भागसूचना
द्वादशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
देवता-नहुष-संवाद, बृहस्पतिके द्वारा इन्द्राणीकी रक्षा तथा इन्द्राणीका नहुषके पास कुछ समयकी अवधि माँगनेके लिये जाना
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धं तु नहुषं दृष्ट्वा देवा ऋषिपुरोगमाः।
अब्रुवन् देवराजानं नहुषं घोरदर्शनम् ॥ १ ॥
मूलम्
क्रुद्धं तु नहुषं दृष्ट्वा देवा ऋषिपुरोगमाः।
अब्रुवन् देवराजानं नहुषं घोरदर्शनम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य कहते हैं— युधिष्ठिर! देवराज नहुषको क्रोधमें भरे हुए देख देवतालोग ऋषियोंको आगे करके उनके पास गये। उस समय उनकी दृष्टि बड़ी भयंकर प्रतीत होती थी। देवताओं तथा ऋषियोंने कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवराज जहि क्रोधं त्वयि क्रुद्धे जगद् विभो।
त्रस्तं सासुरगन्धर्वं सकिन्नरमहोरगम् ॥ २ ॥
मूलम्
देवराज जहि क्रोधं त्वयि क्रुद्धे जगद् विभो।
त्रस्तं सासुरगन्धर्वं सकिन्नरमहोरगम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवराज! आप क्रोध छोड़ें। प्रभो! आपके कुपित होनेसे असुर, गन्धर्व, किन्नर और महानागगणोंसहित सम्पूर्ण जगत् भयभीत हो उठा है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहि क्रोधमिमं साधो न कुप्यन्ति भवद्विधाः।
परस्य पत्नी सा देवी प्रसीदस्व सुरेश्वर ॥ ३ ॥
मूलम्
जहि क्रोधमिमं साधो न कुप्यन्ति भवद्विधाः।
परस्य पत्नी सा देवी प्रसीदस्व सुरेश्वर ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘साधो! आप इस क्रोधको त्याग दीजिये। आप-जैसे श्रेष्ठ पुरुष दूसरोंपर कोप नहीं करते हैं। अतः प्रसन्न होइये। सुरेश्वर! शची देवी दूसरे इन्द्रकी पत्नी हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवर्तय मनः पापात् परदाराभिमर्शनात्।
देवराजोऽसि भद्रं ते प्रजा धर्मेण पालय ॥ ४ ॥
मूलम्
निवर्तय मनः पापात् परदाराभिमर्शनात्।
देवराजोऽसि भद्रं ते प्रजा धर्मेण पालय ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परायी स्त्रियोंका स्पर्श पापकर्म है। उससे मनको हटा लीजिये। आप देवताओंके राजा हैं। आपका कल्याण हो। आप धर्मपूर्वक प्रजाका पालन कीजिये’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो न जग्राह तद्वचः काममोहितः।
अथ देवानुवाचेदमिन्द्रं प्रति सुराधिपः ॥ ५ ॥
मूलम्
एवमुक्तो न जग्राह तद्वचः काममोहितः।
अथ देवानुवाचेदमिन्द्रं प्रति सुराधिपः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर भी काममोहित नहुषने उनकी बात नहीं मानी। उस समय देवेश्वर नहुषने इन्द्रके विषयमें देवताओंसे इस प्रकार कहा—॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहल्या धर्षिता पूर्वमृषिपत्नी यशस्विनी।
जीवतो भर्तुरिन्द्रेण स वः किं न निवारितः ॥ ६ ॥
मूलम्
अहल्या धर्षिता पूर्वमृषिपत्नी यशस्विनी।
जीवतो भर्तुरिन्द्रेण स वः किं न निवारितः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवताओ! जब इन्द्रने पूर्वकालमें यशस्विनी ऋषि-पत्नी अहल्याका उसके पति गौतमके जीते-जी सतीत्व नष्ट किया था, उस समय आपलोगोंने उन्हें क्यों नहीं रोका?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहूनि च नृशंसानि कृतानीन्द्रेण वै पुरा।
वैधर्म्याण्युपधाश्चैव स वः किं न निवारितः ॥ ७ ॥
मूलम्
बहूनि च नृशंसानि कृतानीन्द्रेण वै पुरा।
