०६१ अर्जुनदुःशासनादियुद्धे

भागसूचना

एकषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका उत्तरकुमारको आश्वासन तथा अर्जुनसे दुःशासन आदिकी पराजय

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वैकर्तनं जित्वा पार्थो वैराटिमब्रवीत्।
एतन्मां प्रापयानीकं यत्र तालो हिरण्मयः ॥ १ ॥

मूलम्

ततो वैकर्तनं जित्वा पार्थो वैराटिमब्रवीत्।
एतन्मां प्रापयानीकं यत्र तालो हिरण्मयः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार वैकर्तन कर्णको जीतकर अर्जुनने विराटकुमार उत्तरसे कहा—‘सारथे! तुम मुझे इस सेनाकी ओर ले चलो, जिसकी ध्वजापर सुवर्णमय ताड़ वृक्षका चिह्न है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र शान्तनवो भीष्मो रथेऽस्माकं पितामहः।
काङ्क्षमाणो मया युद्धं तिष्ठत्यमरदर्शनः ॥ २ ॥

मूलम्

अत्र शान्तनवो भीष्मो रथेऽस्माकं पितामहः।
काङ्क्षमाणो मया युद्धं तिष्ठत्यमरदर्शनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस रथपर हम सबके पितामह शान्तनुनन्दन भीष्मजी बैठे हैं। वे मेरे साथ युद्धकी इच्छा रखकर खड़े हैं। उनका दर्शन देवताओंके समान है’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ सैन्यं महद् दृष्ट्वा रथनागहयाकुलम्।
अब्रवीदुत्तरः पार्थमपविद्धः शरैर्भृशम् ॥ ३ ॥
नाहं शक्ष्यामि वीरेह नियन्तुं ते हयोत्तमान्।
विषीदन्ति मम प्राणा मनो विह्वलतीव मे ॥ ४ ॥

मूलम्

अथ सैन्यं महद् दृष्ट्वा रथनागहयाकुलम्।
अब्रवीदुत्तरः पार्थमपविद्धः शरैर्भृशम् ॥ ३ ॥
नाहं शक्ष्यामि वीरेह नियन्तुं ते हयोत्तमान्।
विषीदन्ति मम प्राणा मनो विह्वलतीव मे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर उत्तरने, जो बाणोंसे अत्यन्त घायल हो चुका था, रथों, हाथियों और घोड़ोंसे भरी हुई विशाल सेनाकी ओर देखकर कहा—‘वीर! अब मैं युद्धभूमिमें आपके उत्तम घोड़ोंको नहीं सँभाल सकूँगा। मेरे प्राण बड़ी व्यथामें हैं और मन व्याकुल-सा हो रहा है’॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्राणामिव दिव्यानां प्रभावः सम्प्रयुज्यताम्।
त्वया च कुरुभिश्चैव द्रवन्तीव दिशो दश ॥ ५ ॥

मूलम्

अस्त्राणामिव दिव्यानां प्रभावः सम्प्रयुज्यताम्।
त्वया च कुरुभिश्चैव द्रवन्तीव दिशो दश ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके तथा कौरव वीरोंके द्वारा प्रयुक्त होनेवाले दिव्यास्त्रोंका प्रभाव यह है कि मुझे दसों दिशाएँ भागती-सी प्रतीत होती हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्धेन मूर्च्छितश्चाहं वसारुधिरमेदसाम् ।
द्वैधीभूतं मनो मेऽद्य तव चैव प्रपश्यतः ॥ ६ ॥

मूलम्

गन्धेन मूर्च्छितश्चाहं वसारुधिरमेदसाम् ।
द्वैधीभूतं मनो मेऽद्य तव चैव प्रपश्यतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं चर्बी, रक्त और मेदकी गन्धसे मूर्च्छित हो रहा हूँ। आज आपके देखते-देखते मेरा मन दुविधामें पड़ गया है’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृष्टपूर्वः शूराणां मया संख्ये समागमः।
गदापातेन महता शङ्खानां निःस्वनेन च ॥ ७ ॥
सिंहनादैश्च शूराणां गजानां बृंहितैस्तथा।
गाण्डीवशब्देन भृशमशनिप्रतिमेन च ।
श्रुतिः स्मृतिश्च मे वीर प्रणष्टा मूढचेतसः ॥ ८ ॥

