०६३ अर्जुनसंकुलयुद्धे

भागसूचना

त्रिषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनपर समस्त कौरवपक्षीय महारथियोंका आक्रमण और सबका युद्धभूमिसे पीठ दिखाकर भागना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनः कर्णो दुःशासनविविंशती।
द्रोणश्च सह पुत्रेण कृपश्चापि महारथः ॥ १ ॥
पुनर्ययुश्च संरब्धा धनंजयजिघांसवः ।
विस्फारयन्तश्चापानि बलवन्ति दृढानि च ॥ २ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनः कर्णो दुःशासनविविंशती।
द्रोणश्च सह पुत्रेण कृपश्चापि महारथः ॥ १ ॥
पुनर्ययुश्च संरब्धा धनंजयजिघांसवः ।
विस्फारयन्तश्चापानि बलवन्ति दृढानि च ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन, विविंशति, पुत्रसहित आचार्य द्रोण और महारथी कृपाचार्य—ये सब योद्धा रोषमें भरकर धनंजयको मार डालनेकी इच्छासे अपने मजबूत और दृढ़ धनुषोंकी टंकार फैलाते हुए उनपर पुनः चढ़ आये॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् विकीर्णपताकेन रथेनादित्यवर्चसा ।
प्रत्युद्ययौ महाराज समन्ताद् वानरध्वजः ॥ ३ ॥

मूलम्

तान् विकीर्णपताकेन रथेनादित्यवर्चसा ।
प्रत्युद्ययौ महाराज समन्ताद् वानरध्वजः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब वानरयुक्ता ध्वजावाले अर्जुन भी सूर्यके समान तेजस्वी तथा फहराती हुई पताकासे सुशोभित रथके द्वारा सब ओरसे उनका सामना करनेके लिये आगे बढ़े॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कृपश्च कर्णश्च द्रोणश्च रथिनां वरः।
तं महास्त्रैर्महावीर्यं परिवार्य धनंजयम् ॥ ४ ॥
शरौघान् सम्यगस्यन्तो जीमूता इव वार्षिकाः।
ववर्षुः शरवर्षाणि पातयन्तो धनंजयम् ॥ ५ ॥

मूलम्

ततः कृपश्च कर्णश्च द्रोणश्च रथिनां वरः।
तं महास्त्रैर्महावीर्यं परिवार्य धनंजयम् ॥ ४ ॥
शरौघान् सम्यगस्यन्तो जीमूता इव वार्षिकाः।
ववर्षुः शरवर्षाणि पातयन्तो धनंजयम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देख कृपाचार्य, कर्ण तथा रथियोंमें श्रेष्ठ आचार्य द्रोण—ये महापराक्रमी धनंजयको (चारों ओरसे) घेरकर अपने महान् धनुषोंसे उनपर राशि-राशि बाणोंका खूब जमकर प्रहार करने लगे। ये तीनों महारथी धनंजयको मार गिरानेकी इच्छासे वर्षाकालके मेघोंकी भाँति सायकोंकी वर्षा कर रहे थे॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इषुभिर्बहुभिस्तूर्णं समरे लोमवाहिभिः ।
अदूरात् पर्यवस्थाप्य पूरयामासुरादृताः ॥ ६ ॥

मूलम्

इषुभिर्बहुभिस्तूर्णं समरे लोमवाहिभिः ।
अदूरात् पर्यवस्थाप्य पूरयामासुरादृताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने समरभूमिमें थोड़ी ही दूरपर पार्थकी गतिको कुण्ठित करके बड़े चावसे बहुसंख्यक पंखयुक्त बाणोंकी बौछार करते हुए उन्हें तुरंत ढँक दिया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तैरवकीर्णस्य दिव्यैरस्त्रैः समन्ततः।
न तस्य द्व्यङ्‌गुलमपि विवृतं सम्प्रदृश्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

