०७१ उत्तराविवाहप्रस्तावे

भागसूचना

एकसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विराटको अन्य पाण्डवोंका भी परिचय प्राप्त होना तथा विराटके द्वारा युधिष्ठिरको राज्य समर्पण करके अर्जुनके साथ उत्तराके विवाहका प्रस्ताव करना

मूलम् (वचनम्)

विराट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येष राजा कौरव्यः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
कतमोऽस्यार्जुनो भ्राता भीमश्च कतमो बली ॥ १ ॥
नकुलः सहदेवो वा द्रौपदी वा यशस्विनी।
यदा द्यूतजिताः पार्था न प्राज्ञायन्त ते क्वचित् ॥ २ ॥

मूलम्

यद्येष राजा कौरव्यः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
कतमोऽस्यार्जुनो भ्राता भीमश्च कतमो बली ॥ १ ॥
नकुलः सहदेवो वा द्रौपदी वा यशस्विनी।
यदा द्यूतजिताः पार्था न प्राज्ञायन्त ते क्वचित् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विराटने पूछा— यदि ये कुरुकुलके रत्न कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर हैं, तो इनमें कौन इनके भाई अर्जुन हैं? कौन महाबली भीम हैं? नकुल, सहदेव तथा यशस्विनी द्रौपदी कौन हैं? जबसे कुन्तीपुत्र जूएमें हार गये, तबसे उनका कहीं भी पता नहीं लगा॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एष बल्लवो ब्रूते सूदस्तव नराधिप।
एष भीमो महाराज भीमवेगपराक्रमः ॥ ३ ॥

मूलम्

य एष बल्लवो ब्रूते सूदस्तव नराधिप।
एष भीमो महाराज भीमवेगपराक्रमः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— महाराज! ये जो बल्लवनामधारी आपके रसोइये हैं, ये ही भयंकर वेग और पराक्रमवाले भीमसेन हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष क्रोधवशान् हत्वा पर्वते गन्धमादने।
सौगन्धिकानि दिव्यानि कृष्णार्थे समुपाहरत् ॥ ४ ॥
गन्धर्व एष वै हन्ता कीचकानां दुरात्मनाम्।
व्याघ्रानृक्षान् वराहांश्च हतवान् स्त्रीपुरे तव ॥ ५ ॥

मूलम्

एष क्रोधवशान् हत्वा पर्वते गन्धमादने।
सौगन्धिकानि दिव्यानि कृष्णार्थे समुपाहरत् ॥ ४ ॥
गन्धर्व एष वै हन्ता कीचकानां दुरात्मनाम्।
व्याघ्रानृक्षान् वराहांश्च हतवान् स्त्रीपुरे तव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये ही गन्धमादन पर्वतपर क्रोधवश नामवाले राक्षसोंको मारकर द्रौपदीके लिये दिव्य सौगन्धिक कमल ले आये थे। दुरात्मा कीचकोंका संहार करनेवाले गन्धर्व भी ये ही हैं। इन्होंने ही आपके अन्तःपुरमें अनेक व्याघ्रों, भालुओं और वराहोंका वध किया है॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(हिडिम्बं च बकं चैव किर्मीरं च जटासुरम्।
हत्वा निष्कण्टकं चक्रेऽरण्यं सवर्तः सुखम्॥)

मूलम्

(हिडिम्बं च बकं चैव किर्मीरं च जटासुरम्।
हत्वा निष्कण्टकं चक्रेऽरण्यं सवर्तः सुखम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

इन्होंने ही हिडिम्ब, बकासुर, किर्मीर और जटासुर-को मारकर वनको सर्वथा निष्कण्टक और सुखमय बनाया था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चासीदश्वबन्धस्ते नकुलोऽयं परंतपः ।
गोसङ्ख्यः सहदेवश्च माद्रीपुत्रौ महारथौ ॥ ६ ॥
शृङ्गारवेषाभरणौ रूपवन्तौ यशस्विनौ ।
महारथसहस्राणां समर्थौ भरतर्षभौ ॥ ७ ॥

