०७२

भागसूचना

द्विसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका अपनी पुत्रवधूके रूपमें उत्तराको ग्रहण करना एवं अभिमन्यु और उत्तराका विवाह

मूलम् (वचनम्)

विराट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमर्थं पाण्डवश्रेष्ठ भार्यां दुहितरं मम।
प्रतिग्रहीतुं नेमां त्वं मया दत्तामिहेच्छसि ॥ १ ॥

मूलम्

किमर्थं पाण्डवश्रेष्ठ भार्यां दुहितरं मम।
प्रतिग्रहीतुं नेमां त्वं मया दत्तामिहेच्छसि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विराट बोले— पाण्डवश्रेष्ठ! मैं स्वयं तुम्हें अपनी कन्या दे रहा हूँ, फिर तुम उसे अपनी पत्नीके रूपमें क्यों नहीं स्वीकार करते?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तःपुरेऽहमुषितः सदा पश्यन् सुतां तव।
रहस्यं च प्रकाशं च विश्वस्ता पितृवन्मयि ॥ २ ॥
प्रियो बहुतमश्चासं नर्तको गीतकोविदः।
आचार्यवच्च मां नित्यं मन्यते दुहिता तव ॥ ३ ॥

मूलम्

अन्तःपुरेऽहमुषितः सदा पश्यन् सुतां तव।
रहस्यं च प्रकाशं च विश्वस्ता पितृवन्मयि ॥ २ ॥
प्रियो बहुतमश्चासं नर्तको गीतकोविदः।
आचार्यवच्च मां नित्यं मन्यते दुहिता तव ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— राजन्! मैं बहुत समयतक आपके रनिवासमें रहा हूँ और आपकी कन्याको एकान्तमें तथा सबके सामने भी (पुत्रीभावसे ही) देखता आया हूँ। उसने भी मुझपर पिताकी भाँति ही विश्वास किया है। मैं नाचता तो था ही, गानविद्यामें भी कुशल हूँ, अतः उसका मेरे प्रति बहुत अधिक प्रेम रहा है, किंतु आपकी पुत्री मुझे सदा आचार्य (गुरु) की भाँति मानती आयी है॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयःस्थया तया राजन् सह संवत्सरोषितः।
अतिशङ्का भवेत् स्थाने तव लोकस्य वा विभो ॥ ४ ॥

मूलम्

वयःस्थया तया राजन् सह संवत्सरोषितः।
अतिशङ्का भवेत् स्थाने तव लोकस्य वा विभो ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जब वह वयस्क हो चुकी थी तब मैं उसके साथ एक वर्षतक रह चुका हूँ। प्रभो! (ऐसी अवस्थामें यदि मैं उसके साथ विवाह करूँगा, तो) आपको या और किसी मनुष्यको हमारे चरित्रके विषयमें (अवश्य ही) संदेह होगा और वह युक्तिसंगत ही होगा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्निमन्त्रयेऽहं ते दुहितां मनुजाधिप।
शुद्धो जितेन्द्रियो दान्तस्तस्याः शुद्धिः कृता मया ॥ ५ ॥

मूलम्

तस्मान्निमन्त्रयेऽहं ते दुहितां मनुजाधिप।
शुद्धो जितेन्द्रियो दान्तस्तस्याः शुद्धिः कृता मया ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वह संदेह न हो, इसके लिये मैं आपकी पुत्रीको पुत्रवधूके रूपमें ही ग्रहण करूँगा। ऐसा होनेपर ही मैं शुद्धचरित्र, जितेन्द्रिय तथा मनको दमन करनेवाला समझा जाऊँगा और इसीसे मेरे द्वारा आपकी कन्याके चरित्रकी शुद्धि स्पष्ट हो जायगी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नुषायां दुहितुर्वापि पुत्रे चात्मनि वा पुनः।
अत्र शङ्कां न पश्यामि तेन शुद्धिर्भविष्यति ॥ ६ ॥