मूलम्

अदृष्टपूर्वः शूराणां मया संख्ये समागमः।
गदापातेन महता शङ्खानां निःस्वनेन च ॥ ७ ॥
सिंहनादैश्च शूराणां गजानां बृंहितैस्तथा।
गाण्डीवशब्देन भृशमशनिप्रतिमेन च ।
श्रुतिः स्मृतिश्च मे वीर प्रणष्टा मूढचेतसः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्धमें इतने शूरवीरोंका जमघट मैंने पहले कभी नहीं देखा था। वीरवर! गदाओंके भारी आघात, शंखोंके भयंकर शब्द, शूरवीरोंके सिंहनाद, हाथियोंके चिग्घाड़ तथा वज्रकी गड़गड़ाहटके समान गाण्डीव धनुषकी भारी टंकारध्वनिसे मेरा चित्त मोहित हो गया है। मेरी श्रवणशक्ति और स्मरणशक्ति भी जवाब दे चुकी है॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलातचक्रप्रतिमं मण्डलं सततं त्वया।
व्याक्षिप्यमाणं समरे गाण्डीवं च प्रकर्षता।
दृष्टिः प्रचलिता वीर हृदयं दीर्यतीव मे ॥ ९ ॥

मूलम्

अलातचक्रप्रतिमं मण्डलं सततं त्वया।
व्याक्षिप्यमाणं समरे गाण्डीवं च प्रकर्षता।
दृष्टिः प्रचलिता वीर हृदयं दीर्यतीव मे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रणभूमिमें आप निरन्तर गाण्डीव धनुषको खींचते और टंकारते रहते हैं, जिससे यह अलातचक्रके समान गोल प्रतीत होता है। उसे देखकर मेरी आँखें चौधियाँ रही हैं तथा हृदय फटा-सा जा रहा है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वपुश्चोग्रं तव रणे क्रुद्धस्येव पिनाकिनः।
व्यायच्छतस्तव भुजं दृष्ट्वा भीर्मे भवत्यपि ॥ १० ॥

मूलम्

वपुश्चोग्रं तव रणे क्रुद्धस्येव पिनाकिनः।
व्यायच्छतस्तव भुजं दृष्ट्वा भीर्मे भवत्यपि ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस संग्राममें कुपित हुए पिनाकपाणि भगवान् रुद्रकी भाँति आपका शरीर भयानक जान पड़ता है और लगातार धनुष-बाण चलानेके व्यायाममें संलग्न रहनेवाले आपकी भुजाओंको देखकर भी मुझे भय लगता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाददानं न संधानं न मुञ्चन्तं शरोत्तमान्।
त्वामहं सम्प्रपश्यामि पश्यन्नपि न चेतनः ॥ ११ ॥

मूलम्

नाददानं न संधानं न मुञ्चन्तं शरोत्तमान्।
त्वामहं सम्प्रपश्यामि पश्यन्नपि न चेतनः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप कब उत्तम बाणोंको हाथमें लेते, कब धनुषपर रखते और कब उन्हें छोड़ते हैं, यह सब मैं नहीं देख पाता और देखनेपर भी मुझे चेत नहीं रहता॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवसीदन्ति मे प्राणा भूरियं चलतीव च।
न च प्रतोदं रश्मींश्च संयन्तुं शक्तिरस्ति मे ॥ १२ ॥

मूलम्

अवसीदन्ति मे प्राणा भूरियं चलतीव च।
न च प्रतोदं रश्मींश्च संयन्तुं शक्तिरस्ति मे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय मेरे प्राण अकुला रहे हैं। यह पृथ्वी काँपती-सी जान पड़ती है। इस समय मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि घोड़ोंकी रास सँभालूँ और चाबुक लेकर इन्हें हाँकूँ’॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा भैषीः स्तम्भयात्मानं त्वयापि नरपुङ्गव।
अत्यद्‌भुतानि कर्माणि कृतानि रणमूर्धनि ॥ १३ ॥

मूलम्

मा भैषीः स्तम्भयात्मानं त्वयापि नरपुङ्गव।
अत्यद्‌भुतानि कर्माणि कृतानि रणमूर्धनि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— नरश्रेष्ठ! डरो मत। अपने-आपको सँभालो। तुमने भी युद्धके मुहानेपर बड़े अद्‌भुत पराक्रम दिखाये हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजपुत्रोऽसि भद्रं ते कुले मत्स्यस्य विश्रुते।
जातस्त्वं शत्रुदमने नावसीदितुमर्हसि ॥ १४ ॥
धृतिं कृत्वा सुविपुलां राजपुत्र रथे मम।
युध्यमानस्य समरे हयान् संयच्छ शत्रुहन् ॥ १५ ॥

