भागसूचना
एकोनसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा विराट और उत्तरकी विजयके विषयमें बातचीत
मूलम् (वचनम्)
उत्तर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मया निर्जिता गावो न मया निर्जिताः परे।
कृतं तत् सकलं तेन देवपुत्रेण केनचित् ॥ १ ॥
मूलम्
न मया निर्जिता गावो न मया निर्जिताः परे।
कृतं तत् सकलं तेन देवपुत्रेण केनचित् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तरने कहा— पिताजी! मैंने गौओंको नहीं जीता है और न मैंने शत्रुओंपर ही विजय पायी है। यह सब कार्य तो किसी देवकुमारने किया है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि भीतं द्रवन्तं मां देवपुत्रो न्यवर्तयत्।
स चातिष्ठद् रथोपस्थे वज्रसंहननो युवा ॥ २ ॥
मूलम्
स हि भीतं द्रवन्तं मां देवपुत्रो न्यवर्तयत्।
स चातिष्ठद् रथोपस्थे वज्रसंहननो युवा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तो डरकर भागा आ रहा था; किंतु वज्रके समान सुदृढ़ शरीरवाले उस तरुण देवपुत्रने मुझे लौटाया और वह स्वयं ही रथके पिछले भागमें रथी बनकर बैठ गया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन ता निर्जिता गावः कुरवश्च पराजिताः।
तस्य तत् कर्म वीरस्य न मया तात तत् कृतम्॥३॥
मूलम्
तेन ता निर्जिता गावः कुरवश्च पराजिताः।
तस्य तत् कर्म वीरस्य न मया तात तत् कृतम्॥३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसीने उन गौओंको जीता है और कौरवोंको भी परास्त किया है। पिताजी! यह सब उसी वीरका कर्म है। मैंने कुछ नहीं किया है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि शारद्वतं द्रोणं द्रोणपुत्रं च षड् रथान्।
सूतपुत्रं च भीष्मं च चकार विमुखाञ्छरैः ॥ ४ ॥
दुर्योधनं विकर्णं च सनागमिव यूथपम्।
प्रभग्नमब्रवीद् भीतं राजपुत्रं महाबलः ॥ ५ ॥
मूलम्
स हि शारद्वतं द्रोणं द्रोणपुत्रं च षड् रथान्।
सूतपुत्रं च भीष्मं च चकार विमुखाञ्छरैः ॥ ४ ॥
दुर्योधनं विकर्णं च सनागमिव यूथपम्।
प्रभग्नमब्रवीद् भीतं राजपुत्रं महाबलः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसीने कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कर्ण, भीष्म और दुर्योधन—इन छहों महारथियोंको अपने बाणोंसे मारकर युद्धसे भगा दिया। वहाँ जैसे यूथपति गजराज अपने झुंडके हाथियोंसहित भागा जाता हो, उसी प्रकार दुर्योधन और विकर्ण आदि राजपुत्र भयभीत होकर भागने लगे; तब उस महाबली देवपुत्रने दुर्योधनसे कहा—॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हास्तिनपुरे त्राणं तव पश्यामि किंचन।
व्यायामेन परीप्सस्व जीवितं कौरवात्मज ॥ ६ ॥
मूलम्
न हास्तिनपुरे त्राणं तव पश्यामि किंचन।
व्यायामेन परीप्सस्व जीवितं कौरवात्मज ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धृतराष्ट्रकुमार! अब हस्तिनापुरमें तेरी जीवन-रक्षाका कोई उपाय मुझे नहीं दिखायी देता; अतः देश-देशान्तरोंमें घूमकर अपनी जान बचा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मोक्ष्यसे पलायंस्त्वं राजन् युद्धे मनः कुरु।