वैधर्म्याण्युपधाश्चैव स वः किं न निवारितः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्राचीनकालमें इन्द्रने बहुत-से क्रूरतापूर्ण कर्म किये हैं। अनेक अधार्मिक कृत्य तथा छल-कपट उनके द्वारा हुए हैं। उन्हें आपलोगोंने क्यों नहीं रोका था?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपतिष्ठतु देवी मामेतदस्या हितं परम्।
युष्माकं च सदा देवाः शिवमेवं भविष्यति ॥ ८ ॥
मूलम्
उपतिष्ठतु देवी मामेतदस्या हितं परम्।
युष्माकं च सदा देवाः शिवमेवं भविष्यति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शची देवी मेरी सेवामें उपस्थित हों। इसीमें इनका परम हित है तथा देवताओ! ऐसा होनेपर ही सदा तुम्हारा कल्याण होगा’॥८॥
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्राणीमानयिष्यामो यथेच्छसि दिवस्पते ।
जहि क्रोधमिमं वीर प्रीतो भव सुरेश्वर ॥ ९ ॥
मूलम्
इन्द्राणीमानयिष्यामो यथेच्छसि दिवस्पते ।
जहि क्रोधमिमं वीर प्रीतो भव सुरेश्वर ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता बोले— स्वर्गलोकके स्वामी वीर देवेश्वर! आपकी जैसी इच्छा है, उसके अनुसार हमलोग इन्द्राणीको आपकी सेवामें ले आयेंगे। आप यह क्रोध छोड़िये और प्रसन्न होइये॥९॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा तं तदा देवा ऋषिभिः सह भारत।
जग्मुर्बृहस्पतिं वक्तुमिन्द्राणीं चाशुभं वचः ॥ १० ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा तं तदा देवा ऋषिभिः सह भारत।
जग्मुर्बृहस्पतिं वक्तुमिन्द्राणीं चाशुभं वचः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्यने कहा— युधिष्ठिर! नहुषसे ऐसा कहकर उस समय सब देवता ऋषियोंके साथ इन्द्राणीसे यह अशुभ वचन कहनेके लिये बृहस्पतिजीके पास गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानीमः शरणं प्राप्तामिन्द्राणीं तव वेश्मनि।
दत्ताभयां च विप्रेन्द्र त्वया देवर्षिसत्तम ॥ ११ ॥
मूलम्
जानीमः शरणं प्राप्तामिन्द्राणीं तव वेश्मनि।
दत्ताभयां च विप्रेन्द्र त्वया देवर्षिसत्तम ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने कहा— ‘देवर्षिप्रवर! विप्रेन्द्र! हमें पता लगा है कि इन्द्राणी आपकी शरणमें आयी हैं और आपके ही भवनमें रह रही हैं। आपने उन्हें अभय-दान दे रखा है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते त्वां देवाः सगन्धर्वा ऋषयश्च महाद्युते।
प्रसादयन्ति चेन्द्राणी नहुषाय प्रदीयताम् ॥ १२ ॥
मूलम्
ते त्वां देवाः सगन्धर्वा ऋषयश्च महाद्युते।
प्रसादयन्ति चेन्द्राणी नहुषाय प्रदीयताम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाद्युते! अब ये देवता, गन्धर्व तथा ऋषि आपको इस बातके लिये प्रसन्न करा रहे हैं कि आप इन्द्राणीको राजा नहुषकी सेवामें अर्पण कर दीजिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्राद् विशिष्टो नहुषो देवराजो महाद्युतिः।
वृणोत्विमं वरारोहा भर्तृत्वे वरवर्णिनी ॥ १३ ॥
मूलम्
इन्द्राद् विशिष्टो नहुषो देवराजो महाद्युतिः।
वृणोत्विमं वरारोहा भर्तृत्वे वरवर्णिनी ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय महातेजस्वी नहुष देवताओंके राजा हैं। अतः इन्द्रसे बढ़कर हैं। सुन्दर रूप-रंगवाली शची इन्हें अपना पति स्वीकार कर लें’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता तु सा देवी बाष्पमुत्सृज्य सस्वनम्।
उवाच रुदती दीना बृहस्पतिमिदं वचः ॥ १४ ॥
मूलम्
एवमुक्ता तु सा देवी बाष्पमुत्सृज्य सस्वनम्।
