्यं नाख्यातव्यं शुभे क्वचित्।
गत्वा नहुषमेकान्ते ब्रवीहि च सुमध्यमे ॥ ३ ॥
ऋषियानेन दिव्येन मामुपैहि जगत्पते।
एवं तव वशे प्रीता भविष्यामीति तं वद ॥ ४ ॥
मूलम्
गुह्यं चैतत् त्वया कार्यं नाख्यातव्यं शुभे क्वचित्।
गत्वा नहुषमेकान्ते ब्रवीहि च सुमध्यमे ॥ ३ ॥
ऋषियानेन दिव्येन मामुपैहि जगत्पते।
एवं तव वशे प्रीता भविष्यामीति तं वद ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शुभे! तुम्हें गुप्तरूपसे यह कार्य करना है। कहीं (भी इसे) प्रकट न करना। सुमध्यमे! तुम एकान्तमें नहुषके पास जाकर कहो—जगत्पते! आप दिव्य ऋषियानपर बैठकर मेरे पास आइये। ऐसा होनेपर मैं प्रसन्नतापूर्वक आपके वशमें हो जाऊँगी’॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ता देवराजेन पत्नी सा कमलेक्षणा।
एवमस्त्वित्यथोक्त्वा तु जगाम नहुषं प्रति ॥ ५ ॥
मूलम्
इत्युक्ता देवराजेन पत्नी सा कमलेक्षणा।
एवमस्त्वित्यथोक्त्वा तु जगाम नहुषं प्रति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराजके इस प्रकार आदेश देनेपर उनकी कमलनयनी पत्नी शची ‘एवमस्तु’ कहकर नहुषके पास गयीं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहुषस्तां ततो दृष्ट्वा सस्मितो वाक्यमब्रवीत्।
स्वागतं ते वरारोहे किं करोमि शुचिस्मिते ॥ ६ ॥
मूलम्
नहुषस्तां ततो दृष्ट्वा सस्मितो वाक्यमब्रवीत्।
स्वागतं ते वरारोहे किं करोमि शुचिस्मिते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखकर नहुष मुसकराया और इस प्रकार बोला—‘वरारोहे! तुम्हारा स्वागत है। शुचिस्मिते! कहो, तुम्हारी क्या सेवा करूँ?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्तं मां भज कल्याणि किमिच्छसि मनस्विनि।
तव कल्याणि यत् कार्यं तत् करिष्ये सुमध्यमे ॥ ७ ॥
मूलम्
भक्तं मां भज कल्याणि किमिच्छसि मनस्विनि।
तव कल्याणि यत् कार्यं तत् करिष्ये सुमध्यमे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कल्याणि! मैं तुम्हारा भक्त हूँ, मुझे स्वीकार करो। मनस्विनि! तुम क्या चाहती हो? सुमध्यमे! तुम्हारा जो भी कार्य होगा, उसे मैं सिद्ध करूँगा॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च व्रीडा त्वया कार्या सुश्रोणि मयि विश्वसेः।
सत्येन वै शपे देवि करिष्ये वचनं तव ॥ ८ ॥
मूलम्
न च व्रीडा त्वया कार्या सुश्रोणि मयि विश्वसेः।
सत्येन वै शपे देवि करिष्ये वचनं तव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुश्रोणि! तुम्हें मुझसे लज्जा नहीं करनी चाहिये। मुझपर विश्वास करो। देवि! मैं सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हारी प्रत्येक आज्ञाका पालन करूँगा’॥८॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्राण्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो मे कृतस्त्वया कालस्तमाकाङ्क्षे जगत्पते।
ततस्त्वमेव भर्ता मे भविष्यसि सुराधिप ॥ ९ ॥
मूलम्
यो मे कृतस्त्वया कालस्तमाकाङ्क्षे जगत्पते।
ततस्त्वमेव भर्ता मे भविष्यसि सुराधिप ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्राणी बोलीं— जगत्पते! आपके साथ जो मेरी शर्त हो चुकी है, उसे मैं पूर्ण करना चाहती हूँ। सुरेश्वर! फिर तो आप ही मेरे पति होंगे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्यं च हृदि मे यत् तद् देवराजावधारय।