मूलम्

स्नुषायां दुहितुर्वापि पुत्रे चात्मनि वा पुनः।
अत्र शङ्कां न पश्यामि तेन शुद्धिर्भविष्यति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रवधू और पुत्रीमें तथा पुत्र अथवा आत्मामें भेद नहीं है, अतः उसे पुत्रवधूके रूपमें ग्रहण करनेपर मुझे कलंककी शंका नहीं दिखायी देती और इससे हम दोनोंकी पवित्रता भी स्पष्ट हो जायगी॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिशापादहं भीतो मिथ्यावादात् परंतप।
स्नुषार्थमुत्तरां राजन् प्रतिगृह्णामि ते सुताम् ॥ ७ ॥

मूलम्

अभिशापादहं भीतो मिथ्यावादात् परंतप।
स्नुषार्थमुत्तरां राजन् प्रतिगृह्णामि ते सुताम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतप! मैं अभिशाप और मिथ्यावादसे डरता हूँ, (यदि मैं आपकी पुत्रीको पत्नीरूपमें ग्रहण करूँ, तो लोग यह कल्पना कर सकते हैं कि इन दोनोंमें पहलेसे ही अनुचित सम्बन्ध था;) इसलिये राजन्! मैं आपकी पुत्री उत्तराको पुत्रवधूके रूपमें ही ग्रहण करता हूँ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वस्रीयो वासुदेवस्य साक्षाद् देवशिशुर्यथा।
दयितश्चक्रहस्तस्य सर्वास्त्रेषु च कोविदः ॥ ८ ॥

मूलम्

स्वस्रीयो वासुदेवस्य साक्षाद् देवशिशुर्यथा।
दयितश्चक्रहस्तस्य सर्वास्त्रेषु च कोविदः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा पुत्र देवकुमारके समान है। वह साक्षात् भगवान् वासुदेवका भानजा है। चक्रधारी श्रीकृष्णको वह बहुत प्रिय है। साथ ही वह सब प्रकारकी अस्त्रविद्यामें कुशल है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्युर्महाबाहुः पुत्रो मम विशाम्पते।
जामाता तव युक्तो वै भर्ता च दुहितुस्तव ॥ ९ ॥

मूलम्

अभिमन्युर्महाबाहुः पुत्रो मम विशाम्पते।
जामाता तव युक्तो वै भर्ता च दुहितुस्तव ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! मेरे उस महाबाहु पुत्रका नाम अभिमन्यु है। वह आपका सुयोग्य दामाद और आपकी पुत्रीका उपयुक्त पति होगा॥९॥

मूलम् (वचनम्)

विराट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपपन्नं कुरुश्रेष्ठे कुन्तीपुत्र धनंजये।
य एवं धर्मनित्यश्च जातज्ञानश्च पाण्डवः ॥ १० ॥
यत् कृत्यं मन्यसे पार्थ क्रियतां तदनन्तरम्।
सर्वे कामाः समृद्धा मे सम्बन्धी यस्य मेऽर्जुनः ॥ ११ ॥

मूलम्

उपपन्नं कुरुश्रेष्ठे कुन्तीपुत्र धनंजये।
य एवं धर्मनित्यश्च जातज्ञानश्च पाण्डवः ॥ १० ॥
यत् कृत्यं मन्यसे पार्थ क्रियतां तदनन्तरम्।
सर्वे कामाः समृद्धा मे सम्बन्धी यस्य मेऽर्जुनः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विराट बोले— पार्थ! आप कौरवोंमें श्रेष्ठ और कुन्तीदेवीके पुत्र हैं। धनंजयमें इस प्रकार धर्मका विचार होना उचित ही है। पाण्डुपुत्र अर्जुन ही इस प्रकार नित्यधर्मपरायण और ज्ञानसम्पन्न हो सकते हैं। अब इसके बाद जो कर्तव्य आप ठीक समझें, उसे पूर्ण करें। मेरी सब कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। जिसके सम्बन्धी अर्जुन हो रहे हों, उसकी कौन-सी कामना अपूर्ण रह सकती हैं?॥१०-११॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवति राजेन्द्रे कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
अन्वशासत् स संयोगं समये मत्स्यपार्थयोः ॥ १२ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवति राजेन्द्रे कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
अन्वशासत् स संयोगं समये मत्स्यपार्थयोः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! महाराज विराटके ऐसा कहनेपर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने उचित अवसर जान मत्स्यनरेश और पार्थके इस सम्बन्धका अनुमोदन किया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मित्रेषु सर्वेषु वासुदेवं च भारत।
प्रेषयामास कौन्तेयो विराटश्च महीपतिः ॥ १३ ॥

