भागसूचना
दशमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
इन्द्रसहित देवताओंका भगवान् विष्णुकी शरणमें जाना और इन्द्रका उनके आज्ञानुसार वृत्रासुरसे संधि करके अवसर पाकर उसे मारना एवं ब्रह्महत्याके भयसे जलमें छिपना
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं व्याप्तमिदं देवा वृत्रेण जगदव्ययम्।
न ह्यस्य सदृशं किंचित् प्रतिघाताय यद् भवेत् ॥ १ ॥
मूलम्
सर्वं व्याप्तमिदं देवा वृत्रेण जगदव्ययम्।
न ह्यस्य सदृशं किंचित् प्रतिघाताय यद् भवेत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र बोले— देवताओ! वृत्रासुरने इस सम्पूर्ण जगत्को आक्रान्त कर लिया है। इसके योग्य कोई ऐसा अस्त्र-शस्त्र नहीं है, जो इसका विनाश कर सके॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समर्थो ह्यभवं पूर्वमसमर्थोऽस्मि साम्प्रतम्।
कथं नु कार्यं भद्रं वो दुर्धर्षः स हि मे मतः॥२॥
मूलम्
समर्थो ह्यभवं पूर्वमसमर्थोऽस्मि साम्प्रतम्।
कथं नु कार्यं भद्रं वो दुर्धर्षः स हि मे मतः॥२॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले मैं सब प्रकारसे सामर्थ्यशाली था; किंतु इस समय असमर्थ हो गया हूँ। आपलोगोंका कल्याण हो। बताइये, कैसे क्या काम करना चाहिये? मुझे तो वृत्रासुर दुर्जय प्रतीत हो रहा है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजस्वी च महात्मा च युद्धे चामितविक्रमः।
ग्रसेत् त्रिभुवनं सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ ३ ॥
मूलम्
तेजस्वी च महात्मा च युद्धे चामितविक्रमः।
ग्रसेत् त्रिभुवनं सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह तेजस्वी और महाकाय है। युद्धमें उसके बल-पराक्रमकी कोई सीमा नहीं है। वह चाहे तो देवता, असुर और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीको अपना ग्रास बना सकता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् विनिश्चयमिमं शृणुध्वं त्रिदिवौकसः।
विष्णोः क्षयमुपागम्य समेत्य च महात्मना।
तेन सम्मन्त्र्य वेत्स्यामो वधोपायं दुरात्मनः ॥ ४ ॥
मूलम्
तस्माद् विनिश्चयमिमं शृणुध्वं त्रिदिवौकसः।
विष्णोः क्षयमुपागम्य समेत्य च महात्मना।
तेन सम्मन्त्र्य वेत्स्यामो वधोपायं दुरात्मनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः देवताओ! इस विषयमें मेरे इस निश्चयको सुनो। हमलोग भगवान् विष्णुके धाममें चलें और उन परमात्मासे मिलकर उन्हींसे सलाह करके उस दुरात्माके वधका उपाय जानें॥४॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ते मघवता देवाः सर्षिगणास्तदा।
शरण्यं शरणं देवं जग्मुर्विष्णुं महाबलम् ॥ ५ ॥
मूलम्
एवमुक्ते मघवता देवाः सर्षिगणास्तदा।
शरण्यं शरणं देवं जग्मुर्विष्णुं महाबलम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य बोले— राजन्! इन्द्रके ऐसा कहनेपर ऋषियोंसहित सम्पूर्ण देवता सबके शरणदाता अत्यन्त बलशाली भगवान् विष्णुकी शरणमें गये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊचुश्च सर्वे देवेशं विष्णुं वृत्रभयार्दिताः।
त्रयो लोकास्त्वया क्रान्तास्त्रिभिर्विक्रमणैः पुरा ॥ ६ ॥