मूलम्

यश्चासीदश्वबन्धस्ते नकुलोऽयं परंतपः ।
गोसङ्ख्यः सहदेवश्च माद्रीपुत्रौ महारथौ ॥ ६ ॥
शृङ्गारवेषाभरणौ रूपवन्तौ यशस्विनौ ।
महारथसहस्राणां समर्थौ भरतर्षभौ ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और ये शत्रुओंको संताप देनेवाले नकुल जो अबतक आपके यहाँ अश्वशालाके प्रबन्धक रहे हैं और ये सहदेव हैं, जो गौओंकी सँभाल करते आये हैं। ये दोनों (हमारी माता) माद्रीके पुत्र एवं महारथी वीर हैं। उत्तम शृंगार, सुन्दर वेष और आभूषणोंसे सुशोभित ये दोनों भाई बड़े ही रूपवान् और यशस्वी हैं। भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ ये नकुल-सहदेव युद्धमें सहस्रों महारथियोंका सामना करनेमें समर्थ हैं॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा पद्मपलाशाक्षी सुमध्या चारुहासिनी।
सैरन्ध्री द्रौपदी राजन् यस्यार्थे कीचका हताः ॥ ८ ॥

मूलम्

एषा पद्मपलाशाक्षी सुमध्या चारुहासिनी।
सैरन्ध्री द्रौपदी राजन् यस्यार्थे कीचका हताः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यह विकसित कमलदलके समान विशाल नेत्र, सुन्दर कटिप्रदेश और मनोहर मुसकानवाली सैरन्ध्री ही महारानी द्रौपदी है, जिसके धर्मकी रक्षाके लिये कीचकोंका वध किया गया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनोऽहं महाराज व्यक्तं ते श्रोत्रमागतः।
भीमादवरजः पार्थो यमाभ्यां चापि पूर्वजः ॥ ९ ॥

मूलम्

अर्जुनोऽहं महाराज व्यक्तं ते श्रोत्रमागतः।
भीमादवरजः पार्थो यमाभ्यां चापि पूर्वजः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! मैं ही अर्जुन हूँ। अवश्य मेरा नाम भी आपके कानोंमें पड़ा होगा। मैं कुन्तीदेवीका पुत्र हूँ। भीमसेनसे छोटा और नकुल-सहदेवसे बड़ा हूँ॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उषिताः स्मो महाराज सुखं तव निवेशने।
अज्ञातवासमुषिता गर्भवास इव प्रजाः ॥ १० ॥

मूलम्

उषिताः स्मो महाराज सुखं तव निवेशने।
अज्ञातवासमुषिता गर्भवास इव प्रजाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! हमलोगोंने बड़े सुखसे आपके महलमें अज्ञातवासका समय बिताया है। जैसे संतान गर्भवासमें रही हो, उसी प्रकार हम भी यहाँ अज्ञातवासमें रहे हैं॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदार्जुनेन ते वीराः कथिताः पञ्च पाण्डवाः।
तदार्जुनस्य वैराटिः कथयामास विक्रमम् ॥ ११ ॥

मूलम्

यदार्जुनेन ते वीराः कथिताः पञ्च पाण्डवाः।
तदार्जुनस्य वैराटिः कथयामास विक्रमम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! जब अर्जुनने पाँचों पाण्डव वीरोंका परिचय दे दिया, तब विराटकुमार उत्तरने अर्जुनका पराक्रम बताया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनरेव च तान् पार्थान् दर्शयामास चोत्तरः ॥ १२ ॥

मूलम्

पुनरेव च तान् पार्थान् दर्शयामास चोत्तरः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही उन्होंने पाँचों पाण्डवोंका एक-एक करके पुनः राजाको परिचय दिया॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एष जाम्बूनदशुद्धगौर-
तनुर्महान् सिंह इव प्रवृद्धः।
प्रचण्डघोणः पृथुदीर्घनेत्र-
स्ताम्रायताक्षः कुरुराज एषः ॥ १३ ॥