मूलम्

ततो मित्रेषु सर्वेषु वासुदेवं च भारत।
प्रेषयामास कौन्तेयो विराटश्च महीपतिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर तथा राजा विराटने अपने-अपने सम्पूर्ण सुहृदों एवं सगे-सम्बन्धियोंको तथा भगवान् वासुदेवको भी निमन्त्रण भेजा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्रयोदशे वर्षे निवृत्ते पञ्च पाण्डवाः।
उपप्लव्यं विराटस्य समपद्यन्त सर्वशः ॥ १४ ॥

मूलम्

ततस्त्रयोदशे वर्षे निवृत्ते पञ्च पाण्डवाः।
उपप्लव्यं विराटस्य समपद्यन्त सर्वशः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाँचों पाण्डवोंका तेरहवाँ वर्ष तो पूर्ण हो ही चुका था, वे सब-के-सब राजा विराटके उपप्लव्य नामक नगरमें आकर रहने लगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्युं च बीभत्सुरानिनाय जनार्दनम्।
आनर्तेभ्योऽपि दाशार्हानानयामास पाण्डवः ॥ १५ ॥

मूलम्

अभिमन्युं च बीभत्सुरानिनाय जनार्दनम्।
आनर्तेभ्योऽपि दाशार्हानानयामास पाण्डवः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन अर्जुनने आनर्तदेशसे अभिमन्यु, भगवान् वासुदेव तथा दशार्हवंशके अपने अन्य सम्बन्धियोंको भी वहाँ बुलवा लिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काशिराजश्च शैब्यश्च प्रीयमाणौ युधिष्ठिरे।
अक्षौहिणीभ्यां सहितावागतौ पृथिवीपती ॥ १६ ॥

मूलम्

काशिराजश्च शैब्यश्च प्रीयमाणौ युधिष्ठिरे।
अक्षौहिणीभ्यां सहितावागतौ पृथिवीपती ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काशिराज और शैब्य दोनों युधिष्ठिरके बड़े प्रेमी थे। वे दोनों नरेश एक-एक अक्षौहिणी सेनाके साथ उपप्लव्य नगरमें आये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षौहिण्या च सहितो यज्ञसेनो महाबलः।
द्रौपद्याश्च सुता वीराः शिखण्डी चापराजितः ॥ १७ ॥
धृष्टद्युम्नश्च दुर्धर्षः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
समस्ताक्षौहिणीपाला यज्वानो भूरिदक्षिणाः ।
वेदावभृथसम्पन्नाः सर्वे शूरास्तनुत्यजः ॥ १८ ॥

मूलम्

अक्षौहिण्या च सहितो यज्ञसेनो महाबलः।
द्रौपद्याश्च सुता वीराः शिखण्डी चापराजितः ॥ १७ ॥
धृष्टद्युम्नश्च दुर्धर्षः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
समस्ताक्षौहिणीपाला यज्वानो भूरिदक्षिणाः ।
वेदावभृथसम्पन्नाः सर्वे शूरास्तनुत्यजः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली राजा द्रुपद भी एक अक्षौहिणी सेनाके साथ पधारे। उनके साथ द्रौपदीके पाँचों वीर पुत्र, कभी परास्त न होनेवाले शिखण्डी और समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ एवं दुर्धर्ष वीर धृष्टद्युम्न भी थे। इनके सिवा और भी अनेक राजा वहाँ पधारे, जो सब-के-सब एक-एक अक्षौहिणी सेनाके पालक, यज्ञकर्ता, यज्ञोंमें अधिकसे अधिक दक्षिणा देनेवाले, वेद और अवभृथ (यज्ञान्त) स्नानसे सम्पन्न, शूरवीर तथा पाण्डवोंके लिये प्राण देनेवाले थे॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानागतानभिप्रेक्ष्य मत्स्यो धर्मभृतां वरः।
पूजयामास विधिवत् सभृत्यबलवाहनान् ॥ १९ ॥