मूलम्
ऊचुश्च सर्वे देवेशं विष्णुं वृत्रभयार्दिताः।
त्रयो लोकास्त्वया क्रान्तास्त्रिभिर्विक्रमणैः पुरा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब-के-सब वृत्रासुरके भयसे पीड़ित थे। उन्होंने देवेश्वर भगवान् विष्णुसे इस प्रकार कहा—‘प्रभो! आपने पूर्वकालमें अपने तीन डगोंद्वारा सम्पूर्ण त्रिलोकी-को माप लिया था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृतं चाहृतं विष्णो दैत्याश्च निहता रणे।
बलिं बद्ध्वा महादैत्यं शक्रो देवाधिपः कृतः ॥ ७ ॥
मूलम्
अमृतं चाहृतं विष्णो दैत्याश्च निहता रणे।
बलिं बद्ध्वा महादैत्यं शक्रो देवाधिपः कृतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विष्णो! आपने ही (मोहिनी अवतार धारण करके) दैत्योंके हाथसे अमृत छीना एवं युद्धमें उन सबका संहार किया तथा महादैत्य बलिको बाँधकर इन्द्रको देवताओंका राजा बनाया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं प्रभुः सर्वदेवानां त्वया सर्वमिदं ततम्।
त्वं हि देवो महादेव सर्वलोकनमस्कृतः ॥ ८ ॥
मूलम्
त्वं प्रभुः सर्वदेवानां त्वया सर्वमिदं ततम्।
त्वं हि देवो महादेव सर्वलोकनमस्कृतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप ही सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी हैं। आपसे ही यह समस्त चराचर जगत् व्याप्त है। महादेव! आप ही अखिलविश्ववन्दित देवता हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतिर्भव त्वं देवानां सेन्द्राणाममरोत्तम।
जगद् व्याप्तमिदं सर्वं वृत्रेणासुरसूदन ॥ ९ ॥
मूलम्
गतिर्भव त्वं देवानां सेन्द्राणाममरोत्तम।
जगद् व्याप्तमिदं सर्वं वृत्रेणासुरसूदन ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरश्रेष्ठ! आप इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंके आश्रय हों। असुरसूदन! वृत्रासुरने इस सम्पूर्ण जगत्को आक्रान्त कर लिया है॥९॥
मूलम् (वचनम्)
विष्णुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यं करणीयं मे भवतां हितमुत्तमम्।
तस्मादुपायं वक्ष्यामि यथासौ न भविष्यति ॥ १० ॥
मूलम्
अवश्यं करणीयं मे भवतां हितमुत्तमम्।
तस्मादुपायं वक्ष्यामि यथासौ न भविष्यति ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् विष्णु बोले— देवताओ! मुझे तुमलोगोंका उत्तम हित अवश्य करना है। अतः तुम सबको एक उपाय बताऊँगा, जिससे वृत्रासुरका अन्त होगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छध्वं सर्षिगन्धर्वा यत्रासौ विश्वरूपधृक्।
साम तस्य प्रयुञ्जध्वं तत एनं विजेष्यथ ॥ ११ ॥
मूलम्
गच्छध्वं सर्षिगन्धर्वा यत्रासौ विश्वरूपधृक्।
साम तस्य प्रयुञ्जध्वं तत एनं विजेष्यथ ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमलोग ऋषियों और गन्धर्वोंके साथ वहीं जाओ, जहाँ विश्वरूपधारी वृत्रासुर विद्यमान है। तुमलोग उसके साथ संधि कर लो, तभी उसे जीत सकोगे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भविष्यति जयो देवाः शक्रस्य मम तेजसा।
अदृश्यश्च प्रवेक्ष्यामि वज्रे ह्यस्यायुधोत्तमे ॥ १२ ॥
मूलम्