मूलम्

राजपुत्रोऽसि भद्रं ते कुले मत्स्यस्य विश्रुते।
जातस्त्वं शत्रुदमने नावसीदितुमर्हसि ॥ १४ ॥
धृतिं कृत्वा सुविपुलां राजपुत्र रथे मम।
युध्यमानस्य समरे हयान् संयच्छ शत्रुहन् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम राजकुमार हो। तुम्हारा कल्याण हो। तुमने मत्स्यनरेशके विख्यात वंशमें जन्म ग्रहण किया है; अतः शत्रुओंके संहारके अवसरपर तुम्हें शिथिल नहीं होना चाहिये। राजपुत्र! तुम तो शत्रुओंका नाश करनेवाले हो, अतः पूर्णरूपसे धैर्य धारण करके रथपर बैठो और युद्ध करते समय मेरे घोड़ोंको काबूमें रखो॥१४-१५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा महाबाहुर्वैराटिं नरसत्तमः ।
अर्जुनो रथिनां श्रेष्ठ उत्तरं वाक्यमब्रवीत् ॥ १६ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा महाबाहुर्वैराटिं नरसत्तमः ।
अर्जुनो रथिनां श्रेष्ठ उत्तरं वाक्यमब्रवीत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार समझा-बुझाकर रथियोंमें श्रेष्ठ और मनुष्योंमें सर्वोत्तम महाबाहु अर्जुन विराट-कुमार उत्तरसे पुनः यह वचन बोले—॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेनाग्रमाशु भीष्मस्य प्रापयस्वैतदेव माम्।
आच्छेत्स्याम्यहमेतस्य धनुर्ज्यामपि चाहवे ॥ १७ ॥

मूलम्

सेनाग्रमाशु भीष्मस्य प्रापयस्वैतदेव माम्।
आच्छेत्स्याम्यहमेतस्य धनुर्ज्यामपि चाहवे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजकुमार! तुम शीघ्र ही पितामह भीष्मकी इसी सेनाके सामने मेरा रथ ले चलो, मुझे पहुँचाओ। इस युद्धमें मैं इनकी प्रत्यंचा भी काट डालूँगा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्यन्तं दिव्यमस्त्रं मां चित्रमद्य निशामय।
शतह्रदामिवायान्तीं स्तनयित्नोरिवाम्बरे ॥ १८ ॥
सुवर्णपृष्ठं गाण्डीवं द्रक्ष्यन्ति कुरवो मम।
दक्षिणेनाथ वामेन कतरेण स्विदस्यति ॥ १९ ॥
इति मां सङ्गताः सर्वे तर्कयिष्यन्ति शत्रवः।
शोणितोदां रथावर्तां नागनक्रां दुरत्ययाम्।
नदीं प्रस्कन्दयिष्यामि परलोकप्रवाहिनीम् ॥ २० ॥

मूलम्

अस्यन्तं दिव्यमस्त्रं मां चित्रमद्य निशामय।
शतह्रदामिवायान्तीं स्तनयित्नोरिवाम्बरे ॥ १८ ॥
सुवर्णपृष्ठं गाण्डीवं द्रक्ष्यन्ति कुरवो मम।
दक्षिणेनाथ वामेन कतरेण स्विदस्यति ॥ १९ ॥
इति मां सङ्गताः सर्वे तर्कयिष्यन्ति शत्रवः।
शोणितोदां रथावर्तां नागनक्रां दुरत्ययाम्।
नदीं प्रस्कन्दयिष्यामि परलोकप्रवाहिनीम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज मुझे विचित्र दिव्यास्त्रोंका प्रहार करते देखो। जैसे आकाशमें मेघोंकी घटासे बिजली प्रकट होती है, उसी प्रकार (बाणोंकी विद्युच्छटा प्रकट करनेवाले) मेरे गाण्डीव धनुषको, जिसके पृष्ठभागमें सोना मढ़ा है, आज कौरवलोग विस्मित होकर देखेंगे। आज सारी शत्रुमण्डली इकट्ठी होकर यह अनुमान लगायेगी कि अर्जुन किस हाथसे बाण चलाते हैं? दाहिने हाथसे या बायेंसे? आज मैं परलोककी ओर प्रवाहित होनेवाली (शत्रुसेनारूप) दुर्लङ्घ्य नदीको मथ डालूँगा, जिसमें रक्त ही जल है, रथ भँवर हैं और हाथी ग्राहके स्थानमें हैं॥१८—२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाणिपादशिरःपृष्ठबाहुशाखानिरन्तरम् ।
वनं कुरूणां छेत्स्यामि शरैः संनतपर्वभिः ॥ २१ ॥