उवाच रुदती दीना बृहस्पतिमिदं वचः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंके यह बात कहनेपर शची देवी आँसू बहाती हुई फूट-फूटकर रोने लगीं और दीन-भावसे बृहस्पतिजीको सम्बोधित करके इस प्रकार बोलीं—॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहमिच्छामि नहुषं पतिं देवर्षिसत्तम।
शरणागतास्मि ते ब्रह्मंस्त्रायस्व महतो भयात् ॥ १५ ॥
मूलम्
नाहमिच्छामि नहुषं पतिं देवर्षिसत्तम।
शरणागतास्मि ते ब्रह्मंस्त्रायस्व महतो भयात् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवर्षियोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मणदेव! मैं नहुषको अपना पति बनाना नहीं चाहती; इसीलिये आपकी शरणमें आयी हूँ। आप इस महान् भयसे मेरी रक्षा कीजिये’॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
बृहस्पतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरणागतं न त्यजेयमिन्द्राणि मम निश्चयः।
धर्मज्ञां सत्यशीलां च न त्यजेयमनिन्दिते ॥ १६ ॥
मूलम्
शरणागतं न त्यजेयमिन्द्राणि मम निश्चयः।
धर्मज्ञां सत्यशीलां च न त्यजेयमनिन्दिते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिने कहा— इन्द्राणी! मैं शरणागतका त्याग नहीं कर सकता, यह मेरा दृढ़ निश्चय है। अनिन्दिते! तुम धर्मज्ञ और सत्यशील हो; अतः मैं तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाकार्यं कर्तुमिच्छामि ब्राह्मणः सन् विशेषतः।
श्रुतधर्मा सत्यशीलो जानन् धर्मानुशासनम् ॥ १७ ॥
नाहमेतत् करिष्यामि गच्छध्वं वै सुरोत्तमाः।
अस्मिंश्चार्थे पुरा गीतं ब्रह्मणा श्रूयतामिदम् ॥ १८ ॥
मूलम्
नाकार्यं कर्तुमिच्छामि ब्राह्मणः सन् विशेषतः।
श्रुतधर्मा सत्यशीलो जानन् धर्मानुशासनम् ॥ १७ ॥
नाहमेतत् करिष्यामि गच्छध्वं वै सुरोत्तमाः।
अस्मिंश्चार्थे पुरा गीतं ब्रह्मणा श्रूयतामिदम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विशेषतः ब्राह्मण होकर मैं यह न करने योग्य कार्य नहीं कर सकता। मैंने धर्मकी बातें सुनी हैं और सत्यको अपने स्वभावमें उतार लिया है। शास्त्रोंमें जो धर्मका उपदेश किया गया है, उसे भी जानता हूँ; अतः मैं यह पापकर्म नहीं करूँगा! सुरश्रेष्ठगण! आपलोग लौट जायँ। इस विषयमें ब्रह्माजीने पूर्वकालमें जो गीत गाया था, वह इस प्रकार है, सुनिये॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तस्य बीजं रोहति रोहकाले
न तस्य वर्षं वर्षति वर्षकाले।
भीतं प्रपन्नं प्रददाति शत्रवे
न स त्रातारं लभते त्राणमिच्छन् ॥ १९ ॥
मूलम्
न तस्य बीजं रोहति रोहकाले
न तस्य वर्षं वर्षति वर्षकाले।
भीतं प्रपन्नं प्रददाति शत्रवे
न स त्रातारं लभते त्राणमिच्छन् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो भयभीत होकर शरणमें आये हुए प्राणीको उसके शत्रुके हाथमें दे देता है, उसका बोया हुआ बीज समयपर नहीं जमता है। उसके यहाँ ठीक समयपर वर्षा नहीं होती और वह जब कभी अपनी रक्षा चाहता है, तो उसे कोई रक्षक नहीं मिलता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोघमन्नं विन्दति चाप्यचेताः
स्वर्गाल्लोकाद् भ्रश्यति नष्टचेष्टः ।
भीतं प्रपन्नं प्रददाति यो वै
न तस्य हव्यं प्रतिगृह्णन्ति देवाः ॥ २० ॥
मूलम्
मोघमन्नं विन्दति चाप्यचेताः
स्वर्गाल्लोकाद् भ्रश्यति नष्टचेष्टः ।
भीतं प्रपन्नं प्रददाति यो वै