भविष्यति जयो देवाः शक्रस्य मम तेजसा।
अदृश्यश्च प्रवेक्ष्यामि वज्रे ह्यस्यायुधोत्तमे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओ! मेरे तेजसे इन्द्रकी विजय होगी। मैं इनके उत्तम आयुध वज्रमें अदृश्यभावसे प्रवेश करूँगा॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छध्वमृषिभिः सार्धं गन्धर्वैश्च सुरोत्तमाः।
वृत्रस्य सह शक्रेण सन्धिं कुरुत मा चिरम् ॥ १३ ॥
मूलम्
गच्छध्वमृषिभिः सार्धं गन्धर्वैश्च सुरोत्तमाः।
वृत्रस्य सह शक्रेण सन्धिं कुरुत मा चिरम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवेश्वरगण! तुमलोग ऋषियों तथा गन्धर्वोंके साथ जाओ और इन्द्रके साथ वृत्रासुरकी संधि कराओ। इसमें विलम्ब न करो॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ते तु देवेन ऋषयस्त्रिदशास्तथा।
ययुः समेत्य सहिताः शक्रं कृत्वा पुरःसरम् ॥ १४ ॥
मूलम्
एवमुक्ते तु देवेन ऋषयस्त्रिदशास्तथा।
ययुः समेत्य सहिताः शक्रं कृत्वा पुरःसरम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य कहते हैं— राजन्! भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर ऋषि तथा देवता एक साथ मिलकर देवेन्द्रको आगे करके वृत्रासुरके पास गये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समीपमेत्य च यदा सर्व एव महौजसः।
तं तेजसा प्रज्वलितं प्रतपन्तं दिशो दश ॥ १५ ॥
ग्रसन्तमिव लोकांस्त्रीन् सूर्याचन्द्रमसौ यथा।
ददृशुस्ते ततो वृत्रं शक्रेण सह देवताः ॥ १६ ॥
मूलम्
समीपमेत्य च यदा सर्व एव महौजसः।
तं तेजसा प्रज्वलितं प्रतपन्तं दिशो दश ॥ १५ ॥
ग्रसन्तमिव लोकांस्त्रीन् सूर्याचन्द्रमसौ यथा।
ददृशुस्ते ततो वृत्रं शक्रेण सह देवताः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त महाबली देवता जब वृत्रासुरके समीप आये, तब वह अपने तेजसे प्रज्वलित होकर दसों दिशाओंको तपा रहा था, मानो सूर्य और चन्द्रमा अपना प्रकाश बिखेर रहे हों। इन्द्रके साथ सम्पूर्ण देवताओंने वृत्रासुरको देखा। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो तीनों लोकोंको अपना ग्रास बना लेगा॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयोऽथ ततोऽभ्येत्य वृत्रमूचुः प्रियं वचः।
व्याप्तं जगदिदं सर्वं तेजसा तव दुर्जय ॥ १७ ॥
मूलम्
ऋषयोऽथ ततोऽभ्येत्य वृत्रमूचुः प्रियं वचः।
व्याप्तं जगदिदं सर्वं तेजसा तव दुर्जय ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वृत्रासुरके पास आकर ऋषियोंने उससे यह प्रिय वचन कहा—‘दुर्जय वीर! तुम्हारे तेजसे यह सारा जगत् व्याप्त हो रहा है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च शक्नोषि निर्जेतुं वासवं बलिनां वर।
युध्यतोश्चापि वां कालो व्यतीतः सुमहानिह ॥ १८ ॥
मूलम्
न च शक्नोषि निर्जेतुं वासवं बलिनां वर।
युध्यतोश्चापि वां कालो व्यतीतः सुमहानिह ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बलवानोंमें श्रेष्ठ वृत्र! इतनेपर भी तुम इन्द्रको जीत नहीं सकते। तुम दोनोंको युद्ध करते बहुत समय बीत गया है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीड्यन्ते च प्रजाः सर्वाः सदेवासुरमानुषाः।