मूलम्

पाणिपादशिरःपृष्ठबाहुशाखानिरन्तरम् ।
वनं कुरूणां छेत्स्यामि शरैः संनतपर्वभिः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा कौरवसेनारूपी जंगलको काट डालूँगा। हाथ, पैर, सिर, पृष्ठ (पीठ) तथा बाहु आदि अङ्ग ही विविध शाखाओंके रूपमें फैलकर इस कौरव-वनको सघन किये हुए हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयतः कौरवीं सेनामेकस्य मम धन्विनः।
शतं मार्गा भविष्यन्ति पावकस्येव कानने ॥ २२ ॥

मूलम्

जयतः कौरवीं सेनामेकस्य मम धन्विनः।
शतं मार्गा भविष्यन्ति पावकस्येव कानने ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे वनमें लगे हुए दावानलको आगे बढ़नेके लिये सैकड़ों मार्ग सुलभ होते हैं, उसी प्रकार कौरवसेनापर विजय पानेवाले मुझ एकमात्र धनुर्धर वीरके लिये इसमें सैकड़ों मार्ग प्रकट हो जायँगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया चक्रमिवाविद्धं सैन्यं द्रक्ष्यसि केवलम्।
इष्वस्त्रे शिक्षितं चित्रमहं दर्शयितास्मि ते ॥ २३ ॥

मूलम्

मया चक्रमिवाविद्धं सैन्यं द्रक्ष्यसि केवलम्।
इष्वस्त्रे शिक्षितं चित्रमहं दर्शयितास्मि ते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे बाणोंसे घायल हुई सारी सेनाको तुम चक्रकी भाँति घूमती हुई देखोगे। आज तुम्हें बाणविद्यामें प्राप्त की हुई अपनी विचित्र शिक्षाका परिचय कराऊँगा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्भ्रान्तो रथे तिष्ठ समेषु विषमेषु च।
दिवमावृत्य तिष्ठन्तं गिरिं भिन्द्यां स्म पत्रिभिः ॥ २४ ॥

मूलम्

असम्भ्रान्तो रथे तिष्ठ समेषु विषमेषु च।
दिवमावृत्य तिष्ठन्तं गिरिं भिन्द्यां स्म पत्रिभिः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम सम-विषम (ऊँची-नीची) भूमियोंमें सम्भ्रमरहित (सावधान) होकर रथपर बैठो (और घोड़ोंकी सँभाल रखो)। आज मैं सारे आकाशको घेरकर खड़े हुए (महान्) पर्वतको भी अपने बाणोंसे विदीर्ण कर डालूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमिन्द्रस्य वचनात् संग्रामेऽभ्यहनं पुरा।
पौलोमान् कालखञ्जांश्च सहस्राणि शतानि च ॥ २५ ॥

मूलम्

अहमिन्द्रस्य वचनात् संग्रामेऽभ्यहनं पुरा।
पौलोमान् कालखञ्जांश्च सहस्राणि शतानि च ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने पहले देवराज इन्द्रकी आज्ञासे युद्धमें उनके शत्रु पौलोम और कालखंज नामक लाखों दानवोंका वध किया है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमिन्द्राद् दृढां मुष्टिं ब्रह्मणः कृतहस्तताम्।
प्रगाढे तुमुलं चित्रमिति विद्धि प्रजापतेः ॥ २६ ॥

मूलम्

अहमिन्द्राद् दृढां मुष्टिं ब्रह्मणः कृतहस्तताम्।
प्रगाढे तुमुलं चित्रमिति विद्धि प्रजापतेः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि मैंने धनुष पकड़ते समय मुट्ठीको दृढ़ रखना इन्द्रसे, बाण चलाते समय हाथोंकी फुर्ती ब्रह्माजीसे तथा संकटके समय विचित्र प्रकारसे तुमुल युद्ध करनेकी कला प्रजापतिसे सीखी है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं पारे समुद्रस्य हिरण्यपुरवासिनाम्।
जित्वा षष्टिं सहस्राणि रथिनामुग्रधन्विनाम् ॥ २७ ॥