वक्ष्यामि यदि मे राजन् प्रियमेतत् करिष्यसि ॥ १० ॥
वाक्यं प्रणयसंयुक्तं ततः स्यां वशगा तव।
मूलम्
कार्यं च हृदि मे यत् तद् देवराजावधारय।
वक्ष्यामि यदि मे राजन् प्रियमेतत् करिष्यसि ॥ १० ॥
वाक्यं प्रणयसंयुक्तं ततः स्यां वशगा तव।
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज! मेरे हृदयमें एक कार्यकी अभिलाषा है, उसे बताती हूँ, सुनिये। राजन्! यदि आप मेरे इस प्रिय कार्यको पूर्ण कर देंगे, प्रेमपूर्वक कही हुई मेरी यह बात मान लेंगे तो मैं आपके अधीन हो जाऊँगी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रस्य वाजिनो वाहा हस्तिनोऽथ रथास्तथा ॥ ११ ॥
इच्छाम्यहमथापूर्वं वाहनं ते सुराधिप।
यन्न विष्णोर्न रुद्रस्य नासुराणां न रक्षसाम् ॥ १२ ॥
मूलम्
इन्द्रस्य वाजिनो वाहा हस्तिनोऽथ रथास्तथा ॥ ११ ॥
इच्छाम्यहमथापूर्वं वाहनं ते सुराधिप।
यन्न विष्णोर्न रुद्रस्य नासुराणां न रक्षसाम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरेश्वर! पहले जो इन्द्र थे, उनके वाहन हाथी, घोड़े तथा रथ आदि रहे हैं, परंतु आपका वाहन उनसे सर्वथा विलक्षण—अपूर्व हो, ऐसी मेरी इच्छा है। वह वाहन ऐसा होना चाहिये, जो भगवान् विष्णु, रुद्र, असुर तथा राक्षसोंके भी उपयोगमें न आया हो॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वहन्तु त्वां महाभागा ऋषयः संगता विभो।
सर्वे शिबिकया राजन्नेतद्धि मम रोचते ॥ १३ ॥
मूलम्
वहन्तु त्वां महाभागा ऋषयः संगता विभो।
सर्वे शिबिकया राजन्नेतद्धि मम रोचते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! महाभाग सप्तर्षि एकत्र होकर शिबिकाद्वारा आपका वहन करें। राजन्! यही मुझे अच्छा लगता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नासुरेषु न देवेषु तुल्यो भवितुमर्हसि।
सर्वेषां तेज आदत्से स्वेन वीर्येण दर्शनात्।
न ते प्रमुखतः स्थातुं कश्चिच्छक्नोति वीर्यवान् ॥ १४ ॥
मूलम्
नासुरेषु न देवेषु तुल्यो भवितुमर्हसि।
सर्वेषां तेज आदत्से स्वेन वीर्येण दर्शनात्।
न ते प्रमुखतः स्थातुं कश्चिच्छक्नोति वीर्यवान् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप अपने पराक्रमसे तथा दृष्टिपात करनेमात्रसे सबका तेज हर लेते हैं। देवताओं तथा असुरोंमें कोई भी आपकी समानता करनेवाला नहीं है। कोई कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, आपके सामने ठहर नहीं सकता है॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु नहुषः प्राहृष्यत तदा किल।
उवाच वचनं चापि सुरेन्द्रस्तामनिन्दिताम् ॥ १५ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु नहुषः प्राहृष्यत तदा किल।
उवाच वचनं चापि सुरेन्द्रस्तामनिन्दिताम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य कहते हैं— युधिष्ठिर! इन्द्राणीके ऐसा कहनेपर देवराज नहुष बड़े प्रसन्न हुए और उस सती-साध्वी देवीसे इस प्रकार बोले॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
नहुष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपूर्वं वाहनमिदं त्वयोक्तं वरवर्णिनि।
दृढं मे रुचितं देवि त्वद्वशोऽस्मि वरानने ॥ १६ ॥
मूलम्
अपूर्वं वाहनमिदं त्वयोक्तं वरवर्णिनि।