सख्यं भवतु ते वृत्र शक्रेण सह नित्यदा ॥ १९ ॥
मूलम्
पीड्यन्ते च प्रजाः सर्वाः सदेवासुरमानुषाः।
सख्यं भवतु ते वृत्र शक्रेण सह नित्यदा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवता, असुर तथा मनुष्योंसहित सारी प्रजा इस युद्धसे पीड़ित हो रही है। अतः वृत्रासुर! हम चाहते हैं कि इन्द्रके साथ तुम्हारी सदाके लिये मैत्री हो जाय॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवाप्स्यसि सुखं त्वं च शक्रलोकांश्च शाश्वतान्।
ऋषिवाक्यं निशम्याथ वृत्रः स तु महाबलः ॥ २० ॥
उवाच तानृषीन् सर्वान् प्रणम्य शिरसासुरः।
सर्वे यूयं महाभागा गन्धर्वाश्चैव सर्वशः ॥ २१ ॥
यद् ब्रूथ तच्छ्रुतं सर्वं ममापि शृणुतानघाः।
संधिः कथं वै भविता मम शक्रस्य चोभयोः।
तेजसोर्हि द्वयोर्देवाः सख्यं वै भविता कथम् ॥ २२ ॥
मूलम्
अवाप्स्यसि सुखं त्वं च शक्रलोकांश्च शाश्वतान्।
ऋषिवाक्यं निशम्याथ वृत्रः स तु महाबलः ॥ २० ॥
उवाच तानृषीन् सर्वान् प्रणम्य शिरसासुरः।
सर्वे यूयं महाभागा गन्धर्वाश्चैव सर्वशः ॥ २१ ॥
यद् ब्रूथ तच्छ्रुतं सर्वं ममापि शृणुतानघाः।
संधिः कथं वै भविता मम शक्रस्य चोभयोः।
तेजसोर्हि द्वयोर्देवाः सख्यं वै भविता कथम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इससे तुम्हें सुख मिलेगा और इन्द्रके सनातन लोकोंपर भी तुम्हारा अधिकार रहेगा।’ ऋषियोंकी यह बात सुनकर महाबली वृत्रासुरने उन सबको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा—‘महाभाग देवताओ! महर्षियो तथा गन्धर्वो! आप सब लोग जो कुछ कह रहे हैं, वह सब मैंने सुन लिया। निष्पाप देवगण! अब मेरी भी बात आपलोग सुनें। मुझमें और इन्द्रमें संधि कैसे होगी? दो तेजस्वी पुरुषोंमें मैत्रीका सम्बन्ध किस प्रकार स्थापित होगा?’॥२०—२२॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकृत् सतां संगतं लिप्सितव्यं
ततः परं भविता भव्यमेव।
नातिक्रामेत् सत्पुरुषेण संगतं
तस्मात् सतां संगतं लिप्सितव्यम् ॥ २३ ॥
मूलम्
सकृत् सतां संगतं लिप्सितव्यं
ततः परं भविता भव्यमेव।
नातिक्रामेत् सत्पुरुषेण संगतं
तस्मात् सतां संगतं लिप्सितव्यम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषि बोले— एक बार साधु पुरुषोंकी संगतिकी अभिलाषा अवश्य रखनी चाहिये। साधु पुरुषोंका संग प्राप्त होनेपर उससे परम कल्याण ही होगा। साधु पुरुषोंके संगकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। अतः संतोंका रंग मिलनेकी अवश्य इच्छा करे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृढं सतां संगतं चापि नित्यं
ब्रूयाच्चार्थं ह्यर्थकृच्छ्रेषु धीरः ।
महार्थवत् सत्पुरुषेण संगतं
तस्मात् सन्तं न जिघांसेत धीरः ॥ २४ ॥
मूलम्
दृढं सतां संगतं चापि नित्यं
ब्रूयाच्चार्थं ह्यर्थकृच्छ्रेषु धीरः ।
महार्थवत् सत्पुरुषेण संगतं
तस्मात् सन्तं न जिघांसेत धीरः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सज्जनोंका रंग सुदृढ़ एवं चिरस्थायी होता है। धीर संत-महात्मा संकटके समय हितकर कर्तव्यका ही उपदेश देते हैं। साधु पुरुषोंका संग महान् अभीष्ट वस्तुओंका साधक होता है। अतः बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह सज्जनोंको नष्ट करनेकी इच्छा न करे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रः सतां सम्मतश्च निवासश्च महात्मनाम्।