मूलम्

अहं पारे समुद्रस्य हिरण्यपुरवासिनाम्।
जित्वा षष्टिं सहस्राणि रथिनामुग्रधन्विनाम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पहलेकी बात है, मैंने समुद्रके उस पार हिरण्यपुरमें निवास करनेवाले साठ हजार अत्यन्त भयंकर धनुर्धर महारथियोंको परास्त किया था॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीर्यमाणानि कूलानि प्रवृद्धेनेव वारिणा।
मया कुरूणां वृन्दानि पात्यमानानि पश्य वै ॥ २८ ॥

मूलम्

शीर्यमाणानि कूलानि प्रवृद्धेनेव वारिणा।
मया कुरूणां वृन्दानि पात्यमानानि पश्य वै ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज देख लेना, जैसे प्रबल वेगसे आयी हुई जलकी बाढ़ किनारोंको काट-काटकर गिरा देती है, उसी प्रकार मैं कौरवदलके सैन्यसमूहोंको मार गिराऊँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वजवृक्षं पत्तितृणं रथसिंहगणायुतम् ।
वनमादीपयिष्यामि कुरूणामस्त्रतेजसा ॥ २९ ॥

मूलम्

ध्वजवृक्षं पत्तितृणं रथसिंहगणायुतम् ।
वनमादीपयिष्यामि कुरूणामस्त्रतेजसा ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरवोंकी सेना एक जंगलके समान है, उसमें ध्वज ही वृक्ष हैं, पैदल सैनिक घास-फूस हैं तथा रथ ही सिंहोंके स्थानमें हैं। मैं अपने अस्त्र-शस्त्ररूपी अग्निसे आज इस कौरववनको जलाकर भस्म कर दूँगा॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानहं रथनीडेभ्यः शरैः संनतपर्वभिः।
यत्तान्‌ सर्वानतिबलान्‌ योत्स्यमानानवस्थितान् ।
एकः संकालयिष्यामि वज्रपाणिरिवासुरान् ॥ ३० ॥

मूलम्

तानहं रथनीडेभ्यः शरैः संनतपर्वभिः।
यत्तान्‌ सर्वानतिबलान्‌ योत्स्यमानानवस्थितान् ।
एकः संकालयिष्यामि वज्रपाणिरिवासुरान् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे व्याध घोंसलेमें बैठे हुए पक्षियोंको भी मार गिराता है, उसी प्रकार मैं मुड़ी हुई नोकवाले (तीखे) बाणोंसे मारकर उन सभी कौरववीरोंको रथोंकी बैठकोंसे नीचे गिरा दूँगा। जैसे वज्रधारी इन्द्र अकेले ही समस्त असुरोंका संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार मैं भी अकेला ही यहाँ युद्धके लिये सावधान होकर खड़े हुए समस्त महाबली योद्धाओंका भलीभाँति विनाश कर डालूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रौद्रं रुद्रादहं ह्यस्त्रं वारुणं वरुणादपि।
अस्त्रमाग्नेयमग्नेश्च वायव्यं मातरिश्वनः ।
वज्रादीनि तथास्त्राणि शक्रादहमवाप्तवान् ॥ ३१ ॥

मूलम्

रौद्रं रुद्रादहं ह्यस्त्रं वारुणं वरुणादपि।
अस्त्रमाग्नेयमग्नेश्च वायव्यं मातरिश्वनः ।
वज्रादीनि तथास्त्राणि शक्रादहमवाप्तवान् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने भगवान् रुद्रसे रौद्रास्त्रकी, वरुणसे वारुणास्त्रकी, अग्निसे आग्नेयास्त्रकी और वायु देवतासे वायव्यास्त्रकी शिक्षा प्राप्त की है। इसी प्रकार साक्षात् इन्द्रसे मैंने वज्र आदि अस्त्र प्राप्त किये हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धार्तराष्ट्रवनं घोरं नरसिंहाभिरक्षितम् ।
अहमुत्पाटयिष्यामि वैराटे व्येतु ते भयम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