मूलम्

य एष जाम्बूनदशुद्धगौर-
तनुर्महान् सिंह इव प्रवृद्धः।
प्रचण्डघोणः पृथुदीर्घनेत्र-
स्ताम्रायताक्षः कुरुराज एषः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तर बोले— पिताजी! विशुद्ध जाम्बूनद नामक सुवर्णके समान जिनका गौर शरीर है, जो सबसे बड़े और सिंहके समान हृष्ट-पुष्ट हैं, जिनकी नाक लंबी और बड़े-बड़े नेत्र कुछ लालिमा लिये कानोंतक फैले हुए हैं, ये ही कुरुकुलनरेश महाराज युधिष्ठिर हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं पुनर्मत्तगजेन्द्रगामी
प्रतप्तचामीकरशुद्धगौरः
पृथ्वायतांसो गुरुदीर्घबाहु-
र्वृकोदरः पश्यत पश्यतैनम् ॥ १४ ॥

मूलम्

अयं पुनर्मत्तगजेन्द्रगामी
प्रतप्तचामीकरशुद्धगौरः
पृथ्वायतांसो गुरुदीर्घबाहु-
र्वृकोदरः पश्यत पश्यतैनम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और ये जो मतवाले गजराजकी भाँति मस्तानी चालसे चलनेवाले हैं, तपाये हुए सुवर्णके समान जिनका विशुद्ध गौर शरीर है, जिनके कंधे मोटे और चौड़े हैं तथा भुजाएँ बड़ी-बड़ी और भारी हैं, ये ही भीमसेन हैं। इन्हें अच्छी तरह देखिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वेव पार्श्वेऽस्य महाधनुष्मान्
श्यामो युवा वारणयूथपोपमः ।
सिंहोन्नतांसो गजराजगामी
पद्मायताक्षोऽर्जुन एष वीरः ॥ १५ ॥

मूलम्

यस्त्वेव पार्श्वेऽस्य महाधनुष्मान्
श्यामो युवा वारणयूथपोपमः ।
सिंहोन्नतांसो गजराजगामी
पद्मायताक्षोऽर्जुन एष वीरः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके बगलमें जो ये महान् धनुर्धर श्यामवर्णके तरुण वीर विराज रहे हैं, जो यूथपति गजराजके समान शोभा पाते हैं, जिनके कंधे सिंहके समान ऊँचे और चाल मतवाले हाथीके समान मस्तानी है, ये ही कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाले वीरवर अर्जुन हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञः समीपे पुरुषोत्तमौ तु
यमाविमौ विष्णुमहेन्द्रकल्पौ ।
मनुष्यलोके सकले समोऽस्ति
ययोर्न रूपे न बले न शीले ॥ १६ ॥

मूलम्

राज्ञः समीपे पुरुषोत्तमौ तु
यमाविमौ विष्णुमहेन्द्रकल्पौ ।
मनुष्यलोके सकले समोऽस्ति
ययोर्न रूपे न बले न शीले ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज युधिष्ठिरके समीप बैठे हुए वे इन्द्र और उपेन्द्रके समान दोनों नरश्रेष्ठ माद्रीके जुड़वें पुत्र नकुल-सहदेव हैं। सम्पूर्ण मानव-जगत्‌में इनके रूप, बल और शीलकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आभ्यां तु पार्श्वे कनकोत्तमाङ्गी
यैषा प्रभा मूर्तिमतीव गौरी।
नीलोत्पलाभा सुरदेवतेव
कृष्णा स्थिता मूर्तिमतीव लक्ष्मीः ॥ १७ ॥

मूलम्

आभ्यां तु पार्श्वे कनकोत्तमाङ्गी
यैषा प्रभा मूर्तिमतीव गौरी।
नीलोत्पलाभा सुरदेवतेव
कृष्णा स्थिता मूर्तिमतीव लक्ष्मीः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन दोनोंके बगलमें ये जो तेजस्विनी देवी मूर्तिमती गौरीके समान खड़ी हैं, जिनके उत्तम अंगोंसे सुनहरी छटा छिटक रही है, जिनकी कान्ति नीलकमलकी आभाको लज्जित कर रही है तथा जो देवताओंकी भी देवी और साकाररूपमें प्रकट हुई लक्ष्मीके समान शोभा पा रही हैं, ये ही द्रुपदकुमारी महारानी कृष्णा हैं॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं निवेद्य तान् पार्थान् पाण्डवान् पञ्च भूपतेः।
ततोऽर्जुनस्य वैराटिः कथयामास विक्रमम् ॥ १८ ॥