दृढं मे रुचितं देवि त्वद्वशोऽस्मि वरानने ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नहुषने कहा— सुन्दरि! तुमने तो यह अपूर्व वाहन बताया। देवि! मुझे भी वही सवारी अधिक पसंद है। सुमुखि! मैं तुम्हारे वशमें हूँ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यल्पवीर्यो भवति यो वाहान् कुरुते मुनीन्।
अहं तपस्वी बलवान् भूतभव्यभवत्प्रभुः ॥ १७ ॥
मूलम्
न ह्यल्पवीर्यो भवति यो वाहान् कुरुते मुनीन्।
अहं तपस्वी बलवान् भूतभव्यभवत्प्रभुः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ऋषियोंको भी अपना वाहन बना सके, उस पुरुषमें थोड़ी शक्ति नहीं होती है। मैं तपस्वी, बलवान् तथा भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंका स्वामी हूँ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयि क्रुद्धे जगन्न स्यान्मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।
देवदानवगन्धर्वाः किन्नरोरगराक्षसाः ॥ १८ ॥
न मे क्रुद्धस्य पर्याप्ताः सर्वे लोकाः शुचिस्मिते।
चक्षुषा यं प्रपश्यामि तस्य तेजो हराम्यहम् ॥ १९ ॥
मूलम्
मयि क्रुद्धे जगन्न स्यान्मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।
देवदानवगन्धर्वाः किन्नरोरगराक्षसाः ॥ १८ ॥
न मे क्रुद्धस्य पर्याप्ताः सर्वे लोकाः शुचिस्मिते।
चक्षुषा यं प्रपश्यामि तस्य तेजो हराम्यहम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे कुपित होनेपर यह संसार मिट जायगा। मुझपर ही सब कुछ टिका हुआ है। शुचिस्मिते! यदि मैं क्रोधमें भर जाऊँ तो यह देवता, दानव, गन्धर्व, किन्नर, नाग, राक्षस और सम्पूर्ण लोक मेरा सामना नहीं कर सकते हैं। मैं अपनी आँखसे जिसको देख लेता हूँ, उसका तेज हर लेता हूँ॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् ते वचनं देवि करिष्यामि न संशयः।
सप्तर्षयो मां वक्ष्यन्ति सर्वे ब्रह्मर्षयस्तथा।
पश्य माहात्म्ययोगं मे ऋद्धिं च वरवर्णिनि ॥ २० ॥
मूलम्
तस्मात् ते वचनं देवि करिष्यामि न संशयः।
सप्तर्षयो मां वक्ष्यन्ति सर्वे ब्रह्मर्षयस्तथा।
पश्य माहात्म्ययोगं मे ऋद्धिं च वरवर्णिनि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः देवि! मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगा, इसमें संशय नहीं है। सम्पूर्ण सप्तर्षि और ब्रह्मर्षि मेरी पालकी ढोयेंगे। वरवर्णिनि! मेरे माहात्म्य तथा समृद्धिको तुम प्रत्यक्ष देख लो॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु तां देवीं विसृज्य च वराननाम्।
विमाने योजयित्वा च ऋषीन् नियममास्थितान् ॥ २१ ॥
अब्रह्मण्यो बलोपेतो मत्तो मदबलेन च।
कामवृत्तः स दुष्टात्मा वाहयामास तानृषीन् ॥ २२ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा तु तां देवीं विसृज्य च वराननाम्।
विमाने योजयित्वा च ऋषीन् नियममास्थितान् ॥ २१ ॥
अब्रह्मण्यो बलोपेतो मत्तो मदबलेन च।
कामवृत्तः स दुष्टात्मा वाहयामास तानृषीन् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य कहते हैं— राजन्! सुन्दर मुखवाली शची देवीसे ऐसा कहकर नहुषने उन्हें विदा कर दिया और यम-नियमका पालन करनेवाले बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंका अपमान करके अपनी पालकीमें जोत दिया। वह ब्राह्मणद्रोही नरेश बल पाकर उन्मत्त हो गया था। मद और बलसे गर्वित हो स्वेच्छाचारी दुष्टात्मा नहुषने उन महर्षियोंको अपना वाहन बनाया॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहुषेण विसृष्टा च बृहस्पतिमथाब्रवीत्।