सत्यवादी ह्यनिन्द्यश्च धर्मवित् सूक्ष्मनिश्चयः ॥ २५ ॥
मूलम्
इन्द्रः सतां सम्मतश्च निवासश्च महात्मनाम्।
सत्यवादी ह्यनिन्द्यश्च धर्मवित् सूक्ष्मनिश्चयः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र सत्पुरुषोंके सम्माननीय हैं। महात्मा पुरुषोंके आश्रय हैं। वे सत्यवादी, अनिन्दनीय, धर्मज्ञ तथा सूक्ष्म बुद्धिवाले हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन ते सह शक्रेण संधिर्भवतु नित्यदा।
एवं विश्वासमागच्छ मा तेऽभूद् बुद्धिरन्यथा ॥ २६ ॥
मूलम्
तेन ते सह शक्रेण संधिर्भवतु नित्यदा।
एवं विश्वासमागच्छ मा तेऽभूद् बुद्धिरन्यथा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे इन्द्रके साथ तुम्हारी सदाके लिये संधि हो जाय। इस प्रकार तुम उनका विश्वास प्राप्त करो। तुम्हें इसके विपरीत कोई विचार नहीं करना चाहिये॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षिवचनं श्रुत्वा तानुवाच महाद्युतिः।
अवश्यं भगवन्तो मे माननीयास्तपस्विनः ॥ २७ ॥
मूलम्
महर्षिवचनं श्रुत्वा तानुवाच महाद्युतिः।
अवश्यं भगवन्तो मे माननीयास्तपस्विनः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य कहते हैं— राजन्! महर्षियोंकी यह बात सुनकर महातेजस्वी वृत्रने उनसे कहा—‘भगवन्! आप-जैसे तपस्वी महात्मा अवश्य ही मेरे लिये सम्माननीय हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रवीमि यदहं देवास्तत् सर्वं क्रियते यदि।
ततः सर्वं करिष्यामि यदूचुर्मां द्विजर्षभाः ॥ २८ ॥
मूलम्
ब्रवीमि यदहं देवास्तत् सर्वं क्रियते यदि।
ततः सर्वं करिष्यामि यदूचुर्मां द्विजर्षभाः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवताओ! मैं अभी जो कुछ कह रहा हूँ, वह सब यदि आपलोग स्वीकार कर लें, तो इन श्रेष्ठ ब्रह्मर्षियोंने मुझे जो आदेश दिये हैं, उन सबका मैं अवश्य पालन करूँगा॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शुष्केण न चार्द्रेण नाश्मना न च दारुणा।
न शस्त्रेण न चास्त्रेण न दिवा न तथा निशि॥२९॥
वध्यो भवेयं विप्रेन्द्राः शक्रस्य सह दैवतैः।
एवं मे रोचते सन्धिः शक्रेण सह नित्यदा ॥ ३० ॥
मूलम्
न शुष्केण न चार्द्रेण नाश्मना न च दारुणा।
न शस्त्रेण न चास्त्रेण न दिवा न तथा निशि॥२९॥
वध्यो भवेयं विप्रेन्द्राः शक्रस्य सह दैवतैः।
एवं मे रोचते सन्धिः शक्रेण सह नित्यदा ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विप्रवरो! मैं देवताओंसहित इन्द्रके द्वारा न सूखी वस्तुसे; न गीली वस्तुसे; न पत्थरसे, न लकड़ीसे; न शस्त्रसे, न अस्त्रसे; न दिनमें और न रातमें ही मारा जाऊँ। इस शर्तपर देवेन्द्रके साथ सदाके लिये मेरी संधि हो तो मैं उसे पसंद करता हूँ’॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाढमित्येव ऋषयस्तमूचुर्भरतर्षभ ।
एवंवृत्ते तु संधाने वृत्रः प्रमुदितोऽभवत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