मूलम्

एवं निवेद्य तान् पार्थान् पाण्डवान् पञ्च भूपतेः।
ततोऽर्जुनस्य वैराटिः कथयामास विक्रमम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार उन पाँचों कुन्तीपुत्र पाण्डवोंका राजाको परिचय देकर विराटकुमारने अर्जुनका पराक्रम बताना प्रारम्भ किया॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं स द्विषतां हन्ता मृगाणामिव केसरी।
अचरद् रथवृन्देषु निघ्नंस्तांस्तान् वरान् रथान् ॥ १९ ॥

मूलम्

अयं स द्विषतां हन्ता मृगाणामिव केसरी।
अचरद् रथवृन्देषु निघ्नंस्तांस्तान् वरान् रथान् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तरने कहा— पिताजी! ये ही वे देवपुत्र हैं, जो शत्रुओंका उसी प्रकार वध करते हैं, जैसे सिंह मृगोंका। ये ही कौरव रथारोहियोंकी सेनामें उन सब श्रेष्ठ महारथियोंको घायल करते हुए निर्भय विचर रहे थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन विद्धो मातङ्गो महानेकेषुणा हतः।
सुवर्णकक्षः संग्रामे दन्ताभ्यामगमन्महीम् ॥ २० ॥

मूलम्

अनेन विद्धो मातङ्गो महानेकेषुणा हतः।
सुवर्णकक्षः संग्रामे दन्ताभ्यामगमन्महीम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें इनके एक ही बाणसे घायल होकर विकर्णका विशाल गजराज, जो सोनेकी साँकलसे सुशोभित था, धरतीपर दोनों दाँत टेककर मर गया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन विजिता गावो जिताश्च कुरवो युधि।
अस्य शङ्खप्रणादेन कर्णौ मे बधिरीकृतौ ॥ २१ ॥

मूलम्

अनेन विजिता गावो जिताश्च कुरवो युधि।
अस्य शङ्खप्रणादेन कर्णौ मे बधिरीकृतौ ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्होंने ही गौओंको जीता और युद्धमें कौरवोंको परास्त किया है। इनके शंखकी गम्भीर ध्वनि सुनकर मेरे तो कान बहरे हो गये थे॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा मत्स्यराजः प्रतापवान्।
उत्तरं प्रत्युवाचेदमभिपन्नो युधिष्ठिरे ॥ २२ ॥
प्रसादनं पाण्डवस्य प्राप्तकालं हि रोचते।
उत्तरां च प्रयच्छामि पार्थाय यदि मन्यसे ॥ २३ ॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा मत्स्यराजः प्रतापवान्।
उत्तरं प्रत्युवाचेदमभिपन्नो युधिष्ठिरे ॥ २२ ॥
प्रसादनं पाण्डवस्य प्राप्तकालं हि रोचते।
उत्तरां च प्रयच्छामि पार्थाय यदि मन्यसे ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! उत्तरकी यह बात सुनकर प्रतापी मत्स्यनरेश, जो युधिष्ठिरके अपराधी थे, अपने पुत्रसे इस प्रकार बोले—‘बेटा! यह पाण्डवोंको प्रसन्न करनेका समय आया है। मेरी ऐसी ही रुचि है। यदि तुम्हारी राय हो, तो मैं कुमारी उत्तराका विवाह कुन्तीपुत्र अर्जुनसे कर दूँ’॥२२-२३॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्याः पूज्याश्च मान्याश्च प्राप्तकालं च मे मतम्।
पूज्यन्तां पूजनार्हाश्च महाभागाश्च पाण्डवाः ॥ २४ ॥