समयोऽल्पावशेषो मे नहुषेणेह यः कृतः ॥ २३ ॥
मूलम्
नहुषेण विसृष्टा च बृहस्पतिमथाब्रवीत्।
समयोऽल्पावशेषो मे नहुषेणेह यः कृतः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उधर नहुषसे विदा लेकर इन्द्राणी बृहस्पतिके यहाँ गयीं और इस प्रकार बोलीं—‘देवगुरो! नहुषने मेरे लिये जो समय निश्चित किया है, उसमें थोड़ा ही शेष रह गया है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रं मृगय शीघ्रं त्वं भक्तायाः कुरु मे दयाम्।
बाढमित्येव भगवान् बृहस्पतिरुवाच ताम् ॥ २४ ॥
मूलम्
शक्रं मृगय शीघ्रं त्वं भक्तायाः कुरु मे दयाम्।
बाढमित्येव भगवान् बृहस्पतिरुवाच ताम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप शीघ्र इन्द्रका पता लगाइये। मैं आपकी भक्त हूँ। मुझपर दया कीजिये।’ तब भगवान् बृहस्पतिने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनसे इस प्रकार कहा—॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भेतव्यं त्वया देवि नहुषाद् दुष्टचेतसः।
न ह्येष स्थास्यति चिरं गत एष नराधमः ॥ २५ ॥
मूलम्
न भेतव्यं त्वया देवि नहुषाद् दुष्टचेतसः।
न ह्येष स्थास्यति चिरं गत एष नराधमः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवि! तुम दुष्टात्मा नहुषसे डरो मत। यह नराधम अब अधिक समयतक यहाँ ठहर नहीं सकेगा। इसे गया हुआ ही समझो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मज्ञो महर्षीणां वाहनाच्च ततः शुभे।
इष्टिं चाहं करिष्यामि विनाशायास्य दुर्मतेः ॥ २६ ॥
शक्रं चाधिगमिष्यामि मा भैस्त्वं भद्रमस्तु ते।
मूलम्
अधर्मज्ञो महर्षीणां वाहनाच्च ततः शुभे।
इष्टिं चाहं करिष्यामि विनाशायास्य दुर्मतेः ॥ २६ ॥
शक्रं चाधिगमिष्यामि मा भैस्त्वं भद्रमस्तु ते।
अनुवाद (हिन्दी)
‘शुभे! यह पापी धर्मको नहीं जानता। अतः महर्षियोंको अपना वाहन बनानेके कारण शीघ्र नीचे गिरेगा। इसके सिवा मैं भी इस दुर्बुद्धि नहुषके विनाशके लिये एक यज्ञ करूँगा। साथ ही इन्द्रका भी पता लगाऊँगा। तुम डरो मत। तुम्हारा कल्याण होगा’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रज्वाल्य विधिवज्जुहाव परमं हविः ॥ २७ ॥
बृहस्पतिर्महातेजा देवराजोपलब्धये ।
हुत्वाग्निं सोऽब्रवीद् राजञ्छक्रमन्विष्यतामिति ॥ २८ ॥
मूलम्
ततः प्रज्वाल्य विधिवज्जुहाव परमं हविः ॥ २७ ॥
बृहस्पतिर्महातेजा देवराजोपलब्धये ।
हुत्वाग्निं सोऽब्रवीद् राजञ्छक्रमन्विष्यतामिति ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महातेजस्वी बृहस्पतिने देवराजकी प्राप्तिके लिये विधिपूर्वक अग्निको प्रज्वलित करके उसमें उत्तम हविष्यकी आहुति दी। राजन्! अग्निमें आहुति देकर उन्होंने अग्निदेवसे कहा—‘आप इन्द्रदेवका पता लगाइये’॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माच्च भगवान् देवः स्वयमेव हुताशनः।
स्त्रीवेषमद्भुतं कृत्वा तत्रैवान्तरधीयत ॥ २९ ॥
मूलम्
तस्माच्च भगवान् देवः स्वयमेव हुताशनः।
