०६२ अर्जुनसंकुलयुद्धे

भागसूचना

द्विषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका सब योद्धाओं और महारथियोंके साथ युद्ध

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ संगम्य सर्वे ते कौरवाणां महारथाः।
अर्जुनं सहिता यत्ताः प्रत्ययुध्यन्त भारत ॥ १ ॥

मूलम्

अथ संगम्य सर्वे ते कौरवाणां महारथाः।
अर्जुनं सहिता यत्ताः प्रत्ययुध्यन्त भारत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर कौरवसेनाके सब महारथी मिलकर एक साथ संगठित हो बड़ी सावधानीके साथ अर्जुनका सामना करने लगे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सायकमयैर्जालैः सर्वतस्तान् महारथान्।
प्राच्छादयदमेयात्मा नीहारेणेव पर्वतान् ॥ २ ॥

मूलम्

स सायकमयैर्जालैः सर्वतस्तान् महारथान्।
प्राच्छादयदमेयात्मा नीहारेणेव पर्वतान् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु असीम आत्मबलसे सम्पन्न कुन्तीपुत्रने सब ओर सायकोंका जाल-सा बिछाकर कुहरेसे ढके हुए पहाड़ोंकी तरह उन सब महारथियोंको आच्छादित कर दिया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदद्भिश्च महानागैर्ह्रेषमाणैश्च वाजिभिः ।
भेरीशङ्खनिनादैश्च स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ ३ ॥

मूलम्

नदद्भिश्च महानागैर्ह्रेषमाणैश्च वाजिभिः ।
भेरीशङ्खनिनादैश्च स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े गजराजोंके चिग्घाड़ने, घोड़ोंके हिनहिनाने और नगाड़ों तथा शंखोंके बजाये जानेसे जो शब्द हुए, उनके एकत्र मिलनेसे उस रणभूमिमें भारी कोलाहल मच गया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नराश्वकायान् निर्भिद्य लौहानि कवचानि च।
पार्थस्य शरजालानि विनिष्पेतुः सहस्रशः ॥ ४ ॥

मूलम्

नराश्वकायान् निर्भिद्य लौहानि कवचानि च।
पार्थस्य शरजालानि विनिष्पेतुः सहस्रशः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थके सहस्रों बाणसमुदाय मनुष्यों और घोड़ोंके शरीरोंको छेदकर और उनके लोहेके बने हुए कवचोंको भी छिन्न-भिन्न करके नीचे गिरा रहे थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वरमाणः शरानस्यन् पाण्डवः प्रबभौ रणे।
मध्यंदिनगतोऽर्चिष्माञ्छरदीव दिवाकरः ॥ ५ ॥

मूलम्

त्वरमाणः शरानस्यन् पाण्डवः प्रबभौ रणे।
मध्यंदिनगतोऽर्चिष्माञ्छरदीव दिवाकरः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे शरद्ऋतुके (निर्मल आकाशमें) दोपहरका सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणें फैलाकर प्रकाशित होता है, उसी प्रकार संग्राममें पाण्डुनन्दन अर्जुन शत्रुसेनापर उतावलीके साथ बाणवर्षा करते हुए सुशोभित होते थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपप्लवन्ति वित्रस्ता रथेभ्यो रथिनस्तथा।
सादिनश्चाश्वपृष्ठेभ्यो भूमौ चैव पदातयः ॥ ६ ॥

मूलम्

उपप्लवन्ति वित्रस्ता रथेभ्यो रथिनस्तथा।
सादिनश्चाश्वपृष्ठेभ्यो भूमौ चैव पदातयः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अत्यन्त भयभीत होकर रथी सैनिक रथोंसे कूदकर और घुड़सवार घोड़ोंकी पीठसे उछलकर जान लेकर भाग चले और पैदल योद्धा तो भूमिपर थे ही; उन्होंने भी (डरके मारे) इधर-उधरकी राह ली॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरैः संछिद्यमानानां कवचानां महात्मनाम्।
ताम्रराजतलौहानां प्रादुरासीन्महास्वनः ॥ ७ ॥

मूलम्

शरैः संछिद्यमानानां कवचानां महात्मनाम्।
ताम्रराजतलौहानां प्रादुरासीन्महास्वनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामना शुरवीरोंके ताँबे, चाँदी और लोहेके बने हुए कवच जब बाणोंसे कटते थे, तब उनका बड़ा भारी शब्द होता था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छन्नमायोधनं सर्वं शरीरैर्गतचेतसाम् ।
गजाश्वसादिनां तत्र शितबाणात्तजीवितैः ॥ ८ ॥
रथोपस्थाभिपतितैरास्तृता मानवैर्मही ।
प्रनृत्यतीव संग्रामे चापहस्तो धनंजयः ॥ ९ ॥