तथा तैरवकीर्णस्य दिव्यैरस्त्रैः समन्ततः।
न तस्य द्व्यङ्‌गुलमपि विवृतं सम्प्रदृश्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे महारथी जब इस प्रकार सब ओरसे अर्जुनपर दिव्यास्त्रोंसे अभिमन्त्रित बाणोंकी वर्षा करने लगे, उस समय उनके शरीरका दो अंगुल भाग भी बाणोंसे खाली नहीं दिखायी देता था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहस्य बीभत्सुर्दिव्यमैन्द्रं महारथः।
अस्त्रमादित्यसंकाशं गाण्डीवे समयोजयत् ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः प्रहस्य बीभत्सुर्दिव्यमैन्द्रं महारथः।
अस्त्रमादित्यसंकाशं गाण्डीवे समयोजयत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महारथी अर्जुनने हँसकर गाण्डीव धनुषपर सूर्यके समान तेजस्वी दिव्य ऐन्द्रास्त्रका संधान किया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शररश्मिरिवादित्यः प्रतस्थे समरे बली।
किरीटमाली कौन्तेयः सर्वान् प्राच्छादयत्‌ कुरून् ॥ ९ ॥

मूलम्

शररश्मिरिवादित्यः प्रतस्थे समरे बली।
किरीटमाली कौन्तेयः सर्वान् प्राच्छादयत्‌ कुरून् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो महाबली किरीटमाली कुन्तीनन्दन अर्जुन सूर्यकी भाँति बाणरूपी प्रचण्ड किरणोंको बिखेरते हुए समरभूमिमें आगे बढ़े। उन्होंने समस्त कौरव-योद्धाओंको सायकोंसे ढँक दिया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा बलाहके विद्युत् पावको वा शिलोच्चये।
तथा गाण्डीवमभवदिन्द्रायुधमिवानतम् ॥ १० ॥

मूलम्

यथा बलाहके विद्युत् पावको वा शिलोच्चये।
तथा गाण्डीवमभवदिन्द्रायुधमिवानतम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मेघोंमें बिजली और पर्वतपर आगकी ज्वाला शोभा पाती है, उसी प्रकार अर्जुनके हाथमें गाण्डीव धनुष सुशोभित होता था। वह आकाशमें इन्द्रधनुष-सा झुका हुआ था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा वर्षति पर्जन्ये विद्युद् विभ्राजते दिवि।
द्योतयन्ती दिशः सर्वाः पृथिवीं च समन्ततः ॥ ११ ॥
तथा दश दिशः सर्वाः पतद्‌गाण्डीवमावृणोत्।
नागाश्च रथिनः सर्वे मुमुहुस्तत्र भारत ॥ १२ ॥

मूलम्

यथा वर्षति पर्जन्ये विद्युद् विभ्राजते दिवि।
द्योतयन्ती दिशः सर्वाः पृथिवीं च समन्ततः ॥ ११ ॥
तथा दश दिशः सर्वाः पतद्‌गाण्डीवमावृणोत्।
नागाश्च रथिनः सर्वे मुमुहुस्तत्र भारत ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मेघके वर्षा करते समय आकाशमें बिजली चमक उठती है और वह सम्पूर्ण दिशाओं तथा पृथ्वीको भी सब ओरसे प्रकाशित कर देती है, उसी प्रकार बाणोंकी वर्षा करते हुए गाण्डीव धनुषने दसों दिशाओंको सम्पूर्णतया आच्छादित कर दिया। जनमेजय! उस समय वहाँ हाथीसवार और रथी आदि सब सैनिक मोहित (मूर्च्छित) हो रहे थे॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे शान्तिपरा योधाः स्वचित्तानि न लेभिरे।
संग्रामे विमुखाः सर्वे योधास्ते हतचेतसः ॥ १३ ॥

मूलम्

सर्वे शान्तिपरा योधाः स्वचित्तानि न लेभिरे।
संग्रामे विमुखाः सर्वे योधास्ते हतचेतसः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबने शान्ति (जडता और मूकता) धारण कर ली थी। किसीका होश ठिकाने न था। सभी योद्धाओंने हतोत्साह होकर युद्धसे मुँह मोड़ लिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सर्वाणि सैन्यानि भग्नानि भरतर्षभ।
व्यद्रवन्त दिशः सर्वा निराशानि स्वजीविते ॥ १४ ॥

मूलम्

एवं सर्वाणि सैन्यानि भग्नानि भरतर्षभ।
व्यद्रवन्त दिशः सर्वा निराशानि स्वजीविते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ जनमेजय! इस प्रकार सारी सेनाका व्यूह टूट गया। सब सैनिक अपने जीवनसे निराश होकर चारों दिशाओंमें भागने लगे॥१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि उत्तरगोग्रहे अर्जुनसंकुलयुद्धे त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें उत्तरगोग्रहके समय अर्जुनका संकुलयुद्धविषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६३॥