न तस्य हव्यं प्रतिगृह्णन्ति देवाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो भयभीत शरणागतको शत्रुके हाथमें सौंप देता है, वह दुर्बलचित्त मानव जो अन्न ग्रहण करता है, वह व्यर्थ हो जाता है। उसके सारे उद्यम नष्ट हो जाते हैं और वह स्वर्गलोकसे नीचे गिर जाता है। इतना ही नहीं, देवतालोग उसके दिये हुए हविष्यको स्वीकार नहीं करते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमीयते चास्य प्रजा ह्यकाले
सदा विवासं पितरोऽस्य कुर्वते।
भीतं प्रपन्नं प्रददाति शत्रवे
सेन्द्रा देवाः प्रहरन्त्यस्य वज्रम् ॥ २१ ॥
मूलम्
प्रमीयते चास्य प्रजा ह्यकाले
सदा विवासं पितरोऽस्य कुर्वते।
भीतं प्रपन्नं प्रददाति शत्रवे
सेन्द्रा देवाः प्रहरन्त्यस्य वज्रम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसकी संतान अकालमें ही मर जाती है। उसके पितर सदा नरकमें निवास करते हैं। जो भयभीत शरणागतको शत्रुके हाथमें दे देता है, उसपर इन्द्र आदि देवता वज्रका प्रहार करते हैं’॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदेवं विजानन् वै न दास्यामि शचीमिमाम्।
इन्द्राणीं विश्रुतां लोके शक्रस्य महिषीं प्रियाम् ॥ २२ ॥
मूलम्
एतदेवं विजानन् वै न दास्यामि शचीमिमाम्।
इन्द्राणीं विश्रुतां लोके शक्रस्य महिषीं प्रियाम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार ब्रह्माजीके उपदेशके अनुसार शरणागतके त्यागसे होनेवाले अधर्मको मैं निश्चितरूपसे जानता हूँ; अतः जो सम्पूर्ण विश्वमें इन्द्रकी पत्नी तथा देवराजकी प्यारी पटरानीके रूपमें विख्यात हैं, उन्हीं इन शची देवीको मैं नहुषके हाथमें नहीं दूँगा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्या हितं भवेद् यच्च मम चापि हितं भवेत्।
क्रियतां तत् सुरश्रेष्ठा न हि दास्याम्यहं शचीम् ॥ २३ ॥
मूलम्
अस्या हितं भवेद् यच्च मम चापि हितं भवेत्।
क्रियतां तत् सुरश्रेष्ठा न हि दास्याम्यहं शचीम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ देवताओ! जो इनके लिये हितकर हो, जिससे मेरा भी हित हो, वह कार्य आपलोग करें। मैं शचीको कदापि नहीं दूँगा॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ देवाः सगन्धर्वा गुरुमाहुरिदं वचः।
कथं सुनीतं नु भवेन्मन्त्रयस्व बृहस्पते ॥ २४ ॥
मूलम्
अथ देवाः सगन्धर्वा गुरुमाहुरिदं वचः।
कथं सुनीतं नु भवेन्मन्त्रयस्व बृहस्पते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य कहते हैं— राजन्! तब देवताओं तथा गन्धर्वोंने गुरुसे इस प्रकार कहा—‘बृहस्पते! आप ही सलाह दीजिये कि किस उपायका अवलम्बन करनेसे शुभ परिणाम होगा?’॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
बृहस्पतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहुषं याचतां देवी किंचित् कालान्तरं शुभा।
इन्द्राणी हितमेतद्धि तथास्माकं भविष्यति ॥ २५ ॥
मूलम्
नहुषं याचतां देवी किंचित् कालान्तरं शुभा।
इन्द्राणी हितमेतद्धि तथास्माकं भविष्यति ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीने कहा— देवगण! शुभलक्षणा शची देवी नहुषसे कुछ समयकी अवधि माँगें। इसीसे इनका और हमारा भी हित होगा॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुविघ्नः सुराः कालः कालः कालं नयिष्यति।
गर्वितो बलवांश्चापि नहुषो वरसंश्रयात् ॥ २६ ॥
मूलम्
बहुविघ्नः सुराः कालः कालः कालं नयिष्यति।