मूलम्

छन्नमायोधनं सर्वं शरीरैर्गतचेतसाम् ।
गजाश्वसादिनां तत्र शितबाणात्तजीवितैः ॥ ८ ॥
रथोपस्थाभिपतितैरास्तृता मानवैर्मही ।
प्रनृत्यतीव संग्रामे चापहस्तो धनंजयः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ ही देरमें युद्धका सारा मैदान मूर्च्छित हुए सैनिकोंके शरीरोंसे पट गया। तीखे बाणोंकी मारसे जिनके प्राण निकल गये थे, उन हाथीसवारों, घुड़सवारों तथा रथकी बैठकसे गिरे हुए मनुष्योंकी लाशोंसे वहाँकी भूमि आच्छादित हो गयी थी। उस समय ऐसा जान पड़ता था, जैसे धनुष हाथमें लिये अर्जुन युद्धभूमिमें सब ओर नाचते फिर रहे हों॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा गाण्डीवनिर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः ।
त्रस्तानि सर्वसैन्यानि व्यपागच्छन् महाहवात् ॥ १० ॥
कुण्डलोष्णीषधारीणि जातरूपस्रजस्तथा ।
पतितानि स्म दृश्यन्ते शिरांसि रणमूर्धनि ॥ ११ ॥

मूलम्

श्रुत्वा गाण्डीवनिर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः ।
त्रस्तानि सर्वसैन्यानि व्यपागच्छन् महाहवात् ॥ १० ॥
कुण्डलोष्णीषधारीणि जातरूपस्रजस्तथा ।
पतितानि स्म दृश्यन्ते शिरांसि रणमूर्धनि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गाण्डीवकी टंकार वज्रकी गड़गड़ाहटको भी मात कर रही थी। उसे सुनकर समस्त सैनिक भयभीत हो उस महान् संग्रामसे भाग निकले। युद्धके मुहानेपर कुण्डल और पगड़ी धारण किये असंख्य कटे हुए सिर पड़े दिखायी देते थे। कितने ही सोनेके हार इधर-उधर गिरे थे॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशिखोन्मथितैर्गात्रैर्बाहुभिश्च सकार्मुकैः ।
सहस्ताभरणैश्चान्यैः प्रच्छन्ना भाति मेदिनी ॥ १२ ॥

मूलम्

विशिखोन्मथितैर्गात्रैर्बाहुभिश्च सकार्मुकैः ।
सहस्ताभरणैश्चान्यैः प्रच्छन्ना भाति मेदिनी ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके बाणोंसे मथित हुई लाशोंसे वहाँकी जमीन पट गयी थी। कितनी ही भुजाएँ कटकर गिरी थीं; जो अब भी (मुट्ठीमें दृढ़तापूर्वक) धनुष पकड़े हुए थीं। उन हाथोंमें बाजूबन्द, कड़े और अंगूठी आदि आभूषण सभी ज्यों-के-त्यों थे। इन सबसे आच्छादित होकर उस रणभूमिकी विचित्र शोभा हो रही थी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरसां पात्यमानानामन्तरा निशितैः शरैः।
अश्मवृष्टिरिवाकाशादभवद् भरतर्षभ ॥ १३ ॥

मूलम्

शिरसां पात्यमानानामन्तरा निशितैः शरैः।
अश्मवृष्टिरिवाकाशादभवद् भरतर्षभ ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! बीचमें तीखे बाणोंसे काटकर गिराये जानेवाले योद्धाओंके मस्तकोंकी श्रेणी आकाशसे होनेवाली पत्थरोंकी वर्षा-सी जान पड़ती थी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शयित्वा तथाऽऽत्मानं रौद्रं रुद्रपराक्रमः।
अवरुद्धोऽचरत् पार्थो वर्षाणि त्रिदशानि च।
क्रोधाग्निमुत्सृजन् वीरो धार्तराष्ट्रेषु पाण्डवः ॥ १४ ॥

मूलम्

दर्शयित्वा तथाऽऽत्मानं रौद्रं रुद्रपराक्रमः।
अवरुद्धोऽचरत् पार्थो वर्षाणि त्रिदशानि च।
क्रोधाग्निमुत्सृजन् वीरो धार्तराष्ट्रेषु पाण्डवः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयानक पराक्रमी कुन्तीपुत्र अर्जुन तेरह वर्षोंतक वनमें विवश होकर रुके थे। अब (उपयुक्त अवसर पाकर) वे वीर पाण्डुकुमार धृतराष्ट्रके पुत्रोंपर अपनी क्रोधाग्नि बरसाते तथा अपने रौद्र रूपका दर्शन कराते हुए रणभूमिमें विचरने लगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् दहतः सैन्यं दृष्ट्वा चैव पराक्रमम्।
सर्वे शान्तिपरा योधा धार्तराष्ट्रस्य पश्यतः ॥ १५ ॥

मूलम्

तस्य तद् दहतः सैन्यं दृष्ट्वा चैव पराक्रमम्।
सर्वे शान्तिपरा योधा धार्तराष्ट्रस्य पश्यतः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरव-योद्धाओंको दग्ध करनेवाले अर्जुनका वह पराक्रम देखकर सभी सैनिक दुर्योधनके सामने ही ठण्डे पड़ गये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वित्रासयित्वा तत् सैन्यं द्रावयित्वा महारथान्।
अर्जुनो जयतां श्रेष्ठः पर्यवर्तत भारत ॥ १६ ॥