मूलम्

आर्याः पूज्याश्च मान्याश्च प्राप्तकालं च मे मतम्।
पूज्यन्तां पूजनार्हाश्च महाभागाश्च पाण्डवाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तरने कहा— पिताजी! पाण्डवलोग महान् सौभाग्यशाली हैं। ये सर्वथा श्रेष्ठ, पूजनीय और सम्मानके योग्य हैं। मेरी समझमें इनके सत्कारका हमें अवसर भी मिल गया है, अतः इन पूजनेयोग्य पाण्डवोंका आप अवश्य पूजन करें॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

विराट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं खल्वपि संग्रामे शत्रूणां वशमागतः।
मोक्षितो भीमसेनेन गावश्चापि जितास्तथा ॥ २५ ॥

मूलम्

अहं खल्वपि संग्रामे शत्रूणां वशमागतः।
मोक्षितो भीमसेनेन गावश्चापि जितास्तथा ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विराट बोले— बेटा! मैं भी त्रिगर्तोंके साथ होनेवाले संग्राममें शत्रुओंके वशीभूत हो गया था, किंतु भीमसेनने मुझे छुड़ाया और हमारी सब गौओंको भी जीता॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेषां बाहुवीर्येण अस्माकं विजयो मृधे।
एवं सर्वे सहामात्याः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
प्रसादयामो भद्रं ते सानुजं पाण्डवर्षभम् ॥ २६ ॥

मूलम्

एतेषां बाहुवीर्येण अस्माकं विजयो मृधे।
एवं सर्वे सहामात्याः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
प्रसादयामो भद्रं ते सानुजं पाण्डवर्षभम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन पाण्डवोंके ही बाहुबलसे संग्राममें हमारी विजय हुई है; इसलिये वत्स! तुम्हारा भला हो। हम सब लोग मन्त्रियोंसहित चलकर पाण्डवश्रेष्ठ कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको उनके छोटे भाइयोंसहित प्रसन्न करें॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदस्माभिरजानद्भिः किंचिदुक्तो नराधिपः ।
क्षन्तुमर्हति तत् सर्वं धर्मात्मा ह्येष पाण्डवः ॥ २७ ॥

मूलम्

यदस्माभिरजानद्भिः किंचिदुक्तो नराधिपः ।
क्षन्तुमर्हति तत् सर्वं धर्मात्मा ह्येष पाण्डवः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमने अनजानमें उनके प्रति जो कुछ अनुचित वचन कह दिया है, वह सब ये धर्मात्मा पाण्डुपुत्र महाराज युधिष्ठिर क्षमा करें॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विराटः परमाभितुष्टः
समेत्य राजा समयं चकार।
राज्यं च सर्वं विससर्ज तस्मै
सदण्डकोशं सपुरं महात्मा ॥ २८ ॥
पाण्डवांश्च ततः सर्वान् मत्स्यराजः प्रतापवान्।
धनंजयं पुरस्कृत्य दिष्ट्या दिष्ट्येति चाब्रवीत् ॥ २९ ॥

मूलम्

ततो विराटः परमाभितुष्टः
समेत्य राजा समयं चकार।
राज्यं च सर्वं विससर्ज तस्मै
सदण्डकोशं सपुरं महात्मा ॥ २८ ॥
पाण्डवांश्च ततः सर्वान् मत्स्यराजः प्रतापवान्।
धनंजयं पुरस्कृत्य दिष्ट्या दिष्ट्येति चाब्रवीत् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर राजा विराटने बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने पुत्रसे मिलकर कुछ विचार किया, फिर उन महामनाने दण्ड, कोश और नगर आदिसहित सम्पूर्ण राज्य युधिष्ठिरको समर्पित कर दिया। फिर प्रतापी मत्स्यराज अर्जुनको आगे रखकर सब पाण्डवोंसे मिले और यह कहने लगे कि हमारा बड़ा सौभाग्य है, हमारा बड़ा सौभाग्य है; जो आपलोगोंका दर्शन हुआ॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुपाघ्राय मूर्धानं संश्लिष्य च पुनः पुनः।
युधिष्ठिरं च भीमं च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ ३० ॥