पृथिवीं भोक्ष्यसे जित्वा हतो वा स्वर्गमाप्स्यसि ॥ ७ ॥
मूलम्
न मोक्ष्यसे पलायंस्त्वं राजन् युद्धे मनः कुरु।
पृथिवीं भोक्ष्यसे जित्वा हतो वा स्वर्गमाप्स्यसि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! भागनेसे तू नहीं बच सकता। युद्धमें मन लगा। जीत लेगा, तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा अथवा मारे जानेपर तुझे स्वर्ग मिलेगा’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स निवृत्तो नरव्याघ्रो मुञ्चन् वज्रनिभाञ्छरान्।
सचिवैः संवृतो राजा रथे नाग इव श्वसन् ॥ ८ ॥
मूलम्
स निवृत्तो नरव्याघ्रो मुञ्चन् वज्रनिभाञ्छरान्।
सचिवैः संवृतो राजा रथे नाग इव श्वसन् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इतना सुनना था कि नरश्रेष्ठ दुर्योधन साँपकी भाँति फुँफकारता हुआ रथके द्वारा लौट आया और मन्त्रियोंसे घिरकर उस देवपुत्रपर वज्र-सरीखे बाणोंकी वर्षा करने लगा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा रोमहर्षोऽभूदूरुकम्पश्च मारिष।
स तत्र सिंहसंकाशमनीकं व्यधमच्छरैः ॥ ९ ॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा रोमहर्षोऽभूदूरुकम्पश्च मारिष।
स तत्र सिंहसंकाशमनीकं व्यधमच्छरैः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मारिष! उस समय उसे देखकर मेरे तो रोंगटे खड़े हो गये और जाँघें काँपने लगीं; किंतु उस देवपुत्रने अपने बाणोंद्वारा सिंहके समान पराक्रमी दुर्योधन और उसकी सेनाको संतप्त कर दिया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् प्रणुद्य रथानीकं सिंहसंहननो युवा।
कुरूंस्तान् प्रहसन् राजन् संस्थितान् हृतवाससः ॥ १० ॥
एकेन तेन वीरेण षड् रथाः परिनिर्जिताः।
शार्दूलेनेव मत्तेन यथा वनचरा मृगाः ॥ ११ ॥
मूलम्
तत् प्रणुद्य रथानीकं सिंहसंहननो युवा।
कुरूंस्तान् प्रहसन् राजन् संस्थितान् हृतवाससः ॥ १० ॥
एकेन तेन वीरेण षड् रथाः परिनिर्जिताः।
शार्दूलेनेव मत्तेन यथा वनचरा मृगाः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिंहके समान सुदृढ़ शरीरवाले उस तरुण वीरने रथारोहियोंकी सेनाको छिन्न-भिन्न करके हँसते-हँसते उन कौरवोंको भी धराशायी कर दिया, जिससे उनके कपड़े उतार लिये गये। जैसे मदोन्मत्त सिंह वनमें विचरनेवाले मृगोंको परास्त करता है, उसी प्रकार उस वीर देवपुत्रने अकेले ही उन छः महारथियोंको हराया है॥१०-११॥
मूलम् (वचनम्)
विराट उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व स वीरो महाबाहुर्देवपुत्रो महायशाः।
यो मे धनमथाजैषीत् कुरुभिर्ग्रस्तमाहवे ॥ १२ ॥
इच्छामि तमहं द्रष्टुमर्चितुं च महाबलम्।
येन मे त्वं च गावश्च रक्षिता देवसूनुना ॥ १३ ॥
मूलम्
क्व स वीरो महाबाहुर्देवपुत्रो महायशाः।
यो मे धनमथाजैषीत् कुरुभिर्ग्रस्तमाहवे ॥ १२ ॥
इच्छामि तमहं द्रष्टुमर्चितुं च महाबलम्।
येन मे त्वं च गावश्च रक्षिता देवसूनुना ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराटने पूछा— बेटा! वह महायशस्वी महाबाहु वीर देवपुत्र कहाँ है, जिसने युद्धमें कौरवोंद्वारा काबूमें की हुई मेरी गौओंको जीता है? जिस देवकुमारने तुम्हें और मेरी गौओंको भी बचाया है, मैं उस महापराक्रमी वीरको देखना और उसका सत्कार करना चाहता हूँ॥१२-१३॥