मूलम्

वित्रासयित्वा तत् सैन्यं द्रावयित्वा महारथान्।
अर्जुनो जयतां श्रेष्ठः पर्यवर्तत भारत ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ अर्जुन उस सेनाको भयभीत करके (सामने आये हुए) महारथियोंको भगाकर रणभूमिमें चारों ओर घूमने लगे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रावर्तयन्नदीं घोरां शोणितोदां तरङ्गिणीम्।
अस्थिशैवालसम्बाधां युगान्ते कालनिर्मिताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

प्रावर्तयन्नदीं घोरां शोणितोदां तरङ्गिणीम्।
अस्थिशैवालसम्बाधां युगान्ते कालनिर्मिताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थने उस समय वहाँ खुनकी नदी बहा दी; जो बड़ी ही भयंकर थी। उसमें जलकी जगह रक्तकी धारा बहती थी तथा रक्तकी ही तरंगें उठती थीं। हड्डियाँ ही उसमें सेवार बनकर छा रही थीं। जान पड़ता था, प्रलयकालमें साक्षात् कालने ही उसका निर्माण किया हो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरचापप्लवां घोरां केशशैवलशाद्वलाम् ।
तनुत्रोष्णीषसम्बाधां नागकूर्ममहाद्विपाम् ॥ १८ ॥

मूलम्

शरचापप्लवां घोरां केशशैवलशाद्वलाम् ।
तनुत्रोष्णीषसम्बाधां नागकूर्ममहाद्विपाम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें धनुष और बाण ऐसे बहते थे, मानो डोंगियाँ चल रही हों। उसका स्वरूप बड़ा भयानक लगता था। केश उसमें सेवार और घासके समान प्रतीत होते थे। उसमें वीरोंके कवच और पगड़ियाँ भरी थीं। हाथी कछुओं और बड़े-बड़े जलहस्तियोंके समान जान पड़ते थे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेदोवसासृक्‌प्रवहां महाभयविवर्धिनीम् ।
रौद्ररूपां महाभीमां श्वापदैरभिनादिताम् ॥ १९ ॥

मूलम्

मेदोवसासृक्‌प्रवहां महाभयविवर्धिनीम् ।
रौद्ररूपां महाभीमां श्वापदैरभिनादिताम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेदा, चर्बी तथा रुधिरको बहानेवाली वह नदी महान् भयको बढ़ानेवाली थी। उसकी स्थिति बड़ी भीषण थी। उस रौद्ररूपा नदीके तटपर (रक्तभोजी) हिंसक जन्तु कोलाहल कर रहे थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीक्ष्णशस्त्रमहाग्राहां क्रव्यादगणसेविताम् ।
मुक्ताहारोर्मिकलिलां चित्रालंकारबुद्‌बुदाम् ॥ २० ॥

मूलम्

तीक्ष्णशस्त्रमहाग्राहां क्रव्यादगणसेविताम् ।
मुक्ताहारोर्मिकलिलां चित्रालंकारबुद्‌बुदाम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीखे शस्त्र उसके भीतर बड़े-बड़े ग्राहोंके समान जान पड़ते थे। मांसभोजी जीव-जन्तु वहाँ निवास करते थे। मोतियोंकी मालाएँ लहरोंके समान जान पड़ती थीं। विचित्र आभूषण उसमें उठते हुए जलके बुलबुले-जैसे प्रतीत होते थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरसंघमहावर्तां नागनक्रां दुरत्ययाम् ।
महारथमहाद्वीपां शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनाम् ।
चकार च तदा पार्थो नदीं दुस्तरशोणिताम् ॥ २१ ॥

मूलम्

शरसंघमहावर्तां नागनक्रां दुरत्ययाम् ।
महारथमहाद्वीपां शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनाम् ।
चकार च तदा पार्थो नदीं दुस्तरशोणिताम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाणोंके समूह बड़ी-बड़ी भँवरें थे। हाथी घड़ियालों-से जान पड़ते थे; अतः उसके पार जाना अत्यन्त कठिन था। बड़े-बड़े रथ उसके भीतर विशाल टापू-जैसे प्रतीत होते थे। शंख और नगाड़ोंकी आवाज ही उस नदीकी कलकल ध्वनि थी। इस प्रकार अर्जुनने वहाँ खूनकी दुर्लङ्घ्य नदी बहा दी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आददानस्य हि शरान् संधाय च विमुञ्चतः।
विकर्षतश्च गाण्डीवं न कश्चिद् ददृशे जनः ॥ २२ ॥

मूलम्

आददानस्य हि शरान् संधाय च विमुञ्चतः।
विकर्षतश्च गाण्डीवं न कश्चिद् ददृशे जनः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन कब बाण हाथमें लेते, गाण्डीव धनुषपर रखते, उसकी प्रत्यंचा खींचते और बाण छोड़ते हैं, यह कोई भी मनुष्य नहीं देख पाता था॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि अर्जुनसंकुलयुद्धे द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें अर्जुनके संकुलयुद्धसे सम्बन्ध रखनेवाला बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६२॥