गर्वितो बलवांश्चापि नहुषो वरसंश्रयात् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओ! समय अनेक प्रकारके विघ्नोंसे भरा होता है। इस समय नहुष आपलोगोंके वरदानके प्रभावसे बलवान् और गर्वीला हो गया है। काल ही उसे कालके गालमें पहुँचा देगा॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तेन तथोक्ते तु प्रीता देवास्तथाब्रुवन्।
ब्रह्मन् साध्विदमुक्तं ते हितं सर्वदिवौकसाम् ॥ २७ ॥
मूलम्
ततस्तेन तथोक्ते तु प्रीता देवास्तथाब्रुवन्।
ब्रह्मन् साध्विदमुक्तं ते हितं सर्वदिवौकसाम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य कहते हैं— राजन्! उनके इस प्रकार सलाह देनेपर देवता बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले—‘ब्रह्मन्! आपने बहुत अच्छी बात कही है। इसीमें सम्पूर्ण देवताओंका हित है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतद् द्विजश्रेष्ठ देवी चेयं प्रसाद्यताम्।
ततः समस्ता इन्द्राणीं देवाश्चाग्निपुरोगमाः।
ऊचुर्वचनमव्यग्रा लोकानां हितकाम्यया ॥ २८ ॥
मूलम्
एवमेतद् द्विजश्रेष्ठ देवी चेयं प्रसाद्यताम्।
ततः समस्ता इन्द्राणीं देवाश्चाग्निपुरोगमाः।
ऊचुर्वचनमव्यग्रा लोकानां हितकाम्यया ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्विजश्रेष्ठ! इसी बातके लिये शची देवीको राजी कीजिये।’ तदनन्तर अग्नि आदि सब देवता इन्द्राणीके पास जा समस्त लोकोंके हितके लिये शान्तभावसे इस प्रकार बोले॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया जगदिदं सर्वं धृतं स्थावरजङ्गमम्।
एकपत्न्यसि सत्या च गच्छस्व नहुषं प्रति ॥ २९ ॥
क्षिप्रं त्वामभिकामश्च विनशिष्यति पापकृत्।
नहुषो देवि शक्रश्च सुरैश्वर्यमवाप्स्यति ॥ ३० ॥
मूलम्
त्वया जगदिदं सर्वं धृतं स्थावरजङ्गमम्।
एकपत्न्यसि सत्या च गच्छस्व नहुषं प्रति ॥ २९ ॥
क्षिप्रं त्वामभिकामश्च विनशिष्यति पापकृत्।
नहुषो देवि शक्रश्च सुरैश्वर्यमवाप्स्यति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता बोले— देवि! यह समस्त चराचर जगत् तुमने ही धारण कर रखा है, क्योंकि तुम पतिव्रता और सत्यपरायणा हो। अतः तुम नहुषके पास चलो। देवेश्वरि! तुम्हारी कामना करनेके कारण पापी नहुष शीघ्र नष्ट हो जायगा और इन्द्र पुनः अपने देवसाम्राज्यको प्राप्त कर लेंगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विनिश्चयं कृत्वा इन्द्राणी कार्यसिद्धये।
अभ्यगच्छत सव्रीडा नहुषं घोरदर्शनम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
एवं विनिश्चयं कृत्वा इन्द्राणी कार्यसिद्धये।
अभ्यगच्छत सव्रीडा नहुषं घोरदर्शनम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी कार्य-सिद्धिके लिये ऐसा निश्चय करके इन्द्राणी भयंकर दृष्टिवाले नहुषके पास बड़े संकोचके साथ गयी॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तां नहुषश्चापि वयोरूपसमन्विताम्।
समहृष्यत दुष्टात्मा कामोपहतचेतनः ॥ ३२ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा तां नहुषश्चापि वयोरूपसमन्विताम्।
समहृष्यत दुष्टात्मा कामोपहतचेतनः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नयी अवस्था और सुन्दर रूपसे सुशोभित इन्द्राणीको देखकर दुष्टात्मा नहुष बहुत प्रसन्न हुआ। कामभावनासे उसकी बुद्धि मारी गयी थी॥३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सेनोद्योगपर्वणि इन्द्राणीकालावधियाचने द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सेनोद्योगपर्वमें इन्द्राणीकी नहुषसे समययाचनासे सम्बन्ध रखनेवाला बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२॥