बाढमित्येव ऋषयस्तमूचुर्भरतर्षभ ।
एवंवृत्ते तु संधाने वृत्रः प्रमुदितोऽभवत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! तब ऋषियोंने उससे ‘बहुत अच्छा’ कहा। इस प्रकार संधि हो जानेपर वृत्रासुरको बड़ी प्रसन्नता हुई॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युक्तः सदाभवच्चापि शक्रो हर्षसमन्वितः।
वृत्रस्य वधसंयुक्तानुपायानन्वचिन्तयत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
युक्तः सदाभवच्चापि शक्रो हर्षसमन्वितः।
वृत्रस्य वधसंयुक्तानुपायानन्वचिन्तयत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र भी हर्षमें भरकर सदा उससे मिलने लगे, परंतु वे वृत्रके वधसम्बन्धी उपायोंको ही सोचते रहते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिद्रान्वेषी समुद्विग्नः सदा वसति देवराट्।
स कदाचित् समुद्रान्ते समपश्यन्महासुरम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
छिद्रान्वेषी समुद्विग्नः सदा वसति देवराट्।
स कदाचित् समुद्रान्ते समपश्यन्महासुरम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृत्रासुरके छिद्रकी (उसे मारनेके अवसरकी) खोज करते हुए देवराज इन्द्र सदा उद्विग्न रहते थे। एक दिन उन्होंने समुद्रके तटपर उस महान् असुरको देखा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संध्याकाल उपावृत्ते मुहूर्ते चातिदारुणे।
ततः संचिन्त्य भगवान् वरदानं महात्मनः ॥ ३४ ॥
संध्येयं वर्तते रौद्रा न रात्रिर्दिवसं न च।
वृत्रश्चावश्यवध्योऽयं मम सर्वहरो रिपुः ॥ ३५ ॥
यदि वृत्रं न हन्म्यद्य वञ्चयित्वा महासुरम्।
महाबलं महाकायं न मे श्रेयो भविष्यति ॥ ३६ ॥
मूलम्
संध्याकाल उपावृत्ते मुहूर्ते चातिदारुणे।
ततः संचिन्त्य भगवान् वरदानं महात्मनः ॥ ३४ ॥
संध्येयं वर्तते रौद्रा न रात्रिर्दिवसं न च।
वृत्रश्चावश्यवध्योऽयं मम सर्वहरो रिपुः ॥ ३५ ॥
यदि वृत्रं न हन्म्यद्य वञ्चयित्वा महासुरम्।
महाबलं महाकायं न मे श्रेयो भविष्यति ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अत्यन्त दारुण संध्याकालका मुहूर्त उपस्थित था। भगवान् इन्द्रने परमात्मा श्रीविष्णुके वरदानका विचार करके सोचा—‘यह भयंकर संध्या उपस्थित है, इस समय न रात है, न दिन है, अतः अभी इस वृत्रासुरका अवश्य वध कर देना चाहिये; क्योंकि यह मेरा सर्वस्व हर लेनेवाला शत्रु है। यदि इस महाबली, महाकाय और महान् असुर वृत्रको धोखा देकर मैं अभी नहीं मार डालता हूँ, तो मेरा भला न होगा’॥३४—३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संचिन्तयन्नेव शक्रो विष्णुमनुस्मरन्।
अथ फेनं तदापश्यत् समुद्रे पर्वतोपमम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
एवं संचिन्तयन्नेव शक्रो विष्णुमनुस्मरन्।
अथ फेनं तदापश्यत् समुद्रे पर्वतोपमम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सोचते हुए ही इन्द्र भगवान् विष्णुका बार-बार स्मरण करने लगे। इसी समय उनकी दृष्टि समुद्रमें उठते हुए पर्वताकार फेनपर पड़ी॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायं शुष्को न चार्द्रोऽयं न च शस्त्रमिदं तथा।