मूलम्

तानागतानभिप्रेक्ष्य मत्स्यो धर्मभृतां वरः।
पूजयामास विधिवत् सभृत्यबलवाहनान् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ मत्स्यनरेश विराटने उन्हें आया हुआ देख सेवक, सेना और सवारियोंसहित उन सबका विधिपूर्वक स्वागत-सत्कार किया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतोऽभवद् दुहितरं दत्त्वा तामभिमन्यवे।
ततः प्रत्युपयातेषु पार्थिवेषु ततस्ततः ॥ २० ॥
तत्रागमद् वासुदेवो वनमाली हलायुधः।
कृतवर्मा च हार्दिक्यो युयुधानश्च सात्यकिः ॥ २१ ॥
अनाधृष्टिस्तथाक्रूरः साम्बो निशठ एव च।
अभिमन्युमुपादाय सह मात्रा परंतपाः ॥ २२ ॥

मूलम्

प्रीतोऽभवद् दुहितरं दत्त्वा तामभिमन्यवे।
ततः प्रत्युपयातेषु पार्थिवेषु ततस्ततः ॥ २० ॥
तत्रागमद् वासुदेवो वनमाली हलायुधः।
कृतवर्मा च हार्दिक्यो युयुधानश्च सात्यकिः ॥ २१ ॥
अनाधृष्टिस्तथाक्रूरः साम्बो निशठ एव च।
अभिमन्युमुपादाय सह मात्रा परंतपाः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अभिमन्युको अपनी पुत्रीका वाग्दान करके राजा विराट बहुत प्रसन्न थे। तत्पश्चात् सब राजालोग अपने-अपने लिये नियत किये हुए स्थानोंमें विश्रामके लिये पधारे। वहाँ वनमालाधारी वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण, हलरूपी शस्त्र धारण करनेवाले बलराम, हृदीकपुत्र कृतवर्मा, युयुधान नामसे प्रसिद्ध सात्यकि, अनाधृष्टि, अक्रूर, साम्ब और निशठ—ये सभी शत्रुसंतापन वीर अभिमन्यु और उसकी माता सुभद्राको साथ लिये वहाँ पधारे थे॥२०—२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रसेनादयश्चैव रथैस्तैः सुसमाहितैः ।
आययुः सहिताः सर्वे परिसंवत्सरोषिताः ॥ २३ ॥

मूलम्

इन्द्रसेनादयश्चैव रथैस्तैः सुसमाहितैः ।
आययुः सहिताः सर्वे परिसंवत्सरोषिताः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने एक वर्षतक द्वारकामें निवास किया था, वे इन्द्रसेन आदि सारथि भी अच्छी तरह सब सामग्रियोंसे सम्पन्न किये हुए रथोंसहित वहाँ आये थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशनागसहस्राणि हयानां द्विगुणं तथा।
रथानामयुतं पूर्णं नियुतं च पदातिनाम् ॥ २४ ॥
वृष्ण्यन्धकाश्च बहवो भोजाश्च परमौजसः।
अन्वयुर्वृष्णिशार्दूलं वासुदेवं महाद्युतिम् ॥ २५ ॥

मूलम्

दशनागसहस्राणि हयानां द्विगुणं तथा।
रथानामयुतं पूर्णं नियुतं च पदातिनाम् ॥ २४ ॥
वृष्ण्यन्धकाश्च बहवो भोजाश्च परमौजसः।
अन्वयुर्वृष्णिशार्दूलं वासुदेवं महाद्युतिम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परमतेजस्वी वृष्णिवंशशिरोमणि भगवान् वासुदेव-के साथ दस हजार हाथी, उनसे दुगुने अर्थात् बीस हजार घोड़े, दस हजार रथ और दस लाख पैदल सेना थी। इसके सिवा वृष्णि, अन्धक तथा भोजवंश-के और भी बहुत-से महापराक्रमी वीर उनके साथ पधारे थे॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारिबर्हं ददौ कृष्णः पाण्डवानां महात्मनाम्।
स्त्रियो रत्नानि वासांसि पृथक् पृथगनेकशः ॥ २६ ॥
ततो विवाहो विधिवद् ववृधे मत्स्यपार्थयोः।