मूलम् (वचनम्)
उत्तर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्धानं गतस्तत्र देवपुत्रो महाबलः।
स तु श्वो वा परश्वो वा मन्ये प्रादुर्भविष्यति॥१४॥
मूलम्
अन्तर्धानं गतस्तत्र देवपुत्रो महाबलः।
स तु श्वो वा परश्वो वा मन्ये प्रादुर्भविष्यति॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तरने कहा— पिताजी! वह महाबली देवपुत्र वहीं अन्तर्धान हो गया; किंतु मेरा विश्वास है कि वह कल या परसों यहाँ फिर प्रकट होगा॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाख्यायमानं तु छन्नं सत्रेण पाण्डवम्।
वसन्तं तत्र नाज्ञासीद् विराटो वाहिनीपतिः ॥ १५ ॥
मूलम्
एवमाख्यायमानं तु छन्नं सत्रेण पाण्डवम्।
वसन्तं तत्र नाज्ञासीद् विराटो वाहिनीपतिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार संकेतपूर्वक बतानेपर भी सेनाओंके स्वामी राजा विराट नपुंसकवेशमें छिपकर वहीं रहनेवाले पाण्डुनन्दन अर्जुनको पहचान न सके॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पार्थोऽभ्यनुज्ञातो विराटेन महात्मना।
प्रददौ तानि वासांसि विराटदुहितुः स्वयम् ॥ १६ ॥
मूलम्
ततः पार्थोऽभ्यनुज्ञातो विराटेन महात्मना।
प्रददौ तानि वासांसि विराटदुहितुः स्वयम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महामना विराटकी आज्ञासे बृहन्नलारूपी अर्जुनने स्वयं विराटकन्या उत्तराको वे सब कपड़े, जो महारथियोंके शरीरसे उतारे गये थे, दे दिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तरा तु महार्हाणि विविधानि नवानि च।
प्रतिगृह्याभवत् प्रीता तानि वासांसि भामिनी ॥ १७ ॥
मन्त्रयित्वा तु कौन्तेय उत्तरेण महात्मना।
इतिकर्तव्यतां सर्वां राजन् पार्थे युधिष्ठिरे ॥ १८ ॥
ततस्तथा तद् व्यदधाद् यथावत् पुरुषर्षभ।
सह पुत्रेण मत्स्यस्य प्रहृष्टा भरतर्षभाः ॥ १९ ॥
मूलम्
उत्तरा तु महार्हाणि विविधानि नवानि च।
प्रतिगृह्याभवत् प्रीता तानि वासांसि भामिनी ॥ १७ ॥
मन्त्रयित्वा तु कौन्तेय उत्तरेण महात्मना।
इतिकर्तव्यतां सर्वां राजन् पार्थे युधिष्ठिरे ॥ १८ ॥
ततस्तथा तद् व्यदधाद् यथावत् पुरुषर्षभ।
सह पुत्रेण मत्स्यस्य प्रहृष्टा भरतर्षभाः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भामिनी उत्तरा उन भाँति-भाँतिके नवीन एवं बहुमूल्य वस्त्रोंको लेकर बहुत प्रसन्न हुई। जनमेजय! कुन्तीनन्दन अर्जुनने महामना उत्तरके साथ राजा युधिष्ठिरको प्रकट करनेके विषयमें सलाह की और क्या-क्या करना चाहिये, इन सब बातोंका निश्चय कर लिया। नरश्रेष्ठ! तदनन्तर उन्होंने उसी निश्चयके अनुसार सब कार्य ठीक-ठीक किया। भरतकुलशिरोमणि पाण्डव मत्स्यनरेशके पुत्र उत्तरके साथ वह सब व्यवस्था करके बड़े प्रसन्न हुए॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि विराटोत्तरसंवादे एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें विराट-उत्तर-संवादविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६९॥