एनं क्षेप्स्यामि वृत्रस्य क्षणादेव नशिष्यति ॥ ३८ ॥
मूलम्
नायं शुष्को न चार्द्रोऽयं न च शस्त्रमिदं तथा।
एनं क्षेप्स्यामि वृत्रस्य क्षणादेव नशिष्यति ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर इन्द्रने मन-ही-मन यह विचार किया कि यह न सूखा है न आर्द्र, न अस्त्र है न शस्त्र, अतः इसीको वृत्रासुरपर छोड़ूँगा, जिससे वह क्षणभरमें नष्ट हो जायगा॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सवज्रमथ फेनं तं क्षिप्रं वृत्रे निसृष्टवान्।
प्रविश्य फेनं तं विष्णुरथ वृत्रं व्यनाशयत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
सवज्रमथ फेनं तं क्षिप्रं वृत्रे निसृष्टवान्।
प्रविश्य फेनं तं विष्णुरथ वृत्रं व्यनाशयत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सोचकर इन्द्रने तुरंत ही वृत्रासुरपर वज्रसहित फेनका प्रहार किया। उस समय भगवान् विष्णुने उस फेनमें प्रवेश करके वृत्रासुरको नष्ट कर दिया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहते तु ततो वृत्रे दिशो वितिमिराऽभवन्।
प्रववौ च शिवो वायुः प्रजाश्च जहृषुस्तथा ॥ ४० ॥
मूलम्
निहते तु ततो वृत्रे दिशो वितिमिराऽभवन्।
प्रववौ च शिवो वायुः प्रजाश्च जहृषुस्तथा ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृत्रासुरके मारे जानेपर सम्पूर्ण दिशाओंका अन्धकार दूर हो गया, शीतल-सुखद वायु चलने लगी और सम्पूर्ण प्रजामें हर्ष छा गया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो देवाः सगन्धर्वा यक्षरक्षोमहोरगाः।
ऋषयश्च महेन्द्रं तमस्तुवन् विविधैः स्तवैः ॥ ४१ ॥
मूलम्
ततो देवाः सगन्धर्वा यक्षरक्षोमहोरगाः।
ऋषयश्च महेन्द्रं तमस्तुवन् विविधैः स्तवैः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, महानाग तथा ऋषि भाँति-भाँतिके स्तोत्रोंद्वारा महेन्द्रकी स्तुति करने लगे॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्कृतः सर्वभूतैः सर्वभूतान्यसान्त्वयत् ।
हत्वा शत्रुं प्रहृष्टात्मा वासवः सह दैवतैः ॥ ४२ ॥
मूलम्
नमस्कृतः सर्वभूतैः सर्वभूतान्यसान्त्वयत् ।
हत्वा शत्रुं प्रहृष्टात्मा वासवः सह दैवतैः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुको मारकर देवताओंसहित इन्द्रका हृदय हर्षसे भर गया। समस्त प्राणियोंने उन्हें नमस्कार किया और उन्होंने उन सबको सान्त्वना दी॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुं त्रिभुवनश्रेष्ठं पूजयामास धर्मवित्।
ततो हते महावीर्ये वृत्रे देवभयंकरे ॥ ४३ ॥
अनृतेनाभिभूतोऽभूच्छक्रः परमदुर्मनाः ।
त्रैशीर्षयाभिभूतश्च स पूर्वं ब्रह्महत्यया ॥ ४४ ॥
मूलम्
विष्णुं त्रिभुवनश्रेष्ठं पूजयामास धर्मवित्।
ततो हते महावीर्ये वृत्रे देवभयंकरे ॥ ४३ ॥
अनृतेनाभिभूतोऽभूच्छक्रः परमदुर्मनाः ।