मूलम्

पारिबर्हं ददौ कृष्णः पाण्डवानां महात्मनाम्।
स्त्रियो रत्नानि वासांसि पृथक् पृथगनेकशः ॥ २६ ॥
ततो विवाहो विधिवद् ववृधे मत्स्यपार्थयोः।

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने महात्मा पाण्डवोंको दहेज या निमन्त्रणमें बहुत-सी दासियाँ, नाना प्रकारके रत्न और बहुत-से वस्त्र पृथक्-पृथक् भेंट किये। तत्पश्चात् मत्स्य और पार्थकुलके वैवाहिक सम्बन्धका कार्य विधिपूर्वक सम्पन्न होने लगा॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च गोमुखा डम्बरास्तथा ॥ २७ ॥
पार्थैः संयुज्यमानस्य नेदुर्मत्स्यस्य वेश्मनि।
भक्ष्यान्नभोज्यपानानि प्रभूतान्यभ्यहारयन् ॥ २८ ॥

मूलम्

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च गोमुखा डम्बरास्तथा ॥ २७ ॥
पार्थैः संयुज्यमानस्य नेदुर्मत्स्यस्य वेश्मनि।
भक्ष्यान्नभोज्यपानानि प्रभूतान्यभ्यहारयन् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कुन्तीपुत्रोंके साथ सम्बन्ध स्थापित करनेवाले मत्स्यनरेशके महलमें शंख, नगाड़े, गोमुख और डम्बर आदि भाँति-भाँतिके बाजे बजने लगे। साथ ही उन्होंने खानेयोग्य अन्न, भोज्य और पीने आदिकी सामग्री भी प्रचुर मात्रामें प्रस्तुत की॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गायनाख्यानशीलाश्च नटवैतालिकास्तथा ।
स्तुवन्तस्तानुपातिष्ठन् सूताश्च सह मागधैः ॥ २९ ॥

मूलम्

गायनाख्यानशीलाश्च नटवैतालिकास्तथा ।
स्तुवन्तस्तानुपातिष्ठन् सूताश्च सह मागधैः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गानेवाले, प्राचीन उपाख्यान सुनानेवाले, नट और वैतालिक सूत-मागध आदिके साथ उपस्थित हो पाण्डवोंकी स्तुति-प्रशंसा करने लगे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुदेष्णां च पुरस्कृत्य मत्स्यानां च वरस्त्रियः।
आजग्मुश्चारुसर्वाङ्ग्यः सुमृष्टमणिकुण्डलाः ॥ ३० ॥

मूलम्

सुदेष्णां च पुरस्कृत्य मत्स्यानां च वरस्त्रियः।
आजग्मुश्चारुसर्वाङ्ग्यः सुमृष्टमणिकुण्डलाः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मत्स्यनरेशके रनिवासकी सुन्दरी स्त्रियाँ रानी सुदेष्णाको आगे करके महारानी द्रौपदीके यहाँ आयीं। उन सबके सभी अंग बड़े मनोहर थे। उन सबने विशुद्ध मणिमय कुण्डल पहन रखे थे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णोपपन्नास्ता नार्यो रूपवत्यः स्वलंकृताः।
सर्वाश्चाभ्यभवन् कृष्णा रूपेण यशसा श्रिया ॥ ३१ ॥

मूलम्

वर्णोपपन्नास्ता नार्यो रूपवत्यः स्वलंकृताः।
सर्वाश्चाभ्यभवन् कृष्णा रूपेण यशसा श्रिया ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी नारियाँ उत्तम वर्णकी थीं। रूपवती होनेके साथ ही वे भाँति-भाँतिके सुन्दर आभूषणोंसे विभूषित भी थीं; परंतु द्रुपदकुमारी कृष्णाने अपने दिव्य रूप, यश और उत्तम कान्तिसे उन सबको तिरस्कृत कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिवार्योत्तरां तास्तु राजपुत्रीमलंकृताम् ।
सुतामिव महेन्द्रस्य पुरस्कृत्योपतस्थिरे ॥ ३२ ॥