स्त्रीवेषमद्भुतं कृत्वा तत्रैवान्तरधीयत ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस हवनकुण्डसे साक्षात् भगवान् अग्निदेव प्रकट होकर अद्भुत स्त्रीवेष धारण करके वहीं अन्तर्धान हो गये॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दिशः प्रदिशश्चैव पर्वतानि वनानि च।
पृथिवीं चान्तरिक्षं च विचिन्त्याथ मनोगतिः।
निमेषान्तरमात्रेण बृहस्पतिमुपागमत् ॥ ३० ॥
मूलम्
स दिशः प्रदिशश्चैव पर्वतानि वनानि च।
पृथिवीं चान्तरिक्षं च विचिन्त्याथ मनोगतिः।
निमेषान्तरमात्रेण बृहस्पतिमुपागमत् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनके समान तीव्र गतिवाले अग्निदेव सम्पूर्ण दिशाओं, विदिशाओं, पर्वतों और वनोंमें तथा भूतल और आकाशमें भी इन्द्रकी खोज करके पलभरमें बृहस्पतिके पास लौट आये॥३०॥
मूलम् (वचनम्)
अग्निरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहस्पते न पश्यामि देवराजमिह क्वचित्।
आपः शेषताः सदा चापः प्रवेष्टुं नोत्सहाम्यहम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
बृहस्पते न पश्यामि देवराजमिह क्वचित्।
आपः शेषताः सदा चापः प्रवेष्टुं नोत्सहाम्यहम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निदेव बोले— बृहस्पते! मैं देवराजको तो इस संसारमें कहीं नहीं देख रहा हूँ, केवल जल शेष रह गया है, जहाँ उनकी खोज नहीं की है। परंतु मैं कभी भी जलमें प्रवेश करनेका साहस नहीं कर सकता॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे तत्र गतिर्ब्रह्मन् किमन्यत् करवाणि ते।
तमब्रवीद् देवगुरुरपो विश महाद्युते ॥ ३२ ॥
मूलम्
न मे तत्र गतिर्ब्रह्मन् किमन्यत् करवाणि ते।
तमब्रवीद् देवगुरुरपो विश महाद्युते ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! जलमें मेरी गति नहीं है। इसके सिवा तुम्हारा दूसरा कौन कार्य मैं करूँ? तब देवगुरुने कहा—‘महाद्युते! आप जलमें भी प्रवेश कीजिये’॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
अग्निरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नापः प्रवेष्टुं शक्ष्यामि क्षयो मेऽत्र भविष्यति।
शरणं त्वां प्रपन्नोऽस्मि स्वस्ति तेऽस्तु महाद्युते ॥ ३३ ॥
मूलम्
नापः प्रवेष्टुं शक्ष्यामि क्षयो मेऽत्र भविष्यति।
शरणं त्वां प्रपन्नोऽस्मि स्वस्ति तेऽस्तु महाद्युते ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निदेव बोले— मैं जलमें नहीं प्रवेश कर सकूँगा; क्योंकि उसमें मेरा विनाश हो जायगा। महातेजस्वी बृहस्पते! मैं तुम्हारी शरणमें आया हूँ। तुम्हारा कल्याण हो (मुझे जलमें जानेके लिये न कहो)॥।३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् ।
तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति ॥ ३४ ॥
मूलम्
अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् ।
तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलसे अग्नि, ब्राह्मणसे क्षत्रिय तथा पत्थरसे लोहेकी उत्पत्ति हुई है। इनका तेज सर्वत्र काम करता है। परंतु अपने कारणभूत पदार्थोंमें आकर बुझ जाता है॥३४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सेनोद्योगपर्वणि बृहस्पत्यग्निसंवादे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सेनोद्योगपर्वमें बृहस्पति-अग्निसंवादविषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५॥