त्रैशीर्षयाभिभूतश्च स पूर्वं ब्रह्महत्यया ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् धर्मज्ञ देवराजने तीनों लोकोंके श्रेष्ठ आराध्यदेव भगवान् विष्णुका पूजन किया। इस प्रकार देवताओंको भय देनेवाले महापराक्रमी वृत्रासुरके मारे जानेपर विश्वासघातरूपी असत्यसे अभिभूत होकर इन्द्र मन-ही-मन बहुत दुःखी हो गये। त्रिशिराके वधसे उत्पन्न हुई ब्रह्महत्याने तो उन्हें पहलेसे ही घेर रखा था॥४३-४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽन्तमाश्रित्य लोकानां नष्टसंज्ञो विचेतनः।
न प्राज्ञायत देवेन्द्रस्त्वभिभूतः स्वकल्मषैः ॥ ४५ ॥
मूलम्
सोऽन्तमाश्रित्य लोकानां नष्टसंज्ञो विचेतनः।
न प्राज्ञायत देवेन्द्रस्त्वभिभूतः स्वकल्मषैः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सम्पूर्ण लोकोंकी अन्तिम सीमापर जाकर बेसुध और अचेत होकर रहने लगे। वहाँ अपने ही पापोंसे पीड़ित हुए देवेन्द्रका किसीको पता न चला॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिच्छन्नोऽवसच्चाप्सु चेष्टमान इवोरगः ।
ततः प्रणष्टे देवेन्द्रे ब्रह्महत्याभयार्दिते ॥ ४६ ॥
भूमिः प्रध्वस्तसंकाशा निर्वृक्षा शुष्ककानना।
विच्छिन्नस्रोतसो नद्यः सरांस्यनुदकानि च ॥ ४७ ॥
मूलम्
प्रतिच्छन्नोऽवसच्चाप्सु चेष्टमान इवोरगः ।
ततः प्रणष्टे देवेन्द्रे ब्रह्महत्याभयार्दिते ॥ ४६ ॥
भूमिः प्रध्वस्तसंकाशा निर्वृक्षा शुष्ककानना।
विच्छिन्नस्रोतसो नद्यः सरांस्यनुदकानि च ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे जलमें विचरनेवाले सर्पकी भाँति पानीमें ही छिपकर रहने लगे। ब्रह्महत्याके भयसे पीड़ित होकर जब देवराज इन्द्र अदृश्य हो गये, तब यह पृथ्वी नष्ट-सी हो गयी। यहाँके वृक्ष उजड़ गये, जंगल सूख गये, नदियोंका स्रोत छिन्न-भिन्न हो गया और सरोवरोंका जल सूख गया॥४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संक्षोभश्चापि सत्त्वानामनावृष्टिकृतोऽभवत् ।
देवाश्चापि भृशं त्रस्तास्तथा सर्वे महर्षयः ॥ ४८ ॥
मूलम्
संक्षोभश्चापि सत्त्वानामनावृष्टिकृतोऽभवत् ।
देवाश्चापि भृशं त्रस्तास्तथा सर्वे महर्षयः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब जीवोंमें अनावृष्टिके कारण क्षोभ उत्पन्न हो गया। देवता तथा सम्पूर्ण महर्षि भी अत्यन्त भयभीत हो गये॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अराजकं जगत् सर्वमभिभूतमुपद्रवः ।
ततो भीताऽभवन् देवाः को नो राजा भवेदिति ॥ ४९ ॥
दिवि देवर्षयश्चापि देवराजविनाकृताः ।
न स्म कश्चन देवानां राज्ये वै कुरुते मतिम्॥५०॥
मूलम्
अराजकं जगत् सर्वमभिभूतमुपद्रवः ।
ततो भीताऽभवन् देवाः को नो राजा भवेदिति ॥ ४९ ॥
दिवि देवर्षयश्चापि देवराजविनाकृताः ।
न स्म कश्चन देवानां राज्ये वै कुरुते मतिम्॥५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण जगत्में अराजकताके कारण भारी उपद्रव होने लगे। स्वर्गमें देवराज इन्द्रके न होनेसे देवता तथा देवर्षि भी भयभीत होकर सोचने लगे—‘अब हमारा राजा कौन होगा?’ देवताओंमेंसे कोई भी स्वर्गका राजा बननेका विचार नहीं करता था॥४९-५०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सेनोद्योगपर्वणि वृत्रवधे इन्द्रविजयो नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सेनोद्योगपर्वमें वृत्रवधके प्रसंगमें इन्द्रविजयविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०॥