धार्तराष्ट्रवनं घोरं नरसिंहाभिरक्षितम् ।
अहमुत्पाटयिष्यामि वैराटे व्येतु ते भयम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर मानवरूपी सिंहोंसे सुरक्षित इस भयंकर कौरववनको मैं अकेला ही उजाड़ डालूँगा, अतः विराटकुमार! तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये’॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमाश्वासितस्तेन वैराटिः सव्यसाचिना ।
व्यवागाहद् रथानीकं भीमं भीष्माभिरक्षितम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवमाश्वासितस्तेन वैराटिः सव्यसाचिना ।
व्यवागाहद् रथानीकं भीमं भीष्माभिरक्षितम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! सव्यसाची अर्जुनके इस प्रकार सान्त्वना देनेपर विराटकुमार उत्तरने भीष्मजीके द्वारा सब ओरसे सुरक्षित रथियोंकी भयंकर सेनामें प्रवेश किया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमायान्तं महाबाहुं जिगीषन्तं रणे कुरून्।
अभ्यवारयदव्यग्रः क्रूरकर्माऽऽपगासुतः ॥ ३४ ॥

मूलम्

तमायान्तं महाबाहुं जिगीषन्तं रणे कुरून्।
अभ्यवारयदव्यग्रः क्रूरकर्माऽऽपगासुतः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रणभूमिमें कौरवोंको जीतनेकी इच्छासे आते हुए महाबाहु अर्जुनको कठोर कर्म करनेवाले गंगानन्दन भीष्मने बिना किसी घबराहटके रोक दिया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य जिष्णुरुपावृत्य ध्वजं मूलादपातयत्।
विकृष्य कलधौताग्रैः स विद्धः प्रापतद् भुवि ॥ ३५ ॥

मूलम्

तस्य जिष्णुरुपावृत्य ध्वजं मूलादपातयत्।
विकृष्य कलधौताग्रैः स विद्धः प्रापतद् भुवि ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुनने उनकी ओर घूमकर सुनहरी धारवाले बाणोंसे भीष्मजीकी ध्वजाको जड़से काट गिराया, बाणोंसे छिद जानेके कारण वह ध्वजा पृथ्वीपर गिर पड़ी॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं चित्रमाल्याभरणाः कृतविद्या मनस्विनः।
आगच्छन् भीमधन्वानं चत्वारश्च महाबलाः ॥ ३६ ॥
दुःशासनो विकर्णश्च दुःसहोऽथ विविंशतिः।
आगत्य भीमधन्वानं बीभत्सुं पर्यवारयन् ॥ ३७ ॥

मूलम्

तं चित्रमाल्याभरणाः कृतविद्या मनस्विनः।
आगच्छन् भीमधन्वानं चत्वारश्च महाबलाः ॥ ३६ ॥
दुःशासनो विकर्णश्च दुःसहोऽथ विविंशतिः।
आगत्य भीमधन्वानं बीभत्सुं पर्यवारयन् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेहीमें विचित्र माला और आभूषणोंसे विभूषित और अस्त्रसंचालनकी विद्यामें निपुण चार महाबली मनस्वी वीर दुःशासन, विकर्ण, दुःसह और विविंशति वहाँ भयंकर धनुषवाले अर्जुनपर चढ़ आये और वहाँ आकर उन्होंने उग्रधन्वा बीभत्सुको चारों ओरसे घेर लिया॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासनस्तु भल्लेन विद्‌ध्वा वैराटमुत्तरम्।
द्वितीयेनार्जुनं वीरः प्रत्यविध्यत् स्तनान्तरे ॥ ३८ ॥

मूलम्

दुःशासनस्तु भल्लेन विद्‌ध्वा वैराटमुत्तरम्।
द्वितीयेनार्जुनं वीरः प्रत्यविध्यत् स्तनान्तरे ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर दुःशासनने भल्ल नामक एक बाणसे विराटकुमार उत्तरको घायल करके दूसरेसे अर्जुनकी छाती छेद डाली॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य जिष्णुरुपावृत्य पृथुधारेण कार्मुकम्।
चकर्त गार्ध्रपत्रेण जातरूपपरिष्कृतम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

तस्य जिष्णुरुपावृत्य पृथुधारेण कार्मुकम्।
चकर्त गार्ध्रपत्रेण जातरूपपरिष्कृतम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुन उसकी ओर मुड़े और मोटी धार और गीधकी पाँख-जैसे पंखवाले बाणसे उन्होंने दुःशासनके सुवर्णजटित धनुषको काट डाला॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनं पञ्चभिः पश्चात् प्रत्यविध्यत् स्तनान्तरे।
सोऽपयातो रणं हित्वा पार्थबाणप्रपीडितः ॥ ४० ॥