मूलम्

समुपाघ्राय मूर्धानं संश्लिष्य च पुनः पुनः।
युधिष्ठिरं च भीमं च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन तथा नकुल-सहदेवका बार-बार मस्तक सूँघा और सबको हृदयसे लगाया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नातृप्यद् दर्शने तेषां विराटो वाहिनीपतिः।
स प्रीयमाणो राजानं युधिष्ठिरमथाब्रवीत् ॥ ३१ ॥

मूलम्

नातृप्यद् दर्शने तेषां विराटो वाहिनीपतिः।
स प्रीयमाणो राजानं युधिष्ठिरमथाब्रवीत् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेनाओंके स्वामी राजा विराट पाण्डवोंको देख-देखकर तृप्त नहीं होते थे। वे प्रेमपूर्वक राजा युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोले—॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या भवन्तः सम्प्राप्ताः सर्वे कुशलिनो वनात्।
दिष्ट्या सम्पालितं कृच्छ्रमज्ञातं वै दुरात्मभिः ॥ ३२ ॥

मूलम्

दिष्ट्या भवन्तः सम्प्राप्ताः सर्वे कुशलिनो वनात्।
दिष्ट्या सम्पालितं कृच्छ्रमज्ञातं वै दुरात्मभिः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बड़े सौभाग्यकी बात है, जो आप सब लोग वनसे कुशलपूर्वक लौट आये। दुरात्मा कौरवोंसे अज्ञात रहकर आपने यह कष्टसाध्य अज्ञातवासका नियम पूरा कर लिया, यह भी बड़े आनन्दकी बात है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं च राज्यं पार्थाय यच्चान्यदपि किञ्चन।
प्रतिगृह्णन्तु तत् सर्वं पाण्डवा अविशङ्कया ॥ ३३ ॥

मूलम्

इदं च राज्यं पार्थाय यच्चान्यदपि किञ्चन।
प्रतिगृह्णन्तु तत् सर्वं पाण्डवा अविशङ्कया ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा यह राज्य कुन्तीपुत्रको समर्पित है। इसके सिवा और भी जो कुछ मेरे पास है, वह सब पाण्डवलोग बिना किसी संकोचके ग्रहण करें॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरां प्रतिगृह्णातु सव्यसाची धनंजयः।
अयं ह्यौपयिको भर्ता तस्याः पुरुषसत्तमः ॥ ३४ ॥

मूलम्

उत्तरां प्रतिगृह्णातु सव्यसाची धनंजयः।
अयं ह्यौपयिको भर्ता तस्याः पुरुषसत्तमः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सव्यसाची धनंजय मेरी कन्या उत्तराको पत्नीरूपमें स्वीकार करें। ये नरश्रेष्ठ उसके लिये सर्वथा योग्य पति हैं’॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो धर्मराजः पार्थमैक्षद् धनंजयम्।
ईक्षितश्चार्जुनो भ्रात्रा मत्स्यं वचनमब्रवीत् ॥ ३५ ॥
प्रतिगृह्णाम्यहं राजन् स्नुषां दुहितरं तव।
युक्तश्चावां हि सम्बन्धो मत्स्यभारतयोरपि ॥ ३६ ॥

मूलम्

एवमुक्तो धर्मराजः पार्थमैक्षद् धनंजयम्।
ईक्षितश्चार्जुनो भ्रात्रा मत्स्यं वचनमब्रवीत् ॥ ३५ ॥
प्रतिगृह्णाम्यहं राजन् स्नुषां दुहितरं तव।
युक्तश्चावां हि सम्बन्धो मत्स्यभारतयोरपि ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा विराटके ऐसा कहनेपर धर्मराज युधिष्ठिरने कुन्तीनन्दन अर्जुनकी ओर देखा। भाईके देखनेपर अर्जुनने मत्स्यराजसे इस प्रकार कहा—‘राजन्! मैं आपकी पुत्रीको अपनी पुत्रवधूके रूपमें स्वीकार करता हूँ। मत्स्य और भरतवंशका यह सम्बन्ध सर्वथा उचित है’॥३५-३६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि वैवाहिकपर्वणि उत्तराविवाहप्रस्तावे एकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत वैवाहिकपर्वमें उत्तराविवाहप्रस्तावविषयक इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३७ श्लोक हैं।)