मूलम्

परिवार्योत्तरां तास्तु राजपुत्रीमलंकृताम् ।
सुतामिव महेन्द्रस्य पुरस्कृत्योपतस्थिरे ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय राजकुमारी उत्तरा वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हो महेन्द्रपुत्री जयन्ती-सी सुशोभित हो रही थी। राजपरिवारकी स्त्रियाँ उसे आगे करके दोनों ओरसे घेरकर वहाँ उपस्थित हुईं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां प्रत्यगृह्णात् कौन्तेयः सुतस्यार्थे धनंजयः।
सौभद्रस्यानवद्याङ्गीं विराटतनयां तदा ॥ ३३ ॥

मूलम्

तां प्रत्यगृह्णात् कौन्तेयः सुतस्यार्थे धनंजयः।
सौभद्रस्यानवद्याङ्गीं विराटतनयां तदा ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कुन्तीनन्दन अर्जुनने अपने पुत्र सुभद्राकुमार अभिमन्युके लिये निर्दोष अंगोंवाली विराटकुमारी उत्तराको ग्रहण किया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रातिष्ठन्महाराजो रूपमिन्द्रस्य धारयन् ।
स्नुषां तां प्रतिजग्राह कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ३४ ॥

मूलम्

तत्रातिष्ठन्महाराजो रूपमिन्द्रस्य धारयन् ।
स्नुषां तां प्रतिजग्राह कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ इन्द्रके समान रूप धारण किये कुन्तीपुत्र महाराज युधिष्ठिर भी खड़े थे। उन्होंने भी उत्तराको पुत्रवधूके रूपमें अंगीकार किया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिगृह्य च तां पार्थः पुरस्कृत्य जनार्दनम्।
विवाहं कारयामास सौभद्रस्य महात्मनः ॥ ३५

मूलम्

प्रतिगृह्य च तां पार्थः पुरस्कृत्य जनार्दनम्।
विवाहं कारयामास सौभद्रस्य महात्मनः ॥ ३५

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पार्थने उत्तराको ग्रहण करके भगवान् श्रीकृष्णके सामने महामना अभिमन्यु और उत्तराका विवाह-संस्कार सम्पन्न कराया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै सप्त सहस्राणि हयानां वातरंहसाम्।
द्वे च नागशते मुख्ये प्रादाद् बहुधनं तदा ॥ ३६ ॥
हुत्वा सम्यक् समिद्धाग्निमर्चयित्वा द्विजन्मनः।
राज्यं बलं च कोशं च सर्वमात्मानमेव च ॥ ३७ ॥

मूलम्

तस्मै सप्त सहस्राणि हयानां वातरंहसाम्।
द्वे च नागशते मुख्ये प्रादाद् बहुधनं तदा ॥ ३६ ॥
हुत्वा सम्यक् समिद्धाग्निमर्चयित्वा द्विजन्मनः।
राज्यं बलं च कोशं च सर्वमात्मानमेव च ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विवाहकालमें विराटने प्रज्वलित अग्निमें विधिवत् होम कराकर ब्राह्मणोंका पूजन करनेके पश्चात् दहेजमें वरपक्षको वायुके समान वेगवान् सात हजार घोड़े, दो सौ बड़े-बड़े हाथी तथा और भी बहुत-सा धन भेंट किया। साथ ही राजपाट, सेना और खजानेसहित सब कुछ एवं अपने-आपको भी उनकी सेवामें समर्पित कर दिया॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृते विवाहे तु तदा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ वित्तं यदुपाहरदच्युतः ॥ ३८ ॥

मूलम्

कृते विवाहे तु तदा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ वित्तं यदुपाहरदच्युतः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विवाह सम्पन्न हो जानेपर धर्मपुत्र युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णसे जो धन मिला था, उसमेंसे बहुत कुछ ब्राह्मणोंको दान किया॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोसहस्राणि रत्नानि वस्त्राणि विविधानि च।
भूषणानि च मुख्यानि यानानि शयनानि च ॥ ३९ ॥
भोजनानि च हृद्यानि पानानि विविधानि च।
तन्महोत्सवसंकाशं हृष्टपुष्टजनायुतम् ।
नगरं मत्स्यराजस्य शुशुभे भरतर्षभ ॥ ४० ॥