मूलम्

अथैनं पञ्चभिः पश्चात् प्रत्यविध्यत् स्तनान्तरे।
सोऽपयातो रणं हित्वा पार्थबाणप्रपीडितः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उसकी छातीमें भी पाँच बाण मारे। पार्थके बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित हो दुःशासन युद्ध छोड़कर भाग गया॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं विकर्णः शरैस्तीक्ष्णैर्गृध्रपत्रैरजिह्मगैः ।
विव्याध परवीरघ्नमर्जुनं धृतराष्ट्रजः ॥ ४१ ॥

मूलम्

तं विकर्णः शरैस्तीक्ष्णैर्गृध्रपत्रैरजिह्मगैः ।
विव्याध परवीरघ्नमर्जुनं धृतराष्ट्रजः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब धृतराष्ट्रपुत्र विकर्णने शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले अर्जुनको सीधे लक्ष्यकी ओर जानेवाले गृध्रपत्रयुक्त तीखे बाणोंसे बींध डाला॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तमपि कौन्तेयः शरेणानतपर्वणा ।
ललाटेऽभ्यहनत् तूर्णं स विद्धः प्रापतद् रथात् ॥ ४२ ॥

मूलम्

ततस्तमपि कौन्तेयः शरेणानतपर्वणा ।
ललाटेऽभ्यहनत् तूर्णं स विद्धः प्रापतद् रथात् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् कुन्तीनन्दन अर्जुनने झुकी हुई गाँठवाले बाणसे उसको भी ललाटमें बींध डाला। उस बाणसे घायल होकर विकर्ण तुरंत ही रथसे नीचे गिर पड़ा॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पार्थमभिद्रुत्य दुःसहः सविविंशतिः।
अवाकिरच्छरैस्तीक्ष्णैः परीप्सुर्भ्रातरं रणे ॥ ४३ ॥

मूलम्

ततः पार्थमभिद्रुत्य दुःसहः सविविंशतिः।
अवाकिरच्छरैस्तीक्ष्णैः परीप्सुर्भ्रातरं रणे ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दुःसह और विविंशति अर्जुनकी ओर दौड़े और युद्धमें भाईका बदला लेनेके लिये उनके ऊपर तीखे बाणोंकी वर्षा करने लगे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुभौ गार्ध्रपत्राभ्यां निशिताभ्यां धनंजयः।
विद्ध्‌वा युगपदव्यग्रस्तयोर्वाहानसूदयत् ॥ ४४ ॥

मूलम्

तावुभौ गार्ध्रपत्राभ्यां निशिताभ्यां धनंजयः।
विद्ध्‌वा युगपदव्यग्रस्तयोर्वाहानसूदयत् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर धनंजयने गृध्रकी पाँखवाले दो तीखे बाणोंद्वारा उन दोनोंको एक ही साथ घायल करके बिना किसी घबराहटके उनके घोड़ोंको भी मार गिराया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ हताश्वौ विभिन्नाङ्गौ धृतराष्ट्रात्मजावुभौ।
अभिपत्य रथैरन्यैरपनीतौ पदानुगैः ॥ ४५ ॥

मूलम्

तौ हताश्वौ विभिन्नाङ्गौ धृतराष्ट्रात्मजावुभौ।
अभिपत्य रथैरन्यैरपनीतौ पदानुगैः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घोड़ोंके मारे जाने और शरीरके बिंध जानेपर उन दोनों धृतराष्ट्रकुमारोंके पास उनके सेवक आ पहुँचे और उन्हें दूसरे रथपर डालकर अन्यत्र हटा ले गये॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वा दिशश्चाभ्यपतद् बीभत्सुरपराजितः ।
किरीटमाली कौन्तेयो लब्धलक्षो महाबलः ॥ ४६ ॥

मूलम्

सर्वा दिशश्चाभ्यपतद् बीभत्सुरपराजितः ।
किरीटमाली कौन्तेयो लब्धलक्षो महाबलः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसीसे परास्त न होनेवाले किरीट-मालाधारी महाबली कुन्तीनन्दन अर्जुनका निशाना कभी चूकता नहीं था। वे उस सेनामें सब ओर विचरने लगे॥४६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि गोहरणपर्वणि अर्जुनदुःशासनादियुद्धे एकषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत गोहरणपर्वमें अर्जुनदुःशासन आदिके युद्धसे सम्बन्ध रखनेवाला इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६१॥