मूलम्

गोसहस्राणि रत्नानि वस्त्राणि विविधानि च।
भूषणानि च मुख्यानि यानानि शयनानि च ॥ ३९ ॥
भोजनानि च हृद्यानि पानानि विविधानि च।
तन्महोत्सवसंकाशं हृष्टपुष्टजनायुतम् ।
नगरं मत्स्यराजस्य शुशुभे भरतर्षभ ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हजारों गौएँ, रत्न, नाना प्रकारके वस्त्र, आभूषण, मुख्य-मुख्य वाहन, शय्या, भोजनसामग्री तथा भाँति-भाँतिकी पीनेयोग्य उत्तम वस्तुएँ भी अर्पण कीं। जनमेजय! उस समय हजारों-लाखों हृष्ट-पुष्ट मनुष्योंसे भरा हुआ मत्स्यराजका वह नगर मूर्तिमान् महोत्सव-सा सुशोभित हो रहा था॥३९-४०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां विराटर्वणि वैवाहिकपर्वणि उत्तराविवाहे द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥७२॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार व्यासनिर्मित श्रीमहाभारत नामक एक लाख श्लोकोंकी संहितामें विराटपर्वके अन्तर्गत वैवाहिकपर्वमें उत्तराविवाहविषयक बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७२॥

सूचना (हिन्दी)

विराटपर्वकी श्लोक-संख्या
विराटपर्वकी सम्पूर्ण श्लोक-संख्या—२६९१

Misc Detail

श्रवण-महिमा
श्रुत्वा तु चरितं पुण्यं पाण्डवानां महात्मनाम्।
नाधिव्याधिभयं तेषां जायते पुण्यकर्मणाम् ॥ १ ॥
पुण्यकर्मा महात्मा पाण्डवोंका पवित्र चरित्र सुनकर श्रोताओंको आधि (मानसिक दुःख) और व्याधि (शारीरिक कष्ट)-का भय नहीं होता है॥१॥
दुर्गतेस्तरणे तेषामायतं तरणं भवेत्।
सुभिक्षं क्षेममारोग्यं पुण्यवृद्धिः प्रजायते ॥ २ ॥
पाण्डवोंका जो दुर्गतिसे उद्धार हुआ, उस प्रसंगका पाठ करनेपर मनुष्यके लिये भारीसे भारी संकटसे छूटना सरल हो जाता है। उन्हें सुभिक्ष, क्षेम, आरोग्य तथा पुण्यकी वृद्धि सुलभ होती है॥२॥
सर्वपापानि नश्यन्ति जायन्ते सर्वसम्पदः।
एकाकी विजयेच्छत्रून् स्मृत्वा फाल्गुनकर्म च ॥ ३ ॥
ईतयः सम्प्रणश्यन्ति न वियोगः प्रिये जने ॥ ४ ॥
अर्जुनके चरित्रका स्मरण करनेसे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, सब प्रकारकी सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं और मनुष्य अकेला या असहाय होनेपर भी शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं, (अतिवृष्टि आदि) ईतियोंका नाश होता है और प्रियजनोंसे कभी वियोग नहीं होता॥३-४॥
श्रुत्वा वैराटकं पर्व वासांसि विविधानि च।
हिरण्यं धान्यं गावश्च दद्याद् वित्तानुसारतः ॥ ५ ॥
प्रीयते देवतानां वै दद्याद् वै द्विजमुख्यके।
वाचके तु सुसंतुष्टे तुष्टाः स्युः सर्वदेवताः ॥ ६ ॥
ब्राह्मणान् भोजयेच्छक्त्या पायसैः सर्पिषा सितैः।
एवं श्रुते च वैराटे सम्यक् फलमवाप्नुयात् ॥ ७ ॥
विराटपर्वकी कथा सुनकर अपने वैभवके अनुसार भाँति-भाँतिके वस्त्र, सुवर्ण, धान्य और गौ—ये वस्तुएँ देवताओंकी प्रसन्नताके लिये श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दान करनी चाहिये। वाचकके भलीभाँति संतुष्ट होनेपर सब देवता संतुष्ट होते हैं। तत्पश्चात् यथाशक्ति घी और मिश्री मिलायी हुई खीरका ब्राहाणोंको भोजन करावे। इस विधिसे विराटपर्व सुननेपर श्रोताको उत्तम फलकी प्राप्ति होती है॥५—७॥